अशोक मिश्र मुसद्दी लाल आफिस जाने के लिए घर से निकले ही थे कि अपने दरवाजे पर खड़े प्रपंची राम दिख गए। उनके हाथ में एक मोटा-सा डंडा था जिसको वे लाठी की तरह कंधे पर रखे क्रोधित बैल की तरह नथुने से फुफकार छोड़ रहे थे। प्रपंची राम लपक कर मुसद्दी लाल के आगे आ खड़े हुए और बोले, ‘सुनो! तुम्हारा बेटा तो तुम्हारे हाथ से निकल गया। उसकी करतूत को देखकर तो मन करता है कि जड़ दूं तुम्हारे कान के नीचे एक कंटाप। तेरी हरकतों को देखकर ही मुझे लगता था कि एक दिन तेरा बेटा तुझसे चार जूता आगे निकलेगा। आज मेरी बेटी बिल्लो रानी को प्रेमपत्र देकर उसने साबित कर दिया कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात।’ प्रपंची राम की बात सुनकर मुसद्दी लाल को गुस्सा आ गया। उन्होंने तल्ख स्वर में कहा, ‘क्या बक रहे हैं आप? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। लाल बुझक्कड़ी छोड़िए और आपको जो कुछ कहना है, साफ-साफ कहिए। मुझे आफिस के लिए दे हो रही है।’
प्रपंची राम ने घूरते हुए कहा, ‘कहूंगा तो है ही। कहने के लिए ही तो तुम्हारा थोबड़ा सुबह-सुबह देख रहा हूं, वरना तू ‘सनी लियोन’, मलाइका अरोड़ा खान या मल्लिका शहरावत नहीं है कि तेरे दीदार को सुबह-सुबह अपने दरवाजे पर खड़ा रहूं। बात दरअसल यह है कि तम्हारे साहबजादे जनाब खुरपेंची राम अभी थोड़ी देर पहले मेरे घर के सामने से होकर स्कूल जा रहे थे। संयोग से उसी समय मेरी बेटी ‘बिल्लो रानी’ भी स्कूल जाने के लिए घर से निकली। मेरी बेटी को देखते ही आपके लख्तेजिगर ने अपने स्कूली बैग से प्रेमपत्र निकाला और मेरी बेटी को जबरदस्ती पकड़ा दिया। उसके बाद वह शायराना अंदाज में मेरी बेटी से बोला, डॉर्लिंग! मेरा प्रेमपत्र पढ़कर तुम नाराज ना होना। इसके बाद वह नामाकूल ‘बिल्लो रानी! कहो तो अभी जान दे दूं’ गाता हुआ चला गया। मैं दरवाजे के पीछे खड़ा सब सुन रहा था। पहले तो सोचा कि तुम्हारे सुपुत्र को लगाऊं एक हाथ, ताकि तबीयत हरी हो जाए। लेकिन फिर अभी कुछ ही दिन पहले एक मुख्यमंत्री का दिया गया बयान याद आया कि यदि कोई अपराध करे, तो उसके बाप को पकड़ो और उसे पीटो। अगर कोई बेटा आवारा, बदचलन, चोर-डाकू निकलता है, तो इसके लिए उसका बाप दोषी है। इसलिए आप तुम्हारे बेटे की खता की सजा तुझे भोगनी पड़ेगी।’
प्रपंची राम की शिकायत सुनकर मुसद्दी लाल चौंक गए। मन गी मन कहने लगे, ‘हूंऊ...साहबजादे मेरा ही रिकॉर्ड तोड़ने चले हैं। आज से पच्चीस साल पहले मेरा और छबीली का टांका तो चौदह साल की उम्र में भिड़ा था। लेकिन मेरे ‘नूरेनजर’ खुरपेंची राम के तो अभी दूध के दांत भी टूटे नहीं हैं। बारह साल की उम्र में चले हैं इश्क फरमाने।’ मुसद्दी लाल ने प्रपंची राम से कहा, ‘अरे भाई! ठंड रखो...ठंड। पहले सच-सच यह बताओ कि जब मेरे बेटे ने आपकी बेटी बिल्लो रानी को प्रेम पत्र दिया, तो आपकी बेटी ने क्या कहा, उसके चेहरे का भाव कैसा था?’
प्रपंची राम ने सोचने वाली मुद्रा अख्तियार कर ली। बोले, ‘पत्र पाकर पहले तो मेरी बेटी शरमाई और फिर उसने झट से बैग में रख लिया और बोली, सुनो! तुम स्वीटी से बात मत किया करो। मुझे अच्छा नहीं लगता।’ अब गरजने की बारी मुसद्दी लाल की थी, ‘जब इश्क लड़ाने के अपराध में तुम्हारी बेटी भी बराबर की भागीदार है, तो सिर्फ मेरी या मेरे बेटे की पिटाई क्यों? तुम्हारी भी पिटाई होनी चाहिए। बोलो क्या कहते हो?’ मुसद्दी लाल ने समझाने वाले लहजे में कहा, ‘बरखुरदार! इन स्थितियों के लिए दोषी भी हम ही लोग हैं। हमारे पास इतनी फुरसत ही नहीं है कि हम यह देख सकें कि हमारे बेटे-बेटियां क्या कर रहे हैं? कहां जा रहे हैं? क्या पढ़-लिख रहे हैं? हमने उन्हें तमाम सुख-सुविधाएं देकर समझ लिया है कि हमारा कर्तव्य पूरा हो गया। हमने उनसे दोस्ती करने, उनके साथ बोलने-बतियाने, खेलने-कूदने की जरूरत ही नहीं समझी। हमने तो सिर्फ पैसा कमाने और उसे परिवार पर खर्च को ही अपना कर्तव्य मान लिया है। ऐसे में यह नई पीढ़ी क्या करेगी। वह ऐसे ही गुल-गपाड़े करेगी और हम उन पर अंकुश लगाएंगे, तो वे बगावत करेंगे। आप निश्चिंत रहें, अपने बेटे को समझाऊंगा। उसके साथ दोस्ती करके उसका विश्वास जीतूंगा और उसे कुछ बनने को प्रेरित करूंगा। आप भी अपनी बेटी के दोस्त बनकर उसे समझाएं। सही रास्ते पर लाएं।’ इतना कहकर मुसद्दी लाल चलते बने।
प्रपंची राम की शिकायत सुनकर मुसद्दी लाल चौंक गए। मन गी मन कहने लगे, ‘हूंऊ...साहबजादे मेरा ही रिकॉर्ड तोड़ने चले हैं। आज से पच्चीस साल पहले मेरा और छबीली का टांका तो चौदह साल की उम्र में भिड़ा था। लेकिन मेरे ‘नूरेनजर’ खुरपेंची राम के तो अभी दूध के दांत भी टूटे नहीं हैं। बारह साल की उम्र में चले हैं इश्क फरमाने।’ मुसद्दी लाल ने प्रपंची राम से कहा, ‘अरे भाई! ठंड रखो...ठंड। पहले सच-सच यह बताओ कि जब मेरे बेटे ने आपकी बेटी बिल्लो रानी को प्रेम पत्र दिया, तो आपकी बेटी ने क्या कहा, उसके चेहरे का भाव कैसा था?’
प्रपंची राम ने सोचने वाली मुद्रा अख्तियार कर ली। बोले, ‘पत्र पाकर पहले तो मेरी बेटी शरमाई और फिर उसने झट से बैग में रख लिया और बोली, सुनो! तुम स्वीटी से बात मत किया करो। मुझे अच्छा नहीं लगता।’ अब गरजने की बारी मुसद्दी लाल की थी, ‘जब इश्क लड़ाने के अपराध में तुम्हारी बेटी भी बराबर की भागीदार है, तो सिर्फ मेरी या मेरे बेटे की पिटाई क्यों? तुम्हारी भी पिटाई होनी चाहिए। बोलो क्या कहते हो?’ मुसद्दी लाल ने समझाने वाले लहजे में कहा, ‘बरखुरदार! इन स्थितियों के लिए दोषी भी हम ही लोग हैं। हमारे पास इतनी फुरसत ही नहीं है कि हम यह देख सकें कि हमारे बेटे-बेटियां क्या कर रहे हैं? कहां जा रहे हैं? क्या पढ़-लिख रहे हैं? हमने उन्हें तमाम सुख-सुविधाएं देकर समझ लिया है कि हमारा कर्तव्य पूरा हो गया। हमने उनसे दोस्ती करने, उनके साथ बोलने-बतियाने, खेलने-कूदने की जरूरत ही नहीं समझी। हमने तो सिर्फ पैसा कमाने और उसे परिवार पर खर्च को ही अपना कर्तव्य मान लिया है। ऐसे में यह नई पीढ़ी क्या करेगी। वह ऐसे ही गुल-गपाड़े करेगी और हम उन पर अंकुश लगाएंगे, तो वे बगावत करेंगे। आप निश्चिंत रहें, अपने बेटे को समझाऊंगा। उसके साथ दोस्ती करके उसका विश्वास जीतूंगा और उसे कुछ बनने को प्रेरित करूंगा। आप भी अपनी बेटी के दोस्त बनकर उसे समझाएं। सही रास्ते पर लाएं।’ इतना कहकर मुसद्दी लाल चलते बने।
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