Wednesday, September 5, 2012

कमाल के आदमी है बेनी बाबू


-अशोक मिश्र
‘बेनी बाबू कमाल के आदमी हैं। वे जो कुछ भी बोलते हैं, एकदम बिंदास। खांटी नेता जो ठहरे। और जो खांटी होता है, वह ऐसा ही होता है। चाहे वह नेता हो या मुझे जैसा पाकेटमार। खांटी हमेशा हानि-लाभ के समीकरण से ऊपर होता है। वैसे भी बाबा तुलसीदास कह गए हैं कि हानि-लाभ, जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ। जब सब कुछ लोकतांत्रिक विधि यानी मतदाताओं के हाथ में है, तो काहे दूसरों की लल्लो-चप्पो की जाए। सीधे मतदाताओं को न पटाया जाए। जियो राजा बनारस! तुम्हारी इसी बेबाकी के मुरीद तो हम सब हैं।’ काफी दिनों बाद आज मेरे घर पधारे उस्ताद मुजरिम ‘बेनी प्रसंग’ छिड़ने पर बनारसी अंदाज में अपने सद्विचार प्रस्तुत कर रहे थे। उन्होंने प्याले में फूंकमार कर ‘सुर्र...’ की आवाज करते हुए चाय सुड़की और बोले, ‘क्या मजेदार बात कही है, अपने बेनी बाबू ने। वाकई इतना बड़ा जिगरा है किसी नेता में। सब गुड़ खाकर ‘गुलगुले’ से परहेज करते हैं। ढोंगी हैं सबके सब।’
उस्ताद मुजरिम धारा प्रवाह बोले जा रहे थे। उस्ताद की बात सुनकर मुझे ताव आ गया। मैंने मुजरिम की बात काटते हुए कहा, ‘उस्ताद! एक बात बताएं। जिसने जेठ की चिलचिलाती दुपहरिया में सूखते कंठ से खेतों में हल चलाने की पीड़ा ने झेली हो, सावन-भादो की अंधेरी रात में छत से टपकती पानी की बूंदों से बचाने के लिए अपनी कथरी-गुदरी को बचाने की कोशिश में रातभर जागा न हो या माघ-पूस की पाले वाली रात में भूखे पेट न सोया हो, वह गरीबों और किसानों की व्यथा का अंदाजा लगा सकता है। मैं तो इस बात से पूरा इत्तफाक रखता हूं कि जाके पैर न फटी बिंवाई, वह क्या जाने पीर पराई। आप इसे बेनी बाबू की बेबाकी कहते हैं। यह उनकी बेबाकी नहीं, सत्ता की ठसक है। वे मंत्री पद के नशे में चूर हैं। अगर बेनी बाबू किसी निजी कंपनी में दस-दस, बारह-बारह घंटे खटने के बाद पांच-दस हजार रुपये कमाते, तब उनसे पूछता कि महंगाई बढ़ने से उनका कितना फायदा हुआ है। बीवी की फटी धोती से झांकते अंगों को ढक न पाने की बेबसी, दवाइयों के अभाव में रात भर कराहती बूढ़ी मां की पीड़ा और बच्चे की फीस के तगादे के बीच वे बढ़ती महंगाई का जश्न कैसे मनाते, यह मैं भी देखता। बेनी बाबू मंत्री हैं, उनके पास अकूत पैसा है, उन्होंने अपनी सात पुश्तों की व्यवस्था कर ली। वे चाहें तो बिसलरी पानी से नहा सकते हैं, रोज मुर्ग मुसल्लम खा सकते हैं, उनके लिए महंगाई कोई मुद्दा नहीं है।’
मेरी बात सुनकर उस्ताद मुजरिम पहले तो मुस्काराए, ‘नहीं रे लल्लू! यह सत्ता की ठसक नहीं, सावन-भादों में बौराई छिछली नदी की तरह गरीबों के प्रति उमड़ता उनका प्रेम है। वे सच्ची बात बोलते हैं। बेनी बाबू जैसा सच बोलने वाले इस दुनिया में विरले ही होते हैं। अब देखो न! बेनी बाबू ने सच क्या बोला, विपक्षियों को तो छोड़िए, उनकी ही पार्टी के लोग उनका टेंटुआ दबाने को तैयार हैं। मीडिया वाले अलग छाती पीटकर स्यापा कर रहे हैं। हाय बेनी बाू ने यह क्या कह दिया, हाय बेनी बाबू ने ऐसा क्यों कह दिया। अरे भइया! बेनी बाबू को जो कहना था, कह दिया। आप क्यों हाय-तौबा मचाए हुए हो। सच्ची बात तो यह है कि छाती पीट-पीटकर स्यापा करने वाले इन मीडिया कर्मियों और नेताओं में सच कहने, लिखने और दिखाने की हिम्मत तो बची नहीं, सुबह से शाम तक ख्याली पुलाव पकाने वालों को सच्ची बात कैसे पच सकती है। खुदा न खास्ता, उनके बीच कोई सच्चा बंदा पहुंच जाता है, तो ये झू्ठे और चोट्टे नेता उसी का गला दबाने पर उतारू रहते हैं।’
मैंने कहा, ‘उस्ताद! आपसे यह उम्मीद नहीं थी। लोगों की पाकेट मारते-मारते कहीं आप अपनी आत्मा को तो नहीं मार बैठे?’ मेरी बात सुनकर मुजरिम ठहाका लगाकर हंसे और बोले, ‘नहीं रे! मेरी आत्मा मरी नहीं है। मैं तो यह देखना चाहता था कि तुम्हारी आत्मा जिंदा है या नहीं। वैसे तुम्हारी बात ठीक है। मैं उससे इत्तफाक रखा हूं।’ इतना कहकर उस्ताद मुजरिम उठे और छड़ी से टेकते हुए खरामा-खरामा (धीरे-धीरे) अपने घर चले गए।

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