अशोक मिश्र
हां,
तो बात हो रही थी भारतीय स्वाधीनता संग्राम की पहली बगावत को लेकर।
संन्यासी विद्रोह का जिस वर्ष (सन 1820) पूरी तरह दमन हो गया, उसके एक साल
बाद तित्तू मियां के नेतृत्व में बंगाल के पांच हजार किसानों ने ब्रिटिश
हुकूमत के खिलाफ परचम लहरा दिया। कुछ ही दिनों में बंगाल के गवर्नर जनरल
वारेन हेस्टिंग्स के नेतृत्व में ब्रिटिश फौजों ने किसान बगावत को बुरी तरह
कुचल दिया। अधिसंख्य किसान पकड़कर फांसी पर लटा दिए गए। कुछ को अंग्रेज
भक्त जमींदारों ने पकड़कर राजभक्ति दिखाने के लिए बुरी तरह प्रताड़ित
किया, उन्हें मार दिया। इस विद्रोह में जिन-जिन गांवों के लोग शामिल थे, वे
गांव के गांव अंग्रेज भक्त जमींदारों ने तबाह कर दिए। गांव के गांव जला
दिए गए। पुरुषों और बच्चों को पकड़कर लाठियों, डंडों और कोड़ों से सरेआम
पीटा गया, उनकी चमड़ी उधेड़ दी गई। ताकि भविष्य में कोई भी जालिम जमींदारों
और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत करने की हिम्मत न जुटा सके। महिलाओं के
साथ बलात्कार किए गए। उनके शरीर को चाकुओं, तलवारों और नुकीले बल्लम से
गोदा गया। खूबसूरत और कम उम्र लड़कियों को अंग्रेज अफसरों और जमींदारों की
हवेलियों और महलों में पहुंचा दिया गया। इस लूट खसोट का लाभ सबने उठाया,
चाहे वह हिंदू जमींदार रहा हो, अफसर रहा हो या मुस्लिम जमींदार और अफसर रहा
हो। इसमें जाति, धर्म का कोई भेद नहीं थी। और इस लूट खसोट को अंजाम दिया
उन भारतीयों ने, जो रुपये दो रुपये की नौकरी जमींदारों के यहां करते थे।
ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी करते थे या कहो कि ईष्ट इंडिया कंपनी की करते थे।
मेरा मानना है कि (पाठकों को मेरे इस मत से असहमत होने का पूरा अधिकार है)
अपने स्थापना काल से ही ईष्ट इंडिया कंपनी भले ही लंदन के व्यापारियों की
कंपनी रही हो, लेकिन उसके विस्तारवादी, उत्पीड़न, शोषण और दोहन की नीतियों
के प्रति इंग्लैंड के शासकों की सहमति अवश्य थी। दरअसल, शाही अधिकार पत्र
लेकर वर्ष 1608 में पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी का पहला पोत व्यापार करने
सूरत (भारत) आया था। इसका पुर्तगालियों ने जबरदस्त विरोध किया। ईस्ट इंडिया
कंपनी लंदन के व्यापारियों की एक निजी कंपनी थी जिसे वर्ष 1600 की एक
घोषणा के आधार पर महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने व्यापार करने का एकाधिकार
प्रदान किया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रतिद्वंद्वी कंपनी न्यू कंपनी का
विलय वर्ष 1708 में भारत में प्रवेश के ठीक सौ साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी
में हो गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार की देखभाल के लिए ‘गवर्नर इन
काउंसिल’ की स्थापना हुई और ईस्ट इंडिया कंपनी का नाम रखा गया ‘द यूनाइटेड
कंपनी आफ मर्चेंट्स आफ इंग्लैंड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज’। चूंकि कंपनी के
व्यापार में गवर्नर इन काउंसिल का पूरा दखल रहता था, इसलिए भारत में होने
वाले अत्याचार, शोषण, दोहन, उत्पीड़न आदि के लिए ब्रिटिश हुकूमत को
जिम्मेदार ठहराया जा सकता है और ईस्ट इंडिया कंपनी की जगह पर ब्रिटिश
हुकूमत कहा जा सकता है। यह भी सही है कि सन अट्ठारह सौ सत्तावन के गदर
(स्वाधीनता संग्राम) की शुरुआत के एक साल बाद वर्ष 1858 में
ब्रिटिश हुकूमत ने ईस्ट इंडिया के सारे अधिकार रद्द करते हुए कंपनी की बागडोर खुद संभाल ली।
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