Sunday, January 25, 2015

मोदी ने चुकाया राम रहीम का एहसान!

अशोक मिश्र
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) का अध्यक्ष पहलाज निहलानी को नियुक्त कर दिया गया है। यह पद लीला सेम्सन के इस्तीफे के बाद खाली हुआ था। डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म 'एमएसजी : मैसेंजर ऑफ गॉडÓ को दबाव डालकर सेंसर सर्टिफिकेट दिलाने का आरोप लगाते हुए लीला सेम्सन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। बाद में नौ और सदस्यों ने अपने इस्तीफे सरकार को भेज दिए थे। हालांकि पहलाज निहलानी सहित नौ सदस्यों की नियुक्ति सरकार ने कर दी है, लेकिन जिस तरह भाजपा सरकार ने डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट जारी करने के लिए दबाव डाला, उससे देश में कोई अच्छा संदेश नहीं गया। ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले की सरकारों का दबाव सेंसर बोर्ड पर नहीं रहता था या इससे पहले की सरकारें ऐसे मामलों में दूध की धुली रही हैं। दरअसल, देखा जाए, तो फिल्म मैसेंजर ऑफ गॉड का मुद्दा तो एक बहाना है, असली लड़ाई सेंसर बोर्ड को स्वायत्तता प्रदान करने की है।
यह विवाद तो यूपीए के शासनकाल से भी चला आ रहा है। सेंसर बोर्ड पहले भी कई बार सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को स्वायत्तता प्रदान करने के लिए पत्र लिखकर कह चुका था कि सरकारी और राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते बोर्ड के ज्यादातर सदस्य ऐसे आ जाते हैं जिनका फिल्म से कोई लेना देना नहीं होता है। ऐसे सदस्य सिर्फ अपने या अपनी पार्टी के राजनीतिक फायदे को ही ध्यान में रखते हैं। मनमोहन सरकार ने अपने दस साल के कार्यकाल में सेंसर बोर्ड को अपनी गाय की तरह पालतू बनाए रखा। जब चाहा, जैसा चाहा, काम लिया। मनमोहन सिंह की सरकार ने न्यूनतम कामों की स्वायत्तता और आर्थिक संसाधन जरूर मुहैया कराए।
इस तरह हम कह सकते हैं कि मनमोहन सरकार का रवैया भी सेंसर बोर्ड को पालतू गाय समझने से ज्यादा नहीं रहा। केंद्र या प्रदेशों में सरकार किसी की भी हो, शासन का हर मुखिया चाहता है कि देश प्रदेश में जितने भी विभाग हैं, संस्थाएं हैं, उनके ही इशारे पर उठे-बैठे। वे जैसा कहें, बिना कोई आपत्ति दर्ज कराए, बस चुपचाप करती जाएं। सरकारों के इशारे पर फिल्मों को सर्टिफिकेट देने का खेल तो काफी दिनों से खेला जा रहा है। हद तब हो गई, जब मैसेंजर ऑफ गॉड को भी सेंसर सर्टिफिकेट देने का दबाव डाला गया।
इस बात को सभी जानते हैं कि हरियाणा में चुनाव से पहले सभी दलों ने गुरमीत राम रहीम से समर्थन हासिल करने के लिए संपर्क किया था, लेकिन सफलता मिली थी भाजपा को। गुरमीत राम रहीम ने न केवल भाजपा का समर्थन किया था, बल्कि अपने अनुनाइयों को भाजपा प्रत्याशियों को वोट देकर जिताने का फरमान भी जारी किया था। केंद्र की मोदी सरकार ने गुरमीत राम रहीम के उन एहसानों का बदला उनकी फिल्म को प्रसारण का प्रमाण पत्र दिलवाकर चुकाया है। केंद्र में मोदी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद सेंसर बोर्ड को न तो अपनी बैठक बुलाने की अनुमति दी गई और न ही जरूरी आर्थिक संसाधन मुहैया कराए गए। इसी दौरान डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट देने का जब दबाव डाला जाने लगा, तो स्थिति विस्फोटक हो गई और नतीजा यह हुआ कि मोदी सरकार में कांग्रेसी एजेंट होने का आरोप झेल रही लीला सेम्सन ने अपने पद से त्याग पत्र दे दिया। लीला सेम्सन अपने पद के लिए कितनी काबिल थीं, उनका फिल्म जगत में क्या योगदान रहा है? वे कांग्रेस की एजेंट थीं या नहीं?
यह अलग मुद्दा है। असल मुद्दा यह है कि फिल्मों का समाज पर अच्छा या बुरा प्रभाव जरूर पड़ता है। यदि फिल्मों को सर्टिफिकेट देते वक्त संवेदनशीलता नहीं बरती गई, तो समाज के लोगों पर बुरी फिल्मों का क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसे संगठनों में विषय विशेषज्ञों का होना, बहुत जरूरी है। बहरहाल, पहलाज निहलानी ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड  के अध्यक्ष के रूप में कामकाज संभाल लिया है। जाहिर सी बात है कि उन्हें बनारस में नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार करने और 'हर हर मोदीÓ नारा लगाने का ईनाम मिला है। वे यह बात स्वीकार भी करते हैं कि उन्हें मोदी समर्थक या भाजपा का आदमी होने पर गर्व है। इससे पहले की सरकारों ने कम से कम इतनी नैतिकता तो जरूर दिखाई थी कि उन्होंने इस तरह के संगठनों में ऐसे लोगों को बिठाने से परहेज अवश्य किया था जिन पर अंध भक्त होने का आरोप लगा हो। मोदी सरकार ने यह परंपरा भी तोड़ दी है। 

यात्रा से मिलेगी संबंधों को एक नई दिशा?

 अशोक मिश्र
दिल्ली में आयोजित होने वाले गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में भाग लेने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आ रहे हैं। ओबामा की इस यात्रा को लेकर दोनों देशों के नेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों में काफी उत्साह देखने को मिल रहा है। ऊर्जा, रक्षा और पूंजी निवेश के मामले में दोनों देशों के संबंध एक नए आयाम हासिल करेंगे, ऐसी उम्मीद दोनों देशों के उच्च पदस्थ अधिकारी जता रहे हैं। दरअसल, यह सच है कि बराक ओबामा की यह यात्रा भारत-अमेरिकी संबंधों की एक नई आधारशिला साबित होगी। भारत काफी पहले से अपनी परमाणु ऊर्जा की जरूरत को ध्यान में रखते हुए अमेरिका से कोई सार्थक समझौता करने के प्रयास में है। हालांकि अमेरिका का रवैया इस मामले में अडिय़ल है।
यह यात्रा इस समझौते को कोई आकार प्रदान कर सकती है। अमेरिका भी यही चाहता है कि दोनों देशों के बीच कोई कारगर परमाणु संधि हो जाए, ताकि दोनों इस मामले में एक दूसरे की जरूरत को समझ और पूरा कर सकें। भारत जैसा विश्वसनीय सहयोगी भारत को अभी एशिया में कोई दूसरा नजर नहीं आता है। यही वजह है कि भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के समूह की मंजूरी दिलवाने में अमेरिका ने काफी मदद की थी। इस मामले में भारत और अमेरिकी अधिकारियों के बीच कई स्तरों पर बातचीत भी हो चुकी है।  अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा के दौरान लगभग विभिन्न क्षेत्र में काम कर रही अमेरिकी और भारतीय कंपनियां पांच सौ अरब डालर के पूंजी निवेश को अंतिम रूप दे सकती हैं। यदि भारत यह पूंजीनिवेश अपनी ओर खींचने में सफल हो जाए, तो विकास को एक नई गति प्रदान की जा सकती है। पूंजी निवेश का प्रवाह भारत की ओर होने से विकास की गति तेज होगी और कई शहरों और क्षेत्रों में रोजगार की संभावनाएं पैदा होंगी। यह पूंजी निवेश भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए काफी महत्वपूर्ण होगा। ओबामा की यात्रा के साथ ही साथ ऊर्जा क्षेत्र में भी नए संबंधों की शुरुआत हो सकती है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के साथ वहां के कई उद्योगपतियों का एक समूह भारत आ रहा है, जो भारत में पूंजी निवेश के साथ-साथ कुछ मामलों में भारतीय पक्ष से भी पूंजी निवेश की इच्छा रखता है। यदि इन उद्योगपतियों को अपने मकसद में कामयाबी मिल जाती है, तो यकीनन दोनों देशों के बीच संबंध काफी मजबूत हो जाएंगे। भारत को एकाध साल में 60 हजार मेगावाट बिजली की जरूरत होगी। इतनी बड़ी मात्रा में बिजली उत्पादन का लक्ष्य तब तक पूरा होने की संभावना नजर नहीं आती, जब तक अमेरिका भारत की मदद करने या इस क्षेत्र में पूंजी निवेश करने को तैयार न हो जाए। इसके साथ ही साथ रक्षा मामले में भी भारत को अमेरिकी सहयोग की जरूरत होगी। इस दिशा में भी भारत सरकार काफी दिनों से प्रयास कर रही थी। मोदी सरकार की नीति है कि रक्षा मामलों में आत्मनिर्भर बना जाए। इसके लिए जरूरी है कि रक्षा और सैन्य सामग्री का निर्माण देश में ही किया जाए।  अमेरिका हल्के और छोटे लड़ाकू हैलिकॉप्टरों के निर्माण के साथ-साथ अन्य हथियारों के निर्माण की तकनीक विकसित करने में काफी मददगार साबित हो सकता है। उसके साथ ही सबसे अहम फैसला यह हो सकता है कि दोनों देश एकदूसरे के हितों का ध्यान रखते हुए खुफिया सूचनाएं साझा करेंगे, ताकि आतंकवाद के खिलाफ एक नेटवर्क तैयार किया जा सके। देश के भीतर और बाहर हो रहे आतंकी हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके।
जब तक यह नेटवर्क तैयार नहीं होता, तब तक एक मजबूत रक्षा तंत्र नहीं विकसित किया जा सकता है। आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए सबसे जरूरी तो यह है कि जिन देशों को पीछे के दरवाजे से आतंकवादियों को खाद-पानी मिल रहा है, उन पर अंकुश लगाने की कोशिश वैश्विक आधार पर हो। आतंकवादियों के पनाहगाहों को पूरी तरह मिटाने का साझा प्रयास किया जाए। ऐसे देशों पर कई तरह के आर्थिक प्रतिबंध भी लगाए जा सकते हैं, उसके साथ-साथ कूटनीतिक संबंध भी तोड़ लेने के साथ-साथ व्यापारिक संबंध भी खत्म कर लेने चाहिए। कहने का मतलब यह है कि आयात-निर्यात बिल्कुल खत्म कर देने चाहिए, लेकिन ऐसा होना काफी मुश्किल है। क्योंकि अमेरिका ही नहीं, भारत को भी अपने कई हितों को देखना और साधना है। कई बार कुछ ऐसी भी मजबूरियां सामने होती हैं जिसके चलते ऐसा कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। यदि अमेरिका और भारत चाहें, तो सूचनाओं के आदान-प्रदान से आतंकी नेटवर्क को तोड़ सकते हैं।

गणतंत्र में कहां है 'गण'

अशोक मिश्र 

हर साल गणतंत्र दिवस पर मुझे रघुवीर सहाय की यह पंक्तियां जरूर याद आ जाती हैं, राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत-भाग्य विधाता है, फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है। वाकई इस हरचरना की ओर देखने की फुरसत किसी को भी नहीं है। और...अब यह सवाल खुद हरचरना को ही उद्वेलित नहीं करता कि 'कौन-कौन है वह जन-गण-मन अधिनायक वह महाबली, डरा हुआ मन बेमन जिसका बाजा रोज बजाता है।Ó ऐसे में हरचरना की परेशानियों, उसके दुख-दर्द, हर्ष-विषाद की बात सोचने की जहमत कौन उठाए और क्यों? लोकतंत्र के कथित सरमाएदार तो गणतंत्र दिवस को लेकर कुछ दशक पहले तक पैदा होने वाले उत्साह और चेतना को ही उनके मानस से खुरच देना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि भले ही देश में कहने को गणतंत्र है, लेकिन इस दिन कहीं ऐसा न हो कि यही हरचरना पूछ बैठे कि तुम्हारे गणतंत्र में 'गणÓ कहां है और 'तंत्रÓ कहां? पिछले एक महीने से पूरे देश में गणतंत्र को लेकर जो गहमागहमी है, उसका कारण यह है कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने आने वाले हैं। पिछले एक महीने से पूरे देश को इस तरह मथा जा रहा है कि भारत की अस्मिता और संप्रभुता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण ओबामा की सुरक्षा है। कि भारतीय खुफिया एजेंसियां ओबामा की सुरक्षा कर पाने में अक्षम हैं, नाकारा हैं, निकम्मी हैं। हमारे देश के भाग्य विधाता, नौकरशाह और पूंजीपतियों की तिकड़ी उनके आगे बिछी जा रही है क्योंकि उनके आने से दोनों देशों के पूंजीपतियों को पांच सौ अरब डॉलर मूल्य के कारोबार का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।
इस मामले में मजेदार बात तो यह है कि पिछले 66 सालों से हर बार इस गणतंत्र के औचित्य पर सवाल खड़ा होता है कि यह सब आयोजन आखिर किसके लिए हो रहा है? उस 'गणÓ के लिए, जिसकी पीठ पर पडऩे वाला 'तंत्रÓ का चाबुक रोज कहीं न कहीं उसकी खाल उधेड़ रहा है? या फिर उन पूंजीपतियों के लिए जो इस पूरी व्यवस्था के संचालक और पोषक हैं। अगर हम पूरी पूंजीवादी व्यवस्था पर गौर करें, तो पाते हैं कि इसी गणतंत्र दिवस की आड़ में भ्रष्ट और आम अवाम विरोधी व्यवस्था के नुमाइंदे मंत्री, सांसद, विधायक और नेता, व्यवस्था के संचालक नौकरशाह और पूंजीपति वर्ग की आपसी गठजोड़ से मौज करते हैं, अवाम का निर्मम रक्त शोषण करते हैं और बेचारा गण अपनी लहूलुहान पीठ लिए इसी व्यवस्था की सेवा में दिन-रात लगा रहता है। उफ तक नहीं करता। पिछले 66 सालों से पूरे तामझाम के साथ गणतंत्र दिवस समारोह आयोजित किए जा रहे हैं। कई सौ करोड़ रुपये हर साल इन समारोहों पर खर्च होते हैं। इन आयोजनों में देश की आम जनता की कितनी भागीदारी है? वह तो दिल्ली और देश के अन्य प्रदेशों की राजधानियों और जिलों में होने वाली परेड, झांकी को सिर्फ मूक दर्शक की तरह देखने को मजबूर है। देश का विकास नहीं हुआ है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। देश में फैला सड़कों का संजाल, ऊंची-ऊंची इमारतें, विकसित होते मेट्रो और स्मार्ट शहर, आवागमन की बढ़ती सुविधाएं, गांवों और दूरदराज के कस्बों तक पहुंचती बिजली, पानी और स्वास्थ्य की सुविधाएं, हवाई जहाज से लेकर दुपहिया वाहनों की दिनोंदिन बढ़ती तादाद विकास का एक दूसरा ही रूप सामने पेश करते हैं। ये सुविधाएं किस कीमत पर हैं?
यह भी देखने की कोशिश कभी शासकों ने की है? स्मार्ट शहरों की चमक-दमक के पीछे कितना सघन अंधकार छिपा हुआ है, यह कौन देखेगा? माना कि विकास हुआ है, लेकिन किसके लिए? झोपड़पट्टी से लेकर गांव-कस्बों में रहने वाले लोगों की भलाई के लिए? देश के मंत्री, सांसद और विधायक से लेकर गांव-गली का छुटभैया नेता, छोटे से लेकर बड़े नौकरशाह और पूंजीपति इस देश की शोषित, पीडि़त जनता को दिखाते हुए यह कहते नहीं थकते कि देखो...यह सड़क जो किसी नवयौवना के गाल से भी ज्यादा चिकनी है, तुम्हारे लिए बनवाई है। यह सारा विकास सिर्फ तुम्हारे लिए है। लेकिन क्या सच यही है? गणतंत्र में आम जनता के हितों के नाम पर चलने वाली परियोजनाओं और होने वाले विकास के पीछे सत्ता और पूंजी का निर्मम खेल किसी की समझ में नहीं आता है।
उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, मध्य प्रदेश सहित अन्य राज्यों में रहने वाले दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की हालत क्या है, इसको जानने के लिए बहुत ज्यादा शोध करने की जररूत नहीं है। अभी हाल ही में वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की मीटिंग में ऑक्सफैम चैरिटी संस्था के कार्यकारी निदेशक विन्नी बयनिमा ने कहा है कि पूरी दुनिया में जितनी दौलत 99 फीसदी लोगों के पास है, उससे भी कहीं ज्यादा दौलत सिर्फ एक फीसदी लोगों के पास है। यह फासला समय बीतने के साथ-साथ बढ़ता जाएगा। यह उस विकास की एक तस्वीर भर है, जो दुनिया में आम जनता के हितों के नाम पर किया जा रहा है। भ्रष्ट और निकम्मी पूंजीवादी व्यवस्था में विकास की अनिवार्यता इसलिए भी है कि फैक्ट्रियों में उत्पादित माल आसानी के साथ दूरदराज इलाकों तक सुगमता से पहुंच सके और पूंजीपतियों को अकूत मुनाफा हो सके। गणतंत्रवादी विकास की असलियत यही है।
भारत में इस विकास की आधारशिला रखने वाली थी बुर्जुआ कांग्रेस। कांग्रेस की ही आमजन विरोधी नीतियों में थोड़ा बहुत फेरबदल करके बड़े गाजे-बाजे के साथ आगे बढ़ा रहे हैं दक्षिणपंथी भाजपा के नरेंद्र मोदी। देश के विभिन्न राज्यों में पूंजीपतियों के रक्षक-पोषक की भूमिका में हैं विभिन्न झंडे और नारों वाले सभी वामपंथी दल और बसपा, सपा, राजद, टीएमसी, द्रुमुक, अन्नाद्रुमुक जैसी छोटी-बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां। इनकी आपस में प्रतिद्वंद्विता सिर्फ इस बात के लिए है कि हर पांच साल बाद इस भ्रष्ट और निकम्मी पूंजीवादी व्यवस्था का संचालक कौन बने?
शोषण पर आधारित बिकाऊ माल की अर्थव्यवस्था का संचालक बनने की होड़ में ये पार्टियां एक दूसरे पर लांछन  लगाती हैं, एक दूसरे की टांग खींचती हैं, लेकिन जहां भी आम जन की पीठ पर लाठियां बरसाने की बात आती है, पूंजीपतियों के हित साधने होते हैं, सब एक हो जाती हैं। यही इनका वर्गीय चरित्र है। विभिन्न किस्म के झंडों और नारों की बदौलत देश के वास्तविक 'गणÓ को 'तंत्रÓ का भय दिखाकर उन्हें बरगालाती हैं।

Tuesday, January 20, 2015

चोर समझी थी मैं, थानेदार निकला

अशोक मिश्र
उन्होंने अभी-अभी नई पार्टी की सदस्यता ली थी। पार्टी अध्यक्ष ने उनको पार्टी सदस्य घोषित करते हुए लुटियन जोन का प्रत्याशी घोषित कर यह भी संकेत दिया कि यदि उनकी पार्टी को बहुमत मिला, तो वही मुख्यमंत्री होंगी। यह कहते हुए पार्टी अध्यक्ष ने माइक उन्हें थमा दिया। माइक पकड़ते ही उनकी स्थिति ठीक वैसी ही हो गई, जैसी कभी महाभारत युद्ध के दौरान अर्जुन की हुई थी। उन्होंने कहना शुरू किया, 'मेरे प्यारे भाइयो और प्यारी बहनो! कुछ महीने पहले तक मैं इस पार्टी की सांप्रदायिक कहकर खिल्ली उड़ाती रही, दंगाइयों और गुंडों की पार्टी कहकर मजाक उड़ाया। इसे राष्ट्रवाद के नाम पर पूरे देश में दंगे भड़काने और लोगों को लड़वाने वाली पार्टी का खिताब दिया। जहां भी और जब भी मौका मिला, मैंने इसकी छवि को बिगाडऩे और सत्ता तक न पहुंचने देने की कोशिश की। तब इस देश में एक बहुत पुरानी पार्टी की सरकार थी। यह सरकार भी कोई कम भ्रष्ट नहीं थी। लेकिन अब मुझे एहसास हो गया है कि इस देश का भला अगर कोई पार्टी कर सकती है, तो यही जिसको कुछ महीने पहले तक मैं सांप्रदायिक समझती रही। कैसी विडंबना है कि मैं जिसे चोर समझती रही, वह तो थानेदार निकला।'
इतना कहकर  उन्होंने गहरी सांस ली और उपस्थित लोगों पर निगाह दौड़ाई। उन्होंने पुलिसिया अंदाज में फिर से कहना शुरू किया, 'भाइयो और बहनो! अब मेरी आंखें खुल गई हैं। मुझे पता चल चुका है कि कौन अच्छा है, कौन बुरा। मैंने अब तक इस पार्टी के खिलाफ जो कुछ भी कहा, लिखा, सब डिलीट करती हूं। फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग पर अपनी नई पार्टी के खिलाफ उगला गया सारा जहर मैं जल्दी ही साफ कर दंूगी। मैं लुटियन जोन की जनता-जर्नादन से अनुरोध करती हूं कि वे मेरे द्वारा पहले कही गई बातों को नजरअंदाज करके अब से कही जाने वाली बातों पर गौर फरमाएं।'
उपस्थित भीड़ में फुसफुसाहट शुरू होते ही सबको ऐसे शांत होने का इशारा किया, मानो उनके हाथ में पुलिसिया छड़ी हो और उपस्थित लोग दंगाई भीड़। उनके इशारा करते ही सारे लोग चुप हो गए। विजयी मुद्रा में उन्होंने कहा, 'इस देश-प्रदेश को अगर कोई अच्छी तरह से चला सकता है, तो वह कोई एनजीओ वाला ही। एनजीओज चलाने वाले जानते हैं कि देसी-विदेशी पूंजी को कैसे आकर्षित किया जा सकता है। उस पैसे की बंदरबांट कैसे की जा सकती है कि कोई शक भी न करे और चंदा बराबर मिलता रहे। जब कोई एनजीओ वाला आपका मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री होगा, तो वह अपने साथ-साथ देश-प्रदेश का राजकोषीय घाटा मेनटेन रखेगा। कागजों पर विकास की रेलगाड़ी बुलेट ट्रेन की तरह दौड़ेगी।' इतना कहकर उन्होंने पार्टी अध्यक्ष की ओर देखा। पार्टी अध्यक्ष एनजीओज वाली बातों से कुछ असंतुष्ट से दिखे, तो उन्होंने हड़बड़ाते हुए कहा, 'अभी मैंने आप लोगों के सामने जो बातें कही हैं, उन्हें भूल जाइए। भविष्य में जिन बातों को रखूंगी, उन्हें याद रखिएगा। जय हिंद।Ó इतना कहकर सभा बर्खास्त कर दी गई।

बसंत पंचमी को हुई थी शब्द की उत्पत्ति

अशोक मिश्र
नाकारं प्राण नामानं दकारमनलंविंदु
ज्ञात: प्राणाभिसंयोगातेन  नादोअभिधीयते।
प्राण का नाम 'ना' है और अग्नि को 'द' कहते हैं। इसी प्राण और अग्नि के संयोग से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे नाद कहते हैं। (पं. श्रीराम शर्मा आचार्य की पुस्तक 'शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म')  संगीत के आचार्यों के अनुसार, आकाशस्थ अग्नि और मरुत् के संयोग से नाद की उत्पत्ति हुई है। यही नाद भारतीय दर्शन की आधारशिला है। नाद को परमब्रह्म माना गया है। आहद और अनहद जीवन के दो मूल तत्व हैं। नाद नहीं, तो जीवन में कुछ नहीं। गीत, संगीत, जीवन के विभिन्न आमोद-प्रमोद, कृत्य-अपकृत्य..सबकी आधार शिला यही नाद है। सं और बसंत पंचमी के दिन इसी नाद का जन्म हुआ था। मनुष्य ने पहली बार नाद यानी आवाज को जिस दिन सुना था, वह दिन माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी थी। बाद में इसे बसंत पंचमी के नाम से भी जाना गया।
माना जाता है कि इसी दिन मनुष्य को शब्दों की शक्ति का ज्ञान हुआ था। संपूर्ण ब्रह्मांड में नाद पैदा करने वाली सबसे पहली देवी हैं सरस्वती। चूंकि माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को उनका जन्म हुआ और उसी दिन उन्होंने नाद की उत्पत्ति की थी, इसलिए भारतीय जीवन में इस दिन की महत्ता बहुत ज्यादा है। यही नाद आगे चलकर ज्ञान का आधार बना। नाद यानी आवाज के बारे में जानने के बाद मनुष्य ने बोलना और लिखना सीखा। सरस्वती देवी की मूर्ति या चित्र में दिखाए गए वीणा, पुस्तक और मयूर तो संगीत, विचार और कला के प्रतीक चिन्ह हैं। यही कारण है कि देवी सरस्वती को साहित्य, संगीत, कला की जननी माना जाता है। सरस्वती की वीणा संगीत की, पुस्तक विचार की और मयूर वाहन कला की अभिव्यक्ति है।
सरस्वती के जन्म के विषय में एक कथा कही जाती है। कहा जाता है कि जब ब्रह्मा ने ब्रह्मांड की रचना के बाद मनुष्य और पशुओं की रचना की, तो यह महसूस किया कि शब्द बिना के इस संपूर्ण सृष्टि का कोई मतलब नहीं है। शब्द यानी नाद के बिना तो कोई भी अपने विचार एक दूसरे तक नहीं पहुंचा पाएगा। शब्दहीनता तो ऐसी सृष्टि के लिए अभिशाप साबित होगा। कहते हैं कि उन्होंने विष्णु से अनुमति लेकर एक चतुर्भुजधारी महिला की उत्पत्ति की। इनके एक हाथ में वीणा, दूसरे हाथ में पुस्तक, तीसरे हाथ में माला और चौथा हाथ वरमुद्रा में था। माला तो हमारे दर्शन में वैराग्य का प्रतीक माना जाता है। वरमुद्रा सभी प्राणियों को अभय प्रदान करती है।
वीणा को झंकृत करने से पैदा हुई गूंज ही वह आदिशब्द माना जाता है जिससे आगे चलकर ज्ञान का विकास हुआ। ज्ञान और विज्ञान के प्रचार-प्रसार का मूलस्रोत सरस्वती के होने की वजह से उनके प्रति आभार व्यक्त करने के लिए प्रत्येक वर्ष माघ महीने के शुक्लपक्ष की पंचमी को वसंतोत्सव मनाया जाता है। बसंत पंचमी को ही सरस्वती के वरद पुत्र महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्म हुआ था। इस दिन कामदेव की भी पूजा की जाती है। कड़ाके की सर्दियों के चलते सिमटा-सिकुड़ा मनुष्य माघ में प्रखर होते सूर्य के ताप से थोड़ा-थोड़ा खुलने लगता है। प्रकृति भी नवशृंगार करके वातावरण को मादक बनाने लगती है। ऐसे में भला कामदेव अपना प्रभाव छोडऩे में पीछे कैसे रहते?
बसंत पंचमी को लोग अपने-अपने घरों में सरस्वती की प्रतिमा की पूजा करते हैं। इसदिन लोग अपने बच्चे को अक्षर का अभ्यास भी करवाते हैं। कलश स्थापित करने के बाद गणेश जी तथा नवग्रह की विधिवत पूजा के साथ-साथ सरस्वती की पूजा की जाती है। महिलाएं सरस्वती को सिंदूर और शृंगार की अन्य वस्तुएं अर्पित करती हैं। उन्हें श्वेत वस्त्र भी पहनाए जाते हैं।
यह दिन वसंत ऋतु के आरंभ का दिन होता है। इस दिन देवी सरस्वती और ग्रंथों का पूजन किया जाता है। छोटे बालक-बालिका इस दिन से विद्या का आरंभ करते हैं। संगीतकार अपने वाद्ययंत्रों की पूजा करते हैं। स्कूलों और गुरुकुलों में सरस्वती और वेद पूजन किया जाता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार वसंत पंचमी को अबूझ मुहूर्त माना जाता है। इस दिन बिना मुहूर्त जाने शुभ और मांगलिक कार्य किए जाते हैं।

Saturday, January 17, 2015

मोदी सरकार की संघ से बढ़ती दूरियां

अशोक मिश्र 
लगता है, इतिहास एक बार फिर दोहराया जाने वाला है। सन 1998 में जब भाजपा के इतिहास पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी सरकार बनाई, तो उसके कुछ ही दिनों बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन पर दबाव डालना शुरू कर दिया था कि वे उसकी नीतियों के मुताबिक शासन का एजेंडा तय करें। तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने जब संघ की नीतियों के मुताबिक चलने से इंकार कर दिया, तो पूरी भाजपा और संघ के रिश्तों में तल्खी आती चली गई। वाजपेयी और संघ के बीच आई तल्खी का फायदा उठाया, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने। फरवरी सन 2002 में गुजरात के गोधरा में हुए दंगे पर मोदी को राजधर्म की शिक्षा देने वाले अटल बिहारी वाजपेयी अपने ही हिसाब से चलते रहे। वाजपेयी की सरकार आई, गई, लेकिन उन्होंने संघ को उतनी ही अहमियत दी जितनी कि उनके हिसाब से देनी चाहिए थी। इस बीच गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में और संघ की नीतियों को समर्थन देने वाले कार्यकर्ता के रूप में मोदी संघ के नजदीक आते गए। बाद में तो संघ ने कट्टर हिंदुत्ववादी समझे जाने वाले लाल कृष्ण आडवानी को भी दरकिनार करके मोदी को प्रमुखता दी। नतीजा यह हुआ कि मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित किए गए और आज वे प्रधानमंत्री भी हैं। भारतीय राजनीतिक परि²श्य से स्वास्थ्य के चलते धीरे-धीरे अटल बिहारी वाजपेयी ओझल होते गए।
आज ठीक वैसी ही स्थितियां नरेंद्र मोदी के सामने मौजूद हैं। संघ और मोदी सरकार के रिश्तों में तल्खी आती जा रही है। कुछ समय पहले मीडिया में खबरें यहां तक आई कि संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों के नेताओं के विवादास्पद बयानों से आजिज आकर प्रधानमंत्री ने संघ के मुखिया मोहन भागवत के सामने पद त्यागने तक की बात कही। उनकी इस बात का प्रभाव यह हुआ कि धर्मांतरण जैसे मुद्दों पर संघ और उसके सहयोगी दलों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े। उसे घरवापसी जैसे मुद्दों पर तल्ख स्वरों को नम्र करना पड़ा। कई कार्यक्रमों को भी रद करना पड़ा।मोदी और संघ के बीच पैदा हुई दरार अब दिनों दिन चौड़ी होती जा रही है। संघ और भाजपा के बीच समन्वय बिठाने वाले सहसरकार्यवाह कृष्ण गोपाल की नाराजगी इस बात का प्रमाण है। संघ के सहसरकार्यवाह कृष्ण गोपाल के मुताबिक,प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही ठीक कार्य कर रहे हों, लेकिन उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों से संघ संतुष्ट नहीं है। वहीं मोदी संघ से भाजपा में आए या संघ में ही रहने कुछ नेताओं के बार-बार विवादित बयान देने से खुश नहीं हैं। वे अपने ही कई मंत्रियों को कड़े शब्दों में यह चेतावनी दे चुके हैं कि वे विवादास्पद बयान देने से बचें, वरना उनके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है, लेकिन यह चेतावनी भी कारगर होती दिखाई नहीं दे रही है। वे गाहे-बगाहे मोदी के लिए मुसीबत खड़ी करते रहते हैं।
एक तरफ जहां मोदी अपने ही कुछ सहयोगियों से परेशान हैं, तो वहीं दूसरी तरफ संघ भी मोदी के कुछ सहयोगियों को पसंद नहीं कर रहा है। संघ मोदी मंत्रिमंडल के कुछ फैसलों से भी नाखुश बताया जाता है। संघ अपने उदयकाल से ही स्वदेशी का हिमायती रहा है। वह आयातित वस्तुओं और दर्शन का विरोधी माना जाता रहा है। राष्ट्रवादी विचारों से ओत-प्रोत संघ कतई नहीं चाहता है कि बीमा क्षेत्र में पूंजी निवेश करके बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहां अपना रोजगार करें और भारतीय पूंजी सिमटकर अपने देश चली जाएं। संघ तो मोदी सरकार की भूमि अधिग्रहण अध्यादेश से भी खुश नहीं है। संघ और उससे जुड़े दूसरे संगठन इस अध्यादेश को किसान विरोधी मानता है। मोदी सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश का विरोध वामपंथी दलों के साथ-साथ बसपा, सपा जैसी पार्टियां भी कर रही हैं। इनका मानना है कि यह अध्यादेश पूंजीपतियों को कृषि भूमि भी अधिग्रहीत करने की इजाजत देता है। सरकारी साठगांठ से किसी भी किसान को उसकी भूमि से वंचित किया जा सकता है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध तो भाजपा के ही मजदूर संगठन और स्वदेशी जागरण मंच जैसे अनुषांगिक संगठन करते रहे हैं। मोदी और संघ के बीच सामंजस्य न बैठने की वजह से भविष्य में क्या होगा, यह कहना तो बड़ा मुश्किल है। लेकिन इतना तो तय है कि यदि ऐसा ही रहा, तो संघ के प्रिय मोदी नहीं रहेंगे।

शशि थरूर भी पहनेंगे भगवा चोला!

अशोक मिश्र 
भाजपा में अंसतुष्ट कांग्रेसी और 'आपÓ नेताओं को अपने पाले में करने की मुहिम चल रही है। पुराने कांग्रेसी नेता और पूर्व गृहमंत्री बूटा सिंह के पुत्र अरविंदर सिंह लवली भाजपा में शामिल हो ही चुके हैं तो पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के लिए भी वन्दनवार सज चुके हैं। 

अब भाजपाई सूत्र कह रहे हैं कि पत्नी सुनंदा पुष्कर की हत्या में जाल में फंसते जा रहे सीनियर कांग्रेसी शशि थरूर किसी भी दिन भगवा चोला पहन चौंका सकते हैं। हालांकि सूत्र बता रहे हैं कि थरूर अपनी पत्नी की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत के मामले में एनडीए सरकार द्वारा लपेट लिए जाने की आशंका से ग्रस्त हैं। वे कुछ ही दिन पहले यह कह भी चुके हैं कि दिल्ली पुलिस उन्हें फंसाने की कोशिश कर रही है। ऐसे में उन्हें भगवा चोला धारण कर लेना ज्यादा मुफीद लग रहा है। वैसे भी वे मोदी के प्रधानमंत्री बनने से लेकर अब तक कई बार प्रशंसा कर चुके हैं और करते भी रहते हैं। मोदी थरूर की इस आशंका को समझते भी हैं। भाजपा उसके महत्वपूर्ण और आजीवन पार्टी के प्रति वफादार रहे नेताओं को अपने पाले में करके राजनीतिक शिकस्त देना चाहती है, इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उन कांग्रेसी नेताओं को चिन्हित करना शुरू किया, जो कांग्रेस में काफी समय से होने के बावजूद इन दिनों असंतुष्ट चल रहे हैं। यही वजह है कि एनडीए सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2 अक्टूबर को स्वच्छ भारत अभियान के नौ रत्नों की सूची जारी की, तो उनमें शशि थरूर का नाम भी था। कांग्रेस की केरल इकाई ने तो उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग भी की थी। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी भी उन्हें पार्टी अनुशासन में रहने की हिदायत दे चुकी हैं। पंजाब के कई बार मुख्यमंत्री रह चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह भी भाजपा का दामन थामने की राह पर हैं। उन्हें पिछले कई सालों से पार्टी में कोई तवज्जो नहीं दी जा रही है। इससे वे असंतुष्ट हैं। आजीवन कट्टर कांग्रेसी नेता रहे स्व. माधवराव सिंधिया के सुपुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपाई चोला धारण करवाने के लिए उनकी बुआ विजयाराजे सिंधिया काफी दिनों से प्रयत्नशील हैं। कोई ताज्जुब नहीं है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की कभी कोर टीम के सदस्य रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया भी तवज्जो न मिलने के चलते भाजपाई हो जाएं।

Wednesday, January 14, 2015

बेशर्म और मक्कार हैं पाकिस्तान के नेता

अशोक मिश्र

पाकिस्तान के राजनीतिज्ञ निहायत ही बेशर्म, झूठे, मक्कार और मानवता विरोधी हैं। इनकी बेशर्मी और मक्कारी की सजा वहां की आम जनता को भुगतनी पड़ रही है। कई बार वैश्विक मंचों पर यह साबित हो चुका है कि पाकिस्तान ही एशिया महाद्वीप में फैले आतंकवादियों का पनाहगाह है। वहां आंतकवादियों को न केवल पनाह दिया जाता है, बल्कि उन्हें प्रशिक्षित किया जाता है, उन्हें हथियार और आर्थिक मदद मुहैया कराई जाती है। भारत भी न जाने कितनी बार भारत में होने वाली आतंकी घटनाओं में शामिल होने वाले पाक आतंकियों के बारे में पुख्ता सुबूत सौंप चुका है, लेकिन बेशर्म और झूठा पाकिस्तान उसे मानने को तैयार ही नहीं है। पाकिस्तान के बेशर्म राजनेताओं की पोल अमेरिका द्वारा पाक को आतंकवाद के खिलाफ मुहिम चलाने के मामले में पाक साफ करार दिए जाने के दावे में खुल चुकी है। पाकिस्तान के नेताओं ने दावा यह किया था कि अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी ने पाकिस्तान को आतंकी गुटों के खिलाफ कार्रवाई करने की प्रशंसा करते हुए कैरी-लुगार बिल के तहत तीन हजार करोड़ रुपये (५३२ मिलियन डॉलर) असैन्य सहायता देने का प्रस्ताव अमेरिकी सरकार को भेजा है। पाकिस्तान को आतंकवाद के मुद्दे पर क्लीन चिट मिलने की खबर मिलते ही जब भारत ने अमेरिका के सामने अपनी कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की, तो अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने साफ किया कि ऐसी कोई क्लीनचिट पाकिस्तान को नहीं दी गई है। हालांकि यह भी सही है कि अमेरिका पाकिस्तान को गाहे-बगाहे आर्थिक मदद करता रहा है, आगे भी करता रहेगा। एशिया महाद्वीप पर निगाह रखने के लिए अपने सैनिकों को तैनात करने का सबसे बढिय़ा ठिकाना पाकिस्तान के अलावा कोई दूसरा अमेरिका को नहीं मिलने वाला है। यही वजह है कि अमेरिका तमात विसंगतियों के बावजूद पाकिस्तान का साथ नहीं छोड़ता है। पाकिस्तान के राजनीतिज्ञों की गलत नीतियों के चलते वहां की अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है, वह एक विफल राष्ट्र घोषित किए जाने के कगार पर है। ऐसी हालत में उसे अगर अमेरिकी आर्थिक सहायता न प्राप्त हो, तो वह बरबाद हो जाएगा। आर्थिक मदद देने वाले अमेरिका द्वारा बेइज्जत होने और घुड़की मिलने के बावजूद पाकिस्तान के राजनीतिज्ञ, सेना और खुफिया अधिकारियों में कोई तब्दीली आती हुई नहीं दिख रही है।
पाकिस्तान अपने शेखचिल्लीपने के चलते कई बार अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मुंह की खा चुका है, इसके बावजूद वह सुधरने को तैयार नहीं है। पाकिस्तानी नेताओं, सत्ताधीशों की बचकानी हरकतों का खामियाजा वहां की जनता को भुगतना पड़ रहा है। गरीबी, बेकारी, आतंकवाद, भुखमरी, अशिक्षा और धार्मिक अज्ञानता जैसी बेडिय़ों में जकड़ी पाकिस्तानी जनता कराह रही है, अपने भाग्यविधाताओं को  कोस रही है। वैसे तो पाकिस्तान में आजादी के बाद से ज्यादातर सैनिक शासन ही रहा है, लेकिन जब भी चुनाव हुए हैं, उसने बड़ी आशा से अपना नेता चुना है, ताकि उनके जीवन में नया सूर्योदय हो। अफसोस तो इस बात का है कि हर बार पाकिस्तानी जनता को निराशा ही हाथ लगी है। भारत के खिलाफ आम जनता में विष वमन करके सत्ता हथियाने वाले पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ छल-प्रपंचों का सहारा बहुत पहले से ही लेते रहे हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी के नाम पर किया गया यह छल-प्रपंच सिर्फ एक कड़ी भर ही है। पाकिस्तान अपनी दुर्गति के बावजूद बाज नहीं आ रहा है। वह भारत के खिलाफ जहर उगलने का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों का हर संभव उपयोग करता है। हालांकि वह हर बार अपने उस कुत्सित प्रयास में विफल ही रहता है। पाकिस्तान ने अमेरिकी विदेश मंंत्री जॉन कैरी के नाम पर क्लीन चिट दिए जाने की अफवाह इसलिए फैलाई क्योंकि गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आ रहे हैं। यह पाकिस्तानी नेताओं को बर्दाश्त नहीं हो रहा है। वे चाहते हैं कि किसी भी तरह भारत और अमेरिका की बढ़ती नजदीकियों को दूरियों में बदल दिया जाए। यह अफवाह शायद इसी प्रयास का एक हिस्सा भर है।

भारत स्वच्छ अभियान और फैशनेबल महिलाएं

अशोक मिश्र
वे भारत स्वच्छ अभियान में भाग लेने के लिए इकट्ठा हुई थीं। सोने-चांदी और हीरों के आभूषण से लकदक..मानो किसी फैशन परेड में भाग लेने आई हों। भीषण सर्दी में भी कुछ दर्शी, कुछ पारदर्शी पोशाकों में वे गुजरे जमाने की फिल्म तारिका जीनत अमान लग रही थीं। इस भीड़ में कुछ प्रेम चोपड़ा, रंजीत, गुलशन ग्रोवर और शक्ति कपूर किस्म के खल पात्र (विलेन) भी शामिल थे। अभियान में भाग लेने आए ज्यादातर नेता और कार्यकर्ता तो दर्शन लाभ और बतरस की लालच में इर्द-गिर्द मंडरा रहे थे। तभी भीमकाय शरीर वाली मिसेज बत्रा गाड़ी से उतरीं। मिस चतुर्वेदी ने मोहिनी मुस्कान बिखेरते हुए उनका स्वागत किया। गर्मजोशी भरा स्वागत देखकर मिसेज राठौर 'हुंह...Ó कहकर बुदबुदाती हुई भीड़ से थोड़ा दूर खिसक गईं।
'आज आप थोड़ा लेट हो गईं, मिसेज बत्रा! हम लोग आपका इंतजार ही कर रहे थे।Ó यह मिसेज अग्रवाल थीं, शहर के सबसे बड़े उद्योगपति की अर्धांगिनी।
मिसेज अग्रवाल की बात सुनकर मिसेज बत्रा कुछ झेंप-सी गईं। उन्होंने फुसफुसाते हुए कहा, 'क्या करूं, भाभी जी। इस मरी काम वाली के पेट में आज ही दर्द होना था। सुबह काम पर ही नहीं आई। बाद में फोन आया कि काम वाली बीमार है, पेट दर्द हो रहा है। किसी तरह सारा काम मैनेज किया और फिर भागी-भागी आई।Ó
बात मिस चतुर्वेदी ने सुन ली। वह भी इस फुसफुसी वार्तालाप में शामिल हो गईं। बोली, 'इन बाइयों ने हम लोगों का जीना हराम कर रखा है। जब मर्जी हुई, एक फोन कर दिया, आज बेटा बीमार है, आज पति को बुखार है। मतलब इनकी बहानेबाजियों से जी तंग हो गया है। झाडू पोछे वाली से दो बरतन साफ करने को कहो, तो हजार नखरे। बर्तन धोने वाली बाई का काम मैं क्यों करूं? किचन वाली बाई से कहो?Ó
मोटी थुलथुल मिसेज बत्रा ने कहा, 'यार! क्या बताऊं। एक दिन मेरे 'हब्बीÓ का बड़ा मन हुआ मेरे हाथ के बने पोहे खाने का। मैं किचन में गई, तो देखा चार बर्तन सिंक में जूठे पड़े हैं। कई साल बाद तो किचन में गई थी। मेरा वीपी हाई हो गया, बाइयों को थोड़ी लताड़ लगा दी। बस, बाइयों ने हड़ताल कर दी। मैंने भी उन्हें भाव नहीं दिया। अगले दिन दो कमरों में झाडू-पोछा करने के बाद बदन ऐसा टूटने लगा कि मुझे लगा, अगर मैंने और कुछ किया, तो गिर पडूंगी। बत्रा साहब को फोन किया, तो उन्होंने एंबुलेंस मंगाई और तुरंत गुडग़ांव के हास्पिटल में भर्ती कराया। तीन दिन हास्पिटल में रहना पड़ा। काफी मनाने के बाद बाइयों ने काम करना शुरू तो किया, लेकिन अब बारह सौ के बदले डेढ़ हजार देने पड़ते हैं। जरा-सी झाडू, पोछा, बर्तन धोने वाली बाइयों के इतने नखरे? मैं तो तंग आ गई हूं।Ó
तभी भीड़ में से कोई चिल्लाया, 'मीडिया वाले आ गए। फोटोग्राफर आ गए।Ó सबने एक बार अपने चेहरे और बालों पर अपने हाथ फिराकर व्यवस्थित होने का अंदाजा लगाया। फिर सबने अपने-अपने झाडू पकड़ लिए और सड़क बुहारने लगीं। दूसरे दिन सभी अखबारों के पेज तीन पर इन सबके चेहरे चमक रहे थे।

Thursday, January 8, 2015

स्वामी विवेकानंद : ऐसा संन्यासी जिसने देश को जगा दिया

-अशोक मिश्र
'उठो, जागो और तब तक नहीं रुको, जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए।Ó यही वह शब्दों के रूप में जलते हुए अंगार थे जिसे हथेली पर रखकर ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी से त्रस्त भारत के असंख्य युवाओं ने अपनी कुर्बानी दी थी। शोषित, पीडि़त और अज्ञानता के तिमिर में खोए राष्ट्र  के युवाओं को अपने इस तप्त वाक्य से जगाने वाले थे युवा संन्यासी, विचारक, दार्शनिक नरेंद्रनाथ दत्त यानी स्वामी विवेकानंद। वेदांत के सिद्धांतों की पुर्नव्याख्या और स्थापना करने वाले युवा आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद ने पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता की ऐसी मशाल जलाई कि जिसको थामकर हजारों युवक देश को स्वाधीन कराने का संकल्प लेकर घर से निकल पड़े और आत्मोत्सर्ग की ऐसी मिसाल पेश की जो आज भी पूरी दुनिया में बेजोड़ है।
धर्म, विज्ञान, अध्यात्म, क्रांति और संस्कृति में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले स्वामी विवेकानंद का जन्म १२ जनवरी १८६३ को अंग्रेजी सभ्यता के समर्थक विश्वनाथ दत्त के यहां हुआ था। वे पुत्र को भी अपने रंग में रंगना चाहते थे, ताकि बड़ा होकर उनकी तरह कलकत्ता हाईकोर्ट का प्रसिद्ध वकील बन सके। लेकिन यह किसे ज्ञात था कि यही नरेंद्र नाथ एक दिन बड़ा होकर भले ही स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग न ले, लेकिन हजारों स्वाधीनता संग्राम सेनानियां का प्रेरणास्रोत बन जाएगा। वेदांत और योग को पश्चिमी जगत में लोकप्रियता दिलाने वाला युग प्रवर्तक बन जाएगा। पुत्र नरेंद्र नाथ पिता के रंग में तो नहीं रंगा, लेकिन उस पर अपनी मां भुवनेश्वरी देवी का रंग जरूर चढ़ा। बचपन से ही परमात्मा को पाने की लालसा जो प्रबल हुई, तो वह आजीवन बनी रही। 'ब्रह्म समाजÓ में जब उनकी उत्सुकताओं का शमन नहीं हो पाया, तो वह पहुंचे रामकृष्ण परमहंस की शरण में। यहां उनकी न केवल जिज्ञासाएं शांत हुईं, बल्कि संन्यासी रूप धारण करके पूरे हिंदुस्तान के दरिद्र नारायणों की दशा और दिशा जानने का मौका मिला।
गले के कैंसर से पीडि़त गुरु रामकृष्ण परमहंस की जितनी लगन और श्रद्धा के साथ उन्होंने सेवा की, वह विरले ही लोगों में दिखाई देती है। गुरु के काल कवलित होने के बाद उन्होंने अपना जीवन दबे-कुचले लोगों के उद्धार, देश को धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में विश्वगुरु बनाने को समर्पित कर दिया। उन्होंने अपने अल्पकालीन जीवन में बस यही सपना देखा कि पूरी दुनिया सुख, शांति और संपन्नता के साथ रह सके। एक ऐसा समाज बने जिसमें मनुष्य मनुष्य के बीच कोई भेदभाव न रहे। ऊंच-नीच और जातीयता जैसी भावना का उस समाज में कोई स्थान न हो। जिस युग में स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ था, उस समय एक लंबे समय से ब्रिटिश दासता में जकड़ा भारतीय समाज नैराश्य की भावना से ओतप्रोत था। युवाओं में कुंठा, हताशा और कई तरह की सामाजिक कुरीतियां व्याप्त थीं। इन कुरीतियों से निजात पाए बिना देश को स्वाधीन कराना नामुमकिन था। ऐसे में ही एक अवतारी पुरुष की तरह भारतीय समाज में प्रकट हुए स्वामी विवेकानंद जी।
उन्होंने न केवल भारती समाज को जाग्रत किया, बल्कि  ११ सितंबर १893 में अमेरिका के शिकागो शहर में होने वाले विश्व धर्म महासभा में पहुंचकर 'अमेरिकी बहनों और भाइयोंÓ कहकर पूरे पाश्चात्य जगत को झकझोरकर जगा दिया। पूरा विश्व चौंककर भारतीय दर्शन की ओर आशा भरी निगाहों से देखने लगा। यह क्रांति का प्रेरणास्रोत, आध्यात्मिक जगत का गुरु, युवाओं का पथ प्रवर्तक अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सका। भरी जवानी में देश और समाज हित में गेरुआ वस्त्र धारण कर पूरी दुनिया को जगाने वाला यह महापुरुष, महान देशभक्त, महान वक्ता और दरिद्र नारायण का उद्धारक ४ जुलाई १९०२ को बेंगलूर के रामकृष्ण मठ में अनंत काल के लिए सो गया।

Tuesday, January 6, 2015

मानसिकता बदलने की जरूरत

-अशोक मिश्र
हालांकि गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने सूरत पुलिस के एंटी टेरर मॉक ड्रिल में नकली आतंकियों को नमाजी टोपी पहनाए जाने के मामले में माफी मांग ली है। मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल ने माना कि अभ्यास में लोगों को एक खास धर्म के अनुयायियों की टोपी पहने हुए आतंकवादी पेश करना एक भूल है। वहीं, गुजरात बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चे के प्रमुख समेत कई वर्गों ने उसकी आलोचना की थी और मुख्यमंत्री ने कहा था कि धर्म को आतंकवाद से जोडऩा गलत है।
यह छद्म अभ्यास सूरत पुलिस ने ओलपाड के नजदीक डाभरी इलाके में किया था। लेकिन यह गुजरात पुलिस की मानसिकता को जाहिर करने के लिए काफी है। गुजरात के ही नर्मदा जिले के केवाडिय़ा क्षेत्र में हुए एक अन्य मॉक ड्रिल (छद्म अभ्यास) का वीडियो सामने आया है जिसमें एक धर्म विशेष की वेशभूषा धारण किए दो छद्म आतंकियों को पुलिस कर्मचारियों ने पकड़ रखा है और वे चिल्लाकर कह रहे हैं कि तुम चाहे मेरी जान ले लो। इस्लाम जिंदाबाद। इन दोनों छद्म अभ्यासों में एक धर्म विशेष को ही दिखाया गया, उन्हें नमाजी टोपी पहनाई गई, छद्म आतंकियों के मुंह से इस्लाम जिंदाबाद कहलवाया गया। अगर हम थोड़ी देर के लिए इस मात्र संयोग ही मान लें, तो भी यह संयोग तब खतरनाक संकेत की ओर इशारा करते हैं, जब देश में कथित धर्म परिवर्तन और घर वापसी के मुद्दे को लेकर मामला गर्म है। संसद से लेकर सड़क तक  गर्माया हुआ है। संघ और उससे अनुषांगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद, धर्म जागरण समिति जैसे संगठन बार-बार यह घोषणा कर रहे हैं कि अमुक जिले में इतने मुसलमानों, इतने ईसाइयों की घरवापसी कराई जाएगी। संघ और उसके सहयोगी दलों का दावा है कि सन २०२० तक इस देश के सारे नागरिक हिंदू हो जाएंगे। यही नहीं, कुछ मुस्लिम और ईसाई संगठन भी धर्म परिवर्तन की कोशिश करते बाज नहीं आ रहे है। आए दिन ऐसी खबरें आती रहती हैं कि फलां जगह पर लोगों को ईसाई हो जाने पर अमुक सुविधाएं दिए जाने का आश्वासन दिया गया, तो अमुक जगह पर मुस्लिम संगठन ने हिंदुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया। जबरदस्ती या लालच देकर धर्म परिवर्तन कराने को किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता है।
गौरतलब है कि गुजरात में ७ से ९ जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस और ११ से १३ जनवरी तक वाइब्रेंट गुजरात निवेशक आयोजित किए जाने हैं। इन आयोजनों की सुरक्षा के मद्देनजर गुजरात पुलिस जगह-जगह मॉक ड्रिल करके सुरक्षा में होने वाली खामियों की पड़ताल कर रही है। मॉक ड्रिल के दौरान ठीक वैसा ही अभ्यास किया जा रहा, जैसा सचमुच आंतकी हमला होने के दौरान पुलिस करती है। ऐसे मॉक ड्रिल विभिन्न अवसरों पर लगभग प्रत्येक राज्य की पुलिस करती है, ऐसा छद्म अभ्यास किसी न किसी राज्य में हर महीने होता रहता है। मुद्दे की बात तो यह है कि गुजरात पुलिस ने अब तक सामने आए दोनों मामलों में एक ही धर्म विशेष के आतंकवादियों को ही क्यों दिखाया? क्या गुजरात पुलिस यह मानती है कि आतंकी सिर्फ नमाजी टोपी पहनने वाले ही होते हैं। वह भी तब जब प्रधानमंत्री और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पूरी दुनिया के सामने यह घोषित कर चुके हैं कि मुसलमान भी उतने ही देशभक्त हैं, जितने कि इस देश के हिंदू। क्या गुजरात पुलिस अपने ही राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री की बातों से इत्तफाक नहीं रखती? हो सकता है कि यह मानवीय चूक हो, जैसा कि मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल और गुजरात के अन्य वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने माना है और मामले की जांच कराने की बात भी कही है, लेकिन यह चूक एक धर्म विशेष को आहत करने के लिए काफी है। यह उनकी देशभक्ति पर संदेह करना है, जो किसी भी दशा में उचित नहीं है। यह इत्तफाक होते हुए भी निंदनीय है। पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को कोई भी ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे किसी भी धर्म के लोगों में असंतोष पैदा करे। 

अच्छे दिन का बाप आ गया

अशोक मिश्र
दिल्ली के एक पार्क में चौकीदार की निगाह बचाकर दो गधे घुस आए और पार्क की हरी-भरी घास जल्दी-जल्दी चरने लगे। चरते-चरते दोनों पास आ गए। एक ने दूसरे से कहा, 'भाई राम-राम! बहुत दिनों के बाद हमारे अच्छे दिन आए हैं। जल्दी-जल्दी पहले पेट भर लो, पगुराना बाद में, खाली समय में। अगर चौकीदार आ गया, तो दो लट्ठ पीठ पर बजाएगा, तबीयत हरी हो जाएगी।Ó
दूसरे गधे ने एक छोटे पौधे को जड़ से उखाड़ा और जल्दी से निगलते हुए कहा, 'राम-राम भइया! तुमने अच्छे दिनों की बात भली चलाई। बहुत शोर सुना है अच्छे दिनों का। मेरे मालिक का पांच साल का बच्चा भी तोतली आवाज में गाता था, 'ढिन..ढिन को लाने वाले हैं, अच्छे दिन आने वाले हैं। ये अच्छे दिन क्या होते हैं? हमारे भी अच्छे दिन आएंगे?Ó पहले वाला हंस पड़ा। उसने लयात्मक ढंग से दुलत्ती झाड़ी और गर्दभ राग 'ढेंचू-ढेंचूÓ में गाते हुए जवाब दिया,'अबे गधे! तू रहा गधा का गधा। जिस भी दिन अच्छे दिन आए, तो समझ लो कि हम गधों के दिन सुनहरे और रातें चांदी की होंगी। मेरा-तेरा मालिक हमारे आगे-पीछे घूमता फिरेगा। सुबह-शाम और दोपहर में वह हाथ जोड़कर चिरौरी करता फिरेगा कि भइया! देखो कितनी हरी, मुलायम घास लेकर आया हूं। पहले नाश्ता कर लो, फिर मर्जी हो, तो काम करना, वरना कोई बात नहीं। उसका संबोधन बदल जाएगा। वह 'अबे गधेÓ कहने की बजाय 'राजा बेटाÓ कहकर पुकारेगा। देश की जितनी भी सुंदर गधी होंगी, वे भी हमारे आगे पीछे घूमेंगी। हम भी उनके साथ इश्क लड़ाएंगे, फ्लर्ट करेंगे। कभी इसको छेड़ेंगे, तो कभी उसको। सोच कितना मजा आएगा, जब हम गधों के अच्छे दिन आएंगे। मुझे तो बहुत जल्द अच्छे दिनों के आगमन की आहट सुनाई दे रही है। मेरा मन इस कड़ाके की ठंड में ही फागुनी बयार की सोचकर मतवाला हुआ जा रहा है। जी चाहता है कि खूब गाऊं। दुलत्तियां झाड़कर नाचूं।Ó
दूसरा वाला गधा घबरा गया, 'अरे नहीं..बड़े भाई! ऐसा गजब मत करना। अभी तो मैं आपकी बातों के चक्कर में कुछ चर भी नहीं पाया हूं। मैं इन्सानों की तरह इतनी जल्दी चर नहीं पाता हूं। सुना है कि कुछ गधे कायांतरित होकर इंसान बन गए हैं, जो इतनी जल्दी सब कुछ चर जाते हैं कि पूछो मत। मुझे भी जल्दी-जल्दी कुछ चर लेने दीजिए। बड़े दिनों के बाद ऐसी हरी-हरी घास चरने को मिली है। आपने तो अपना पेट भर लिया, अब मेरे पेट पर क्यों दुलत्ती झाडऩा चाहते हो। आपने इधर गर्दभ राग अलापा और उधर पार्क का चौकीदार लट्ठ लेकर हम दोनों की पीठ सेंक देगा। इस जाड़े के मौसम में मैं क्या कोई भी पीठ सिंकवाना नहीं चाहता है।Ó
पहले वाले गधे ने अपने साथी की विनती को अस्वीकार करने के बाद गर्दभ राग अलापने के लिए मुंह ऊपर उठाया ही था कि उसकी पीठ पर एक लट्ठ  बजा। वह दर्द से तिलमिलाया और पूंछ उठाकर एक तरफ यह कहते हुए भागा, 'अब गधे भाग...अच्छे दिन का बाप आ गया।Ó और फिर दोनों गधे पिटते-पिटते पार्क से भाग खड़े हुए।

सेक्युलर पार्टियों के वोट बैंक में लगेगी सेंध?

अशोक मिश्र         
उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली सहित हिंदी पट्टी में निकट भविष्य में हिंदूवादी संगठन बजरंग दल, शिवसेना, विश्व हिंदू परिषद की तरह मुस्लिम कट्टरवादी संगठन आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएम आईएम) भी सत्ता की प्रबल दावेदार के रूप में उभरे, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इन दिनों देश में धर्मांतरण या कथित घर वापसी का मुद्दा संसद से लेकर सड़क तक गर्माया हुआ है। ऐसे में आगरा के वेदनगर में पिछले दिनों कथित रूप से घर वापसी करने वाले लोगों से एआईएमआईएम के लोगों ने संपर्क साधने के साथ अल्पसंख्यकों को रिझाना शुरू कर दिया है। एआईएमआईएम के उत्तर प्रदेश संयोजक शौकत अली ने कथित धर्मांतरण करने वाले लोगों के बीच पहुंचकर न केवल संघ और बजरंग दल पर निशाना साधा, बल्कि ऐसा करके उन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कवायद भी शुरू कर दी है। अल्पसंख्यकों को प्रभावित करने के लिए एमआईएम के पदाधिकारियों ने कंबल, खाद्यान्न बांटने के साथ-साथ धर्म परिवर्तन करने वाले लोगों को हर संभव मदद का आश्वासन भी दिया है। जाहिर-सी बात है कि अब भाजपा, संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों की तर्ज पर एमआईएम भी उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें मजबूत करने को संवेदनशील मुद्दे उठाएगी, ताकि अल्पसंख्यकों और दलितों में अपनी पैठ कायम की जा सके।
महाराष्ट्र और तेलंगाना में मिली सफलता के बाद तो उसकी उम्मीदों को पंख लग गए हैं। उसने निकट भविष्य में दिल्ली में होने वाले और बाद में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में उतरने की बात कहनी शुरू कर दी है। कयास लगाया जा रहा है कि दिल्ली में मटिया महल सीट से कई बार जीत चुके विधायक शोएब इकबाल को दिल्ली प्रदेश की जिम्मेदारी दी जा सकती है। एमआईएम का अगला पड़ाव पश्चिम बंगाल है। एमआईएम बहुत ही सधे कदमों से हिंदी पट्टी और पश्चिम बंगाल के मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने की तैयार में है।
आपको बता दें कि एआईएमआईएम असदउद्दीन ओवैसी और अकबरुद्दीन ओवैसी की पार्टी है जो हिंदुओं और देश के खिलाफ जहर उगलने के लिए मशहूर रहे हैं। भाजपा, संघ और अन्य हिंदूवादी संगठनों के खिलाफ कठोर शब्दों का उपयोग करके माहौल में उत्तेजना पैदा करना, ओवैसी बंधुओं की आदत रही है। मुसलमानों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए ओवैसी बंधुओं ने कई बार ऐसा किया है। शिवसेना, बजरंग दल, विहिप की ही तर्ज पर गरजने वाले ओवैसी बंधुओं ने इस बार हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दो सीटों पर सफलता पाई है। इसके अलावा पार्टी पांच सीटों पर दूसरे नंबर पर और नौ पर तीसरे स्थान पर रही। सांप्रदायिक पार्टी की छवि वाली एमआईएम के तेलंगाना प्रदेश में सात विधायक और एक सांसद हैं।
राजनीतिक हलकों तो यह बात भी कही जा रही है कि भाजपा और उसके सहयोगी दल चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि में असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी एमआईएम का विस्तार हो। वह यह मानकर चल रही है कि हिंदी भाषी राज्यों में ओवैसी जितना मजबूत होंगे, उतना ही भाजपा के सत्ता पर काबिज होने की संभावना बढ़ती जाएगी। उसका मानना है कि उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में दलित और मुस्लिम मतदाता मिलकर उसका खेल बिगाड़ देते हैं। अगर उत्तर प्रदेश की ही बात करें, तो प्रदेश के कुल मतदाताओं में दलित मतदाताओं का प्रतिशत 21 है। कई चुनाव क्षेत्र तो ऐसे हैं, जहां यही दलित मतदाता उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला करते हैं। उत्तर प्रदेश में ऐसे 44 लोकसभा क्षेत्र हैं, जहां दलितों की संख्या 20 प्रतिशत से ज्यादा है। इसके अलावा 27 लोकसभा क्षेत्रों में दलितों की संख्या 15 से 20 प्रतिशत है। मुस्लिम वोटरों की संख्या 20 फीसदी है। पश्चिम बंगाल में करीब 25 फीसदी मुस्लिम हैं जो ज्यादातर टीएमसी के पाले में जाते हैं। मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन इसी वोट बैंक पर निगाह गड़ाए हुए है।
यही वह वोट बैंक है जिसके सहारे बसपा, सपा, राजद, आरएलडी, जनता दल यूनाइटेड, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, पीस पार्टी, कौमी एकता दल, अपना दल जैसी तमाम पार्टियां विभिन्न राज्यों की सत्ता पर आती-जाती रही हैं। एक समय था, जब उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पश्चिम बंगाल आदि हिंदी और गैर हिंदी भाषी क्षेत्र के राज्यों में मुसलमानों और दलितों के वोट चुनावों के दौरान कांग्रेस को मिलते थे। इन राज्यों में सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के उदय और विकास के बाद कांग्रेस का यह वोट बैंक खिसक गया और इनमें से ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस न केवल सत्ता से बाहर हो गई, बल्कि चौथे-पांचवें नंबर पर सिमट गई। महाराष्ट्र में तो ओवैसी की पार्टी के पांव जमाने के पीछे शिवसेना का भी हाथ रहा है। महाराष्ट्र में दो सीटों पर जीतने वाली ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम और कट्टर मुस्लिम संगठन तीसरा महाज ने मालेगांव के महापौर और उपमहापौर का पद शिवसेना की बदौलत ही हासिल किया है। शिवसेना ने तीसरा महाज के हाजी इब्राहिम को खुला समर्थन दिया, तो उपमहापौर के चुनाव के समय तटस्थ रही जिसका नतीजा यह हुआ कि दोनों कट्टर मुस्लिम संगठनों का इन पदों पर कब्जा हो गया। मालेगांव में कांग्रेस, जनता दल और मालेगांव विकास आघाड़ी हाथ मलते रह गए।
इतना ही नहीं, एनसीपी को झटका देते हुए उसके आठ नगर सेवक हाल में हुए विधानसभा चुनाव से ठीक पहले एआईएमआईएम में चले गए थे। यह वही शिवसेना है, जो पिछले कई सालों से एआईएमआईएम और ओवैसी बंधुओं पर हमले बोलती रही है। शिवसेना के मुखपत्र सामना में तो यहां तक लिखा गया था कि ओवैसी बंधुओं की कट्टरपंथी विचार व्यक्त करने और उनका प्रचार प्रसार करने की आदत है। दोनों ने देश में मुस्लिमों के दिमाग में जहर भरा है। पिछले साल मार्च में शिवसेना नेता दिवाकर रावते ने कहा था कि इस दल पर पूरे महाराष्ट्र में प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। जाहिर सी बात है कि ओवैसी और उनकी पार्टी की सक्रियता के चलते हिंदी भाषी राज्यों में अपनी दुकान चला रहे धर्मनिरपेक्ष कही जाने वाली पार्टियों के सिर पर एक खतरा मंडराने लगा है। अब उनके वोट बैंक पर सेंध लगने वाली है। ऐसी हालत में उन्हें अपना वोट बैंक बचाने के लिए कुछ ऐसा करना होगा, जिससे दलित और अल्प संख्यक वोटों का विभाजन रोका जा सके।