अशोक मिश्र
कल आफिस में बैठा खबरों की कतरब्योंत कर रहा था कि संपादक जी का बुलावा आया। उनके पास पहुंचा, तो उन्होंने तालिबानी फरमान सुनाते हुए कहा, ‘केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पर एक राइटअप जा रहा है। मुझे चार ‘आम’ आदमियों की बाइट्स चाहिए। फटाफट यहां से फूटो और शाम तक अपना काम पूरा करके वैसे ही हवा पर सवार होकर वापस आओ, जैसे हनुमान जी किष्किंधा पर्वत से संजीवनी बूटी लेकर वापस आए थे। और सुनो! ये चारों आम ही होने चाहिए, खास नहीं।ह्ण संपादक जी का आदेश सिर माथे पर रखकर मैं ‘आम आदमी’ खोजने निकला। कई लोगों से पूछा, सबने बस एक ही बात कही, ‘देश की सवा सौ करोड़ आबादी में से सिर्फ पांच फीसदी खास आदमी हैं, बाकी तो सब आम ही हैं। आम आदमी तो सब जगह पाए जाते हैं।’ मैंने उस आदमी से पूछा, ‘तो क्या तुम भी आम आदमी हो?’ उसने कहा, ‘नहीं, मैं तो ‘फ्राड एंड फ्राड संस’ में सीनियर क्लर्क हूं। मैं आम आदमी कैसे हो सकता हूं?’ उस सीनियर क्लर्क से मैंने पूछा, ‘यह कमबख्त आम आदमी मुझे मिलेगा कहां? उसकी कोई पहचान तो होगी, उसका कोई रंग-रूप, कद-काठी...कुछ तो होगा यार...।’ वह सीनियर क्लर्क मेरी बात सुनकर पहले तो खूब हंसा और फिर यह कहते हुए अपनी राह चला गया, ‘भगवान का ही दूसरा रूप है आम आदमी। जिस तरह भगवान सब जगह हैं, सबमें हैं, वे घर में भी हैं, श्मशान में भी। वह हिंदू में हैं, मुसलमान में भी...ठीक उसी तरह आम आदमी है। सब जगह है, लेकिन कहीं नहीं है।’ मैंने उस आदमी को सनकी समझकर अपने कंधे उचकाए और आम आदमी की तलाश में आगे बढ़ गया।
आम आदमी को खोजते-खोजते शाम हो गई, लेकिन वह नामाकूल कहीं नहीं मिला। थकहार कर मैंने घर का रास्ता पकड़ा, रास्ते में छबीली अपने दरवाजे पर खड़ी मिल गई। मैंने उससे पूछा, ‘तुम आम आदमी हो?’ उसने अपनी चोटी को पकड़कर सीने की ओर लहराते हुए इठलाकर कहा, ‘तुममें सामान्य ज्ञान की बहुत कमी है। मैं आम या खास किसी भी तरह की आदमी नहीं हो सकती हूं। हां, मैं ‘आम महिला’ हो सकती हूं।’ मैं हड़बड़ा गया, ‘अरे...उस अर्थ में मैंने नहीं पूछा था। मेरा मतलब है कि तुम कॉमन मैन हो?’ वह इस बार भी मुस्कुराई और बोली, ‘अर्ज किया है कि मैं कॉमन वीमेन हो सकती हूं, कॉमन मैन नहीं।’ बार-बार उपहास उड़ाए जाने और कार्य में असफल रहने से खिन्न होकर मैंने कहा, ‘मुझे माफ करो, मैंने गलत दरवाजा खटखटा लिया है।’ इतना कहकर मैं जैसे ही आगे बढ़ा, छबीली ने कहा, ‘सुनिए, मैं आपकी ‘वो’ हूं, अपने बच्चों की मां हूं, लेकिन आम आदमी नहीं हूं।’ घर पहुंचा, तो काफी निराश था। मेरी दशा-दुर्दशा देखकर बीवी घबरा गई। उसने मुझसे परेशानी पूछी, तो मैंने झल्लाते हुए कहा, ‘यार! सारे देश में हल्ला हो रहा है आम आदमी का और दोपहर से ढूंढ रहा हूं इस नासपीटे ‘आम’ आदमी को। पता नहीं किस गली-कूंचे में रहता है यह मुआ।’ मेरी बीवी ने चाय का प्याला पकड़ाते हुए कहा, ‘बस..इतनी सी बात है? कल सुबह आपको एक आम आदमी से जरूर मिलवा दूंगी। निश्चिंत होकर बैठिए।’
अगले दिन सुबह जब बेटी तैयार होकर स्कूल जाने लगी, तो मेरी पत्नी ने जगाते हुए कहा, ‘एक आम आदमी आने वाला है। बाहर जाकर मिल लो।’ दरवाजे पर मेरी बेटी को स्कूल पहुंचाने वाला रिक्शाचालक खड़ा था। मैंने उससे पूछा, ‘तुम आम आदमी हो?’ मेरे पूछने पर वह घबड़ा गया, ‘ना बाबू! हम कइसे आम आदमी होय सकित है। हमार ऐसन भाग कहां? हम तौ कमरुद्दीन हूं, बच्चन (बच्चों) का इस्कूल पहुंचाइत हय। हमका आम आदमी से का लेना-देना है।’ मैंने बीवी की ओर सवालिया निगाहों से घूरा और कहा, ‘यही है तुम्हारा आम आदमी? कल से अब तक जो समझ पाया हूं, इस देश में हिंदू बसते हैं, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, सिख बसते हैं। अधिकारी-कर्मचारी, बेरोजगार-बारोजगार, अच्छे-बुरे रहते हैं, लेकिन आम आदमी कहीं नहीं पाया जाता है। खामुख्वाह, लोग आम आदमी के पीछे पड़े रहते हैं।’ दस बजे जब आफिस पहुंचा, तो संपादक जी के पास जाकर मैंने कहा, ‘सर! इस देश में आम आदमी नहीं पाया जाता। हां, अगर पाकिस्तान से घुसपैठ करके आया हो, मैं नहीं कह सकता। सीबीआई, आईबी, रॉ या आप जहां कहें, वहां आम आदमी के संबंध में आरटीआई लगा दूं। सरकार खोजकर बता देगी, यह कमबख्त आम आदमी कहां पाया जाता है।’ इतना कहकर मैं उनके चैंबर से बाहर आ गया। सुना है, मेरी बात सुनकर वे काफी देर तक अपना सिर पकड़कर बैठे रहे।
कल आफिस में बैठा खबरों की कतरब्योंत कर रहा था कि संपादक जी का बुलावा आया। उनके पास पहुंचा, तो उन्होंने तालिबानी फरमान सुनाते हुए कहा, ‘केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पर एक राइटअप जा रहा है। मुझे चार ‘आम’ आदमियों की बाइट्स चाहिए। फटाफट यहां से फूटो और शाम तक अपना काम पूरा करके वैसे ही हवा पर सवार होकर वापस आओ, जैसे हनुमान जी किष्किंधा पर्वत से संजीवनी बूटी लेकर वापस आए थे। और सुनो! ये चारों आम ही होने चाहिए, खास नहीं।ह्ण संपादक जी का आदेश सिर माथे पर रखकर मैं ‘आम आदमी’ खोजने निकला। कई लोगों से पूछा, सबने बस एक ही बात कही, ‘देश की सवा सौ करोड़ आबादी में से सिर्फ पांच फीसदी खास आदमी हैं, बाकी तो सब आम ही हैं। आम आदमी तो सब जगह पाए जाते हैं।’ मैंने उस आदमी से पूछा, ‘तो क्या तुम भी आम आदमी हो?’ उसने कहा, ‘नहीं, मैं तो ‘फ्राड एंड फ्राड संस’ में सीनियर क्लर्क हूं। मैं आम आदमी कैसे हो सकता हूं?’ उस सीनियर क्लर्क से मैंने पूछा, ‘यह कमबख्त आम आदमी मुझे मिलेगा कहां? उसकी कोई पहचान तो होगी, उसका कोई रंग-रूप, कद-काठी...कुछ तो होगा यार...।’ वह सीनियर क्लर्क मेरी बात सुनकर पहले तो खूब हंसा और फिर यह कहते हुए अपनी राह चला गया, ‘भगवान का ही दूसरा रूप है आम आदमी। जिस तरह भगवान सब जगह हैं, सबमें हैं, वे घर में भी हैं, श्मशान में भी। वह हिंदू में हैं, मुसलमान में भी...ठीक उसी तरह आम आदमी है। सब जगह है, लेकिन कहीं नहीं है।’ मैंने उस आदमी को सनकी समझकर अपने कंधे उचकाए और आम आदमी की तलाश में आगे बढ़ गया।
आम आदमी को खोजते-खोजते शाम हो गई, लेकिन वह नामाकूल कहीं नहीं मिला। थकहार कर मैंने घर का रास्ता पकड़ा, रास्ते में छबीली अपने दरवाजे पर खड़ी मिल गई। मैंने उससे पूछा, ‘तुम आम आदमी हो?’ उसने अपनी चोटी को पकड़कर सीने की ओर लहराते हुए इठलाकर कहा, ‘तुममें सामान्य ज्ञान की बहुत कमी है। मैं आम या खास किसी भी तरह की आदमी नहीं हो सकती हूं। हां, मैं ‘आम महिला’ हो सकती हूं।’ मैं हड़बड़ा गया, ‘अरे...उस अर्थ में मैंने नहीं पूछा था। मेरा मतलब है कि तुम कॉमन मैन हो?’ वह इस बार भी मुस्कुराई और बोली, ‘अर्ज किया है कि मैं कॉमन वीमेन हो सकती हूं, कॉमन मैन नहीं।’ बार-बार उपहास उड़ाए जाने और कार्य में असफल रहने से खिन्न होकर मैंने कहा, ‘मुझे माफ करो, मैंने गलत दरवाजा खटखटा लिया है।’ इतना कहकर मैं जैसे ही आगे बढ़ा, छबीली ने कहा, ‘सुनिए, मैं आपकी ‘वो’ हूं, अपने बच्चों की मां हूं, लेकिन आम आदमी नहीं हूं।’ घर पहुंचा, तो काफी निराश था। मेरी दशा-दुर्दशा देखकर बीवी घबरा गई। उसने मुझसे परेशानी पूछी, तो मैंने झल्लाते हुए कहा, ‘यार! सारे देश में हल्ला हो रहा है आम आदमी का और दोपहर से ढूंढ रहा हूं इस नासपीटे ‘आम’ आदमी को। पता नहीं किस गली-कूंचे में रहता है यह मुआ।’ मेरी बीवी ने चाय का प्याला पकड़ाते हुए कहा, ‘बस..इतनी सी बात है? कल सुबह आपको एक आम आदमी से जरूर मिलवा दूंगी। निश्चिंत होकर बैठिए।’
अगले दिन सुबह जब बेटी तैयार होकर स्कूल जाने लगी, तो मेरी पत्नी ने जगाते हुए कहा, ‘एक आम आदमी आने वाला है। बाहर जाकर मिल लो।’ दरवाजे पर मेरी बेटी को स्कूल पहुंचाने वाला रिक्शाचालक खड़ा था। मैंने उससे पूछा, ‘तुम आम आदमी हो?’ मेरे पूछने पर वह घबड़ा गया, ‘ना बाबू! हम कइसे आम आदमी होय सकित है। हमार ऐसन भाग कहां? हम तौ कमरुद्दीन हूं, बच्चन (बच्चों) का इस्कूल पहुंचाइत हय। हमका आम आदमी से का लेना-देना है।’ मैंने बीवी की ओर सवालिया निगाहों से घूरा और कहा, ‘यही है तुम्हारा आम आदमी? कल से अब तक जो समझ पाया हूं, इस देश में हिंदू बसते हैं, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, सिख बसते हैं। अधिकारी-कर्मचारी, बेरोजगार-बारोजगार, अच्छे-बुरे रहते हैं, लेकिन आम आदमी कहीं नहीं पाया जाता है। खामुख्वाह, लोग आम आदमी के पीछे पड़े रहते हैं।’ दस बजे जब आफिस पहुंचा, तो संपादक जी के पास जाकर मैंने कहा, ‘सर! इस देश में आम आदमी नहीं पाया जाता। हां, अगर पाकिस्तान से घुसपैठ करके आया हो, मैं नहीं कह सकता। सीबीआई, आईबी, रॉ या आप जहां कहें, वहां आम आदमी के संबंध में आरटीआई लगा दूं। सरकार खोजकर बता देगी, यह कमबख्त आम आदमी कहां पाया जाता है।’ इतना कहकर मैं उनके चैंबर से बाहर आ गया। सुना है, मेरी बात सुनकर वे काफी देर तक अपना सिर पकड़कर बैठे रहे।
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