मैं लखनऊ के प्रसिद्ध ‘सर चिरकुटानंद प्रतिभावल्लभ स्मृति पुस्तकालय’ में दैनिक समाचारपत्र ‘अधिंयारे में प्रकाश’ की पुरानी प्रतियां उलट-पलट रहा था। उसी दौरान सन् 1952 में प्रकाशित एक व्यंग्य पर मेरी निगाह गई, जिसे किसी ऐसे शख्स ने लिखा था, जिसका तखल्लुस ‘खुरपेंची’ था। दरअसल, उस पुरानी और रखे-रखे धूमिल पड़ गई प्रति में व्यंग्यकार का सिर्फ तखल्लुस ही पढ़ने में आ रहा था। वह व्यंग्य मुझे आज आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी प्रासंगिक लगा, तो आपके सामने यथावत पेश करने का दुस्साहस कर रहा हूं। कुकुरभुकवा गांव के बाहर की पगडंडी पर पूरा गांव जमा था। स्त्री-पुरुष, बच्चे, जवान और बूढ़े सबकी निगाहें सड़क से निकलकर गांव तक आने वाली पगडंडी पर लगी हुई थीं। बच्चे जहां पगडंडी के किनारे के खेतों में खेलने में मशगूल थे, तो घूंघट में छिपी औरतें झुंड बनाकर अपनी दुनिया में मस्त थीं। उस भीड़ में शामिल साठ वर्षीय भुलुई प्रसाद ने तंबाकू को चूने से रगड़ने के बाद होंठों के बीच दबाते हुए कहा, ‘देखो! वह आए, तो सबसे पहले बच्चे लपककर उसके पैर छुएंगे। उसके बाद अपनी उम्र और पद के हिसाब से गांव की बहुएं पांव छुएंगी।’ यह सुनते ही भुलुई की भौजाई ने ठिठोली की, ‘और तुम क्या करोगे, भुलुई?’ गांव की जवान भौजाइयों से रस लेकर बतियाने वाले भुलुई इस मौके पर कहां चूकने वाले थे, ‘जैसे ही वह आएगी, सब उसकी ओर निहारने लगेंगे। सबकी और भइया की निगाह बचाकर मैं तुम्हें निहारने लगूंगा। निहारने दोगी न भौजाई?’ द्विअर्थी संवाद में माहिर भुलुई ने झट से नहले पर दहला जड़ दिया। भुलुई की बात सुनकर भौजाई के दूसरे देवर ठहाका लगाकर हंस पड़े। भौजाई भी कहां चूकने वाली थीं! उन्होंने तपाक से कहा, ‘भुलुई, तुम मुझे नहीं, बचना (भुलुई के बेटे) की महतारी को निहारना। कहीं ऐसा न हो कि तुम भौजाइयों के फेर में पड़ो और बचना की महतारी को उसका कोई देवर ले उड़े। बचना की महतारी के देवर कम छबीले नहीं हैं। भौजाई तो हाथ आने वाली नहीं है, लुगाई से भी हाथ धो बैठो।’
खिसियाए भुलुई दूसरी ओर सरक गए। भुलुई की बुआ, काकी, बहन या ताई लगने वाली औरतें खिलखिलाकर हंस पड़ी। कुछ बुजुर्ग औरतों ने भुलुई की भौजाई को मीठी झिड़की भी दी। काफी देर से कुछ बोलने को कुनमुना रहे कंधई से आखिर रहा नहीं गया, ‘बप्पा! वह कैसी है? उसको आपने कभी देखा है? तिक्कर काका बता रहे थे कि अभी कमसिन उमर है उसकी?’ पिछले चार-पांच घंटे से इंतजार में बैठे-बैठे ऊब चुके गोबरधन (गोवर्धन) ने झुंझलाते हुए कहा, ‘तुम्हारी छोटकी मौसी जैसी है वह। जा भाग ससुर के नाती! नहीं तो दूंगा कान के नीचे एक कंटाप, मुंह झांवर हो जाएगा। जवाहिरा भी न जाने किस मुसीबत में फंसा दिया हम सबको। अरे! भेजना ही था, तो भेज देता। यह क्या कि पूरी दुनिया में ढिंढोरा पीट दिया।’ उस भीड़ में शामिल कुछ और लोग भी अब इंतजार करते-करते थक चुके थे, उन्होंने भी गोबरधन की बात पर ‘हां में हां’ मिलाना अपना पुनीत कर्तव्य समझा। कुछ लोग इंतजार करते-करते थक चुके थे और वे घर वापसी की सोच ही रहे थे कि तभी उन्हें दूर पगडंडी पर सुर्ख लाल कपड़ों में लिपटी एक महिला और उसके आगे-आगे एक पुरुष आता दिखाई पड़ा, तो उत्साहित होकर चिल्ला पड़े। एक बुजुर्ग ने गौर से देखते हुए कहा, ‘लगता है, जवाहिरा खुद लेकर आ रहा है।’ लोग टकटकी लगाए देखते रहे। उस जोड़े के नजदीक आते ही छबीली की माई चिल्ला पड़ी, ‘अरे यह तो खुरपेंचिया और उसकी मेहरिया है। अपनी ससुराल वह कल अपनी मेहरिया को विदा कराने गया था।’
गांव के बाहर भीड़ देखकर मैं (पाठक ध्यान दें, यह मुझे नहीं, बल्कि खुरपेंची समझकर पढ़ें) भौंचक्का रह गया। मैंने गांव के बुजुर्गों को प्रणाम करते हुए कहा, ‘अरे! आप लोग यहां...?’ गोबरधन ने झुंझलाते हुए कहा, ‘कल रेडियो पर जवाहिरा बोला था कि लोगों की गरीबी और भुखमरी मिटाने के लिए गांव-गांव योजना भेजी जा रही है। तो हम लोग सुबह से ही यहां पगडंडी पर योजना का इंतजार कर रहे हैं।’ गोवरधन काका की बात सुनते ही मेरी हंसी छूट गई। मैं पेट पकड़कर ठहाका लगाकर हंस पड़ा, ‘आप लोग भी कितने भोले हैं। अरे, ऐसी योजना को आते-आते अभी कई साल लगेंगे। और फिर योजना कोई मर्द या औरत तो है नहीं कि उसका आप लोग यहां खड़े होकर इंतजार करें। आप लोग घर जाइए, जब योजना आएगी, तो आपको पता लग जाएगा।’ तब से आज तक उस गांव के लोगों को योजना का इंतजार है।
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