Saturday, March 21, 2015

वो देवता तो नहीं थे, पर...

अशोक मिश्र
अवधी भाषा का एक शब्द है 'चापरकरन'। इस शब्द का संधि विच्छेद किया जाए तो बनता है चापर+करन। चापर का अर्थ है विनाश, नष्ट। करन का अर्थ हुआ करने वाला। चापरकरन यानी विनाश करने वाला। आज से करीब तीन चार दशक पूर्व बलरामपुर, बहराइच, गोण्डा, फैजाबाद, यहां तक कि बस्ती आदि जिलों में इस शब्द का उपयोग उस समय किया जाता था, जब बच्चों को बड़े प्यार से झिड़कना होता था। बड़े-बूढ़े अपने बाल-बच्चों को डपटते हुए कहते थे, 'रुकि जाउ चापरकरन...अब्बै बताइत है।' इसी तरह के बहुत सारे शब्द हैं, जैसे दाढ़ीजार, दहिजरा, मूड़ीकटऊ, नासियाकटऊ..। अब इन शब्दों का अवधी भाषा-भाषियों ने भी उपयोग करना काफी कम कर दिया है। नतीजा यह हुआ कि अवधी भाषा का लालित्य जैसे बिला सा गया है। चापरकरन शब्द आज मुझे याद इसलिए आ गया कि मैं आगरा के कारगिल पेट्रोल पंप चौराहे से करकुंज की ओर जा रहा था कि आगे सड़क से थोड़ा हटकर बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। बच्चों ने बॉल फेंका, तो वह बॉल सड़क पर बड़ी तेजी से आती कार के शीशे से टकराने से बाल-बाल बची। अचानक मेरे मुंंह से निकला, 'बड़े चापरकरन हैं ई लरिके..अब्बै तौ सिसवै फोरि  डारिन होत।'
बप्पा...यानी भग्गन मिसिर (असल नाम रामचंद्र मिश्र)  की मृत्यु सन उन्नीस सौ चौरासी में 11 सितंबर को हुई थी। उसी साल करुणेश भइया (जय शंकर प्रसाद मिश्र, इन दिनों बलरामपुर जिले में एक निजी स्कूल के प्रिंसिपल हैं) की शादी हुई थी। बप्पा मतलब..बड़े पापा या पिता जी नहीं...यहां बप्पा का मतलब बाबा से है। वे मेरे बाबा छोटे पंडित (रामाचार्य मिश्र) के बड़े भाई थे। गांव जवार में उन्हें लोग या तो बप्पा कहते थे, बड़कऊ कहते थे या फिर भग्गन मिसिर। थे भी बड़कऊ। उमर में तो बड़कऊ थे ही, शरीर से बड़कऊ थे। उन्हें दस नंबर का जूता लगता था। इस नाप का जूता ही जल्दी किसी दुकान पर मिलता नहीं था। बलरामपुर में वीर विनय चौक के पास फखरूल के यहां से दस नंबर का जूता खरीदा जाता, तो वह कम से कम चार-पांच साल चलता। बाद में फखरूल ने भी हाथ जोड़ लिए कि पंडित जी..दस नंबर का जूता सिर्फ बाटा ही बनाता है। बलरामपुर में इस नंबर के जूता-चप्पल बस आठ-दस जोड़ी साल भर में बिकते हैं, तो अब इतने जोड़ी जूतों के लिए इतना बड़ा झमेला कौन पाले। हां, अगर आसानी से मिल जाया करेगा, तो मंगाकर रख लिया करूंगा। बप्पा का जूता जब फटने वाला होता, तो दादा (बालेश्वर प्रसाद मिश्र) उस रास्ते से आते-जाते जरूर फखरूल को टोक देते। मिलता तो ले आते नहीं तो ताकीद कर देते, अगली बार जरूर मंगवा लेना।
खेत-खलिहान से लेकर गांव-जंवार में बप्पा नंगे पैर घूमते रहते। जूता उनके पैरों में तभी दिखता, जब उन्हें कहीं नाते-रिश्तेदारी में आना जाना होता। पहले तो वे भरसक कोशिश करते कि घर का दूसरा कोई चला जाए, यदि ऐसा न हो पाता, तो वे बड़े बेमन से कहीं आते-जाते। जूता पहनना जो पड़ जाता था। बरसात या गर्मी के दिनों में जब कोई उनसे कहता, भग्गन भाई, जूतवा पहिर लेव। तो वे उसे सुनारों की भाषा में कहें तो सौ टंच (एकदम कनपटी तक सुलगा देने वाली) गारी (गाली) देकर कहते, 'जाव..जाव..नचनिया अस ई कमर मटकावत हौ, अब्बै एक हाथ धई देई तो पादि मारिहौ। हमका पढ़ावै चले हौ।' गाली सुन कर तिलमिलाया आदमी मुंह बिचाकर अपनी राह चला जाता। सचमुच..अगर वे क्रोध में उस पैसठ-सत्तर साल की उम्र में भी किसी जवान को एक भरपूर हाथ से मार देते..तो प्राण पखेरू सचमुच उड़ जाते। भीमकाय शरीर...चलते तो जैसे मदमस्त हाथी चला आ रहा हो....एकदम राक्षसों वाला डील-डौल। भग्गन मिसिर के बल, डील-डौल और क्रोध के सौ-पचास गवाह आज भी गांव-जंवार में हैं। एकाध दशक बाद ये लोग भी शायद न रहें। दस-बीस गांवों में पुरानी पीढ़ी बल की जब भी बात चलती है, तो वे कहते हैं, जाव...जाव..हियां बल न देखाव..का भग्गन होइगेव है। गांव में जब किसी को अपने घर का फरका (छप्पर) चढ़वाना होता था, तो बप्पा को चिरौरी करके ले जाता था। दस हाथ के फरके में चार हाथ छोड़कर बाकी छह हाथ में दस-बारह लोग लगते और चार हाथ वाले हिस्से में बप्पा अकेले लगते। दस-बारह आदमियों के बावजूद छह हाथ वाला हिस्सा दबा ही रहता।
जेठ-आषाढ़ की भरी दुपहरिया में फावड़े से खेत गोड़ते थे। गांव-जवार के लोग कहते, सब लोग खेत कै कोना कुदारि से गोड़त हैं, भग्गन भाई फरुहा से पूरा खेतवै गोडि़ डारत हैं। सन 1980 से पहले और उसके एकाध साल बाद तक हमारे यहां लोकई काका उर्फ लोकनाथ प्रजापति (अब स्वर्गीय) और बाद में फौजदार काका (लोकई काका के छोटे भाई) काम करते थे। उन दिनों ये दोनों भाई खूब जवान थे, लेकिन बप्पा के साथ काम करने से कतराते थे। सचमुच..सुबह पांच बजे खेत में जाने के बाद वे ग्यारह-बारह बजे घर लौटते थे और कम से कम आधा-पौन बीघा जमीन फरुहे से गोड़कर आते थे।
दादी बताती थीं कि भग्गन मिसिर कहे जाने के पीछे भी एक उपकथा है। कहते हैं कि मेरी परदादी के जितने भी बच्चे होते थे, वे साल-छह महीने में ही मर जाते थे। जब बप्पा का जन्म होने वाला हुआ तो मेरी परदादी अपने मायके चली गई थीं। बप्पा के जन्म के बाद जब परदादी नथईपुरवा (यह गांव बलरामपुर श्रावस्ती रोड़ पर बलरामपुर से लगभग चौदह-पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ऐतिहासिक नगरी श्रावस्ती (सेहट -महेट ) इससे मात्र डेढ़ किमी दूर है।) आईं और बप्पा कुछ बड़े हुए, तो उनके बुआ-चाचाओं ने 'भग्गन..भग्गन' कहकर चिढ़ाना शुरू किया। बप्पा के बाद छोटे पंडित यानी रामाचार्य मिश्र (हमारे बाबा) का जन्म हुआ। इन दोनों भाइयों के एक छोटी बहन भी है जिन्हें हम लोग बुआ आजी कहते हैं। जिस युग में बुआ आजी पैदा हुई थीं, उस युग में जन्म प्रमाण पत्र नहीं बनते थे। यह बुआ आजी लोगों के कहने के मुताबिक लगभग एक सौ छह-सात साल की होंगी। साल भर पहले तक लाठी टेककर चलती थीं, लेकिन पिछले साल फर्श पर गिर जाने से कूल्हे की हड्डी टूट जाने की वजह से अब चलना-फिरना बहुत कम हो गया है।
बप्पा के पांच बेटियां थीं जिनमें से एक साबी बुआ (सावित्री) पांच-सात साल पहले नहीं रहीं। बप्पा के कोई बेटा नहीं था। उन्होंने आजीवन अपने छोटे भाई के तीन बेटों (मेरे पिता) स्व. रामेश्वर दत्त 'मानव', बड़े चाचा प्रो. कामेश्वर नाथ मिश्र और छोटे चाचा बालेश्वर प्रसाद मिश्र और बेटी कमला को ही अपना बेटा-बेटी माना। छोटे पंडित के एक बेटा और था जिसका नाम हरीश्वर था, जो पंद्रह सोलह साल की उम्र में ही दिवंगत हो गए थे। कहते हैं कि एक साल उत्तर प्रदेश में चेचक ने महामारी का रूप ले लिया था। (वर्ष नहीं मालूम..)। अम्मा, दादी या बुआ आज के शब्दों में कहें, तो थंब ग्रेजुएट थीं मतलब निपट निरक्षर। उनको सन् वगैरह से कोई लेना देना नहीं था। दादी, अम्मा और बुआ जब भी चर्चा चलती तो बताती थीं कि जिस साल चेचक की महामारी फैली थी, उस साल नथईपुरवा गांव से ही 21 लाशें उठी थीं। उसी चेचक में हरीश्वर चाचा की मौत हो गई थी। चेचक की चपेट में कमला बुआ और भइया (आनंद भइया)  भी थे। जिस रात हरीश्वर चाचा की मौत हुई, उसी समय भइया की हालत बहुत खराब थी। बलरामपुर से बाबा यानी छोटे पंडित आए और पालकी पर लादकर भइया को बलरामपुर अस्पताल ले गए। फफोले काफी बड़े और फूट गए थे जिसके चलते बनियान को कैंची से काटना पड़ा। लोगों ने छोटे पंडित से बलरामपुर जाकर कहा कि हरीश्वर की लाश गांव में पड़ी है। दाह संस्कार तुम्हारे बिना रुका हुआ है। छोटे पंडित ने एक पल आकाश की ओर निहारा और बोले, जो चला गया, उसका शोक जीवन भर रहेगा, लेकिन जो अभी जिंदा है, उसे बचाना सबसे जरूरी है। तुम लोग जाकर फूंक-ताप लो, अब या तो आनंद को यहां से सकुशल लेकर जाऊंगा या फिर इसका भी अंतिम संस्कार करने नथईपुरवा आऊंगा। लोगों ने काफी समझाया कि बस घड़ी भर को चलो और फिर लौट आना। लेकिन छोटे पंडित नहीं गए, तो नहीं गए। दादी वगैरह बताती थीं कि वे उसके बाद कई सालों तक हंसना भूल गए थे। किशोर बेटे की मौत को भुला नहीं पाए थे। इसके कुछ ही वर्षों बाद टीबी से उनकी मौत हो गई।
छोटे पंडित के बेटों ने बप्पा को जीवन भर निराश भी नहीं किया। बप्पा की पत्नी यानी हमारी बड़ी दादी भरी जवानी में ही गुजर गई थीं। मेरे बाबा यानी छोटे पंडित भी सन 1966-67 में गुजर गए थे। मैंने अपने बाबा को देखा नहीं है। एक बार बचपन में लखनऊ से गांव गया (तब मार्च-अप्रैल में परीक्षा खत्म होने के बाद सात जुलाई को स्कूल खुला करते थे और इस दौरान हम सभी भाई गांव नथईपुरवा में रहा करते थे), तो रात में बप्पा से यों ही पूछ लिया था, 'बप्पा..जब आप बड़े हैं, तो पहले आप क्यों नहीं मरे, हमारे बाबा क्यों पहले मर गए? जब आप बड़े हैं, तो पहले आपको मरना चाहिए था न।' तब मैं यह समझता था कि जो जिस क्रम में पैदा होता है, वो उसी क्रम में मरता भी है। बप्पा बेजार होकर बोले थे, 'सब करमन का लेखा-जोखा है..भगवान कै मरजी रही, तो हम बैइठ हन औ ऊ चले गए।' शायद यह कहते समय उनकी आंखें भी भीग गई थीं। बचपन में मुझे मरने से बड़ा डर लगता था। जब भी रात में अकेला होता, मन ही मन दोहराता जाता था, 'हे भगवान..हम न मरी..हे भगवान..हम न मरी..।' इसके बाद ख्याल आता कि हमही जिंदा रहे और बाकी लोग मर गए, तो मजा नहीं आइएगा। तो फिर मन ही मन दोहराते, 'हे भगवान..हम न मरी..राजेशवा न मरै, दद्दा न मरै, अम्मा न मरै..' और फिर धीरे-धीरे इस सूची में जितने भी परिचितों के नाम याद आते जाते शामिल होते जाते। जिस दिन स्कूल या मोहल्ले में (तब हम लोग लखनऊ के आलमबाग के छोटा बरहा मोहल्ले में ठाकुर हरिनाम सिंह के अहाते में किराये के मकान में रहते थे।) जिस लड़के से झगड़ा हो जाता था, उस रात 'हे भगवान..हम न मरी..' वाली प्रार्थना में से उस लड़के का नाम कट्ट..यानी अगर वह मरता है, तो मर जाए, लेकिन जो सूची मैं पेश कर रहा हूं, उसमें से कोई न मरे। जब दोस्ती हो जाती, तो वह नाम फिर जुड़ जाता। तब यह कहां मालूम था कि जो पैदा हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है। जो आज है, कल नहीं रहेगा, जो कल होगा, वह भी एक दिन नहीं रहेगा। यही तो प्रकृति की द्वंद्वात्मकता है। पदार्थ में हर पल बदलाव ही प्रकृति का शाश्वत सत्य है।
यह तो मुझे बहुत बाद में अम्मा ने बताया कि बड़कऊ पंडित और छोटे पंडित का विवाह एक ही मडय़ै के नीचे एक ही दिन एक ही समय में हुआ था। दरअसल, हमारी बड़ी दादी और हमारी दादी दोनों बुआ-भतीजी थीं। नहीं समझे...विवाह से पहले बड़ी दादी उम्र में बड़ी जरूर थीं, लेकिन पद में छोटी थीं। अर्थात विवाह से पहले जो बुआ थीं, वे शादी के बाद अपनी ही भतीजी की देवरानी हो गई थीं। शादी के बाद चूल्हा-चौके से भतीजी यानी जेठानी का कोई मतलब नहीं रह गया। और बुआ यानी देवरानी का इस बात से मतलब नहीं रह गया कि उनके बच्चों ने खाया कि  नहीं, पिया कि नहीं, कपड़े हैं कि नहीं। यही हाल खेत-खलिहान और रुपये पैसे को लेकर दोनों भाइयों में था। खेत में क्या बोया जाएगा, क्या काटा जाएगा, कितना गल्ला रखा जाएगा, कितना बेचा जाएगा, इससे छोटे पंडित को कोई लेना देना नहीं था। यह सब कुछ बड़कऊ पंडित के जिम्मे पर था। लेकिन छोटे पंडित ने अपने बड़े भाई की बेटियों का जहां-जहां विवाह तय किया, जो-जो लेना-देना था, लिया दिया, लेकिन भग्गन मिसिर ने अपने छोटे भाई से उसका मुजरा (हिसाब) नहीं लिया। न ही बेटी के भावी घर-द्वार के बारे में पूछा। बेटियों की शादी में उनसे जितना कहा गया उतना उन्होंने कर दिया, बाकी उनसे कोई मतलब नहीं रहा। दोनों भाइयों में आजीवन कभी मन मुटाव नहीं हुआ, देवरानी-जिठानी में तू-तू-मैं..मैं नहीं हुई। संपत्ति का बंटवारा तो बहुत दूर की बात है। कहते हैं कि बड़कऊ पंडि़त को पहलवानी का शौक था। वे रोज सुबह-शाम दंड-बैठक लगाया करते थे। लेकिन शनिवार और रविवार को नहीं। क्योंकि उस दिन छोटे पंडित गांव में होते थे। लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि बड़कऊ पंडित अपने छोटे भाई से डरते थे।
छोटे पंडित जब बलरामपुर से 12 -14 किमी पैदल चलकर गिधरइयां या घूघुलपुर (ये बगल के गांव हैं और इसी गांव के निवासी गांव के रिश्ते से मेरे बड़े भाई लगने वाले विनय कुमार पांडेय यानी बिन्नू पांडेय दो बार उत्तर प्रदेश सरकार में होमगार्ड राज्य मंत्री रह चुके हैं और 16  मई 2014 से पहले श्रावस्ती के सांसद भी रहे हैं।) पहुंच जाते, तो गांव में सन्नाटा छा जाता। गांव की बहू-बेटियां, छोटे पंडित की भाभी, बुआ, बहन, काकी लगने वाली औरतें अपने घर में दुबक जाती थीं। वे किसी को भी डपट देते थे। किसी के भी घर में बैठकर परपंच बतियाने वाली काकी, बुआ कहतीं, 'चली बहनी..सोमवार का आइब..तब बैठिकै बतियाब..लडि़कवा कहत रहा कि छोटे पंडित आवत हैं। अब्बै जौ भेटाइ जाब, तो कुलि गति कै डरिहैं।'
सन 1935 से एकाध साल पहले बलरामपुर के पूरबटोला स्थित कटार सिंह प्राइमरी स्कूल में छोटे पंडित मास्टर हो गए थे। कहते हैं कि जब उनकी तनख्वाह दस रुपये हुई, तो गांव जंवार के लोग उन्हें देखने और बधाई देने आए थे। धीरे-धीरे एक-एक कर बेटियां विदा हुईं, तीनों बेटों (रामेश्वर दत्त, कामेश्वर नाथ और बालेश्वर प्रसाद) की शादियां हुईं। इनके परिवार भी धीरे-धीरे लखनऊ, सारनाथ और बलरामपुर में व्यवस्थित हो गए, तो गांव नथईपुरवा में रह गए भग्गन मिसिर और उनकी बेवा भयो (छोटे भाई की पत्नी यानी हमारी दादी)। सामाजिक रिश्ता ऐसा कि वे दोनों न एक दूसरे की मदद कर सकें, न बोल बतिया सकें। हमारे यहां छोटे भाई की पत्नी को छूना महापातक की श्रेणी में आता है। हम लोग बचपन में कई बार बप्पा के साथ खटिया पर बैठे-बैठे दादी को छूने या उन्हें पकडऩे का प्रयास करते, तो दादी डपट देतीं, 'आंधर हौ का, देखत नाहीं..छुई जात तौ...।' हम समझ नहीं पाते, तो बड़ा मासूम सा सवाल करते, 'तौ भा का?' तब तक अम्मा, चाची या अगर बुआ होतीं, तो बोल बैठतीं, 'तोहार कपार अऊर का..।'
आधे जून के बाद जब बरसात होती, तो बप्पा खेत बोने लगते। धान बैठाने के लिए खेत तैयार किए जाने लगते। पलेवा करने के लिए खेत में पानी भरकर जुताई होती और फिर हेंगा (समतल करने वाला लकड़ी का पाटा) बैलों के जुआठे में बांधकर खेत हेंगाया जाता, तो मैं भी जिद करता कि हेंगा पर बैठबै। लोकई काका अगर होते, तो बैठा लेते। बप्पा साफ मना कर देते, 'बेटी*** अगर मुंहि के बले हेंगा के आगे गिर परिहौ, तो परान निकरि जाई। हियां गडि़** मरवावै आयौ है।' बप्पा हर बात-बात पर गारी देते थे। यहां तक कि कुत्ते-बिल्ली को भी नहीं छोड़ते थे। अवधी भाषी क्षेत्र के लोगों की यह खास बात मैंने महसूस की है कि जब वे अपने बेटे-बेटियों को प्यार से दुलराते हैं, तो 'बहन** या बेटी** कहे बिना नहीं रहते।' ये गालियां ऐसे देते हैं, मानो उसके बिना प्यार की अभिव्यक्ति हो ही नहीं सकती। तो जब भी हम सभी भाई (इसमें चचेरे भाई भी शामिल हैं) गर्मी की छुट्टियों में गांव जाते, तो दिन भर में कम से कम चार-पांच बार गालियों का उपहार जरूर पा जाते। हम लोग सीधे-सादे थे ही इतने कि बप्पा को किसी न किसी बात पर क्रोध आ ही जाता। और वैसे भी बप्पा के नाक पर गुस्सा रखा ही रहता था। कभी बैल या गाय को एक छपकी लगा दी या कोई शरारत की और बप्पा ने देख लिया, तो वे गुस्से में झपटते हुए कहते, 'ई असोकवा बड़ा चापरकरन है...अब्बै बताइत है डीहकरन कहूं कै।' आपको बता दे कि डीहकरन शब्द चापरकरन शब्द का लगभग समानार्थी है। डीहकरन का मतलब किसी बसी-बसाई जगह को खंडहर बना देना। घर या मकान को खंंडहर कर देना।
अगर आप इन गालियों के अर्थ देखें, तो पाएंगे कि ये बड़ी मधुर गालियां हैं। डीहकरन, चापरकरन, मूड़ीकटऊ, नासकटऊ, दाढिज़ार, दहिजरा। अब आपको दाढिज़ार या दहिजरा के बारे में बताएं। यह गाली वस्तुत: औरतें ही दिया करती हैं, पुरुष नहीं। वह भी बुआ, मामी। काकी, मौसी और मां नहीं। अब बुआ और मामी अपने भतीजे-भांजे को दाढिज़ार या दहिजरा क्यों कहती थीं? गौर करें। हिंदू संस्कृति में ननद-भौजी का रिश्ता बड़ा मधुर और नजदीकी है। इनकी अंतरंगता एकदम सहेलियों जैसी रही है। एक दूसरे के गुण-अवगुण से परिचित। सुख-दुख में एक दूसरे की सहभागी। लोक गीत कोई सा भी हो, किसी भी अवसर का हो। भौजी के साथ ननदी का होना, एकदम अनिवार्य सा है। इनमें सहेलियों जैसी हंसी-मजाक भी चलता रहता है। अब गौर करें दाढ़ी पर। हिंदू संस्कृति में दाढ़ी या तो ऋषि-मुनि रखते थे या मुसलमान भाई। बुआ या मामी अपने भतीजे-भांजे को दाढ़ीजार (यानी जिसकी दाढ़ी जल गई हो) कहकर प्रकारांतर से अपनी भाभी के अवैध संबंध की ओर इशारा करके परिहास करती हैं। दाढ़ीजार या दहिजरा शब्द की व्यंजना बड़ी मनोरंजक है। इसमें भाभी-ननद की हंसी-ठिठोली है, तो उनका आपसी राग, प्रेम और साहचर्य की मिठास भी है। आधुनिक बुआ और मामियां इन मधुर गालियों की मिठास, इनका लालित्य तो जैसे जानती ही नहीं हैं। तो बात..बप्पा और उनकी गालियों की हो रही थी। वे मर्दवादी गालियां देने में विशेषज्ञ थे। कई बार हम लोगों को दी गई गालियां चुभ जातीं, तो दादी, अम्मा या चाची इन गालियों को लेकर बप्पा से भिड़ जाती थीं, लेकिन बप्पा नहीं सुधरे, तो नहीं सुधरे। आजीवन वैसे ही बने रहे, जैसे थे।
बप्पा इन गालियों के संबंध में एक बड़ी रोचक बात बताया करते थे। वे बताते थे कि वे सिर्फ दो जमात ही पढ़े थे। उन्हें गीता के ढेर सारे श्लोक और उर्दू की वर्णमाला याद थी। एक बार उन्होंने बहुत प्रसन्न मन से बताया कि जब वे दस बारह साल के थे, तो दूसरी कक्षा में थे। एक दिन गणित के मुंशी जी ने उन्हें गाली दे दी। बस, परशुराम के अवतार को क्रोध आ गया। उन्होंने मुंसी जी को उठाकर पटक दिया और धोती खोलकर फाड़ दी। उन दिनों लोग धोती के नीचे कच्छा या लंगोट नहीं पहना करते थे। नंगधड़ंग मुंशी जी बचाने की गुहार लगाते रहे और वे जी भर मुंशी जी को पीटने के बाद स्कूल से गांव भाग आए। दिन भर अरहर के खेत में छिपे रहे। बाद में बप्पा के बप्पा यानी पिता जी उन्हें खोजकर लाए और उसी दिन से उनकी पढ़ाई खत्म हो गई। (अभी तो इतना ही, बाकी लिख रहा हूं। उसे भी आपके सामने पेश करूंगा।)

2 comments:

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  2. अनुप्रिया सिंहAugust 6, 2022 at 11:05 AM

    गूगल पर कुछ अवधी के शब्द सर्च करते ये ब्लॉग मिला। इतना सुखद लगा इसे पढ़ना कि बस पढ़ती चली गयी। आत्मा तृप्त हो गयी। सबकुछ अपना ही लगा। एकदम जैसे अपने पड़ोस की ही कहानी हो। भावों का रूप हर जगह कितना समान होता है फिर हम तो यूँ भी पड़ोसी ही हैं। मैं बहराइच की रहने वाली हूँ, बलरामपुर में ढेरों रिश्तेदारियां हैं हमारी। हमारे घर की भी यदि कथा लिखी जाए तो उसका भी रंग कुछ यूं ही उतर कर आयेगा। धन्यवाद आपको इस लेख हेतु।

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