अशोक मिश्र
मौन की महिमा संस्कृत साहित्य में बहुत बढ़-चढ़कर बताई गई है। पूरा संस्कृत साहित्य मौन की महत्ता से भरा पड़ा है। कहा गया है कि मौन सबसे बड़ा हथियार है, जिससे आप कितने ही वीर, पराक्रमी और तेजस्वी शत्रु को पराजित कर सकते हैं। कहते हैं कि मौन रहना भी एक साधना है। जैसे अतिभोग से वितृष्णा होने पर व्यक्ति योगी हो जाता है, वैसे ही लंबी-लंबी फेंकने के बाद मौन एक सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया है। जिस तरह योग की पराकाष्ठा अतिभोग के बिना संभव नहीं है, ठीक उसी प्रकार मौन का रास्ता भी लंबी-लंबी फेंकने, लंबे-चौड़े वायदे करने से ही होकर जाता है। जो व्यक्ति फेंकने की कला में जितना ज्यादा निष्णात होता है, उसे मौन की भी कला बहुत अच्छी तरह से आती है। वह जानता है कि उसे कब और कितना फेंकना है और फेंकने के बाद उठे बवंडर के थमने तक किस तरह मौन रहना है? इससे पहले वाले मौनी बाबा जब यह कहते थे कि 'हजारों जवाबों से अच्छी है खामोशी मेरी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखेÓ, तो यही लोग संसद और सड़क तक बाइस पसेरी धान बोए रहते थे। संसद में तो हल्ला-गुल्ला मचाते ही थे, सड़क पर भी छाती पीटते थे। बात-बात पर नारा लगाते थे, इस्तीफा दो..इस्तीफा दो..।
अब इसे राजनीति की द्वंद्वात्मकता कहें, इतिहास का अपने को दोहराना कहें, कल तक जो लोग बात-बात पर सावन-भादों के मेढक की तरह एक लय और सुरताल में टर्राते थे, इस्तीफा दो.. बर्खास्त करो..जवाब दो..भ्रष्टाचारियों को बाहर करो..। आज वे लोग उन्हीं सवालों से जूझ रहे हैं। कल तक छप्पन इंच का सीना फुलाकर मौनी बाबा को कठघरे में खड़ा करने वाला आज खुद कठघरे में हैं। राजनीति में भूमिका बदल गई है। कल तक मौन रहने वाले अपना व्रत तोड़ चुके हैं, बात-बात पर हंगामा खड़ा करने वाले इन दिनों भीगी बिल्ली की तरह टुकुर-टुकुर इस्तीफा मांगने वालों के जोश ठंडे होने का इंतजार कर रहे हैं। यह मौन रहने वाले का सबसे बड़ा हथियार है।
पहले वाले मौनी बाबा को किसी ने विरोधियों के उकसाने पर कुछ कहते सुना है? नहीं न..वे अपना मौन व्रत तभी तोड़ते थे, जब उनके व्रत के पारायण का समय आता था। जो लोग आज गरज-बरस रहे हैं, खुदा न खास्ता..कल अगर वे प्रधानमंत्रित्व को प्राप्त हुए, तो वे भी मौन धारण कर लेंगे। आप उनका कुछ बिगाड़ लेंगे क्या? बोलना-न बोलना, मौन व्रत धारण करना, उनका लोकतांत्रिक अधिकार है।
एनसीआर से प्रकाशित दैनिक 'न्यू ब्राइट स्टारÓ के 10/07/2015 के अंक में छपा मेरा एक व्यंग्य |
अब इसे राजनीति की द्वंद्वात्मकता कहें, इतिहास का अपने को दोहराना कहें, कल तक जो लोग बात-बात पर सावन-भादों के मेढक की तरह एक लय और सुरताल में टर्राते थे, इस्तीफा दो.. बर्खास्त करो..जवाब दो..भ्रष्टाचारियों को बाहर करो..। आज वे लोग उन्हीं सवालों से जूझ रहे हैं। कल तक छप्पन इंच का सीना फुलाकर मौनी बाबा को कठघरे में खड़ा करने वाला आज खुद कठघरे में हैं। राजनीति में भूमिका बदल गई है। कल तक मौन रहने वाले अपना व्रत तोड़ चुके हैं, बात-बात पर हंगामा खड़ा करने वाले इन दिनों भीगी बिल्ली की तरह टुकुर-टुकुर इस्तीफा मांगने वालों के जोश ठंडे होने का इंतजार कर रहे हैं। यह मौन रहने वाले का सबसे बड़ा हथियार है।
पहले वाले मौनी बाबा को किसी ने विरोधियों के उकसाने पर कुछ कहते सुना है? नहीं न..वे अपना मौन व्रत तभी तोड़ते थे, जब उनके व्रत के पारायण का समय आता था। जो लोग आज गरज-बरस रहे हैं, खुदा न खास्ता..कल अगर वे प्रधानमंत्रित्व को प्राप्त हुए, तो वे भी मौन धारण कर लेंगे। आप उनका कुछ बिगाड़ लेंगे क्या? बोलना-न बोलना, मौन व्रत धारण करना, उनका लोकतांत्रिक अधिकार है।
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