अशोक मिश्र
उस्ताद गुनहगार और मुसद्दी लाल पड़ोसी होने के साथ-साथ दोस्त भी हैं। इनकी दोस्ती फिल्म शोले के 'जय' और 'वीरू' वाली है। एक देश का नामी-गिरामी पाकेटमार, जिसके सौ-पचास शिष्य पूरे देश में अपनी अंगुलियों का कमाल दिखाकर अपने बाल बच्चों का पेट पाल रहे हैं। दूसरा एक थाने का मामूली सा सिपाही, जो साल के दस महीने या तो लाइनहाजिर रहता है या फिर सस्पेंड। दोनों को एक दूसरे के 'प्लस-माइनस' यानी गुण-अवगुण अच्छी तरह से पता हैं। कई बार तो अपना सस्पेंशन खत्म कराने के लिए मुसद्दी लाल ने उस्ताद गुनहगार को रंगे हाथ पकडऩे का कारनामा किया है और फिर अपनी बीवी को भेजकर उनकी जमानत भी करवाई है। शाम को मुसद्दी लाल ने गुनहगार को अपनी छत पर आने का इशारा किया, तो वे दबे पांव अपनी छत से मुसद्दीलाल की छत पर आ गए। मुसद्दी लाल ने बैठने का इशारा करते हुए कहा, 'आइए उस्ताद! मेरे पास एक बोतल सामाजिक बुराई है, हम दोनों इसको पीकर समाज से इसे खत्म करने का पुनीत कार्य करते हैं।'
आधी सामाजिक बुराई खत्म करने के बाद मुसद्दी लाल बोले, 'यार! तू मुझे भी पाकेटमारी सिखा दे। मैं भी तेरी तरह पाकेटमार बनकर सुकून की जिंदगी बिता सकूं। यह नौकरी है कि मुसीबत है। अब तो मन ऊब गया है इस पुलिसिया नौकरी से।' गुनहगार झूमते हुए बोले, 'पॉकेटमारी कोई गाजर का हलवा है कि मुंह में रखा और घूंट गए? जानते हो, जब कोई चोर या पाकेटमार पकड़ा जाता है, तो उसका स्वागत सत्कार लोग किस तरह करते हैं? हर आता-जाता आदमी के हाथ जमाने के बाद मुंह पर ऐसे थूक कर चला जाता है, जैसे इस दुनिया का सबसे बड़ा शरीफ वही हो, भले ही उसने लाखों रुपये का गबन किया हो, अमानत में खयानत किया हो। तुम पुलिसिये भी तो गाहे-बगाहे हम लोगों की किस तरह पूजा करते हो, यह किसी से छिपा हुआ है क्या? अब साफ-साफ बताओ..हुआ क्या है? तू तो बहुत खुश रहता था अपनी पुलिस की नौकरी से।'
मुसद्दी लाल ने एक लंबा घूंट भरा और बोले, 'पहले तो सब कुछ ठीक ठाक था। चोरी-चकारी करने वालों को पकड़ता था, उनसे कुछ वसूली-फसूली कर ली, दो-चार थप्पड़ लगा दिए, बहुत गंभीर अपराध हुआ, तो कानून के अनुसार धाराएं लगा दी और अदालत में पेश कर दिया। अपना काम खत्म। भले ही हम भ्रष्ट हों, लाख बुराई हों हम पुलिस वालों में, लेकिन मन में कहीं न कहीं एक सुकून था कि हमारी भी समाज में एक उपयोगिता है। लेकिन यह भ्रम अब टूटता जा रहा है। लगता है कि हम सिर्फ काठ के उल्लू हैं।'
उस्ताद गुनहगार ने गिलास भरते हुए कहा, 'तू कुछ बताएगा भी या मामले की पूंछ यों ही खींचता रहेगा। हुआ क्या..जो तू आज दार्शनिक बना हुआ है?' मुसद्दी लाल ने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'क्या बताऊं..आज हमारी हालत यह हो गई है कि मंत्री का कच्छा खो जाए, तो हम खोजकर लाएं। उनकी बनियान हवा में उड़ जाए, तो पुलिस वाले दोषी..किसी की भैंस चोरी हो, तो पुलिस खोजे, मंत्री, सांसद, विधायक या साहब का टॉमी आवारगी के चक्कर में बंगले से बाहर चला जाए, तो वह भी पुलिस के मत्थे..बताओ भला..अब मुर्गियां कहां से ढूंढकर लाया जाए। भला बताओ..पुलिस न हो गई, चूं-चूं का मुरब्बा हो गई..जिसका जब मन हुआ मुंह में रखा और गप्प से घूंट गया।'
'हां..भाई..सचमुच..जैसे पुलिस वालों की कोई औकात ही नहीं रह गई है। अरे..इन लोगों को समझना चाहिए कि पुलिस वाले भी इंसान होते हैं। मुझे तो अब उस मुर्गी और भैंस चोर पर गुस्सा आ रहा है। इन नासपीटों ने हम चोरों-पाकेटमारों की इज्जत का फालूदा बना दिया है। कोई स्टैंडर्ड ही नहीं रह गया है चोरी-चकारी का।' इतना कहकर दोनों घूंट-घूंट पीकर अपना गम गलत करते रहे।
उस्ताद गुनहगार और मुसद्दी लाल पड़ोसी होने के साथ-साथ दोस्त भी हैं। इनकी दोस्ती फिल्म शोले के 'जय' और 'वीरू' वाली है। एक देश का नामी-गिरामी पाकेटमार, जिसके सौ-पचास शिष्य पूरे देश में अपनी अंगुलियों का कमाल दिखाकर अपने बाल बच्चों का पेट पाल रहे हैं। दूसरा एक थाने का मामूली सा सिपाही, जो साल के दस महीने या तो लाइनहाजिर रहता है या फिर सस्पेंड। दोनों को एक दूसरे के 'प्लस-माइनस' यानी गुण-अवगुण अच्छी तरह से पता हैं। कई बार तो अपना सस्पेंशन खत्म कराने के लिए मुसद्दी लाल ने उस्ताद गुनहगार को रंगे हाथ पकडऩे का कारनामा किया है और फिर अपनी बीवी को भेजकर उनकी जमानत भी करवाई है। शाम को मुसद्दी लाल ने गुनहगार को अपनी छत पर आने का इशारा किया, तो वे दबे पांव अपनी छत से मुसद्दीलाल की छत पर आ गए। मुसद्दी लाल ने बैठने का इशारा करते हुए कहा, 'आइए उस्ताद! मेरे पास एक बोतल सामाजिक बुराई है, हम दोनों इसको पीकर समाज से इसे खत्म करने का पुनीत कार्य करते हैं।'
आधी सामाजिक बुराई खत्म करने के बाद मुसद्दी लाल बोले, 'यार! तू मुझे भी पाकेटमारी सिखा दे। मैं भी तेरी तरह पाकेटमार बनकर सुकून की जिंदगी बिता सकूं। यह नौकरी है कि मुसीबत है। अब तो मन ऊब गया है इस पुलिसिया नौकरी से।' गुनहगार झूमते हुए बोले, 'पॉकेटमारी कोई गाजर का हलवा है कि मुंह में रखा और घूंट गए? जानते हो, जब कोई चोर या पाकेटमार पकड़ा जाता है, तो उसका स्वागत सत्कार लोग किस तरह करते हैं? हर आता-जाता आदमी के हाथ जमाने के बाद मुंह पर ऐसे थूक कर चला जाता है, जैसे इस दुनिया का सबसे बड़ा शरीफ वही हो, भले ही उसने लाखों रुपये का गबन किया हो, अमानत में खयानत किया हो। तुम पुलिसिये भी तो गाहे-बगाहे हम लोगों की किस तरह पूजा करते हो, यह किसी से छिपा हुआ है क्या? अब साफ-साफ बताओ..हुआ क्या है? तू तो बहुत खुश रहता था अपनी पुलिस की नौकरी से।'
मुसद्दी लाल ने एक लंबा घूंट भरा और बोले, 'पहले तो सब कुछ ठीक ठाक था। चोरी-चकारी करने वालों को पकड़ता था, उनसे कुछ वसूली-फसूली कर ली, दो-चार थप्पड़ लगा दिए, बहुत गंभीर अपराध हुआ, तो कानून के अनुसार धाराएं लगा दी और अदालत में पेश कर दिया। अपना काम खत्म। भले ही हम भ्रष्ट हों, लाख बुराई हों हम पुलिस वालों में, लेकिन मन में कहीं न कहीं एक सुकून था कि हमारी भी समाज में एक उपयोगिता है। लेकिन यह भ्रम अब टूटता जा रहा है। लगता है कि हम सिर्फ काठ के उल्लू हैं।'
उस्ताद गुनहगार ने गिलास भरते हुए कहा, 'तू कुछ बताएगा भी या मामले की पूंछ यों ही खींचता रहेगा। हुआ क्या..जो तू आज दार्शनिक बना हुआ है?' मुसद्दी लाल ने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'क्या बताऊं..आज हमारी हालत यह हो गई है कि मंत्री का कच्छा खो जाए, तो हम खोजकर लाएं। उनकी बनियान हवा में उड़ जाए, तो पुलिस वाले दोषी..किसी की भैंस चोरी हो, तो पुलिस खोजे, मंत्री, सांसद, विधायक या साहब का टॉमी आवारगी के चक्कर में बंगले से बाहर चला जाए, तो वह भी पुलिस के मत्थे..बताओ भला..अब मुर्गियां कहां से ढूंढकर लाया जाए। भला बताओ..पुलिस न हो गई, चूं-चूं का मुरब्बा हो गई..जिसका जब मन हुआ मुंह में रखा और गप्प से घूंट गया।'
'हां..भाई..सचमुच..जैसे पुलिस वालों की कोई औकात ही नहीं रह गई है। अरे..इन लोगों को समझना चाहिए कि पुलिस वाले भी इंसान होते हैं। मुझे तो अब उस मुर्गी और भैंस चोर पर गुस्सा आ रहा है। इन नासपीटों ने हम चोरों-पाकेटमारों की इज्जत का फालूदा बना दिया है। कोई स्टैंडर्ड ही नहीं रह गया है चोरी-चकारी का।' इतना कहकर दोनों घूंट-घूंट पीकर अपना गम गलत करते रहे।
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