Sunday, February 19, 2017

बड़ी उलझन है भाई

अशोक मिश्र
कहते हैं कि मानो तो देव, नहीं तो पत्थर तो हैं ही। मानिए तो बहुत बड़ी उलझन है, न मानिए, तो यह कोई समस्या ही नहीं है। जब समस्या ही नहीं, तो फिर यह ‘…किंतु, ..परंतु, ..आह, ..वाह’ जैसी बातें निरर्थक हैं। लेकिन मेरे लिए तो यह बहुत बड़ी समस्या है। एकदम जम्मू-कश्मीर विवाद की तरह, जिसे जितना सुलझाओ, उतनी ही उलझती जाती है। मेरे सामने सवाल यह नहीं है कि किसको चुनें। मुद्दा यह है कि किसे नकार दें। कौन अच्छा है, कौन बेकार..यह तय कर पाना, कोई आसान काम है क्या? ऐसी ऊहापोह जैसी स्थिति तो उन लड़कियों के सामने भी पैदा नहीं हुई होगी जिन्हें प्रेमी और माता-पिता द्वारा सुझाए गए दस-बारह लड़कों में से किसी एक को जीवन साथी के रूप में चुनना हो। समस्या यह है कि मन किसी एक के नाम पर स्थिर नहीं हो पा रहा है। एक से बढ़कर एक प्रत्याशी हैं चुनाव मैदान में। कोई किसी गुण में बेजोड़ है, तो कोई किसी दूसरे गुण में अद्वितीय। किसी के नाम पर हत्या के बारह मुकदमे चल रहे हैं, तो कोई पांच हत्या, दो हत्या के प्रयास के आरोप में जमानत पर है। बलात्कार के मामले की सजा तो पांच साल पहले ही काट चुका है।
अब कल ही वोट मांगने आए, प्रत्याशी की खूबियां सुनें। बेचारे ने सात बार सिर्फ एक ही उद्योगपति से रंगदारी वसूली, तो नामाकूल व्यापारी ने पुलिस बुलाकर पकड़वा दिया। यह तो कहिए कि थाने की पुलिस शरीफ निकली। व्यापारी के घर से पकड़कर लाई और थाने में चाय-पानी कराकर बेचारे को विदा कर दिया, वरना बेचारा तो गया था न तेरह के भाव। व्यापारी को कौन समझाए कि जहां गुड़ होगा, वहीं तो चीटें आएंगे। और चीटें आएंगे, तो कुछ न कुछ गुड़ खाएंगे ही। इसमें भला आपत्तिजनक और गैरकानूनी क्या है? पिछले हफ्ते एक पार्टी का उम्मीदवार मेरी गली में प्रचार कर रहा था, उसके सुदर्शन चेहरे पर अर्ध चंद्राकार चाकू का निशान इस तरह सुशोभित हो रहा, मानो चुनाव में विजय के लिए उसने द्वितीया के चांद पर अपना माथा पटका हो और चंद्रमा ने आशीर्वाद के रूप में अपने अर्धचंद्राकार स्वरूप की छाप लगा दी हो। उसे देखकर तो मन में श्रद्धा का भाव इस तरह उमड़ा पड़ रहा था, जैसे ज्यादा भूखा आदमी किसी शादी समारोह में खाने का मौका पा जाए और अजर-गजर जो भी मिलता जाए, खाता जाए और बाद में वह खाया-पिया बार-बार उमड़-घुमड़कर बाहर आने को आतुर हो।
जब ऐसे ऊर्जावान, प्रतिभावान, दयावान, बली, बाहुबलि उम्मीदवार हों, तो मन ऊहापोह की स्थिति में होगा ही। उस पर तो घबराहट और बढ़ जानी ही है, जब उम्मीदवारों के दादा ने अप्रत्यक्ष धमकी दे रखी हो कि सारी जन्मकुंडली है हमारे पास, सबकी पोल खोल दूंगा। दिक्कत यही है कि किसको नकार दें। सब एक से बढ़कर एक सुपरलेटिव डिग्री के हैं। हत्यारे हैं, बलात्कारी हैं, भ्रष्टाचारी हैं, दलाल हैं, शोषक हैं, दोहक हैं, उत्पीड़क हैं। मजा यह कि न ऊधौ कम हैं, न माधौ। विडंबना यह है कि इन्हीं में से किसी एक को चुनना है। बड़ी उलझन है भाई! क्या करूं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं।

Monday, February 13, 2017

प्रेम बाड़ी उपजे, प्रेम हाट बिकाय

अशोक मिश्र
एक दिन मैं ऑफिस से कुछ जल्दी घर चला आया। मैंने देखा कि मेरा तेरह वर्षीय बेटा और उसका हमउम्र दोस्त राकेश, दोनों बरामदे में बैठे बातचीत कर रहे थे। मेरा बेटा अपने दोस्त से कह रहा था, ‘देख, तू चाहे कुछ भी कहे, लेकिन चार-पांच साल बाद मैं अमेरिका जरूर जाऊंगा।’ उसके दोस्त ने कहा, ‘हायर स्टडी के लिए? यह तो बहुत अच्छी बात है। यार, वहां पढ़ाई के लिए जाना तो मैं भी चाहता हूं। वहां की डिग्रियों की सचमुच बड़ी वैल्यू है।’  मेरे बेटे ने मुंह बिचकाते हुए कहा, ‘हायर स्टडी के लिए नहीं बुद्धू, प्रेम की पढ़ाई करने के लिए। कल ही एक अखबार में खबर आई है कि अमेरिका में एक कंपनी अब लोगों को प्रेम करना सिखाएगी। यह एकदम नई किस्म की पढ़ाई है। जिसकी डिग्री और कहीं नहीं दी जाती है। अपनी गर्लफ्रेंड या ब्वायफ्रेंड को कैसे एसएमएस किया जाए, फेसबुक पर कैसी पोस्ट डाली जाए, ट्विटर पर क्या लिखा जाए, ऐसा क्या लिखा जाए कि वह इंप्रेस हो जाए, इसकी वहां शिक्षा दी जाएगी।’
मेरे बेटे के दोस्त ने आश्चर्य से मुंह फाड़ा, ‘अच्छा? तू यह सब पढ़ने अमेरिका जाएगा? अबे तुझे इसके लिए अमेरिका जाने की क्या जरूरत है? यह सब पढ़ाई तो तू यहां भी कर सकता है। इसके लिए अपने देश में कितने लवगुरु हैं न!’ मेरे बेटे ने जवाब दिया, ‘चल मान लिया थोड़ी देर के लिए कि मैं लवगुरु से पढ़ भी लूं, लेकिन क्या वह डिग्री देंगे? और फिर उस डिग्री की वैल्यू क्या रहेगी? सोच, छह-सात साल बाद जब मैं अमेरिका की किसी यूनिवर्सिटी से बीएल (बैचलर ऑफ लव) या एमएल (मास्टर ऑफ लव) की डिग्री लेकर लौटूंगा, तो मेरी गर्लफ्रेंड पर क्या इंप्रेशन जमेगा। मेरी तो बल्ले-बल्ले हो जाएगी।’
मेरा बेटा कुछ और कहता, इससे पहले मुझे एक निगोड़ी खांसी आ गई। मेरा कुलदीपक और उसका दोस्त दोनों सकपका गए और बरामदे से निकल कर सड़क पर आ खड़े हो गए। बेटे की बातें सुनकर मुझे कबीरदास याद आ गए। बेचारे कबीरदास यह रटते-रटते मर गए कि प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय।‘ कबीरदास के जमाने में तो प्रेम की खेती शायद होती भी नहीं थी। कुछ माफिया टाइप के लोग छोटे-मोटे पैमाने पर प्रेम की खेतीबाड़ी करते भी थे, तो उनको कोई पूछना भी नहीं था। उन दिनों प्रेम हॉट-बाजारों में भी नहीं बिकता था। हालांकि राजा-महाराजा बाकायदा मीना बाजार लगवाते थे, लेकिन वह आम लोगों की पहुंच से बाहर की बात थी। प्रेम के खरीदारों की संख्या तो तब बहुत सीमित थी। लेकिन आज तो कबीरदास की पूरी थ्योरी ही उलटी जा रही थी। प्रेम की न केवल खेती की जा रही है, बल्कि उसे हॉट-बाजार में खरीदा-बेचा जा रहा है। कबीरदास की थ्योरी पर मैं आगे कुछ और सोचता-विचारता कि घरैतिन रसोई से बाहर निकली और बोली, ’किस कलमुंही की याद में यहां बुत बने खड़े हो?‘ घरैतिन की बात सुनते ही मैं चौंक गया और फुर्ती से घर के अंदर घुस गया।

Sunday, February 12, 2017

बनन में बागन में झुट्ठौ न बगरयो बसंत है

अशोक मिश्र
अब तो पता ही नहीं चलता कि कब मुआ वसंत आया और चला गया। दरवाजे पर, खेतों में, बागों में, गली-कूचों में न कहीं वसंत की आहट सुनाई देती है, न पदचिह्न। ईमेल के जमाने में मुआ चिट्ठी पत्री हो गया, अगोरते रहो साल भर। आता भी है, तो ह्वाट्स ऐप, लैपटॉप, फेसबुक, ट्विटर पर किसी पोस्ट के आने पर जिस तरह मोबाइल पर एलार्म रिंग बजती है, उसी तरह रस्म अदायगी के तौर पर वसंत पंचमी के दिन पीले कपड़े पहने, पीले फूल हाथों में लिए ‘वर दे वीणावादिनि वर दे..’ गाते बच्चे-बच्चियों को देखकर पता चलता है कि वसंत आ गया है। हालांकि दिन-रात आंखें गड़ाने की वजह से मिचमिची आंखों और फॉस्टफूड खाने से पियराये इन बच्चे-बच्चियों के चेहरों पर थोड़ी मस्ती, थोड़ी शरारत के भाव नदारद ही रहते हैं। ऐसे में कैसे समझा जाए कि वसंत या तो कहीं आसपास है या आ चुका है। अब तो वसंत के आने पर जी में वह फुरफुरी ही नहीं उठती, जो कुछ दशक पहले तक दूर से ही किसी नवयौवना या नवयुवक को देखते ही युवा लड़के-लड़कियों के मन में उठती थी। चेहरा एकदम पलास हो जाता था। आंखें हजार सूरज की रोशनी लिए चमकने लगती थीं। नख लेकर शिख तक मद छा जाता था। बसंत और फाल्गुन में तो बूढ़ी भौजाइयां, बूढ़े बाबा तक मदांध होने लगते थे। आम के साथ-साथ लोग बौराने लगते थे। अंतरतम में कहीं गहरे छिपी बैठी साल भर की दमित इच्छाएं और वासनाएं जैसे अंगड़ाइयां लेने लगती थीं। मन से हुलास-उल्लास तो जैसे बिला गए हैं। न तो नौजवानों में कहीं वसंत दिखता है, न प्रौढ़ों और बुजुर्गों में। कई बार तो लगता है, महाकवि पद्माकर झुट्ठै लिख गए हैं कि बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में बनन में बागन में बगरयो बसंत है। अब वसंत आता भी है, तो दबे पांव। आता है, तो उसके आने पर थोड़ी बहुत रस्म अदायगी होती है और चुपचाप विदा हो जाता है, जैसे कुघड़ी में आया हुआ मेहमान। मेहमान के आने पर अब जिस तरह किसी को खुशी नहीं होती है, वैसे ही प्रकति और मानव से निरादरित वसंत अपने प्राचीन गौरव को याद करता हुआ थके पथिक की तरह चला जा रहा होगा। प्राचीन वसंतकालीन विरहिणी नायिका की तरह बिसूरता होगा अरण्य में बैठकर। हां, अब वैलेंटाइन्स डे आता है, पूरे गाजे-बाजे के साथ। बाजार के चक्कर में वसंत मात खा गया। वैलेंनटाइन्स डे के साथ बाजार है, क्रेता हैं, विक्रेता हैं, उन्मुक्तता है, विलासिता है, मादकता है। वसंत के नाम पर मुरझाए हुए चेहरों को वैलेंटाइन्स डे के नाम पर किस तरह चहकना है, यह बाजार ने सिखा दिया है। वैलेंटाइन्स डे ने प्रतिबद्धता तो जैसे खत्म ही कर दी है। इसको प्रपोज करो, उसको किस करो, फलां को टेडी बियर दो और वैलेंटाइन्स डे किसी और के साथ मनाओ। अगले साल वैलेंटाइन्स डे पर किसी दूसरे, तीसरे, चौथे को वैलेंटाइन चुनने की अबाध स्वतंत्रता है।