बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र
स्वामी विवेकानंद जब भी मौका मिलता था, हमेशा कुछ न कुछ पढ़ते रहते थे। उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें अनवरत ज्ञान प्राप्त करते रहने की प्रेरणा दी थी। वह अपने गुरु को मानते भी बहुत थे। वैसे भी परमहंस धार्मिक मामलों के परम विद्वान थे। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के निधन के बाद स्वामी विवेकानंद अपने आपको काफी अकेला महसूस करने लगे थे।
इसलिए उन्होंने भ्रमण पर जाने का निश्चय किया। वह देश के कई राज्यों में भ्रमण करते हुए काशी पहुंचे। काशी से उनका काफी लगाव भी था। काशी में उनको मानने वाले भी बहुत थे। यही वजह थी कि वह बार-बार काशी आना पसंद भी करते थे। काशी आने के बाद उन्होंने विश्वनाथ का दर्शन करने का फैसला किया। उन दिनों स्वामी विवेकानंद एक लंबा सा अंगरखा भी पहनते थे।
सिर पर साफा भी बांधते थे। पढ़ने-लिखने का शौक होने की वजह से उनकी जेब में किताबें और कागज भी भरे होते थे। विश्वनाथ मंदिर पहुंचने पर वहां मौजूद बंदरों ने समझा कि उनकी जेबों में खाने-पीने की वस्तुएं हैं। उन बंदरों ने स्वामी जी को घेर लिया। स्वामी जी डर गए। जैसे ही वह आगे बढ़ते बंदर उनकी ओर लपकते थे। जब वह रुक जाते थे, तो बंदर भी एक निश्चित दायरा बनाकर रुक जाते थे। एक साधु बड़े गौर से यह देख रहा था। उसने स्वामी विवेकानंद से कहा, डरो नहीं, मुकाबला करो।
विपत्ति पड़ने पर कभी घबराना नहीं चाहिए। इन बंदरों के सामने डटकर खड़े हो जाओ, यह भाग जाएंगे। स्वामी जी ने ऐसा ही किया, तो बंदर कुछ देर बाद भाग खड़े हुए। इसके बाद स्वामी जी ने जब भी कहीं गलत होता देखा, उसका विरोध किया। संकटों का डटकर मुकाबला किया।