Saturday, November 29, 2014

विघ्न संतोषियों को चैन नहीं

अशोक मिश्र
दो आदमी रेलवे स्टेशन पर बैठे गाड़ी का इंतजार करने के साथ-साथ बतकूचन कर रहे थे। उनमें से एक ने कहा, 'भाई साहब..ये दुनिया वाले लोग हैं, जीने नहीं देते। आप संकट में हों, तो हथेलियां ठोक कर हंसेंगे, सुखी हों, तो वे इस चिंता में दुबले होते रहेंगे कि अमुक सुखी क्यों है? ये लोग भी न..किसी को सुखी नहीं देख सकते है। अगर आप अपने घर के बाहर खड़े भले ही किसी पेड़-पौधे, गिलहरी-गौरेया को देख रहे हों, लेकिन देखने वाले तो यही समझेंगे कि आप फलां की बीवी को ही घंटे भर से निहार रहे हैं। यह तो हद हो गई, यार। आपकी बीवी भले ही अपने भाई के साथ बाजार जा रही हो, लेकिन मोहगे की औरतें खुसुर-फुसर बतियाती मिल जाएंगी, देखो! कैसे मटक-मटक कर चल रही है। हाय राम..लगता है कोई नया मुर्गा फांसा है।'
दूसरे आदमी ने कंबल को अपने चारों ओर लपेटते हुए कहा, 'सही कह रहे हो, भाई। कुछ विघ्नसंतोषी टाइप की महिलाएं तो आपको यह बताने पहुंच जाएंगी, भाई साहब! भाभी जी पर जरा कसकर निगरानी रखिए। कल वह बाजार में सब्जीवाले से बड़ी देर तक हंस-हंस कर बतिया रही थीं। मुझे तो कुछ गड़बड़ लग रही है। आपको अपना मानती हूं, सो सचेत करने चली आई। बाकी आप जानें, आपका काम जाने।'
पहले वाले ने गंभीरता से सिर हिलाते हुए कहा, 'सही कह रहे हो भइया। भला बताओ.. अगर मंत्री महोदया अपना हाथ दिखाने ज्योतिषी के पास चली ही गईं, तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट पड़ा? लेकिन इस देश के विघ्न संतोषियों को क्या कहा जाए। उन्हें यह भी रास नहीं आया। लगे बात का बतंगड़ बनाने। अरे वे मंत्री हो गईं, तो क्या उनका निजी जीवन ही नहीं रहा। मंत्री होने के अलावा वे महिला हैं, उनके भी बाल-बच्चेे हैं, घर-परिवार है। अब अगर उन्हें अपने भविष्य की चिंता है, अपने करियर की चिंता है, तो इसमें गलत क्या है?
 मंत्री होने का यह मतलब नहीं है कि वे अपने करियर की उन्नति के बारे में न सोचें। किसी से राय-मशविरा ही न लें। भला बताओ, किसी सरकारी या निजी संस्थान में काम करने वाला चपरासी भी यह सोचता है कि वह मुख्य चपरासी, फिर जूनियर क्लर्क, फिर हेड क्लर्क और फिर धीरे-धीरे निदेशक की कुर्सी तक कैसे पहुंचेगा। मंत्री महोदया ने भी यह पूछ लिया कि वे अब आगे क्या बनेंगी, तो इसमें बुरा क्या है? लोगों को यह भी नहीं पच रहा है। कई तरह की बातें कर रहे हैं। जानते हैं, अगरमेरा वश चले,तो इन विघ्नसंतोषियों को कानून बनाकर देश निकाला दे दूं।' तभी उन दोनों की गाड़ी प्लेटफार्म पर आकर खड़ी हो गई और दोनों बातचीत बीच में ही छोड़कर जनरल डिब्बे की ओर बढ़ गए।

Wednesday, November 26, 2014

चूहा और व्यंग्यकार

-अशोक मिश्र
नवंबर महीने की एक सुबह सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार पीड़ित जी सपने में अपनी सालियों से ठिठोली कर रहे थे। उन्होंने अपना बिस्तर जमीन पर लगा रखा था, ताकि सुहाने सपने देखने में धर्मपत्नी सुमुखी के खर्राटे बाधक न बनें। तभी प्रथम पूज्य गजानन के वाहन एक मोटे ताजे मूषकराज दबे पांव उनके पास पहुंचे। पीड़ित  जी की सारी काया गर्म कंबल में लिपटी हुई थी। सपने में शायद उन्होंने अपनी किसी साली को दायें हाथ की कोई अंगुली पकड़ा रखी थी, सो वही गर्म कंबल से बाहर थी। मूषकराज को जब कुछ नहीं सूझा, तो उसने पीड़ित जी के दायें हाथ की कानी अंगुली (कनिष्ठा) में अपने पैने दांत चुभो दिए। सालियों से होती अठखेलियों में बाधा पड़ी, तो पीड़ित जी की नींद तत्काल टूट गई। पट से उन्होंने आंख खोल दी। सामने मूषकराज को देखते ही वे तमतमा उठे। मूषक राज ने उन्हें उठते देखा, तो वह प्राण छोड़कर बचने के लिए भागा। पीड़ित जी भी पक्के व्यंग्यकार थे। सो, उन्होंने मूषक राज को 'तेरी तो...Ó कहते हुए खदेड़ लिया। कमरे के सारे दरवाजे-खिड़की बंद थे। अब मूषकराज भागकर जाएं तो कहां जाएं। पकड़ ही लिए गए कमरे के एक कोने में। पीड़ित जी गुर्राए, 'रे पूंजीपतियों के दलाल मध्यम वर्ग के प्रतिनिधि मूषकराज! तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई देश के व्यंग्यकार शिरोमणि पीड़ित की अंगुली में काटने की? तुझको तनिक भी लज्जा नहीं आई मेरी अंगुली से रक्त का अवशोषण करने में।Ó
मूषक राज उनकी गरजती हुई आवाज से सहम गया। अपनी थूथुन के दायें-बायें उगी एक-एक बाल वाली मूंछों को अपने दोनों अगले पैरों (हाथों) से दबाकर विनीत भाव से बोला, 'क्षमा देव...क्षमा। मैंने आपके रक्त शोषण के इरादे से नहीं काटा था। आपमें रक्त या मांस अवशेष ही कहां हैं? अगर आप मेरी जान बख्शने का वायदा करें, तो मैं कुछ निवेदन करूं। मैं इंदौर से अपनी जान बचाकर आ रहा हूं।Ó पीड़ित जी गुर्राए, 'यह झांसा तू किसी और को देना। इंदौर से तू अपनी जान बचाता हुआ आगरा आया है। मैं आगरा में भले ही रहता हूं, लेकिन ईश्वर की अनुकंपा से मेरा दिमाग अभी तक ठिकाने है। तू मुझे बेवकूफ समझता है। इंदौर से आ रहा हूं..हुंह..।Ó मूषकराज उनकी उग्रता को देखकर भय से पीला पड़ गया। बोला, 'मैं आपसे झूठ नहीं बोल रहा हूं। इंदौर में किसी चूहे की जान सुरक्षित नहीं है। मामाजी के राज में अब चूहे भी सुरक्षित नहीं रहे। अगर भागकर इधर उधर नहीं गए तो सब मारे जाएंगे।Ó
पीड़ित जी रौद्र से करुण रस में आ गए। बोले, 'ठीक-ठीक समझा मुझे मामला क्या है! वरना...Ó मूषकराज ने बचने की आशा में दायें-बायें देखा, लेकिन कोई गुंजाइश न पाकर बोला, 'आप से अब क्या बताएं। देश के किसी ख्यातिनाम व्यंग्यकार की रचना से प्रभावित होकर इंदौर के एक सरकारी अस्पताल ने 56 लाख रुपये में हम मूषक भाइयों के उन्मूलन का ठेका एक कंपनी को दिया है। उस कंपनी ने हमारे तीन हजार भाइयों को असमय मौत की नींद सुला भी दिया है। अस्पताल ने हमारे हर भाई के मौत की कीमत दो हजार रुपये लगाई है। अब तो हालत यह है कि लोग अस्पताल सिर्फ इसलिए आते हैं कि कहीं से कोई मूषक मिल जाए, तो उनके दो हजार रुपये खरे हो जाएं। इंदौर के मूषकों की 'जान बचाओ समितिÓ ने तय किया है कि इस समस्या के पीछे किसी व्यंग्यकार का ही हाथ है, सो उनकी जान भी कोई व्यंग्यकार ही बचा सकता है। जो व्यंग्यकार मूषकों को मारने की प्रेरणा दे सकता है, वह उन्हें बचाने की भी कोई जुगत निकाल सकता है। व्यंग्यकार को प्रेरित करने का जिम्मा मुझे सौंपा गया है। मैंने आपके हाथ में दंत प्रहार आपको जगाकर अपनी व्यथा बताने के लिए किया है।Ó मूषकराज की बात सुनकर पीड़ित जी ने उसकी  पूंछ पकड़ी और टैरेस पर लाकर पांचवीं मंजिल से नीचे फेंकते हुए कहा, 'जा थोड़ी देर हवा में हवा खा। अब तुझे पता चलेगा कि किसी व्यंग्यकार की अंगुली में काटने का क्या नतीजा होता है?Ó इसके बाद पीड़ित जी फिर सपने में अपनी सालियों को पीड़ित करने लगे।

Saturday, November 15, 2014

शर्म आनी चाहिए रमन सिंह सरकार को

अशोक मिश्र
शर्म और सियासत का आपस में कोई रिश्ता नहीं होता है। नेताओं, मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के साथ-साथ अफसरों से शर्म और नैतिकता की उम्मीद करना बेमानी है। अगर ऐसा नहीं है, तो बिलासपुर के पेंडारी और गौरेला नसबंदी शिविर जैसे हादसों के आरोपी अपने निलंबन पर मुस्कुराते हुए यह नहीं कहते कि चलो..अब सांस में सांस आई। तीन दिन से चैन की नींद सोया नहीं हूं, अब चैन से सोऊं
गा। यह गैरजिम्मेदार ब्यूरोक्रेसी और  सरकारी तंत्र का शर्मनाक चेहरा है। अगर ऐसा नहीं होता, तो ऐसे हादसों के लिए जिम्मेदार अधिकारियों और कर्मचारियों को कठोर सजा जरूर मिलती। अफसोस..जिस तरह रमन सरकार ने नसबंदी हादसे के बाद जिम्मेदार अधिकारियों और कर्मचारियों को बचाने की कोशिश की है, वह शर्मनाक है। मुख्यमंत्री रमन सिंह ने तो मरने वाली महिलाओं के परिजनों को चार-चार लाख रुपये और अस्पतालों में भर्ती महिलाओं को दवाओं के खर्च के अलावा पचास-पचास हजार रुपये देने की घोषणा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। सियासत व्यक्तियों को किस तरह संवेदनहीन बना देती है, इसका बेहतरीन उदाहरण छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार है। रमन सिंह और उनके साथी मंत्रियों में अगर थोड़ी सी भी नैतिकता और संवेदनशीलता होती, तो जिम्मेदार लोगों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने का प्रयास करते और सारी जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे देते और एक उदाहरण देश के सामने पेश करते। जैसा लालबहादुर शास्त्री ने किया था। उन्होंने एक मामूली से रेल हादसे की जिम्मेदारी लेते हुए रेलमंत्री पद से त्यागपत्र दे देकर एक मिसाल पेश की थी कि अगर आप अपने नागरिकों की सेवा ठीक से नहीं कर सकते हैं, तो आपको सत्ता में रहने का कतई अधिकार नहीं है।
आज बिलासपुर के विभिन्न गांवों में मौत का सन्नाटा पसरा हुआ है। नसबंदी शिविरों में मरने वाली औरतें वैसे तो समाज के हित में नसबंदी कराने गई थीं, ताकि देश की बढ़ती आबादी रोकने में उनकी भी भागीदारी रहे। इस शिविर में नसबंदी कराने के बाद लापरवाही के चलते मौत के मुंह में समा जाने वाली कुछ औरतों के बच्चे तो इतने छोटे हैं कि उन बच्चों को अब संभालना, उनके परिवार वालों को मुश्किल हो रहा है। यही नहीं, बिलखते बच्चों और अपना पेट भरने के लिए उनके पास पैसे भी नहीं हैं। किसी तरह मजदूरी करके या वनोपज पर जिंदा रहने वाले लोग अपनी बहन, बेटी, बीवी की मौत का बोझ उठाए किसी तरह जीने को मजबूर हैं। उनके बच्चों का भविष्य अब क्या होगा, इसकी चिंता उन्हें खाए जा रही है।
बिलासपुर के पेंडारी और गौरेला नसबंदी शिविर ने छत्तीसगढ़ ही नहीं, अन्य राज्यों में चलने वाली स्वास्थ्य परियोजनाओं और सरकारी कार्यप्रणाली की कलई खोल दी है। पेंडारी में सरकारी डॉक्टरों की लापरवाही और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से ग्रामीण महिलाओं को जोडऩे वाली मितानिनों के लालच ने डेढ़ दर्जन महिलाओं का जीवन निगल लिया। कई दर्जन महिलाएं विभिन्न अस्पतालों में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रही हैं। नेम बाई सूर्यवंशी, जानकी बाई, रेखा बाई, चंद्रकली पिरैया, पुष्पा बाई ध्रुव और दुलौरीन बाई जैसी महिलाओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिन मितानिनों को अपनी सखी-सहेली की तरह विश्वसनीय मान उनके बहकावे में आकर वे नसबंदी कराने जा रही हैं, वे उन्हें मौत की नींद सुलाने जा रही हैं। कई महिलाएं तो अपने पति, सास-ससुर को बिना बताए ही शिविर में चली आई थीं, अपनी नसबंदी कराने। इन्हें थोड़े से पैसों का लालच भी रहा होगा। लालच तो उन मितानिनों को भी था, जिनको एक नसबंदी कराने के डेढ़ सौ रुपये मिलते थे। अधिक से अधिक महिलाओं की नसबंदी कराने और अपना सालाना लक्ष्य पूरा करने का दबाव उनसे वह करा गया, जिसकी जितनी सजा दी जाए, कम है। कहा तो यह भी जा रहा है कि ये मितानिनें नसबंदी कराने वाली महिलाओं को मिलने वाली रकम में से भी थोड़े बहुत रुपये ऐंठ लेती थीं। इन मितानिनों का अपराध शायद उतना गंभीर नहीं है जितना आपरेशन को अंजाम देने और पूरी व्यवस्था देखने वाले अधिकारियों और डॉक्टरों का है। यह सुनकर बड़ा कोफ्त होता है कि इस इक्कीसवीं सदी में डॉक्टर इतने गैरजिम्मेदार हो सकते हैं कि आपरेशन कराने वाली महिलाओं को चूहे मारने वाली दवा खिला देते हैं। जब उनकी धड़ाधड़ मौत होने लगती है, तो वे दवा सप्लाई करने वाली कंपनियों को इतना मौका प्रदान करते हैं, ताकि वे वहां से कुछ दवाइयों को हटा सकें।
यह वही छत्तीसगढ़ है, जहां पिछले तीन बार से विधानसभा चुनाव जीतकर प्रदेश की सत्ता पर रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार काबिज हुई है। पूरे प्रदेश में रमन सिंह अपनी उपलब्धियों का बखान करते हुए कहते हैं कि छत्तीसगढिय़ा, सबसे बढिय़ा। कोई कैसे भूल सकता है कि यह भाजपा सरकार की ही उपलब्धियां हैं कि यहां दो साल पहले बीमे की रकम और स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर फर्जी बिल उगाहने के चक्कर में ३३४४ महिलाओं के गर्भाशय ही निकाल लिए गए थे। पूरे प्रदेश में जिला स्वास्थ्य केंद्रों में ड़ॉक्टरों, नर्सों और मितानिनों के फैले जाल ने  कुंवारी लड़कियों के भी गर्भाशय यह कहते हुए निकाल दिए थे कि अगर जल्दी ही तुम्हारा गर्भाशय नहीं निकाला गया, तो कैंसर विकराल रूप धारण कर सकता है। बाद में जो खुलासा हुआ, वह चकित कर देने वाला था। गर्भाशय कांड की शिकार गरीब आदिवासी और संरक्षित जनजाति बैगा की महिलाएं, लड़कियां हुई थीं। इस कथित गर्भाशय आपरेशन के नाम पर महिलाओं के परिजनों से तो वसूली की ही गई थी, विभिन्न स्वास्थ्य सेवा योजनाओं के मद में आपरेशन दिखाकर सरकारी पैसे की भी बंदरबांट की गई थी। यही हाल मोतियाबिंद के आपरेशन में भी हुआ। छत्तीसगढ़ में सौ से अधिक लोगों को सरकारी अस्पतालों में मोतियाबिंद का आपरेशन कराने का खामियाजा अपनी आंख गंवाकर चुकाना पड़ा।
पेंडारी और गौरेला नसबंदी कांड में बरती गई लापरवाही अफसोसजनक ही नहीं, क्षुब्ध कर देने वाली भी है। सरकार से लेकर स्वास्थ्य विभाग के निचले स्तर के अधिकारियों का रवैया देखकर कतई नहीं लगता था कि उन्हें इन महिलाओं की मौत का कोई अफसोस भी है। हादसे के बाद बिलासपुर के स्वास्थ्य विभाग से जुड़े अधिकारियों ने निचले स्तर के कर्मचारियों से यह लिखवाने की कोशिश की कि मरने और बीमार पडऩे वाली औरतों की ही सारी जिम्मेदारी है क्योंकि उनके लापरवाही बरतने के चलते ही यह हादसा हुआ है। सच तो यह है कि नसबंदी शिविर उस अस्पताल में लगाया गया जो काफी दिनों से बंद था। नसबंदी आपरेशन करने के दौरान सावधानी भी नहीं बरती गई। महिलाओं को जो दवाइयां दी गईं, उनमें चूहे मारने का केमिकल था।
एक तथ्य और उभर कर सामने आया है कि नसबंदी शिविर में दो बैगा महिलाओं मंगली बाई और चैती बाई की भी नसबंदी की गई। इनकी मौत हो जाने पर जब गांववालों और परिजनों ने चैतीबाई काअंतिम संस्कार करने से मना कर दिया, तो प्रशासन के लोग दो लाख रुपये का चेक लेकर मनाने पहुंचे, ताकि किसी तरह मामले को शांत किया जा सके। दुखद तो यह है कि नसबंदी शिविर के आयोजकों ने यह जानने-बूझने की जरूरत ही नहीं समझी कि बैगा जनजाति को केंद्र सरकार ने संरक्षित घोषित कर रखा है, दमन-द्वीप में पाई जाने वाली जारवा जनजाति की तरह। बैगा और जारवा जनजाति के लोग विलुप्त के कगार पर हैं। हर साल सैकड़ों करोड़ों रुपये इनके संरक्षण पर केंद्र और रा'य सरकारें खर्च करती हैं। इनकी जनसंख्या बढ़ाने और उन्हें जीवन के अनुकूल संसाधन मुहैया कराने की कोशिश की जाती है। ऐसे में बैगा जनजाति की महिलाओं की नसबंदी करने जैसा अपराध तो और भी निंदनीय हो जाता है।

बज्जर पड़े 'किस ऑफ लवÓ पर

अशोक मिश्र
मेरे काफी पुराने मित्र हैं मुसद्दीलाल। मेरे लंगोटिया यार की तरह। हालांकि वे उम्र में मुझसे लगभग पंद्रह साल से ज्यादा बड़े हैं। मेरी दाढ़ी अभी खिचड़ी होनी शुरू हुई है और उनके गिने-चुने काले बाल विदाई मांग रहे हैं। (बात चलने पर बालों पर हाथ फेरते हुए कहते हैं कि बाल तो बचपन में ही धूप में सफेद हो गए थे, उन दिनों जेठ की भरी दुपहरिया में पतंग जो उड़ा करता था।) हम दोनों में काफी पटती है। जब भी मुसद्दी लाल को लगता है कि आज पत्नी से पिट जाएंगे, तो वे भागकर हमारे घर आ जाते हैं। मैं भी ऐसी स्थिति से बचने के लिए उनके घर की शरण लेता हूं। जब भी किसी पार्टी या महफिल में उन्हें जोश चढ़ता है, तो वे बड़े गर्व के साथ यह कहने में संकोच नहीं करते हैं कि मैं रसिक हूं, लेकिन अय्यास नहीं। रसिक होना, न तो बुरा है, न कानून जुर्म। रसिकता तो मुझे विरासत में मिली है। मेरे बाबा ने तो बाकायदा अपना नाम ही रख लिया था, ढकेलूराम 'रसिकÓ। पिता जी संस्कृतनिष्ठ थे, तो उनका तख्लुस रसज्ञ था।
कल चौराहे पर मुझे मुसद्दीलाल मिल गए। उनका मुंह काफी सूजा हुआ था। मुझे देखकर पहले तो उन्होंने इस तरह कन्नी काटने की कोशिश की, मानो उन्होंने मुझे देखा ही नहीं है। मैं जब उनके ठीक सामने जाकर अड़ गया, तो मुझे देखते ही कराह उठे। अपनी दायीं हथेली को बायें गाल पर ले जाकर धीरे से गाल को सहलाया। मैंने बहुत गंभीर होने का अभिनय करते हुए पूछा, 'क्या हुआ भाई साहब! कहीं चोट-वोट लग गई है क्या?Ó मेरी बात को नजरअंदाज करते हुए बोले, 'यार! मोदी जी ने वायदा किया था कि उनकी सरकार आई, तो तीन महीने के अंदर अच्छे दिन आ जाएंगे? क्या अच्छे दिन आ गए, जब टमाटर अभी तक चालीस रुपये किलो पर ही अटका हुआ है।Ó मैंने जवाब देते हुए दोबारा पूछने का दुस्साहस किया, 'अच्छे-वच्छे दिन तो भूल ही जाइए। यह बताइए, आपको हुआ क्या है? आपका मुंह क्यों सूजा हुआ है? कहीं गिर-विर पड़े थे क्या?Ó मुसद्दी लाल ने अपने बायें हाथ में पकड़ा थैला दायें हाथ में लेते हुए कहा, 'यह बताओ, आज आफिस गए थे। सुना है कि फल मंडी के पास बहुत बड़ा जाम लगा था। कोई हीरोइन शहर में आई थी, जो उसी तरफ से गुजरने वाली थी। सो, सुबह से ही जाम लगा था।Ó मैंने खीझते हुए कहा, 'आज मैं फल मंडी की ओर से आफिस नहीं गया था। इसलिए मुझे पता नहीं कि हीरोइन के आने से फल मंडी में जाम लगा था या नहीं। लेकिन मेरी बात को टालिए नहीं। साफ-साफ बताइए, आपको क्या हुआ है? कहीं चोट लगी है? किसी से झगड़ा हुआ है? किसी ने मारा-पीटा है? आप जब तक मुझे अपने चेहरे पर लगी चोटों का हिसाब नहीं दे देंगे, मैं आपके सामने से नहीं हटूंगा। यह मेरी नई किस्म की गांधीगीरी समझ सकते हैं।Ó
मेरी धमकी शायद असर कर गई थी। वे एक बार फिर अपने हाथ को गाल तक ले गए और उसको सहलाते हुए कराह उठे। फिर चारों तरफ देखते हुए बोले, 'यार! क्या बताऊं। 'किस आफ लवÓ के चक्कर में चेहरे का भूगोल बदल गया। यह सब उस नालायक हरीशवा के चलते हुआ है। अगर कहीं मिल गया, तो लोढ़े से उसका मुंह कूंच दूंगा। साला गद्दार..।Ó मैंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, 'अमां यार! तुम लंतरानी ही हांकोगे या कुछ बकोगे भी। हुआ क्या, मामला पूरा बताओ।Ó मुसद्दीलाल ने गहरी सांस ली और बोले, 'परसों आफिस में हरीश आया और बोला कि हमारे मोहल्ले में रुढि़वादियों का विरोध करने के लिए किस ऑफ लव का आयोजन किया गया है। आपको (यानी मुझे) भाग लेना है।Ó मैंने लाख हीलाहवाली की। कई तरह की बातें रखीं। लेकिन वह नहीं माना। मुझे आफिस टाइम के बाद घसीटकर अपने मोहल्ले में ले गया। और फिर वहीं वह हो गया जिसकी कल्पना भी नहीं की थी।Ó अब मेरी समझ में कुछ-कुछ आने लगा था। मैंने पूछा, 'तो जिसको किस करने वाले थे या किया था, उसका कोई भाई, पति या पिता आ गया था क्या?Ó मेरे सवाल पर मुसद्दी लाल एक बार फिर कराह उठे, 'नहीं..साले हरीशवा ने मेरी पत्नी को इसके बारे में बता दिया था।Ó मुसद्दीलाल की बात सुनते ही मैं ठहाका लगाकर हंस पड़ा, 'बज्जर (वज्र) पड़े ऐसे किस ऑफ लव पर।Ó इसके बाद हम दोनों चुपचाप घर लौट आए।

Sunday, November 9, 2014

फिर गए घूरे के भी दिन

-अशोक मिश्र
बचपन में मैं हिंदी की कक्षा में अक्सर पिट जाया करता था। हिंदी के मास्टर साहब का अगर मूड ठीक नहीं होता, तो वे बस मुझसे मुहावरा पूछ बैठते। मैं गड़बड़ा जाता और नतीजा यह होता कि उन्हें मुझे जी भरकर पीटने का बहाना मिल जाता। यह बात तो मैं आज समझ सकता हूं कि गुरु जी घर में दब्बू किस्म के रहे होंगे। वे अपनी पत्नी से ज्यादा तू-तड़ाक नहीं कर पाते रहे होंगे। स्कूल आने से पहले हो सकता है कि घर के बरतन खडक़ जाते रहे होंगे। (एक कहावत है कि जहां चार बरतन यानी आदमी होंगे, खडक़ेंगे ही यानी मार-पिटाई होगी ही।) जैसा कि आम घरों में होता है। अपने दब्बूपने की कुंठा और घर में बरतन खडक़ने की पीड़ा वे मुझे ठोंक-पीटकर निकालते रहे होंगे। पता नहीं, यह मेरा दुर्भाज्य था या हिंदी के मास्टरों की साजिश। यह क्रम पांचवीं कक्षा से शुरू हुआ और बारहवीं कक्षा तक चला। जब भी पास होकर अगली कक्षा में जाता, हिंदी वाले मास्टर साहब किसी न किसी बहाने मुझसे एक ही मुहावरे का अर्थ पूछते थे। वह मुहावरा होता था, बारह साल बाद घूरे के भी दिन फिर जाते हैं। इसको सोदाहरण समझाओ। बस यहीं गड़बड़ हो जाती थी। मैं समझ नहीं पाता था कि भला घूरे के दिन कैसे फिरते हैं? 
ऐसा नहीं था कि मैं घूरा नहीं जानता था। बचपन में जब भी गांव जाता था, तो मेरे बाबा टोकरी भर गोबर मेरे सिर पर रख देते और कहते, जाओ घूरे पर फेंक आओ। मन ही मन भुनभुनाता टोकरी भर गोबर घूरे पर फेंकने चला जाता। मजाल है कि बाबा के आदेश के खिलाफ कोई चूं भी करे। यह घूरा मुझे आज तक तंग करता रहा। मास्टर साहब, मेरे बड़े भइया और बाबू जी ने मिलकर मुझे बचपन में लाख समझाया कि घूरे के दिन कैसे फिरते हैं? कई तरह के उदाहरण पेश किए, लेकिन मेरी मोटी बुद्धि में नहीं घुसा, तो नहीं घुसा।
धीरे-धीरे बचपन गया, जवानी आई। जवानी विदाई मांग रही है, अधेड़ावस्था दरवाजे पर खड़ा दस्तक दे रहा है, लेकिन फिर भी यह समझ में नहीं आया कि घूरे के दिन आखिर फिरते कैसे हैं? बचपन में रटा-पढ़ा तो जब बचपन में ही याद नहीं रह पाता था, तो जवानी में याद रह पाने का सवाल ही नहीं उठता है। हां, वह तो भला हो, दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय और शाजिया इल्मी का जिन्होंने वह काम कर दिखाया, जो आज तक मेरे बड़े नहीं कर पाए। दिल्ली स्थित इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर पर हुए ड्रामे की तस्वीरें अखबारों में देखी, तो एकाएक मेरे दिमाग की बत्ती जल उठी। इस (यानी कि मैं) घूरे के दिन भी फिर गए। मैं समझ गया कि बारह साल बाद घूरे के दिन फिरने का क्या मतलब होता है। अब मैं न केवल इस मुहावरे का अर्थ जान गया हूं, बल्कि किसी को भी समझा सकता हूं। बाकायदा उदाहरण देकर। अगर किसी को इस मुहावरे का अर्थ जानना-समझना हो, तो वह मेरे पास आकर समझ सकता है।

Saturday, November 8, 2014

ऐसे तो साफ नहीं होगा भारत

अशोक मिश्र
इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चलाए जा रहे 'स्वच्छ भारतÓ अभियान की बड़ी चर्चा है। २ अक्टूबर को प्रधानमंत्री मोदी ने इसकी शुरुआत खुद झाड़ू लगाकर की थी। वाराणसी के अस्सी घाट में भी उन्होंने कुदाल चलाकर लोगों को स्वच्छ भारत अभियान से जोडऩे की कोशिश की है। उन्होंने ऐसा करके इस देश के करोड़ों लोगों को सफाई अभियान से जोडऩे की कोशिश की। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती पर कार्यक्रम शुरू करने के पीछे मंशा यही थी कि भारत को स्वच्छ रखकर ही महात्मा गांधी को सच्ची शृद्धांजलि दी जा सकती है। यह सर्वविदित है कि आजादी से पूर्व महात्मा गांधी ने भी हरिजनों की सामाजिक दशा से व्यथित होकर देशवासियों से अपना शौचालय खुद साफ करने को प्रेरित किया था ताकि देश के करोड़ों हरिजन शौचालय साफ करने जैसे अमानवीय पेशे से मुक्त हो सकें और दूसरी जाति के लोगों को भी उनकी पीड़ा का आभास हो सके। गांधी जी खुद अपना शौचालय साफ करते थे। यह सही है कि जब तक आसपास का वातावरण स्वच्छ न हो, स्वस्थ भारत की कल्पना नहीं की जा सकती है। स्वच्छ भारत अभियान से देश में साफ-सफाई के प्रति कितनी जागरूकता पैदा हुई, इसकी समीक्षा का वक्त अभी नहीं आया है। हां, एक बात जरूर देखने में आ रही है कि लोग इस मुहिम से जुड़ रहे हैं। क्रिकेट, फुटबॉल, सिनेमा जगत, उद्योग जगत से लेकर राजनीतिक हलके के लोग इस अभियान को हाथों हाथ ले रहे हैं। स्कूल-कालेजों से लेकर गली-मोहल्ले के लोग भी स्वच्छ भारत अभियान में भाग लेकर अपनी सहभागिता सुनिश्चित कराने में जुटे हुए हैं। रेलवे स्टेशन से लेकर हवाई अड्डे तक झाड़े-बुहारे जा रहे हैं। गली-कूचों में बिखरा रहने वाला कूड़ा-कचरा उठाया जा रहा है। लेकिन यह सब हो सिर्फ एक दिन रहा है। आम तौर पर देखने में आ रहा है कि जिस जगह पर स्वच्छता अभियान एक दिन पहले चलाया गया था, मीडिया को बुलाकर फोटो शूट करवाया गया था, अगले दिन उस जगह की हालत वैसी ही नजर आ रही थी, जैसी स्वच्छता अभियान चलाने से पहले थी।
ऐसे अभियानों की परिणति ऐसी ही होती है। दरअसल, मीडिया में प्रचार के चलते 'स्वच्छ भारत अभियानÓ को भी एक मनोरंजन की ²ष्टि से लिया जा रहा है। कुछ लोग तो सिर्फ मनोविनोद और प्रचार पाने के लिए सफाई अभियान चलाने का ढोंग कर रहे हैं। मीडिया में अपना चेहरा दिखाने के लिए जायज-नाजायज तरीके अपनाए जा रहे हैं। कुछ ऐसा ही हुआ पिछले दिनों दिल्ली में। इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर के सामने की सड़क पर दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय और कभी 'आपÓ की नेत्री रही शाजिया इल्मी ने बाकायदा मीडिया के सामने स्वच्छ भारत अभियान के तहत झाड़ू लगाया, फोटो खिंचवाया और चले गए। बाद में एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र के फोटोग्राफर ने खुलासा किया कि यह सब कुछ वैसा नहीं था, जैसा दुनिया को दिखाया गया। पहले कूड़ा लाकर बिखेरा गया और फिर इन नेताओं से साफ करवाकर वाहवाही लूटी गई। अब भाजपा इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर की घटना से अपना संबंध मानने से इनकार कर रही है। हो सकता है कि जिन भाजपा नेताओं ने इस कार्यक्रम में हिस्सा लिया है, उनकी ऐसी मंशा न रही हो, लेकिन जो कुछ हुआ, वह हास्यास्पद ही है। दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सामान्य बात को भी विशेष बना देने की कला जानते हैं। वे अपनी छवि बनाने के लिए मीडिया का उपयोग करना भी जानते हैं। स्वच्छ भारत अभियान चलाने के पीछे भले ही उनकी मंशा प्रचार पाने की न रही हो, लेकिन जिस तरह लोग मनोरंजन की ²ष्टि से इससे जुड़ रहे हैं, वह अच्छा नहीं है। जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक स्वच्छ भारत अभियान का ही नहीं, किसी भी अभियान का ऐसा ही हाल होगा। जब तक व्यक्ति के अंत:करण में यह भावना पैदा नहीं होगी कि हमें अपने आसपास का वातावरण साफ-सुथरा रखना चाहिए, गली-मोहल्ला चमकना चाहिए, तब तक ऐसे अभियानों से कुछ होने वाला नहीं है। 

ऊल्लू की दुम होता है पत्रकार

-अशोक मिश्र 
नथईपुरवा गांव में कुछ ठेलुए किस्म के लोग कुएं की जगत पर बैठे टाइम पास कर रहे थे। बहुत दिनों बाद मैं भी गांव गया था, तो मैं भी उस जमात में शामिल हो गया। छबीले काका ने अचानक मुझसे लिया, 'ये पत्रकार क्या होता है, बेटा! कोई तोप-वोप होता है क्या? बड़ा बखान सुनते हैं पत्रकारों का।Ó उनका सवाल सुनकर मैं सकपका गया। मैंने इस बेतुके सवाल का तल्ख लहजे में जवाब दिया, 'ऊल्लू की दुम  होता है पत्रकार। डाकू गब्बर सिंह होता है। बहुत बड़ी तोप होता है। आपको कोई तकलीफ?Ó मेरे तल्ख स्वर को सुनकर अब सकपकाने की बारी छबीले काका की थी। उन्होंने शर्मिंदगी भरे लहजे में कहा, 'बेटा..आज रतिभान के घर में टीवी पर प्रधानमंत्री मोदी जी को पत्रकारों के साथ खूब गलबहियां डालकर हंसते-बतियाते देखा, तो मुझे भी पत्रकारों के बारे में जानने की उत्सुकता हुई। वैसे तुम न बताना चाहो, तो कोई बात नहीं। अब उम्र के आखिरी दौर में पत्रकारों के बारे में जान भी लूंगा, तो उससे क्या फर्क पड़ेगा? अब तो बस चला-चली की बेला है, जब टिकट कट जाए, तो 'लाद चलेगा बंजाराÓ की तरह सारा ज्ञान-ध्यान यहीं छोड़कर चल दूंगा। तब न किसी का मोह रहेगा, न ज्ञान की गठरी का बोझ।Ó मेरे तल्ख स्वर से छबीले काका आहत हुए थे या कोई और बात थी? उनके इस तरह अचानक आध्यात्मिक हो जाने से मैं भीतर ही भीतर पसीज उठा।
अब शर्माने की बारी मेरी थी। मैंने कोमल लहजे में कहा, 'काका! अब आपको क्या बताएं कि पत्रकार क्या होता है? कहने को तो उसकी भूमिका जनता के अधिकारों की रक्षा करने वाले सजग प्रहरी की होती है। लेकिन अब यह बात सिर्फ किताबों तक ही सिमट गई है। अब वह मंत्री, विधायक, सांसद, नेता और उद्योगपतियों के हितों की रक्षा पहले करता है, अपने बारे में बाद में सोचता है। दरअसल, पत्रकार या तो नेताओं, अफसरों, पूंजीपतियों और अपने अखबार के मालिक की चंपी करता है या फिर वसूली। वसूलने की कला में प्रवीण पत्रकार तो कई सौ करोड़ रुपये की गाडिय़ों पर चलते हैं, तो कई अपनी बीवी की फटी साड़ी में पैबंद लगाने के फेर में ही जीवन गुजार देते हैं। काका! पत्रकारों की कई केटेगरियां होती हैं। चलताऊ पत्रकार, बिकाऊ पत्रकार, सेल्फी पत्रकार, डग्गाबाज पत्रकार, दबंग पत्रकार, हड़बंग पत्रकार, कुंठित पत्रकार, अकुंठित पत्रकार। हां, आपका पाला किस तरह के पत्रकार से पड़ा है, यह अलग बात है।Ó
 'गरीबन कै मददगार भी तो होत हैं पत्रकार..एक बार बप्पा का थानेदार बहुत तंग कर रहा था, तो वहां मौजूद एक पत्रकार ने बप्पा की तरफ से कुछ बोल दिया। फिर क्या था, थानेदार ने न केवल बप्पा की लल्लो-चप्पो की, बल्कि बिना कुछ छीने-झपटे घर भी जाने दिया।Ó कंधई मौर्य ने बीच में अपनी टांग अड़ाई। मैंने एक बार घूमकर कंधई को देखा और कहा, 'बाद में तुम्हारे बप्पा ने तीन दिन तक बिना कुछ लिए-दिए उसके घर की रंगाई-पुताई की थी। घर से तीन किलो सत्तू, पांच किलो अरहर की दाल लेकर गए थे, वह अलग। बात करते हैं गरीबों के हिमायती होने के। पत्रकार भी इस समाज का हिस्सा है। दया, ममता, क्रोध, हिंसा, लालच, भ्रष्टाचार जैसी प्रवृत्तियां उसमें भी पाई जाती हैं। वह जब अपनी पर उतर आता है, तो बड़े-बड़े पानी मांगते हैं। चापलूसी में भी वह अव्वल ही रहता है।  जितनी ज्यादा चापलूसी, जिंदगी में उतनी ही ज्यादा तरक्की। रुपया-पैसा, गाड़ी-घोड़ा से लेकर देश-विदेश की यात्रा तक कर आते हैं पत्रकार, इसी चरणवंदना के सहारे। पत्रकारिता का अब सीधा से फंडा है, अखबारों, चैनलों पर भले ही तुर्रम खां बनो, लेकिन मंत्री, अधिकारी और नेता को साधे रहो। वह सामने हो, तो चरणों में लोट जाओ। पीठ पीछे जितना गरिया सकते हो, गरियाओ। आलोचना करो, उसकी कमियों को अपने फायदे के लिए जिनता खोज सकते हो, खोजो। उसे भुनाओ।Ó मेरी बात सुनकर छबीले काका धीरे से उठे और चलते बने।                                                                                                                                                                                                                                                                                                 नोट : मेरे इस व्यंग्य  में चारण-भाट शब्द के  उपयोग पर राजस्थान के कुछ साथियों ने आपत्ति व्यक्त किया है, मैंने इस शब्द का उपयोग पत्रकारों की चाटुकारिता की प्रवृत्ति को दर्शाने के लिए किया गया था। मेरा उद्देश्य किसी जाति, धर्म या संप्रदाय अथवा व्यक्ति को ठेस पहुंचाने का नहीं था। आज दिनांक ११  दिसंबर २०१४ को शाम लगभग ५ से ६ बजे के बीच मेरे पास राजस्थान के कई व्यक्तियों (डॉ. नरेंद्र सिंह देवल, धर्मेंद्र सिंह चारण, हरेंद्र सिंह, जोगी दान गडवी) के फोन आए जिन्होंने चारण-भाट शब्द के उपयोग पर आपत्ति जताई है। इस शब्द के उपयोग से यदि किसी को ठेस पहुंची हो, तो मैं खेद व्यक्त करता हूं। मैं फिर कहता हूं कि मेरा उद्देश्य किसी को ठेस पहुंचाना नहीं था।

Tuesday, November 4, 2014

नदियों को प्रदूषण मुक्त रखने का पर्व देव दीपावली

-अशोक मिश्र
कार्तिक पूर्णिमा की रात नदियों, खासकर गंगा में लाखों की संख्या में तैरते दीप, गूंजते आरती के स्वर, विभिन्न वाद्य यंत्र, जो मनोहारी दृश्य उपस्थित करते हैं, उसे शब्दों में बयां कर पाना शायद किसी के वश की बात नहीं है। देव दीपावली की रात नदियों के किनारे अदृश्य रूप से उपस्थित होने वाले देवता भी आनंदित हो उठते हैं। नदियों में दीपदान का अर्थ भी यही है कि हम अपने अंतरमन में कहीं छिपे बैठे तम को दूर करते हुए अपने भीतर और बाहर प्रकाश फैलाने और प्रकृति के अभिन्न अंग नदियों, पहाड़ों, पोखरों, वन, खेतों और पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षा का संकल्प लें। वैसे तो मनुष्य और प्रकृति का संबंध अटूट है। प्रकृति को देव मानने की हमारी सनातन परंपरा प्रकृति के संरक्षण की ओर ले जाती है। हमारे यहां नदियों, पेड़ों, पत्थरों, नक्षत्रों, चांद-सूरज को देव मानने की परंपरा और पूजा पद्धति दुनिया के अन्य देशों में हो भले ही, लेकिन ऐसा जुड़ाव शायद ही कहीं देखने को मिलता हो। कार्तिक पूर्णिमा को मनाई जाने वाली देव दीपावली वस्तुत: प्रकृति के संरक्षण का ही पर्व है।
 http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/05-nov-2014-edition-Delhi-City-page_13-3964-3551-4.html 
कहा जाता है कि देव दीपावली के मूल में भगवान शंकर हैं। उन्होंने ही देवताओं और मनुष्यों के साथ-साथ प्रकृति के विनाश को आतुर राक्षस त्रिपुरासुर का वध कार्तिका पूर्णिमा के ही दिन किया था। इसी उत्साह में देवताओं ने दीपावली मनाई थी जिसे हम आज देव दीपावली के नाम से जानते हैं। आज भी देवलोक से गंधर्व, किन्नर, देव और अन्य लोग गंगा और अन्य नदियों के किनारे उपस्थित होकर दीपदान करके दीपावली मनाते हैं। एक दूसरी कथा भी है। कहते हैं कि राजा त्रिशंकु को जब विश्वामित्र ने अपने तपोबल से स्वर्ग पहुंचा दिया, तो देवताओं ने उन्हें स्वर्ग से नीचे ढकेल दिया। अधर में लटकते त्रिशंकु की पीड़ा विश्वामित्र से देखी नहीं गई। यह उनका भी अपमान था। इससे क्षुब्ध होकर एक नए संसार की रचना करनी शुरू कर दी। माना जाता है कि कुश, मिट्टी, ऊंट, बकरी-भेड़, नारियल, कद्दू, सिंघाड़ा जैसी चीजें उन्होंने ने ही बनाई थी। यहां तक कि उन्होंने त्रिदेवों की प्रतिमाएं बनाकर उसमें प्राण फूंक दिए थे। नतीजा यह हुआ कि प्रकृति में असंतुलन पैदा हो गया। सारा चराचर जगत अकुला उठा। बाद में जब देवताओं ने इस प्राकृतिक असंतुलन की ओर विश्वामित्र का ध्यान आकृष्ट कराया, तो उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ। इन दोनों कथाओं, ऐतिहासिक आख्यानों का निहितार्थ अगर खोजें, तो सिर्फ और सिर्फ यही है कि हमें प्रकृति को असंतुलित होने से बचाना होगा। गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी जैसी नदियों में सिर्फ दीपदान करके अपने को आध्यात्मिक रूप से संतुष्ट बैठ जाने वाले लोगों के लिए देव दीपावली एक अवसर के समान है कि वे कभी करोड़ों लोगों की जीवनदायिनी रही नदियां आज खुद मर रही हैं। आज हरिद्वार में ही गंगा का पानी आचमन के लायक नहीं रहा है, तो वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर आदि शहरों में गंगा की स्थिति का अंदाज लगाया जा सकता है।
पतित पावनी कही जाने वाली गंगा और यमुना का ही जब यह हाल है, तो बाकी नदियों के विषय में कुछ कहना ही व्यर्थ है। गंगा नदी के किनारे बसने वाले शहरों की अनुमानित संख्या 116 से भी कहीं ज्यादा है, कस्बों और गांवों की बात करें, तो यह संख्या हजारों में पहुंचती है। इन गांवों, कस्बों, शहरों में बसने वाले लोग किसी न किसी रूप में पतित पावनी गंगा को दूषित करने के अपराधी हैं। हालत इतनी बदतर है कि घाघरा, राप्ती, बेतवा,  बेतवा, केन, शहजाद, सजनाम, जामुनी, बढ़ार, बंडई, मंदाकिनी एवं नारायन जैसी अनेक छोटी-बड़ी नदियां खुद पानी मांग रही हैं। प्रदूषित नदियों का पानी मानव क्या, पशुओं और जीवों के उपयोग के लायक नहीं रह गया है। प्रदूषण और जल में घुले आक्सीजन की मात्रा दिनोंदिन कम होते जाने की वजह से कई सौ किस्म की मछलियां, जलीय जीव-जंतु आज या तो विलुप्त होने के कगार हैं, या विलुप्त हो गए हैं। ऐसे में देव दीपावली जैसा पावन पर्व यह संदेश लेकर आया है कि हमें नदियों में दीपदान करने से ज्यादा उन्हें सुरक्षित, संरक्षित और जीवनदायिनी बनाने में योगदान देना चाहिए। शायद यही वह अवसर है, जब हम अपनी नदियों को प्रदूषण मुक्त करने का संकल्प लेकर देवताओं और देव जातियों के साथ देव दीपावली मना सकते हैं, उसकी सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं।

आयो घोष बड़ो व्यापारी

अशोक मिश्र
सपने देखना और उसे पूरा करना, दोनों अलग-अलग बातें हैं। सपना देखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन सपना देखने के बाद उस सपने को पूरा करने का प्रयास न करना, बुरा है। पंद्रह अगस्त को लाल किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद एक सपना देखा और देशवासियों को भी दिखाया। वह सपना है सांसद आदर्श ग्राम योजना का। पहले आप अपने देश के गांवों की मन ही मन कल्पना कीजिए। क्या तस्वीर उभरती है? गंदगी से पटी पड़ी नालियां, जगह-जगह लगे गोबर और कूड़े के ढेर, कच्ची और पानी भरी सडक़ें, किसी गांव में बिजली के खंभे तो हैं, लेकिन बिजली नदारद (लगभग पचास फीसदी गांवों में तो बिजली है ही नहीं), नंगे-अधनंगे बच्चे, दूषित वातावरण में रहने को मजबूर लोग। कुछ कमी-बेसी के साथ पूरे देश के अधिकतर गांवों की यही तस्वीर है। अब आप सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत विकसित किए जाने वाले गांवों की भी लगे हाथ कल्पना कर लीजिए। चमचमाती सडक़ें, दूधिया रोशनी से नहाई गलियां, शहरों जैसी बिजली-पानी, स्कूल, अस्पताल और सामुदायिक केंद्रों से युक्त गांव। हर हाथ को रोजगार, मोटरसाइकिलों पर फर्राटा भरते युवा। हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपनों का आदर्श ग्राम कुछ ऐसा ही है। मोदी की आदर्श ग्राम योजना इतनी लुभावनी है कि कांग्रेसी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरुर और असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई जैसे लोगों को भी उसकी प्रशंसा में कसीदे काढऩे पड़ रहे हैं। मोदी की कुछ योजनाओं की प्रशंसा करना, तो शशि थरुर पर भारी भी पड़ चुका है। इसके बावजूद खुद भाजपा सांसदों ने उतनी रुचि नहीं दिखाई, जितनी कि उनसे अपेक्षा की जाती थी।
सांसद आदर्श ग्राम योजना के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के जिस गांव पुंसरी का उल्लेख किया, वह भी कुछ साल पहले देश के आम गांवों जैसा ही था। वह तो भला हो कि पुंसरी गांव के युवा सरपंच हिमांशु पटेल का जिन्होंने गांव की कायापलट कर दी। कहते हैं कि पुंसरी गांव अब शहरों से भी होड़ लेने लगा है सुविधाओं के मामले में। पुंसरी गांव सुविधाओं के लिहाज से काफी आगे है। गुजरात की राजधानी गांधीनगर से मात्र 35 किमी दूर बसे साबरकांठा जिले में बसे गांव पुंसरी में स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए ही बसें नहीं हैं, बल्कि गांव के पशुपालकों के लिए भी पंचायत बस सेवा है। गांव में सीसी रोड, चार रुपये में 20 लीटर मिनरल वाटर प्राप्त करने की सुविधा के साथ-साथ कम्युनिटी रेडियो स्टेशन भी है जिस पर ग्रामीणों को जागरूक करने वाले प्रोग्राम प्रसारित किए जाते हैं। इको फ्रेंडली इलेक्ट्रिसिटी की व्यवस्था की जा रही है। 1200 घरों वाले गांव में 250 घरों को बिजली देने की योजना पर काम हो रहा है। हर घर में शौचालय की व्यवस्था है। सवाल यह है कि जिन गांवों का चुनाव करके सांसद देंगे, क्या उन गांवों को हिमांशु पटेल जैसा सरपंच हासिल है या हो सकेगा? पिछले कई दशकों से सांसदों को सांसद निधि के नाम पर अरबों रुपये दिए गए, इन रुपयों में से कितने प्रतिशत का उपयोग गांवों के विकास में किया गया? क्या सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत चुने गए गांवों की तस्वीर बदलेगी? क्या हर सांसद अपने संसदीय क्षेत्र में 2016 तक एक गांव और 2019 तक तीन गांवों को चुनने और उसका विकास कराने में उतनी दिलचस्पी लेगा, जितने की उम्मीद की जा रही है। ऐसे ही बहुत सारे प्रश्र हैं जिनका जवाब मिलना अभी शेष है।
प्रधानमंत्री अकसर यह बात कहते हैं, व्यापार मेरे खून में है। दरअसल, सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत आगामी कुछ वर्षों तक 2500 गांवों का विकास हो या न हो, लेकिन अब देश के गांवों तक देशी-विदेशी बनियों की पहुंच जरूर हो जाएगी। प्रधानमंत्री मोदी ने सांसद आदर्श ग्राम योजना के जरिये कुछ कंपनियों को गांव तक पहुंचने और वहां बाजार तलाशने का इशारा जरूर कर दिया है। कारपोरेट सेक्टर ने प्रधानमंत्री मोदी की सांसद आदर्श ग्राम योजना को जरूर लपक लिया है। देश के सात लाख गांवों में अब हीरो, सुजुकी, होंडा, आईटीसी, हिंदुस्तान लीवर, कोलगेट, पामोलिव, पेप्सी, कोका, डाबर, एलजी, सैमसंग जैसी कंपनियों को बाजार दिखाई देने लगा है। वे अपनी योजनाओं का विस्तार गांव में करने की योजना पर अमल करने को उत्सुक दिखाई देने लगी हैं। अब गांवों में मोटरसाइकिलों, कारों, टीवी सेट्स और सौंदर्य प्रसाधन से जुड़ी वस्तुओं की भरमार होने वाली है। साबुन, टूथपेस्ट, शैंपू जैसे उत्पादों की पहुंच पहले से ही गांवों में हो चुकी थी। गांव के लोग अब नीम, बबूल या गिलोय की दातून नहीं, बल्कि टूथपेस्ट से अपने दांत साफ करने में ज्यादा रुचि ले रहे हैं। इसमें सबसे ज्यादा भूमिका है, उन युवाओं की जो या तो शहर में रह आए हैं या शहरों में जाकर पढ़ रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खून सचमुच व्यापार है। उन्होंने अभी हाल ही में कहा है कि सरकार व्यापार नहीं कर सकती है, लेकिन व्यापार में सहायता जरूर कर सकती है। गांवों में बाजार की संभावनाओं की ओर इशारा मोदी ने कर दिया है। अब देखना है कि .ये व्यापारी गांवों की तस्वीर कितनी बदल पाते हैं? या फिर गांवों के लोग इन व्यापारियों को वैसे ही विदा कर देते हैं कि जैसे श्रीकृष्ण का संदेश लेकर गोकुल गए उद्धव को वापस भेजते समय गोपियों ने कहा था कि 'आयो घोष बड़ो व्यापारी। लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आन उतारी।Ó इसकी संभावना इसलिए है क्योंकि गांवों में बाजार तो है, लेकिन गांववालों की क्रयशक्ति कैसे बढ़ेगी, वे इन उत्पादों को खरीदने का पैसा कहां से लाएंगे, इसकी कोई व्यवस्था भी तो सरकार करे।