-अशोक मिश्र
जी हां! मैंने यही कहा था, ‘उल्लू की दुम होता है व्यंग्यकार।’ बात यह हुई थी कि मैं सुबह उठकर अखबार पढ़ते हुए एक कप चाय का इंतजार कर रहा था। घरैतिन किचन में पता नहीं क्या कर रही थीं। चाय की तलब काफी तेज लगी हुई थी कि तभी घरैतिन ने चाय का कप थमाते हुए पूछ लिया, ‘सुनो जी! यह व्यंग्यकार क्या होता है?’ काफी देर से चाय के इंतजार में भीतर ही भीतर उबल रहा मैं सचमुच उबल पड़ा, ‘उल्लू की दुम होता है व्यंग्यकार। खब्तुलहवास होता है व्यंग्यकार। उस पर चौबीस घंटे एक अजीब सी खब्त सवार होती है। माघ-पूस में वह फाल्गुनी मादकता से ओतप्रोत रहता है, तो जेठ की दुपहरिया में वह कंबल ओढ़कर वर्षागीत गाता है। कहने का मतलब यह है कि व्यंग्यकार वह जीव होता है, जो उल्टा सोचता है, उल्टा चलता है, बेचैन आत्मा होता है।’ मेरी बात सुनते ही घरैतिन घबरा उठीं। चाय रखकर अपना पिटा सा मुंह लेकर वह दोबारा किचन रूपी कोपभवन में जाने लगीं, तो मुझे लगा कि मैंने कुछ ज्यादा ही व्याख्या कर दी है। अगर घरैतिन को मनाकर डैमेज कंट्रोल नहीं किया गया, तो अपनी बैंड बजनी तय है। सो, लपककर बड़े प्रेम से घरैतिन का हाथ पकड़कर अपने पास बिठाते हुए कहा, ‘ओह प्रियतमे! तुम कहीं मेरी बात का बुरा तो नहीं मान गईं? मेरे अंतस्थल के मरुथल में अपनी संपूर्ण मादकता और प्रीत के साथ बहने वाली बासंती बयार! तुम अगर रूठ गईं, तो मेरे जीवन की पुष्पित-पल्लवित बगिया में असमय पतझड़ का समावेश हो जाएगा।’ मेरी बात सुनते ही घरैतिन ने हाथ झटकते हुए कहा, ‘मैंने आपसे सीधा-सा सवाल किया था, आपने टेढ़ा मेढ़ा जवाब दिया। अब लंतरानी हांकने की बजाय सीधे-सीधे बताइए कि आप कहना क्या चाहते हैं?’
घरैतिन के कर्कश शब्दों को सुनकर मुझे लग गया कि डैमेज कंट्रोल का मेरा प्रयास निरर्थक ही जाएगा। मैंने घरैतिन को पुचकारने वाले अंदाज में कहा, ‘तुमने कोई गलत सवाल नहीं किया था। मैंने भी गलत जवाब नहीं दिया था। बात दरअसल यह है कि सचमुच उल्लू की दुम होते हैं हम। तुम कह सकती हो कि रात में जलाए गए अलाव को दो दिन बाद कुरेद-कुरेदकर क्रांति की चिंगारियां तलाशते हैं। जब सारी दुनिया चैन से सोती है, हम पूरी दुनिया की चिंता में दुबले होते रहते हैं। जब सारी दुनिया किसी नेता, अधिकारी, सांसद या विधायक की प्रशंसा में कसीदे काढ़ती है, तो व्यंग्यकार उसकी धोती खोलने के जुगाड़ में लगा होता है। व्यंग्यकार की रडार पर आया हुआ व्यक्ति उसका दुश्मन ही हो, ऐसा कोई जरूरी नहीं है। जाति, धर्म, संप्रदाय, राष्ट्र की सीमा से परे होता है व्यंग्यकार। तुम यों समझो कि दुधारी तलवार की तरह होता है वह। जो तलवार चलाता है, वह भी घायल होता है, जिस पर चलती है, वह भी घायल होता है।’ इतना कहकर मैंने घरैतिन को अनुराग पूर्ण नेत्रों से देखा और कहा, ‘जानती हो, जब-जब तुम कोई लजीज व्यंजन पकाती हो या मेरा ध्यान रखने लगती हो, तो मैं सतर्क हो जाता हूं। मुझे लगता है कि जरूर इसमें तुम्हारा कोई न कोई स्वार्थ है। इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, दरअसल यह व्यंग्यकारों की प्रवृत्ति का ही दोष है। अगर वह सीधा सोचने-समझने लगे, तो व्यंग्य लिख ही नहीं सकता।’
घरैतिन ने टालने वाले अंदाज में कहा, ‘तुमने अभी बेचैन आत्मा की बात की थी। उसका क्या मतलब है?’ मैंने उसे समझाने वाले लहजे में कहा, ‘बात दरअसल यह है कि इस दुनिया में सारी आत्माएं या तो पुण्यात्मा होती हैं या फिर पापात्मा। कुछ आत्माएं ऐसी भी होती हैं, जो न तो पुण्यात्मा होती हैं, न ही पापात्मा। ये बेचैन आत्माएं होती हैं। हालांकि इस पूरी दुनिया में ऐसी बेचैन आत्माएं रेयरेस्ट आॅफ द रेयरेस्ट ही होती हैं, लेकिन होती तो हैं। इन बेचैन आत्माओं को जब देह धारण करने का मौका मिलता है, तो ऐसी आत्माएं पैदा होने के बाद बड़ी होकर व्यंग्यकार हो जाती हैं। इन आत्माओं को जीवन भर चैन नहीं मिलता। ये बेचैन आत्माएं यानी व्यंग्यकार हर काम, हर भावना, हर बात में कोई न कोई नुक्स जरूर ढूंढता है। व्यंग्यकार कभी सीधा चल ही नहीं सकता है। अगर चला, तो बेमौत मारा जाएगा। मरने पर उसे मोझ नहीं मिलने वाला। वह फिर बेचैन आत्मा हो जाएगा। ‘जो कुछ था, सोई भया’ की तरह। लेकिन एक बात बताऊं। सच्चा व्यंग्यकार अपना भला भले ही न कर पाए, लेकिन पूरी दुनिया का बहुत भला करता है। वह जिस पर व्यंग्य लिखता है, वह तो तिलमिलाता ही है, पढ़ने वाले भी मुंह बना देते हैं। वह व्यक्तिपरक नहीं लिखता, सीधा प्रवृत्ति या व्यवस्था पर चोट करता है। इस दुनिया में बहुत सारे लोग सीधे रास्ते चलते और गलत रास्ते पर पहुंच जाते हैं, लेकिन व्यंग्यकार गलत रास्ते से शुरुआत करके सीधे रास्ते पर आ जाता है। नकार (नकारात्मक) से चलकर सकार (सकारात्मक) तक आने वाला सिर्फ व्यंग्यकार ही होता है।’ मेरी बात सुनकर घरैतिन ने असमंजस पूर्ण ढंग से ऐसे सिर हिलाया, मानो आधी बात समझ में आई हो, आधी नहीं। वह उठते हुए बोलीं, ‘आपकी बाकी व्याख्या बाद में सुनुंगी, चलूं चुन्नू को नाश्ता दे दूं।’ मैं भी अखबार पढ़ने के साथ-साथ ठंडी हो चुकी चाय पीने में लग गया।
जी हां! मैंने यही कहा था, ‘उल्लू की दुम होता है व्यंग्यकार।’ बात यह हुई थी कि मैं सुबह उठकर अखबार पढ़ते हुए एक कप चाय का इंतजार कर रहा था। घरैतिन किचन में पता नहीं क्या कर रही थीं। चाय की तलब काफी तेज लगी हुई थी कि तभी घरैतिन ने चाय का कप थमाते हुए पूछ लिया, ‘सुनो जी! यह व्यंग्यकार क्या होता है?’ काफी देर से चाय के इंतजार में भीतर ही भीतर उबल रहा मैं सचमुच उबल पड़ा, ‘उल्लू की दुम होता है व्यंग्यकार। खब्तुलहवास होता है व्यंग्यकार। उस पर चौबीस घंटे एक अजीब सी खब्त सवार होती है। माघ-पूस में वह फाल्गुनी मादकता से ओतप्रोत रहता है, तो जेठ की दुपहरिया में वह कंबल ओढ़कर वर्षागीत गाता है। कहने का मतलब यह है कि व्यंग्यकार वह जीव होता है, जो उल्टा सोचता है, उल्टा चलता है, बेचैन आत्मा होता है।’ मेरी बात सुनते ही घरैतिन घबरा उठीं। चाय रखकर अपना पिटा सा मुंह लेकर वह दोबारा किचन रूपी कोपभवन में जाने लगीं, तो मुझे लगा कि मैंने कुछ ज्यादा ही व्याख्या कर दी है। अगर घरैतिन को मनाकर डैमेज कंट्रोल नहीं किया गया, तो अपनी बैंड बजनी तय है। सो, लपककर बड़े प्रेम से घरैतिन का हाथ पकड़कर अपने पास बिठाते हुए कहा, ‘ओह प्रियतमे! तुम कहीं मेरी बात का बुरा तो नहीं मान गईं? मेरे अंतस्थल के मरुथल में अपनी संपूर्ण मादकता और प्रीत के साथ बहने वाली बासंती बयार! तुम अगर रूठ गईं, तो मेरे जीवन की पुष्पित-पल्लवित बगिया में असमय पतझड़ का समावेश हो जाएगा।’ मेरी बात सुनते ही घरैतिन ने हाथ झटकते हुए कहा, ‘मैंने आपसे सीधा-सा सवाल किया था, आपने टेढ़ा मेढ़ा जवाब दिया। अब लंतरानी हांकने की बजाय सीधे-सीधे बताइए कि आप कहना क्या चाहते हैं?’
घरैतिन के कर्कश शब्दों को सुनकर मुझे लग गया कि डैमेज कंट्रोल का मेरा प्रयास निरर्थक ही जाएगा। मैंने घरैतिन को पुचकारने वाले अंदाज में कहा, ‘तुमने कोई गलत सवाल नहीं किया था। मैंने भी गलत जवाब नहीं दिया था। बात दरअसल यह है कि सचमुच उल्लू की दुम होते हैं हम। तुम कह सकती हो कि रात में जलाए गए अलाव को दो दिन बाद कुरेद-कुरेदकर क्रांति की चिंगारियां तलाशते हैं। जब सारी दुनिया चैन से सोती है, हम पूरी दुनिया की चिंता में दुबले होते रहते हैं। जब सारी दुनिया किसी नेता, अधिकारी, सांसद या विधायक की प्रशंसा में कसीदे काढ़ती है, तो व्यंग्यकार उसकी धोती खोलने के जुगाड़ में लगा होता है। व्यंग्यकार की रडार पर आया हुआ व्यक्ति उसका दुश्मन ही हो, ऐसा कोई जरूरी नहीं है। जाति, धर्म, संप्रदाय, राष्ट्र की सीमा से परे होता है व्यंग्यकार। तुम यों समझो कि दुधारी तलवार की तरह होता है वह। जो तलवार चलाता है, वह भी घायल होता है, जिस पर चलती है, वह भी घायल होता है।’ इतना कहकर मैंने घरैतिन को अनुराग पूर्ण नेत्रों से देखा और कहा, ‘जानती हो, जब-जब तुम कोई लजीज व्यंजन पकाती हो या मेरा ध्यान रखने लगती हो, तो मैं सतर्क हो जाता हूं। मुझे लगता है कि जरूर इसमें तुम्हारा कोई न कोई स्वार्थ है। इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, दरअसल यह व्यंग्यकारों की प्रवृत्ति का ही दोष है। अगर वह सीधा सोचने-समझने लगे, तो व्यंग्य लिख ही नहीं सकता।’
घरैतिन ने टालने वाले अंदाज में कहा, ‘तुमने अभी बेचैन आत्मा की बात की थी। उसका क्या मतलब है?’ मैंने उसे समझाने वाले लहजे में कहा, ‘बात दरअसल यह है कि इस दुनिया में सारी आत्माएं या तो पुण्यात्मा होती हैं या फिर पापात्मा। कुछ आत्माएं ऐसी भी होती हैं, जो न तो पुण्यात्मा होती हैं, न ही पापात्मा। ये बेचैन आत्माएं होती हैं। हालांकि इस पूरी दुनिया में ऐसी बेचैन आत्माएं रेयरेस्ट आॅफ द रेयरेस्ट ही होती हैं, लेकिन होती तो हैं। इन बेचैन आत्माओं को जब देह धारण करने का मौका मिलता है, तो ऐसी आत्माएं पैदा होने के बाद बड़ी होकर व्यंग्यकार हो जाती हैं। इन आत्माओं को जीवन भर चैन नहीं मिलता। ये बेचैन आत्माएं यानी व्यंग्यकार हर काम, हर भावना, हर बात में कोई न कोई नुक्स जरूर ढूंढता है। व्यंग्यकार कभी सीधा चल ही नहीं सकता है। अगर चला, तो बेमौत मारा जाएगा। मरने पर उसे मोझ नहीं मिलने वाला। वह फिर बेचैन आत्मा हो जाएगा। ‘जो कुछ था, सोई भया’ की तरह। लेकिन एक बात बताऊं। सच्चा व्यंग्यकार अपना भला भले ही न कर पाए, लेकिन पूरी दुनिया का बहुत भला करता है। वह जिस पर व्यंग्य लिखता है, वह तो तिलमिलाता ही है, पढ़ने वाले भी मुंह बना देते हैं। वह व्यक्तिपरक नहीं लिखता, सीधा प्रवृत्ति या व्यवस्था पर चोट करता है। इस दुनिया में बहुत सारे लोग सीधे रास्ते चलते और गलत रास्ते पर पहुंच जाते हैं, लेकिन व्यंग्यकार गलत रास्ते से शुरुआत करके सीधे रास्ते पर आ जाता है। नकार (नकारात्मक) से चलकर सकार (सकारात्मक) तक आने वाला सिर्फ व्यंग्यकार ही होता है।’ मेरी बात सुनकर घरैतिन ने असमंजस पूर्ण ढंग से ऐसे सिर हिलाया, मानो आधी बात समझ में आई हो, आधी नहीं। वह उठते हुए बोलीं, ‘आपकी बाकी व्याख्या बाद में सुनुंगी, चलूं चुन्नू को नाश्ता दे दूं।’ मैं भी अखबार पढ़ने के साथ-साथ ठंडी हो चुकी चाय पीने में लग गया।
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