अशोक मिश्र
दिल्ली के संसद मार्ग पर गधों का सम्मेलन हो रहा था। एक स्वामी टाइप के बुजुर्ग गधे गदर्भानंद को सम्मेलन का सभापति बनाया गया था। सभापति के आसन ग्रहण करते ही सभी गधों ने ‘ढेंचू-ढेंचू’ की आवाज से उनका स्वागत किया। एक युवा गधे ने सम्मेलन का संचालन करते हुए कहा, ‘मित्रों, आज दिल्ली में आप सभी गधों का स्वागत करते हुए मुझे अपार प्रसन्नता हो रही है। पहले आपको यह बता दें कि यह सम्मेलन बुलाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? आप जानते हैं कि सदियों से हम गधों के आश्रयदाता धोबी रहे हैं। उनके रहते हमें कभी भोजन की समस्या नहीं रही। वे हमें खिलाते थे और जमकर काम लेते थे। इससे हमें उज्र भी नहीं था। अब जब उनके लिए हम अनुपयोगी हो गए हैं, तो हमारे सामने भोजन की समस्या आ खड़ी हुई है, इसलिए इंसानों की परंपरा के विपरीत मैं सबसे पहले सभापति महोदय से अनुरोध करता हूं कि वे विषय प्रवर्तन के लिए आगे आएं।’ इतना कहकर युवा गधा एक तरफ खड़ा हो गया।
सभापति स्वामी गदर्भानंद ने आसन के सामने रखे हरे चारे को मुंह में भरा और चबाते हुए माइक के सामने आ खड़े हुए। बोले, ‘देश भर से आये प्यारे गर्दभ भाइयो! पिछले कई दिनों से हरे चारे को देखने को तरस गईं आंखों को आज कितना सुकून मिल रहा है, यह मैं आपको नहीं बता सकता। इस सम्मेलन के आयोजकों को सबसे पहले तो मैं धन्यवाद देना चाहता हूं कि उन्होंने पद और गरिमा के हिसाब से हम सभी गधों को हरा चारा उपलब्ध कराया। कितने अफसोस की बात है कि कभी सावन-भादों में जिधर नजर दौड़ाइए, हम सबको हरा ही हरा दिखता था, लेकिन आज हरियाली या तो कोठियों में कैद है या फिर घिरे हुए फार्म हाउसों में। बाकी तो हरियाली कहीं दिखती नहीं है।’
इतना कहकर सभापति महोदय सांस लेने के लिए रुके और बोले, ‘आज सुबह मैं दिल्ली की सड़कों पर घूम रहा था, तो पाया कि हमारे कई भाई कायांतरण कर इंसानी वेश धारण किए कारों में घूम रहे हैं। कोई कोट-पैंट पहने है, तो कोई धोती कुरते में है। कुछ कायांतरित गधे तो देश के राजनीतिक दलों में भी अपनी जगह बना चुके हैं। उनकी स्थिति देखने में मुझे काफी अच्छी लगी। कई तो केंद्र और राज्य सरकारों में सरकारी अफसर बने बैठे हैं। सरकार और जनता को चरे जा रहे हैं। इससे मुझे लगा कि इस देश में चारागाह की समस्या कतई नहीं है। बस थोड़ी सी अकल दौड़ाने की जरूरत है। अगर हम लोग पूरे देश को चारागाह समझ ले, तो फिर हमारे सामने चारे की समस्या कहां रहेगी। इसलिए सबसे पहला काम यह करें कि आप लोग अपना कायांतरण करें और इंसान का रूप धारण कर जहां मौका मिले, घुस जाएं। संसद, विधानसभाओं, बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों में जब, जहां और जैसे भी मौका मिले, बड़े-बड़े पद हथियाएं। अपने भाइयों को प्रमोट करें। खुद जी भर कर चरें और बाकी साथियों को भी चरने का मौका दें।’
सभापति महोदय के इतना कहते ही सारे गधे एक बार फिर ‘ढेंचू-ढेंचू’ कहकर चिल्लाए और लयात्मक ढंग से दुलत्ती झाड़ने लगे। सभापति ने उन्हें शांत रहने का इशारा करते हुए थोड़ी-सी घास उठाई और चबाने लगे। खूब चबाकर खाने के बाद उन्होंने फिर कहना शुरू किया, ‘लेकिन भाइयों, आप लोगों को मैं अभी से आगाह कर दूं। कायांतरण के बाद आपमें कुछ इंसानी बुराइयां भी आ सकती हैं। जिस थाली में खाता है, इंसान उसी थाली में छेद करता है। उसके लिए बहन, बेटी, बीवी जैसे शब्द अब कोई मायने नहीं रखते। वह उनकी बेकद्री करता रहता है, हमें इंसानों की इसी प्रवृत्ति से बचकर रहना है। हम देश को चारागाह तो समझें, लेकिन उसे बेच खाने की कभी न सोचें।’ सभापति के इतना कहते ही सारे गधे ‘ढेंचू-ढेंचू’ कहकर लयात्मक ढंग से दुलत्तियां झाड़ने लगे। सभापति ने उन्हें शांत होने का इशारा किया, लेकिन उनकी दुलत्तियां जारी रहीं। नतीजा यह हुआ कि कई गधों को दिल्ली के अस्पतालों में भर्ती कराना पड़ा। वैसे उनका यह सम्मेलन अभी जारी है। सम्मेलन के निष्कर्ष का इंतजार मुझे भी है और आपको भी होगा ही।
दिल्ली के संसद मार्ग पर गधों का सम्मेलन हो रहा था। एक स्वामी टाइप के बुजुर्ग गधे गदर्भानंद को सम्मेलन का सभापति बनाया गया था। सभापति के आसन ग्रहण करते ही सभी गधों ने ‘ढेंचू-ढेंचू’ की आवाज से उनका स्वागत किया। एक युवा गधे ने सम्मेलन का संचालन करते हुए कहा, ‘मित्रों, आज दिल्ली में आप सभी गधों का स्वागत करते हुए मुझे अपार प्रसन्नता हो रही है। पहले आपको यह बता दें कि यह सम्मेलन बुलाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? आप जानते हैं कि सदियों से हम गधों के आश्रयदाता धोबी रहे हैं। उनके रहते हमें कभी भोजन की समस्या नहीं रही। वे हमें खिलाते थे और जमकर काम लेते थे। इससे हमें उज्र भी नहीं था। अब जब उनके लिए हम अनुपयोगी हो गए हैं, तो हमारे सामने भोजन की समस्या आ खड़ी हुई है, इसलिए इंसानों की परंपरा के विपरीत मैं सबसे पहले सभापति महोदय से अनुरोध करता हूं कि वे विषय प्रवर्तन के लिए आगे आएं।’ इतना कहकर युवा गधा एक तरफ खड़ा हो गया।
सभापति स्वामी गदर्भानंद ने आसन के सामने रखे हरे चारे को मुंह में भरा और चबाते हुए माइक के सामने आ खड़े हुए। बोले, ‘देश भर से आये प्यारे गर्दभ भाइयो! पिछले कई दिनों से हरे चारे को देखने को तरस गईं आंखों को आज कितना सुकून मिल रहा है, यह मैं आपको नहीं बता सकता। इस सम्मेलन के आयोजकों को सबसे पहले तो मैं धन्यवाद देना चाहता हूं कि उन्होंने पद और गरिमा के हिसाब से हम सभी गधों को हरा चारा उपलब्ध कराया। कितने अफसोस की बात है कि कभी सावन-भादों में जिधर नजर दौड़ाइए, हम सबको हरा ही हरा दिखता था, लेकिन आज हरियाली या तो कोठियों में कैद है या फिर घिरे हुए फार्म हाउसों में। बाकी तो हरियाली कहीं दिखती नहीं है।’
इतना कहकर सभापति महोदय सांस लेने के लिए रुके और बोले, ‘आज सुबह मैं दिल्ली की सड़कों पर घूम रहा था, तो पाया कि हमारे कई भाई कायांतरण कर इंसानी वेश धारण किए कारों में घूम रहे हैं। कोई कोट-पैंट पहने है, तो कोई धोती कुरते में है। कुछ कायांतरित गधे तो देश के राजनीतिक दलों में भी अपनी जगह बना चुके हैं। उनकी स्थिति देखने में मुझे काफी अच्छी लगी। कई तो केंद्र और राज्य सरकारों में सरकारी अफसर बने बैठे हैं। सरकार और जनता को चरे जा रहे हैं। इससे मुझे लगा कि इस देश में चारागाह की समस्या कतई नहीं है। बस थोड़ी सी अकल दौड़ाने की जरूरत है। अगर हम लोग पूरे देश को चारागाह समझ ले, तो फिर हमारे सामने चारे की समस्या कहां रहेगी। इसलिए सबसे पहला काम यह करें कि आप लोग अपना कायांतरण करें और इंसान का रूप धारण कर जहां मौका मिले, घुस जाएं। संसद, विधानसभाओं, बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों में जब, जहां और जैसे भी मौका मिले, बड़े-बड़े पद हथियाएं। अपने भाइयों को प्रमोट करें। खुद जी भर कर चरें और बाकी साथियों को भी चरने का मौका दें।’
सभापति महोदय के इतना कहते ही सारे गधे एक बार फिर ‘ढेंचू-ढेंचू’ कहकर चिल्लाए और लयात्मक ढंग से दुलत्ती झाड़ने लगे। सभापति ने उन्हें शांत रहने का इशारा करते हुए थोड़ी-सी घास उठाई और चबाने लगे। खूब चबाकर खाने के बाद उन्होंने फिर कहना शुरू किया, ‘लेकिन भाइयों, आप लोगों को मैं अभी से आगाह कर दूं। कायांतरण के बाद आपमें कुछ इंसानी बुराइयां भी आ सकती हैं। जिस थाली में खाता है, इंसान उसी थाली में छेद करता है। उसके लिए बहन, बेटी, बीवी जैसे शब्द अब कोई मायने नहीं रखते। वह उनकी बेकद्री करता रहता है, हमें इंसानों की इसी प्रवृत्ति से बचकर रहना है। हम देश को चारागाह तो समझें, लेकिन उसे बेच खाने की कभी न सोचें।’ सभापति के इतना कहते ही सारे गधे ‘ढेंचू-ढेंचू’ कहकर लयात्मक ढंग से दुलत्तियां झाड़ने लगे। सभापति ने उन्हें शांत होने का इशारा किया, लेकिन उनकी दुलत्तियां जारी रहीं। नतीजा यह हुआ कि कई गधों को दिल्ली के अस्पतालों में भर्ती कराना पड़ा। वैसे उनका यह सम्मेलन अभी जारी है। सम्मेलन के निष्कर्ष का इंतजार मुझे भी है और आपको भी होगा ही।