अशोक मिश्र
जिस कार्यालय में मैं दिन भर खबरों की कतरब्योंत करता हूं, उसी आफिस में काम करता है अच्छन प्रसाद। बीस-बाइस साल का चेहरे से भोला-भाला लगने वाला लड़का। हल्की-हलकी दाढ़ी, ऊपर की ओर संवारे गए बाल। रंग न बहुत गोरा, न बहुत काला। स्वस्थ किंतु पतला-दुबला शरीर। पहली ही नजर में देखने पर एक 'अच्छे' लड़के की छवि मन-मस्तिष्क में उभरती है। एक दिन मैं किसी गंभीर समस्या पर कुछ लिखने का मूड बनाकर बैठा ही था कि वह अपना सिर खुजाता नमूदार हो गया। मैंने उसकी ओर प्रश्नवाचक निगाह से देखा, तो उसने पूछा, 'सर! अगर आप डिस्टर्ब न हों, तो एक बात पूछूं। बहुत दिनों से पूछना चाहता हूं।' मैंने गुर्राते हुए कहा, 'सारे मूड का सत्यानाश करके पूछता है कि डिस्टर्ब तो नहीं हो रहे हैं। चल, अब बक भी दे जो बकना है..मुंह बाये खड़ा देख क्या रहा है।'
अच्छन प्रसाद ने धीमे स्वर में पूछा, 'सर..ये मुंबई वाले ये हीरोइनें तो रोज नहाती होंगी?'
उसकी बात सुनकर मुझे गुस्सा आ गया। भला बताओ..कहां मैं राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार कर रहूा हूं, ईरान-तूरान से लेकर साइबेरिया तक, भारत से लेकर अमेरिका तक के लोगों को एक नई रोशनी से रू-ब-रू कराने की जुगत में लगा हुआ हूं और यह कमबख्त हीरोइनों के नहाने-धोने पर ही अटका हुआ है। मैंने गुर्राते हुए कहा, 'हां..नहाती-धोती हैं, तो तुझे क्या?' उसने फिर मासूमियत भरे लहजे में पूछा, 'सर...अमेरिका, लंदन, फ्रांस की हीरोइनें भी नहाती-धोती होंगी? मेरा मतलब अंग्रेजी फिल्मों की हीरोइनें....?'
उसकी बात सुनकर मेरा पारा चढ़ गया। मैंने लगभग डपटते हुए कहा, 'तू कहना क्या चाहता है? तेरी बात मेरे पल्ले तो पड़ नहीं रही है? जो कुछ पूछना है, साफ-साफ पूछ और फूट ले यहां से। बात को जलेबी की तरह घुमा मत।' मेरी तल्ख आवाज को सुनकर वह सिटपिटा गया। फिर थोड़ी देर वह बोला, 'सर...क्या कभी ऐसा आविष्कार हो सकता है कि आदमी के शरीर का कोई हिस्सा मशीन में डाला जाए और वह साबुन-शैंपू बन जाए।'
उसकी बात मेरे सिर के ऊपर से गुजर गई। मैंने कुछ देर तक उसकी बात के मायने-मतलब निकालने की कोशिश की। काफी मशक्कत के बाद भी मेरे अक्ल के दरवाजे नहीं खुले, तो मैंने गिड़गिड़ाने वाले अंदाज में कहा, 'भाई मेरे!...तेरे कहने का मतलब क्या है? साफ-साफ बता।'
अच्छन प्रसाद ने कहा, 'सर..बात यह है कि टीवी पर एक विज्ञापन आता है जिसमें एक हीरोइन नहा रही है..साबुन उठाती है और पूरे शरीर पर साबुन लगाने लगती है। तो सर..मेरे मन में ख्याल आया कि अगर मैं वह साबुन होता, तो..। बस सर...यह ख्याल आते ही सोचा कि आपसे पूछ लूं कि कहीं कोई ऐसे आविष्कार की गुंजाइश बनती दिख रही हो, तो मैं इस जन्म में आशा रखूं, वरना...।' अच्छन प्रसाद की बात सुनते ही मेरे भीतर का आक्रोश किसी शक्तिशाली हैंड ग्रेनेड की तरह फट पड़ा। मैं चीखा, 'अबे भाग जा, वरना तेरी वो गत करूंगा कि तीन दिन तक हल्दी पियेगा।'
अच्छन प्रसाद तो मूड का कबाड़ा करके खिसक गया। सारा दिन मूड उखड़ा-उखड़ा सा रहा। काम पूरा न होने की वजह से क्रोध में संपादक जी ने गिरधर की कुंडलियों का पाठ किया, वह अलग है। तब से मैं अच्छन प्रसाद को देखते ही किनारा काट जाता हूं। एक दिन मैं अपना काम खत्म करके घर जा रहा था। आफिस के गेट पर ही अच्छन प्रसाद दिख गए। मैंने कतराकर निकल जाने में ही भलाई समझी। मुझे देखते ही अच्छन प्रसाद ने लगभग सैल्यूट की मुद्रा में लंबा नमस्कार किया। बोला, 'सर..सर...एक बात बताइए, बराक ओबामा हिंदू हैं क्या?' उसकी कम अक्ली पर मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने कहा, 'यह तुमसे किसने कह दिया?' उसने कहा, 'सर जी..आज अपने अखबार में छपा है, इसलिए मुझे लगा कि बराक ओबामा हिंदू हैं।'
'अबे मंदअक्ल..अपने अखबार में यह कहां लिखा है कि बराक ओबामा हिंदू हैं।' मैंने खीझते हुए कहा। अच्छन प्रसाद ने बड़े सलीके से उत्तर दिया, 'सर जी..अपने अखबार के पहले पन्ने पर छपा है कि बराक ओबामा ने कहा, हे भगवान! तेरा लाख-लाख आभार...हमने अमेरिका की गिरती अर्थव्यवस्था को संभाल लिया। अब अगर वे हिंदू न होते, तो भगवान को आभार क्यों जताते?' अच्छन प्रसाद की बात सुनकर मैं अपना माथा पकड़कर वहीं बैठ गया। मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा, 'अरे यार! तू मुझे 'पकाता' क्यों रहता है? मेरा पीछा छोड़ दे..मेरे भाई..मैं तो आजिज आ गया हूं, तुझसे।'
अच्छन प्रसाद के चेहरे पर पहली बार मुझे मुस्कान दिखी। वह मुस्कुराते हुए बोला, 'सर... आप भी तो पकाते रहते हैं, कभी व्यंग्य के नाम पर, तो कभी लेख के नाम पर। सर..आप 'पकाएं', तो यह आपकी प्रतिभा और मैं 'पकाऊं' तो मेरा पागलपन। सोचिए सर, आपके इन सड़े-गले व्यंग्यों और लेखों को पढ़कर हमारे पाठकों को कितनी कोफ्त होती होगी।' इतना कहकर अच्छन प्रसाद तो आफिस में चले गए और मैं गेट पर खड़ा रहा। मन तो यही कर रहा था कि अपना सिर सामने की दीवार पर दे मारूं।
aabhar yashoda ji
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