Tuesday, August 27, 2013

मुस्टंडा डॉलर, पिलपिला रुपइया

-अशोक मिश्र 
भाई डॉलर! इन दिनों आप हमारे देश में बहुत भाव खा रहे हैं। सुना है, जब तक आपके आका इशारा नहीं करेंगे, आप इसी तरह भाव खाते रहेंगे। आपको शायद पता हो कि हमारे देश में एक बहुत पुरानी कहावत है, ‘खुदा मेहरबान, तो गधा पहलवान।’ ठीक है साहब! खा लीजिए भाव, जब तक आपके खुदा आप पर मेहरबान हैं। हां, एक बात आपको बतानी थी कि आपके भाव खाने से हमारे देश की अर्थव्यवस्था का हाजमा जरूर बिगड़ गया है। खाया-पिया सब कुछ बाहर आ रहा है। कहने का मतलब यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था ने अब तक जितना भी डॉलर कबीरदास की सीख ‘खाए खर्चे जो बचे, तौ जोरिये करोर’ मानते हुए खाने-खर्चने के बाद बचा रखा था, वह भी खर्च होता जा रहा है। घर की भूजी-भांग भी खर्च होती जा रही है, इसी चिंता में बेचारी अर्थव्यवस्था दुबली होती जा रही है। मेरे प्यारे भाई डॉलर! आज तुमारे भाव चढ़ रहे हों, तो तुम इतरा रहे हैं, भाव खा रहे हो, खाओ। तुम्हारा समय है। आज तुम मुस्टंडों की तरह सीना तान कर इस देश में दनदनाते घूम रहे हो और मैं पिलपिलाया हुआ एक कोने में पड़ा सिसक रहा हूं।
भाई! एक बात बताऊं। यह वक्त-वक्त की बात है। कभी नाव पानी पर, तो कभी पानी नाव पर। यह वही देश है, जिसे तुम दुनिया वाले ‘सोने की चिड़िया’ कहते नहीं अघाते थे। हमारे यहां भिखमंगों की तरह आते थे और हम उदारतापूर्वक सोना, चांदी आदि को मिट्टी समझते हुए तुम्हें उपहार में देते थे। हमारे देश में इतना सोना, चांदी, जवाहरात भरा पड़ा था कि हमारे देश के बच्चे सोने-चांदी की गोलियां बनाकर खेलते थे। फिल्म ‘उपकार’ में मनोज कुमार ने जब गाया कि ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती।’ तब तुम पश्चिमी देशों को पता चला कि तुम कितने गिरे हुए हो। तुम कितने गरीब हो। डॉलर भाई! एक बार सोचकर देखो, जब हमारे देश के खेतों में सोना, चांदी, हीरे-जवाहरात पाए जाते थे, तो क्या हमारे देश के लोग घर उठा ले जाते थे? नहीं...वे उसे भी मिट्टी समझकर खेतों में ही छोड़ आते थे। हमारे देश के लोग तुम पश्चिम वालों की तरह लालची नहीं हैं और न कभी थे। हमने सोने-चांदी में अन्न उगाए हैं। भाई मुस्टंडे डॉलर! यह बात तुम्हें शायद पता नहीं होगी? अगर पता होती, तो मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि तुम अपनी औकात में रहते और हमें भी योगियों की तरह अलमस्त होकर भगवान का भजन करने देते। अगर हमारे देश का इतिहास उठाकर देखो, तो तुम अपने चढ़ते भाव पर इतराना छोड़ दोगे या अपने आका से बगावत कर जाओगे। यह देश वैसे भी ‘माया’ से दूर रहने वाला रहा है। हमारे यहां तुम्हारी क्या औकात रही है, इसको तुम इस बात से समझ सकते हो। हमारे देश में जितने भी समझदार लोग हैं, वे अपने रुपये-पैसे को पास रखकर अपने दीन-ईमान को खराब नहीं करना चाहते हैं, इसीलिए खाने और खर्च करने से जो भी माया अर्थात रुपये-पैसे बच जाते हैं, वह स्विस बैंक में एक दानखाता खोलकर जमा करा देते हैं। न रहेगी बांस, न बजेगी बांसुरी। जब माया-मोह का कारण बनने वाला रुपया-पैसा अपने देश में रहेगा ही नहीं, तो वे मोहग्रस्त कैसे होंगे। मोह-माया से बचने का इतना धांसू आइडिया आपके देश वालों को कभी सूझा? या कभी सूझ पाएगा? नहीं...न!
दरअसल, बात यह है कि आप थोड़े में ही इतरा जाने वाले लोगों के साथ रहते-रहते बिगड़ गए हैं। साठ पार क्या पहुंचे, सठियाने लगे? हमारे यहां साठ साल का आदमी जवान माना जाता है। विश्वास न हो, तो हमारे देश के साठ पार नेताओं, अभिनेताओं, साधु-संतों की करतूतों को देख लो। वे जवानों को भी मात करते हैं। हमारे देश के नौजवान जिन बातों और करतूतों पर शर्म महसूस करते हैं, उसे करने में हमारे ये साठ वर्षीय जवान तनिक भी नहीं लजाते। तुम पश्चिम वालों की यही तो खराबी है कि जरा सी बात पर इतराना शुरू कर देते हो। मुझे याद है, तुम्हारे एक राष्ट्रपति जरा-सा बौराए, तो तुम अमेरिकियों ने आसमान सिर पर उठा लिया था। हमारे यहां देखो। तुम्हारे राष्ट्रपति के भी बाप बैठे हैं। हमने कभी हो-हल्ला मचाया? यह सब तो हमारे जीवन का हिस्सा है। हमारे देश में यह कहावत सदियों पुरानी है कि ‘साठा, तब पाठा’ अर्थात आदमी जब साठ साल का होता है, तो वह किसी बछड़े-सा नौजवान हो जाता है। इस उक्ति को चरितार्थ करने वाले सिर्फ आपको हमारे ही देश में मिलेंगे। अगर बाकी देशों में कोई ऐसा करता है, तो जरूर उसके वंशज भारतीय रहे होंगे या फिर उन्होंने किसी भारतीय से ही प्रेरणा ली होगी। भाई डॉलर! इसलिए आपको बहुत ज्यादा इतराने की जरूरत नहीं है। मुझे साठ-सत्तर के स्तर तक पहुंचाकर कोई तीर नहीं मार लिया है। यह तो मेरी स्वाभाविक जवानी है। कभी अपने को जवान समझकर भिड़ने की कोशिश की, तो मुंह की खाओगे। इसलिए मेरी सलाह है, अब इतराना बंद करके अपनी औकात में आ जाओ, वरना अगर मैं तुम्हें औकात बताने पर तुल गया, तो तुम पर और तुम्हारे आका पर भारी पड़ेगा।

Wednesday, August 21, 2013

दंगों में लहूलुहान होती है इंसानियत

बनारस में हुआ था देश का संभवत: पहला सांप्रदायिक दंगा

-अशोक मिश्र 
सांप्रदायिक दंगों के दौरान इंसानियत होती है शर्मसार। उस देश का इतिहास इंसान के भीतर छिपे बैठे हैवान की करतूत देखकर किसी कोने में बैठकर सिसकता है। समाज और राष्ट्र की इज्जत को हत्या, लूट और बलात्कार जैसी घटनाएं तार-तार कर देती हैं। सांप्रदायिक दंगे इंसान के विवेक को हर लेते हैं। वह पड़ोसी जो कल तक भाई था, दोस्त था, हमदम था, जिसकी थाली से रोटी खाते समय कोई दुराग्रह नहीं था। जरूरत पड़ने पर जो पड़ोसी किसी सच्चे हमदर्द और मित्र की तरह संकट की घड़ी में चौबीस घंटे खड़े रहने को तैयार था, लेकिन धार्मिक कट्टरता की एक मामूली सी चिंगारी इन मानवीय संवेदना को जलाकर खाक कर देती है। जो हिंदू-मुसलमान कल तक एक अच्छे पड़ोसी थे, आज एक दूसरे के कट्टर शत्रु नजर आते हैं। देश के कुछ हिस्सों में इन दिनों यही हो रहा है। मानवता के दामन पर इतने बड़े-बड़े और घिनौने दाग लगाए जा रहे हैं कि लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। 
वैसे, अगर हम इतिहास पर गंभीर और गहरी नजर डालें, तो पाते हैं कि भारत में सांप्रदायिक दंगों का इतिहास काफी पुराना है। हिंदू-मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक हिंसा की घटना आज से दो सौ चार साल पहले सन 1809 में भी घट चुकी है। इसे आधुनिक भारत का संभवत: पहला हिंदू-मुस्लिम दंगा भी कहा जा सकता है। इस दंगे की आधारशिला बनी थी वाराणसी जिले में स्थित ईदगाह और हनुमान टीले के बीच की विवादित जमीन। इस विवादित जमीन को कोई भी पक्ष छोड़ने को तैयार नहीं था। तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्ता-धर्ता भी नहीं चाहते थे कि यह मामला सुलझे। वे बराबर इस प्रयास में थे कि किस तरह जमीन विवाद रूपी चिंगारी को हवा देकर विशाल दावानल का रूप दिया जाए। और उन्हें अपने इस प्रयास में सफलता भी मिली, क्योंकि भारतीय इतिहास में इस घटना को प्रथम हिंदू-मुसलमान दंगे के रूप में दर्ज जो होना था। हिंदुओं और मुसलमानों ने एक दूसरे के खून से 1809 में पहली होली खेली। दोनों पक्ष के कई लोग मारे गए, काफी संख्या में लोग घायल हुए और दंगा शांत कराने के नाम पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने हिंदू-मुसलमानों का भरपूर दमन किया। इस घटना से हिंदू और मुसलमानों ने शायद सबक सीखा और सन 1857 के गदर में एक दूसरे का भरपूर साथ दिया। वे कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़े। उनका यह सांप्रदायिक सद्भाव अंग्रेजों को खटकने लगा। इस गदर के बाद वे बराबर इस प्रयास में रहे कि किसी तरह हिंदू-मुसलमानों की एकता को तार-तार किया जाए।
उन्हें सफलता मिली सन 1905 में। लार्ड कर्जन ने हिंदू-मुस्लिम एकता को विखंडित करने के लिए सबसे पहले देश के वृहद प्रदेश बंगाल के विभाजन की घोषणा की। 16 अक्टूबर 1905 को लार्ड कर्जन ने बंगाल विभाजन की घोषणा करते हुए कहा, बंगाल में हिंदुओं को अल्पसंख्यक और मुसलमानों को बहुसंख्यक बनाने के लिए प्रदेश विभाजन जरूरी था। मालूम हो कि पूर्वी बंगाल में मुसलमानों की आबादी हिंदुओं की अपेक्षा ज्यादा थी। घोषणा के एक साल पूर्व से ही पूर्वी बंगाल का गर्वनर बैम्फाइल्ड पूरे बंगाल में यह कहता घूम रहा था कि उसके दो बीवियां हैं। एक हिंदू और दूसरी मुसलमान। मैं दूसरी को सबसे अधिक प्यार करता हूं। यह स्पष्ट रूप से हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में लड़ाने की घृणित चाल थी। लार्ड रोनाल्डशे के मुताबिक, इस विभाजन से बंगाली राष्ट्रीयता की बढ़ती हुई शक्ति को चकनाचूर करने का प्रयास किया गया। प्रसिद्ध इतिहासकार एसी मजूमदार के मुताबिक, लार्ड कर्जन के भड़काने पर पूर्वी बंगाल में भीषण दंगे हुए। इस दंगे की साजिश रची ढाका के नवाब सलीमउल्ला खान ने। उसने ढाका के कारागार में सजायाफ्ता मुजरिमों की सजा माफ करते हुए कहा कि वे जाकर ढाका में बदअमनी फैलाएं। कारागार से रिहा किए गए एक मुसलमान अपराधी ने ढाका की भीड़ भरी सड़कों पर मुसलमानों को संबोधित करते हुए नवाब की तरफ से यह सूचना पढ़ी कि ब्रिटिश सरकार और ढाका के नवाब बहादुर सलीम उल्ला की आज्ञानुसार यदि कोई मुसलमान हिंदुओं को लूटने, उनकी हत्या करने, उनकी महिलाओं से बलात्कार करने का दोषी पाया जाता है, तो उसे दंडित नहीं किया जाएगा। नतीजा यह हुआ कि इस भीड़ ने काली मंदिर पर हमला करके मूर्तियों को तहस-नहस करने के साथ-साथ आसपास के हिंदू व्यापारियों को लूट लिया। हिंदू स्त्रियों का अपहरण कर उनके साथ बलात्कार किया गया और हिंदू व्यापारी मुसलमानों पर जवाबी हमला करने में भी लापरवाही बरतते रहे। इस मामले में ढाका नवाब सलीम उल्ला खां का स्वार्थ यह था कि उसे अंग्रेजों ने एक लाख पौंड का ब्याज रहित कर्ज दे रखा था। भविष्य में भी एक मोटी रकन देने का आश्वासन अंग्रेजों ने दिया था। इससे साथ ही साथ वह अंग्रेजों से मिलकर अपनी रियासत बचाए रहना चाहता था। इस दंगे ने हिंदू-मुसलमानों के बीच एक ऐसी दरार डाल दी, जो कालांतर में मुस्लीम लीग, अकाली दल, हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के गठन का आधार बनी। ढाका दंगे के एक साल बाद 1906 में ढाका नवाब सलीम उल्ला खां और दूसरे मुस्लिम नेताओं ने मिलकर मुस्लिम लीग का गठन किया और बाद में यही संगठन द्विराष्ट्र के सिद्धांत के प्रचार-प्रसार में सहायक बना।
इसके बाद हुआ सन 1931 में कानपुर में दंगा। इस दंगे ने यशस्वी पत्रकार, स्वाधीनता   संग्राम सेनानी गणेशशंकर विद्यार्थी की बलि ले ली। कानपुर में भड़की सांप्रदायिक हिंसा की आग को बुझाने की कोशिश में ही गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हो गए। कानपुर में दंगे का कारण बना महात्मा गांधी द्वारा आहूत सविनय अवज्ञा आंदोलन। सन 1931 में महात्मा गांधी के निर्देश पर अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत कानपुर बंद का आह्वान किया था। उन दिनों कानपुर की कॉटन मिलों में हड़ताल के कारण उत्पादन ठप पड़ा था। व्यापारियों के गोदामों में जमा माल ही बेचा जा रहा था। जब सविनय अवज्ञा आंदोलन के चलते काफी दिनों तक दुकानों को बंद करने की नौबत आई, तो व्यापारियों को घाटा होने लगा। मालूम हो कि उन दिनों कानपुर में कपड़े के ज्यादातर व्यापारी मुसलमान थे। मुस्लिम व्यापारी जब ज्यादा घाटा सहने की स्थिति में नहीं रहे, तो उन्होंने दुकानें खोल दीं। इससे कांग्रेसी भड़क उठे। मुस्लिम व्यापारियों से ‘तू-तू, मैं-मैं’ से शुरू हुई बातचीत, बाद में झड़प, मारपीट में तब्दील हुई और फिर सांप्रदायिकता की आग में पूरा कानपुर जल उठा। हजारों दुकानें लूट ली गईं, सैकड़ों दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया। काफी संख्या में हिंदू-मुसलमान मारे गए, सैकड़ों घायल हुए। और इसी सांप्रदायिकता की आग ने ओजस्वी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी को निगल लिया।
बीसवीं सदी में शायद दुनिया का सबसे बड़ा दंगा भारत-पाक विभाजन के दौरान हुआ था। कहा जाता है कि इस दंगे में लगभग दस लाख लोग मारे गए थे, तीस लाख लोग घायल हुए थे। अरबों रुपये की संपत्ति तहस-नहस या लूट ली गई थी। कई सौ सालों से भाई-भाई की तरह रह रहे लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। 15 अगस्त 1947 की सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलसने वालों और उसे अपनी आंख से देखने वालों ने कालांतर में जो संस्मरण, उपन्यास, कहानी आदि लिखे, उससे पता चलता है कि उस दौरान मानवता को हैवानों ने पैरों तले बर्बरतापूर्ण तरीके से रौंदा था। कहा जाता है कि भारत और पाकिस्तान से आने-जाने वाली रेलगाड़ियों, ट्रकों, बसों और दूसरे वाहनों में सिर्फ लाशें ही भरी रहती थीं। लाखों महिलाओं और लड़कियों से बलात्कार किए गए, उनके स्तन काट लिए गए, उनके निजी अंगों में नोकीले और धारदार हथियार भोंके गए। लाखों लड़कियों का इस पार और उस पार रहने वालों ने अपहरण कर लिया। यह बर्बर अत्याचार देखकर मानवता भी कराह उठी। खुशवंत सिंह के उपन्यास ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ और भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’, यशपाल का ‘झूठा सच’, सआदत हसन मंटों की कहानी ‘खोल दो’ पढ़कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जिन लोगों ने यह त्रासदी भोगी होगी, उनकी पीड़ा का अंदाजा लगाया जा सकता है। दंगे किसी के लिए भी सुखद नहीं होते हैं। दंगे किसी तरह की सुखानुभूति नहीं कराते, दंगे देते हैं सिर्फ घाव, पीड़ा, अपमान और जलालत। अब भी समय है, अगर दंगों का होना रोका जा सकते, तो यह मानवता की सबसे बड़ी सेवा होगी।

Monday, August 19, 2013

सियासत में तो गुंडे मस्ट हैं

-अशोक मिश्र
दिल्ली के लुटियन जोन के किसी सुनसान पार्क में सर्वगुटीय बैठक हो रही थी। किसिम-किसिम के ठग, उठाईगीर, चोर-उचक्के, गुंडे और पॉकेटमार जमा थे। गली-कूंचे के टुटपुंजिया टाइप के छुटभैय्ये पॉकेटमार, उठाईगीरों से लेकर अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त एक भाई के प्रतिनिधि सलमान खिर्ची भी बैठक में भाग ले रहे थे। आतंकवादी संगठनों को अमानवीय और देशद्रोही मानते हुए बैठक में नहीं बुलाया गया था। बैठक में भाग ले रहे लोगों का मानना था कि वे कानून भले ही तोड़ते हों, लेकिन आतंकवादियों की तरह मानव और राष्ट्र विरोधी नहीं है। वे अपने देश से उतना ही प्यार करते हैं, जितना एक राष्ट्रभक्त। भारत के प्रख्यात पॉकेटमार उस्ताद मुजरिम को बैठक का अध्यक्ष मनोनीत किया गया था। सभा की कार्रवाई शुरू होने से पहले सभी प्रतिनिधियों और पदाधिकारियों ने ‘भारत के कानून विरोधी तत्वों एक हो!..एक हो’ के नारे लगाए। अध्यक्ष महोदय के मंचासीन होते ही बैठक की कार्रवाई शुरू हुई।
कार्यक्रम के संचालन का भार दाउद इब्राहिम के प्रतिनिधि सलमान खिर्ची को सौंपा गया। जर्मन मेड टेलिस्कोपिक गन से बीस राउंड फायरिंग करने के बाद सलमान खिर्ची ने कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए कहा, ‘राजनीति के अंग-संग रहने वाले मेरे अराजक साथियो! इन दिनों हम सभी भाइयों पर एक बड़ा संकट मंडरा रहा है। इस देश की न्यायपालिका कहती है कि समाज में चोर नहीं चाहिए, उचक्के नहीं चाहिए, पॉकेटमार नहीं चाहिए, ड्रग पैडलर नहीं चाहिए, माफिया नहीं चाहिए, हत्यारे नहीं चाहिए। हम इस बैठक के माध्यम से अदालत से विनम्रतापूर्वक पूछना चाहते हैं, अगर समाज में ये सब नहीं चाहिए, तो फिर चाहिए क्या? अगर हम सबको इस देश और समाज से निकाल दिया जाए, तो बचेगा ही समाज में क्या? अगर देश में समाज, व्यवस्था और सद्भावना नाम की कोई चीज है, तो हम उठाईगीरों, पाकेटमारों, चोर-उचक्कों और गुंडों की ही बदौलत है, वरना इस देश में हमारे भी बाप नेता हैं और या फिर नपुंसक जनता। इन्हीं मुद्दों पर विचार-विमर्श करने के लिए हम सब लोग आज देश की राजधानी दिल्ली के दिल लुटियन जोन में इकट्ठा हुए हैं। इन सब बातों पर प्रकाश डालने के लिए मैं प्रख्यात पॉकेटमार और बैठक के अध्यक्ष उस्ताद मुजरिम के पट्टशिष्य उस्ताद गुनाहगार को आमंत्रित करता हूं।’
अगली कतार में बैठे उस्ताद गुनाहगार ने माइक संभाला, ‘मेरे प्रिय साथियो! सचमुच... खिर्ची भाई ने एक बहुत ही गंभीर मुद्दा उठाया है। पूरा समाज तीन हिस्सों में बंटा हुआ है। पहले हिस्से में हम जैसे लोग हैं। हम जैसे लोगों से मतलब है, जिन्हें समाज में चोर, उचक्का, बटमार, पॉकेटमार, अपराधी, गुंडा, माफिया, हत्यारा कहा जाता है। हम लोग सच में कानून का उल्लंघन करते हैं। पैसा मिलने पर हथियार, नशीले पदार्थ और हर वह वस्तु बेचते हैं, जिनको बेचने पर कानून रोक लगाता है। हम जो भी करते हैं, बड़ी ईमानदारी से करते हैं। अगर हमारे शूटर भाई किसी की हत्या की सुपारी लेते हैं, तो फिर उसे शूट करके ही मानते हैं। उनके लिए सिर्फ टारगेट होता है, वह टारगेट कोई भी हो सकता है। यह तो धंधा है, लेकिन धंधे में दगाबाजी हमारी फितरत नहीं है। दूसरे हिस्से में आते हैं नेता, मंत्री और नौकरशाह। कुछ मामलों में ये हमारे भी बाप हैं। हम तो प्रतिबंधित वस्तुओं को ही बेचकर अपना पेट भरते हैं। इन्हें जब भी मौका मिलता है, तो संसद और विधानसभाओं में सत्यनिष्ठा, गोपनीयता और ईमानदारी की कसम खाने वाले अपना ईमान तक बेच देते हैं। खुद ही गोपनीय फाइलों को लीक करवाकर विरोधी को घेरते हैं। आस्था और प्रतिबद्धता को कौड़ियों के भाव बेच देना, नेताओं का शगल है। बेईमानी और लूट-खसोट तो इनकी रगों में खून बनकर दौड़ता है। इस समुदाय के लोग खुद ही भ्रष्टाचार को प्रश्रय देते हैं और खुद ही हल्ला मचाते हैं। आज से दो-तीन दशक पहले नेता गुंडों को पालते थे, उनके सहारे सत्ता पर काबिज होते थे। आज ये खुद गुंडे और नेता की दोहरी भूमिका में हैं। नेता जब तक गुंडा पालने की स्थिति में रहता है, तब तक पालता है। बाद में वह खुद दोहरी भूमिका में आ जाता है। इस बात को आप लोग इस तरह से समझें कि राजनीति में गुंडे तो मस्ट हैं, राजनीति और गुंडई का चोली-दामन का संबंध है। एक के बिना दूसरा अधूरा है। दोनों के बीच अन्योनाश्रित संबंध है। कहने का मतलब नेता ही गुंडा है और गुंडा ही नेता है।’
इतना कहकर गुनाहगार सांस लेने के लिए रुके, ‘बाकी हिस्से में नपुंसक जनता आता है। मैं नपुंसक इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों को इस जनता पर बहुत भरोसा था कि आजादी के बाद नेताओं, नौकरशाहों, पूंजीपतियों के कान पकड़कर जब चाहेंगे, इनकी औकात बता देंगे। अफसोस कि क्रांतिकारियों की अपेक्षाओं पर जनता खरी नहीं उतरी। पिछले छाछठ सालों से नेता और उनके लगुए-भगुए अपनी मनमानी करते आ रहे हैं और वह जनता हर पांचवें साल सांप नाथ या नाग नाथ में से किसी एक को चुनकर अपना नपुंसक दायित्व पूरा कर लेती है। जब पूरी व्यवस्था भ्रष्ट है, तो क्रांति क्यों नहीं करती यह नपुंसक जनता? यह आज का सबसे बड़ा सवाल है।’ इसके बाद पूरी बैठक इसी मुद्दे के   इर्द-गिर्द घूमती रही।

Sunday, August 18, 2013

दंगा

कौन हो तुम?
दंगा..
कहीं दूर से आए हो?
मेरे लिए कुछ लाए हो?
हां
गरीबी, बेकारी, भुखमरी, तबाही, खून का सैलाब
साथ में हैं मेरे
नरमुंड बेहिसाब।
क्योंकि जब मैं भड़कता हूं,
शहर का शहर साफ कर देता हूं
इसीलिए तो नेताओं का चेहता हूं।
मगर
तुम तो नंगे हो?
हमाम में तो सभी नंगे हैं
इसीलिए गली-गली, शहर-शहर, गांव-गांव दंगे हैं।
-अशोक मिश्र

Tuesday, August 13, 2013

‘टीटी’ मतलब टोपी ट्रांसफर

-अशोक मिश्र 
बढ़ती तोंद से चिंतातुर होकर मैंने सुबह-सुबह उठकर पार्क में टहलना क्या शुरू किया, मानो मुसीबत मोल ले ली। घरैतिन सुबह चार बजे सज-धज कर निकलता देख सशंकित हुईं और बोली, ‘किसी से मिलने का वायदा किया है क्या सुबह-सुबह?’ घरैतिन की बात सुनकर मैं झल्ला उठा। उसी झल्लाहट में मैं बाहर निकल आया। पार्क जाने के बजाय सड़क पर ही बड़बड़ाता हुआ टहलने लगा। तभी एक दस वर्षीय बच्चा मेरे सामने आ खड़ा हुआ। उसने पूछा, ‘अंकल! टोपी पहनने का क्या मतलब होता है?’ बच्चे की मासूमियत पर मेरा गुस्सा काफूर हो गया। मैंने बत्तीस इंची मुस्कान बिखेरते हुए कहा, ‘बेटा! यह एक मुहावरा है। टोपी पहनने का मतलब है कि किसी की मुसीबत को ‘आ बैल मुझे मार’ की तरह अपने सिर पर ओढ़ लेना।’ मेरी बात सुनकर बच्चा किसी नामुराद की तरह मुंह ताकने लगा। बोला, ‘अंकल! उदाहरण सहित समझाते तो और अच्छा था।’
मैंने प्राइमरी स्कूल के अध्यापक की तरह समझाने का प्रयास किया, ‘बेटा! मैं अपना उदाहरण दूं। मेरी एक अदद घरैतिन है। घरैतिन का मतलब समझते हो न! बीवी। इस दुनिया में बीवी वह शै है, जो अपने पति को जब तक दिन में तीन-चार बार टोपी न पहना दे, तब तक उसे खाना ही हजम नहीं होता। बढ़ती तोंद को कम करने के लिए मैं पिछले चार-पांच हफ्ते से रोज मार्निंग वॉक पर निकलता हूं। पता नहीं क्यों? उसे विश्वास ही नहीं होता कि मैं वाकई वॉक पर निकलता हूं। मैं अपनी बीवी की फितरत को जानता था, लेकिन इसके बावजूद मार्निंग वॉक पर निकलने की टोपी मैंने पहन ली। और नतीजा यह हुआ कि आज बीवी ने टोक ही दिया।’ मेरी बात सुनकर बच्चे ने बात को समझ जाने वाले अंदाज में सिर हिलाते हुए कहा, ‘टोपी पहनाना भी कोई मुहावरा है, अंकल? जरा इसको भी समझाइए।’
घरैतिन द्वारा सुबह-सुबह किए गए व्यंग्य को भूलकर मैं उसे समझाने लगा, ‘इसका मतलब टोपी पहनने से मिलता जुलता है। इसमें फर्क इतना है कि टोपी पहनने में जाने-अनजाने कोई व्यक्ति मुसीबत अपने सिर पर ओढ़ता है, टोपी पहनाने में कोई घुटा हुआ कांइया व्यक्ति अपनी मुसीबत दूसरे के सिर पर लाद देता है। अब तुम इस बात को राजनीतिक घटनाक्रमों से समझने का प्रयास करो। तुम्हारे ‘मामा’ को गोल टोपियों से दूर रहने की नसीहत उनकी ही पार्टी के कई पुरोधा नेता दे चुके थे। एक नेता तो उनके सामने एक आदर्श भी पेश कर चुके थे। उनकी पार्टी के एक मुख्यमंत्री ने जब चार दिन का सद्भाव उपवास रखा था, तो कुछ गोल टोपी वाले पहुंच गए थे टोपी पहनाने। लेकिन मजाल है, कोई उस मुख्यमंत्री को टोपी पहना सके। गोल टोपी को देखते ही उस मुख्यमंत्री ने अपने दोनों हाथ सिर पर इस तरह रख लिया कि कोई उन्हें टोपी पहना ही न सके। टोपी पहनने वालों ने उनसे टोपी पहनने की अपील की, तो उन्होंने मीडिया के ही सामने टोपी पहनने से मना कर दिया। लेकिन ‘बच्चों के मामा’ यह नहीं समझ पाए और एक फिल्मी अभिनेता से टोपी पहन ली। अब उनकी ही पार्टी के नेता उनको पानी पी-पीकर गरिया रहे हैं। कोस रहे हैं। फिल्मी अभिनेता को नामुराद बताकर छाती पीट रहे है। दूसरी पार्टी वाले ‘आग लगाकर जमालो बी दूर खड़ी’ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए तमाशा देख रहे हैं।’
मेरी बात सुनकर बच्चा मुस्कुराया और बोला, ‘अंकल! मैं ‘टोपी पहनने और पहनाने’ का खेल समझ गया। अब देखता हूं, स्कूल में मेरे दोस्त कैसे मुझे टोपी पहनाते हैं। उल्टा अब मैं ही उन्हें टोपी पहनाऊंगा।’ बच्चे की बात सुनकर मैंने गहरी सांस ली और कहा, ‘लेकिन बेटा! टीटी से सावधान रहना।’ बच्चा चौंका, ‘टीटी मतलब?’ मैंने बताया, ‘टीटी मतलब टोपी ट्रांसफर।’ बच्चे के चेहरे पर उत्सुकता के भाव देखकर मैंने समझाया, ‘अब तुम इस बात का मतलब इस तरह समझो। जब देश आजाद नहीं हुआ था, तो अंग्रेजों के लिए इस देश के क्रांतिकारी मुसीबत साबित हो रहे थे। क्रांतिकारी देश की जनता में अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की अलख जगा रहे थे। अंग्रेज इस बात को समझ गए कि अब ज्यादा दिन उनका दाना-पानी इस देश में संभव नहीं है। जाते-जाते अंग्रेजों ने टीटी करने की सोची। उन्होंने भ्रष्टाचार का एक नन्हा-सा पौधा रोपा। जब पौधा फल देने की स्थिति में हुआ, तो भ्रष्टाचार रूपी मुसीबत की टोपी को वे कांग्रेस के सिर पर ट्रांसफर करके चले गए। तब से वह पौधा फल-फूल रहा है। कांग्रेसियों और अन्य दलों ने टोपी ट्रांसफर की कला का कालांतर में काफी विकास किया और तब से देश के सभी राजनीतिक दल टोपी ट्रांसफर करते चले आ रहे हैं। मेरे कहने का मतलब है कि इस देश में जो भी पार्टी सत्ता में आती है, वह झट से मुसीबत की टोपी दूसरे के सिर पर ट्रांसफर कर देती है और खुद पांच साल तक रबड़ी छानती है। मेरा ख्याल है कि अब तुम्हें टीटी का मतलब अच्छी तरह से समझ में आ गया होगा?’ बच्चे ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘आपका यह सबक जिंदगी भर याद रखूंगा, अंकल। थैक्स यू।’ और वह अपने रास्ते चल गया।

Friday, August 9, 2013

प्रश्नपत्र में सौ टंच माल

अशोक मिश्र 
कल आफिस से निकला, तो चाय पीने का मन हुआ। आफिस के सामने ही स्थित चाय की दुकान पर गया। चाय वाले ने बाहर रखे स्टूल पर बैठने का इशारा किया और चाय बनाने में मशगूल हो गया। स्टूल के पास ही नोएडा के ही किसी स्कूल की रद्दी में बेची गई उत्तर पुस्तिकाएं पड़ी हुई थीं। उत्सुकतावश एक उत्तर पुस्तिका मैंने उठा ली। बारहवीं कक्षा के कॉमर्स विषय के परीक्षार्थी ने उत्तर के ऊपर प्रश्न भी लिखा था। सबसे ज्यादा आश्चर्य तो मुझे तीसरे प्रश्न पर हुआ। परीक्षा में पूछा गया था, ‘सौ टंच माल की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए और वर्तमान संदर्भों में सौ टंच माल की उपयोगिता बताइए।’ प्रश्न पढ़कर मैं जितना चौंका था, उससे ज्यादा मजेदार उत्तर परीक्षार्थी ने दिया था। अपने पाठकों के लिए परीक्षार्थी द्वारा लिखे गए जवाब को बिना संपादित किए प्रस्तुत किया जा रहा है।
परीक्षार्थी ने लिखा था, ‘वैसे तो ‘सौ टंच माल’ शब्द का ज्यादातर उपयोग उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, बिहार, छत्तीसगढ़ इलाके में व्यवसाय करने वाले सुनार सोने की शुद्धता के संदर्भ में करते हैं। सौ टंक माल का निहितार्थ यह है कि अमुक सोना सौ फीसदी शुद्ध और खरा है। इसमें मिलावट नहीं की गई है। सामाजिक जीवन में इस शब्द का उपयोग महिलाओं के ‘टनाटन’ होने या न होने के अर्थ में किया जाता है। अब आप मेरे पड़ोस में रहने वाली छबीली आंटी को ही लें। मेरी दृष्टि से वे ‘बहत्तर टंच माल’ हैं। वैसे, तो वे सुंदर हैं, जवान हैं, सबसे हंस कर बोलती हैं। मोहल्ले के सारे जवान उनसे बतियाने को लालायित रहते हैं। बतरस (किसी सुंदर महिला से मीठी-मीठी बातें करके रस लेना) की लालच में मेरे पिता जी भी कई बार आॅफिस से आते या आॅफिस जाते समय उनके घर के सामने अपना खटारा स्कूटर खड़ा करके दस-पंद्रह मिनट गुजार ही लेते हैं। खुदा न खास्ता, अगर उसी समय मेरी मम्मी बाहर निकल आती हैं, तो वे स्कूटर को आड़ा-तिरछा करके ऐसा जाहिर करने लगते हैं, मानो वह चलते-चलते बंद हो गया हो या फिर पेट्रोल खत्म हो गया हो अथवा कोई दूसरी खराबी आ गई हो। उस समय छबीली आंटी भी मुस्कुराती हुई अंदर चली जाती हैं। मम्मी पहले तो दुर्गा की तरह पापा को घूरती हैं और पापा के खटारा लेकर आगे बढ़ जाने पर अंदर चली जाती हैं। अब अगर मेरी दृष्टि से देखा जाए, तो छबीली आंटी सत्तर टंच माल हैं। वैसे, मेरे पापा से अगर पूछा जाए, तो उनके मुताबिक छबीली आंटी सौ टंच माल ही होंगी। मेरी बात से एक बात यह साबित होती है कि ‘टंच’ वह शब्द है, जिसका अर्थ, संदर्भ और प्रसंग बदल जाने पर बदल जाता है। कोई भी माल कितना टंच है, यह जौहरी द्वारा मुनाफा कमाने की दर और ‘बट्टे’ पर निर्भर करता है। कुछ जौहरी किसी माल पर पांच फीसदी बट्टा काटते हैं, तो कोई दस। कुछ ऐसे भी जौहरी हैं, जो पूरा माल ही बट्टे में हजम कर जाते हैं। अगर मैं जौहरी होता, तो छबीली आंटी के मामले में तीस फीसदी ‘बट्टा’ वसूलता। यही वजह है कि मैंने सत्तर टंच माल ही छबीली आंटी को माना है।’
इसके बाद नया पैराग्राफ बनाकर लिखा गया था, ‘मेरे घर के पीछे की साइड में रहने वाली ‘कल्लो भटियारिन’ सौ टंच माल है। आप मोहल्ले के किशोर से लेकर बुजुर्ग तक राय शुमारी करवा लें, कल्लो को कोई भी सौ टंच से नीचे नहीं कहेगा। वैसे, तो उसकी उम्र अभी बाइस साल ही है, एकदम पटाखा है, लेकिन उसके दर्शन को मेरे घर की दायीं तरफ रहने वाले बासठ वर्षीय मुंहबोले नाना जी, मेरे घर के सामने रहने वाले सत्तर वर्षीय ताया जी, एकदम पड़ोस में रहने वाले चालीस वर्षीय चाचा जी किसी न किसी बहाने चावल, चना, मक्के का दाना, गेहूं भुजाने चले जाते हैं। दरअसल, कल्लो घर पर ही भाड़ झोंकने (भड़भूजे का काम) का काम करती है। मेरा चचेरा भाई दुखहरन कल्लो के घर के सामने से गुजरते हुए यह जरूर गाता है, ‘गोरी करौ न गुरूर, गोरी करौ न गुरूर, तुहैं लै चलब जरूर...दुपहरिया मा।’ एक दिन मैंने उससे पूछा, तो उसने खिलखिलाते हुए कहा, कल्लो पांच सौ टंच माल है। 
उत्तर पुस्तिका निरीक्षक महोदय, मैं अभी नाबालिग हूं, इस वजह से मैं भाई दुखहरन के इस अपहरण गीत का भावार्थ नहीं समझ सका। मैंने उससे पूछा, तो उसने मेरे गाल पर दो कंटाप जमाने के बाद भगा दिया। मैं कंटाप के चलते लाल हो गए गाल को सहलाता हुआ घर लौट आया था। यही वजह है कि मैं इस अपहरण गीत की व्याख्या नहीं कर सकता। वैसे, एक बात बताऊं, उत्तर पुस्तिका निरीक्षक महोदय। मेरी गर्लफ्रेंड कुकू (कोकिला) भी नब्बे टंच माल है। उत्तर पुस्तिका निरीक्षक महोदय, अगर आप बुरा न मानें, तो मैं पूछना चाहता हूं कि आपकी भी कभी न कभी कोई न कोई गर्लफ्रेंड जरूर रही होगी। आपकी गर्लफ्रेंड कितने टंच माल है? अगर नब्बे से सौ टंच के बीच में हो, तो आपको उस प्रेमिका की कसम, मुझे नब्बे से सौ टंच के बीच में अंक भी दीजिएगा।’