Saturday, December 27, 2025

चित्रकला के चक्कर में बहरे हो गए सर जोशुआ रेनाल्ड्स

 
बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

अट्ठारहवीं सदी के महान अंग्रेज चित्रकारों में से एक थे सर जोशुआ रेनाल्ड्स। रेनाल्ड्स का जन्म 16 जुलाई 1723 को डेवोन में हुआ था। वह किशोरावस्था में ही चित्रकला के प्रति आकर्षित हो गए थे। रेनाल्ड्स की प्रारंभिक शिक्षा डेवोन के एक स्कूल में हुई। उनके पिता एक शिक्षक और पादरी थे। उन्होंने प्राचीनकाल से लेकर अपने समकालीन साहित्यकारों का अच्छी तरह से अध्ययन किया, लेकिन उन्होंने चित्रकारी को ही जीवन में अपनाया। रोनाल्ड्स ने थामस हडसन के साथ चित्रकला का अध्ययन किया था। 

उन्होंने माइकल एंजेलो और टिटियन जैसे पुराने उस्तादों के चित्रों का अध्ययन करने के लिए 1749 में इटली की यात्रा की। इटली पहुंचने के बाद उन्होंने महान चित्रकारों की कलाकृतियों का बड़ी गहराई से अध्ययन शुरू किया। वह अध्ययन में इतना डूब गए कि उन्हें उन दिनों इटली में पड़ रही बर्फ ही ध्यान नहीं रहा। भयंकर बर्फबारी और शीतलहरी की वजह से उनके कान धीरे-धीरे सुन्न होने लगे। 

अंतत: परिणाम यह हुआ कि उन्हें सुनाई देना कम हो गया। दो साल बाद वह इटली से लौट आए। उनकी हालत देखकर उनके दोस्त ने कहा कि यदि तुम इटली नहीं जाते, तो आंशिक बहरे नहीं होते। यह सुनकर रेनाल्ड्स ने कहा कि यदि चित्रकला की बारीकियां सीखने के लिए मुझे सौ बार भी अपने कान कुर्बानी देनी पड़े तो मुझे स्वीकार है। 

सन 1768 में रायल अकदामी आफ आर्ट्स की स्थापना हुई तो उन्हें उसका अध्यक्ष बनाया गया और वह उस पद पर 1792 अपनी मृत्यु तक रहे। उन्होंने जीवन में दो हजार से अधिक कलाकृतियां बनाई। उन्होंने कला के क्षेत्र में एक शैली विकसित की जिसे काफी पसंद किया गया।

स्कूली बच्चों को संस्कारवान बनाने को शुरू हुई नई पहल

 

अशोक मिश्र

एक जनवरी से 15 जनवरी तक हरियाणा के सरकारी और वित्त पोषित स्कूलों में अवकाश रहेगा। दसवीं और बारहवीं स्कूल के बच्चों को हो सकता है कि प्रैक्टिकल के लिए स्कूल आना पड़ सकता है। अवकाश के दिनों में बच्चों को होमवर्क दिए जा रहे हैं। इस बार होमवर्क देने का तरीका पुराने पैटर्न से थोड़ा हटकर है। इस बार प्रयास किया जा रहा है कि पंद्रह दिन तक छुट्टी पर रहने वाले बच्चे अपने परिजनों के साथ आत्मीय संबंध बनाएं। उनके साथ रहकर न केवल सामाजिक ज्ञान प्राप्त करें, बल्कि वह अपने आसपास के पर्यावरण के प्रति भी जागरूक हों। यह जागरूकता उन्हें भविष्य में सामाजिक जीवन में प्रवेश करने पर काम आएगी। 

हमारे देश में सदियों से बच्चे किशोरावस्था तक अपने माता-पिता, दादी-दादा, नानी-नाना और ताया-ताई आदि के संरक्षण में पलते थे। वह अपने परिवार में एक दूसरे के साथ होने वाले व्यवहार, बातचीत और कार्यकलाप को बहुत नजदीक से देखते थे। इससे उन्हें पारिवारिक संरचना और सबसे व्यवहार करने का सलीका सीखने को मिलता था। किससे किस तरह की बातचीत करनी है, किसका आदर करना है, हम उम्र के साथ किस तरह से रहना है, यह सब कुछ सीखते थे। 

वह घर के काम में भी हाथ बंटाते थे। इससे उन्हें जिम्मेदारी का एहसास होता था। रात में सोते समय अपने बुजुर्गों के साथ बैठकर वह कहानियां सुनते थे, पहेलियां हल करते थे। देश-समाज और गांव या शहर के बारे में जानकारियां हासिल करते थे। बहुत सारी जानकारियां उन्हें अपने परिजनों से ही प्राप्त हो जाती थीं। इस बार भी बच्चों को कुछ इसी तरह के काम दिए जा रहे हैं। वह घर में अपनी मां के कामों में हाथ बटाएंगे। कोई पकवान बनाना सीखेंगे। अपने बुजुर्गों से तेनालीराम, अकबर-बीरबल के किस्से, पंचतंत्र की कहानियां, जातक कथाएं आदि सुनेंगे। इन कथाओं से उन्होंने क्या सीखा, यह अपने होमवर्क की डायरी में दर्ज करना होगा। 

वह अपने घर के आसपास पौधरोपण करेंगे। उन पौधों की सुरक्षा और देखभाल भी उनके जिम्मे रहेगी। इससे वह पर्यावरण के प्रति सचेत होंगे। दैनिक जीवन से जुड़े उदाहरणों से वह जोड़-घटाना, गुणा-भाग भी सिखाने का प्रयास किया जाएगा। इस बार बच्चों को कोई ऐसा होमवर्क नहीं दिया जा रहा है जिससे उन्हें रटने या कापी-किताबों के बोझ तले दबना पड़े। 

दरअसल, यह हरियाणा सरकार का नया प्रयोग है, ताकि हमारी भावी पीढ़ी संस्कारवान बने। उनमें संस्कारों का पोषण करने के लिए ही पंद्रह दिनों तक अपने परिजनों के निकट रहने का अवसर प्रदान किया जा रहा है। इस कार्य में उनके परिजनों का भी सहयोग लिया जाएगा। रोज तीस-चालीस मिनट तक बच्चों को रचनात्मक और व्यावहारिक ज्ञान दिलाने में माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों से मदद ली जाएगी।

Friday, December 26, 2025

जापान का एकीकरण करने वाले नोबुनागा


बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

जापान के महान सेनापतियों में गिने जाते हैं ओडा नोबुनागा। इनका जन्म 23 जून 1534 को ओवारी प्रांत के नागोया में हुआ था। नोबुनागा को जापान का एकीकरण करने वाला महान शासक कहा जाता है क्योंकि उन्होंने अपने समय के तमाम राज्यों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। कुछ लोग नोबुनागा को दूरदर्शी किंतु क्रूर मानते हैं। 

नोबुनागा ने अपने जीवन में कई लड़ाइयां लड़ी और पराजित होने वाले कबीलों को पूरी तरह नष्ट कर दिया। एक बार की बात है। नोबुनागा अपने कुछ सैनिकों के साथ कहीं पड़ाव डाले हुए थे। वह जानता था कि युद्ध निकट है, लेकिन उसने अपनी सेना की एक टुकड़ी को दूसरी जगह भेज दिया था। तभी उसके सेना अधिकारी ने आकर उससे कहा कि विरोधी सेना आक्रमण के लिए तैयार है। 

तब उसने अपने सैनिकों को एक मंदिर के पास जमा किया और कहा कि मंदिर के सामने मैं तीन बार सिक्का उछालता हूं। यदि चित आया तो विजय निश्चित है। यह देवता का आदेश होगा। उसने तीन बार सिक्का उछाला और तीनों बार सिक्का चित ही आया। उसकी सेना उत्साह से भर उठी। उसे यह विश्वास हो गया कि देवता उससे प्रसन्न हैं और वह भी नोबुनागा की विजय चाहते हैं। 

कम होते हुए भी नोबुनागा की सेना ने बड़े उत्साह के साथ शत्रु पर हमला बोला और उन्हें पराजित कर दिया। विजयी सेना जब इकट्ठी हुई तो उसने उस सिक्के को दिखाते हुए कहा कि यह आपके मनोबल की जीत हुई है। सिक्का इस तरह ढाला गया था कि दोनों ओर चित वाला प्रतीक ही था। कहते हैं कि 21 जून 1582 को दुश्मन की सेना से घिर जाने के बाद ओडा नोबुनागा ने एक कमरे में जाकर आत्महत्या कर ली।

उद्योग और उत्पादन में चीन को टक्कर देने की राह पर हरियाणा


अशोक मिश्र

राज्यों का विकास उसके औद्योगिक ढांचे और पूंजीनिवेश पर निर्भर होता है। राज्य में मौजूद इफ्रास्ट्रक्चर भी इसमें काफी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आवागमन के साधन भी राज्य के विकास की दशा और दिशा को समझने में काफी मायने रखते हैं। हरियाणा में अभी औद्योगिक विकास की काफी संभावनाएं हैं। औद्योगिक विकास पर ध्यान देकर न केवल प्रदेश की बेरोजगारी को दूर किया जा सकता है, बल्कि प्रति व्यक्ति आय को भी बढ़ाया जा सकता है। 

चीनी मॉडल अपनाकर राज्य में औद्योगिक विकास की एक नई इबारत लिखी जा सकती है। अब इसके लिए फरीदाबाद की मेयर प्रवीण जोशी ने शहर में  औद्योगिकि गतिविधियों में तेजी लाने के लिए स्थायी औद्योगिक मेला परिसर स्थापित करने की योजना बनाई है। स्थायी औद्योगिक मेला परिसर का प्रस्ताव फिलहाल मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी को भेजा जा चुका है। उम्मीद है कि जल्दी ही सीएम इस प्रस्ताव को मंजूरी भी प्रदान कर देंगे। सीएम की मंजूरी मिलते ही इस दिशा में काम शुरू कर दिया जाएगा। 

यह चीनी उद्योग मॉडल की ओर बढ़ाया गया छोटा सा कदम साबित होगा। वास्तव में चीन के कई शहरों में स्थायी औद्योगिक मेला परिसर स्थापित किए गए हैं जिनमें लगभग रोज चीनी उत्पादों को प्रस्तुत किया जाता है और उन्हें विदेश में निर्यात के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। चीन में सन 1980 के बाद छोटे-छोटे पैमाने पर घरेलू उद्योग और बड़े पैमाने पर राज्य नियंत्रित कारखानों का बड़ी तेजी से विकास हुआ है। निजी कंपनियां भी उद्योग-धंधों के विकास में लगी रहती हैं। 

चीन के बारे में कहा तो यह भी जाता है कि चीन में हर घर में कोई न कोई छोटा-मोटा उद्योग धंधा चल रहा होता है। ज्यादातर लोग राज्य नियंत्रित कारखानों में कर्मी के तौर पर काम करते हैं। घरेलू उद्योगों के उत्पादों की प्रदर्शनियां लगती रहती हैं। छोटे उद्योगों के उत्पादों को या तो कम्युनिस्ट सरकार खरीद लेती है या फिर निजी कंपनियां। सरकार और कंपनियां इन उत्पादों को वैश्विक बाजार में उतार देती हैं। इसी तर्ज पर फरीदाबाद की मेयर प्रवीण जोशी ने अपने शहर को छोटे उद्योगों का हब बनाने का सपना देखा है। जोशी का प्रयास यह है कि फरीदाबाद में करीब 20 एकड़ जमीन पर स्थायी औद्योगिक मेला परिसर विकसित किया जाए जहां साल भर घरेलू और विदेशी उद्योगपतियों के लिए पक्के और आधुनिक स्टॉल उपलब्ध कराए जाएं जहां पर वे अपने उत्पादों का प्रदर्शन कर सकें। 

इस परिसर में पूरे साल भर व्यापारिक गतिविधियां चलती रहें। सीएम से प्रोजेक्ट मंजूर होने के बाद दिल्ली के प्रगति मैदान में लगने वाले ट्रेड फेयर की तरह फरीदाबाद का स्थायी औद्योगिक मेला परिसर का निर्माण किया जाएगा। मेला परिसर में सभी आधुनिक सुविधाएं मुहैया कराई जाएगी।

Thursday, December 25, 2025

मंच पर पहुंचे, तो भाषण भूल गए महात्मा गांधी


बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

महात्मा गांधी के विचारों से तब भी और आज भी बहुत सारे लोग सहमत नहीं होंगे। कुछ लोग आलोचना भी करते हैं। अपने समय में भी महात्मा गांधी को अपने कार्यों और विचारों के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा था। इसके लिए कई बार वह शर्मिंदा भी हुए, लेकिन उन्होंने साहस नहीं छोड़ा और न ही अपनी कमियों को छिपाने का प्रयास किया। 

गांधी के विचारों से असहमत होते हुए भी यह बात स्वीकार करनी होगी कि वह सत्य बोलने में कभी पीछे नहीं रहे। अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में उन्होंने अपने जीवन की घटनाओं को उसी तरह दर्ज की है जैसी घटी होगी। मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म गुजरात के एक तटीय नगर पोरबंदर नामक स्थान पर 2 अक्टूबर सन 1869 को हुआ था। 

उनके पिता करम चंद गांधी एक छोटी सी रियासत काठियावाड़ के दीवान थे। मई 1883 में साढे 13 वर्ष की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह 14 वर्ष की कस्तूर बाई मकनजी से कर दिया गया। पत्नी का पहला नाम छोटा करके कस्तूरबा कर दिया गया और उसे लोग प्यार से बा कहते थे। बात उन दिनों की है, जब 1893-94 को वह दक्षिण अफ्रीका गए। दक्षिण अफ्रीका के नटाल प्रांत में जब उन्होंने भारतीयों की समस्याओं को लेकर आवाज उठाना शुरू किया, तो लोगों ने उन्हें अपना नेता मान लिया। 

एक बार उन्हें भाषण देने जाना पड़ा। उन्होंने भाषण लिखकर अच्छी तैयारी की, लेकिन जब मंच पर पहुंचे तो भाषण की पर्ची हाथ से छूट गई और वह सब कुछ भूल गए। वह कुछ नहीं बोले और हाथ जोड़कर सबसे क्षमा मांगी। इसके बाद उन्होंने अपनी कमजोरियों को दूर किया। एक दिन वह भी आया जब उनकी आवाज को पूरी दुनिया ने सुना।

विलायती बबूलों ने अरावली का बिगाड़ दिया ईको सिस्टम

अशोक मिश्र

दिल्ली और हरियाणा की जमीनों के रेगिस्तान बनने की आशंका बलवती होती जा रही है। अरावली की पर्वत शृंखलाओं को लेकर इन दिनों गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली में जो विरोध प्रदर्शन हो रहा है, वह अरावली क्षेत्र में संरक्षित क्षेत्र की नई परिभाषा को लेकर है। इन चारों राज्यों में वर्तमान और पूर्ववर्ती सरकारों ने अरावली पहाड़ियों को लेकर जो लापरवाही बरती है, उसके भी दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं। 

गुजरात से लेकर दिल्ली तक अरावली पर्वत शृंखलाओं को जिस तरह बरबाद होने दिया गया, उसी का परिणाम है कि अब राजस्थान से उठने वाले धूल के बवंडर हरियाणा और दिल्ली तक पहुंचने लगे हैं। यदि राजस्थान से आने वाली धूल को रोका नहीं गया, तो दिल्ली और हरियाणा की हरी-भरी जमीनें रेगिस्तान में बदल जाएंगी। ऐसी आशंका पर्यावरणविद व्यक्त करने लगे हैं। पिछले कई दशकों में अरावली के वन क्षेत्र और पहाड़ियों को काफी नुकसान पहुंचाया गया है। 

हरियाणा में सन 1990 से लेकर 1999 तक शासन करने वाली सरकारों ने एक नादानीभरा फैसला लिया था। इन दस वर्षों में अरावली पहाड़ियों और उसके आसपास के क्षेत्र में हेलिकाप्टर से जगह-जगह विलायती बबूल के बीज गिराए गए थे। नतीजा यह हुआ कि अरावली क्षेत्र की अधिकतर जमीनों पर विलायती बबूल उग आए। यह विलायती बबूल राजस्थान की ओर से आने वाली धूल भरी आंधियों को रोकने में नाकामयाब रहे। इन विलायती बबूलों ने अपना कुनबा बढ़ाना जब शुरू किया, तो स्थानीय वनस्पतियां सिकुड़ने लगीं। 

पहले से रोपे गए या अपने आप उगी स्थानीय वनस्पतियां पहले एक सीमा के बाद धूल को आगे बढ़ने से रोक देती थीं। इसके हरियाणा, दिल्ली और गुजरात के कुछ क्षेत्र रेगिस्तान बनने से बचे रहे। लोगों को भी काफी हद तक राहत मिलती रही। लेकिन विलायती बबूल ने सारे इकोसिस्टम को बिगाड़कर रख दिया। पर्यावरण को शुद्ध रखने में सक्षम स्थानीय वनस्पतियां अब तो नब्बे फीसदी कम हो गई हैं। सन 2000 से 2004 के बीच अरावली क्षेत्र में अवैध खनन भी बहुत हुए। खनन और वन माफियाओं ने पूरे अरावली क्षेत्र को बरबाद करके रख दिया। 

पहाड़ियों के अवैध खनन और पेड़ पौधों की अंधाधुंध कटाई का नतीजा यह हुआ कि जो नाले और तालाब साल भर पानी से लबालब रहते थे, अब वह बरसात के मौसम में ही भरे हुए दिखाई देते हैं। गर्मियों और सर्दियों में तालाबों और छोटे-मोटे नालों में पानी ही नहीं रहता है। इससे लोगों को पानी की आवश्यकताओं के लिए भूजल पर निर्भर होना पड़ रहा है। जमीनों के रिचार्ज न होने की वजह से लगातार जल स्तर काफी नीचे जा रहा है। उस पर पर्यावरण में भी काफी तेजी से बदलाव आता जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग का असर अब दिखाई देने लगा है।

Wednesday, December 24, 2025

मां! वह बूढ़ी महिला मुझे बेटा कह रही है

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

उन्नीसवीं सदी में बंगाल सहित देश के कई प्रांतों में विधवाओं की स्थिति काफी खराब थी। विधवा विवाह को भी समाज अच्छी नजरों से नहीं देखता था। स्त्रियों को उन दिनों पढ़ाया भी बहुत कम जाता था। कुछ जागरूक लोग ही अपनी बहन-बेटियों को पढ़ाने-लिखाने में रुचि लेते थे। ऐसे ही युग में पैदा हुए थे ईश्वर चंद विद्यासागर। 

विद्यासागर का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर जिले में 26 सितंबर 1820 को हुआ था। काफी गरीब घर में पैदा होने के बावजूद उनमें पढ़ने के प्रति बहुत अधिक रुचि थी। वह कुशाग्र बुद्धि के थे। इस बात को भांपकर उनके पिता ठाकुर दास बन्ध्योपाध्याय ने अपने नौ वर्ष के पुत्र को पैदल चलकर कोलकाता के संस्कृत विद्यालय में भर्ती करवाया। गरीबी और शारीरिक कमजोरी के बावजूद विद्यासागर ने जीवन की सभी परीक्षाओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया। 

विद्यासागर के बचपन की एक घटना है। एक दिन वह घर में बैठे हुए थे कि दरवाजे पर एक बहुत बूढ़ी महिला ने कांपती हुई आवाज में कहा, बेटा! कुछ खाने को दे दो। यह सुनकर विद्यासागर दौड़ते हुए  अपनी मां के पास पहुंचे और कहा, मां! दरवाजे पर एक बूढ़ी महिला खड़ी है और मुझे बेटा कह रही है। उसे कुछ खाने को दो न। उनकी मां ने कहा कि बेटा, घर में कुछ खाने-पीने को तो है नहीं। 

यह थोड़े से चावल हैं, उसे दे दो। विद्यासागर ने कहा कि मां इतने चावल से क्या होगा? मां तुम मुझे हाथ में पहना कंगन दे दो। मैं जब बड़ा हो जाऊंगा, तो इसके बड़ा कंगन बनवाकर दूंगा। मां ने हाथ से कंगन उतारकर दे दिए। उस महिला ने कंगन बेचकर अपने घर की व्यवस्था को सुधार लिया। जब विद्यासागर बड़े हुए तो एक दिन उन्होंने अपनी मां से कहा कि अपनी कलाई का नाप दे दो। मैं कंगन बनवा दंू। मां ने हंसते हुए कहा कि अब मैं बूढ़ी हो गई हूं। इस पैसे से स्कूल खुलवा दो।

अरावली पर्वतमाला बचाने को सड़कों पर उतरे लोग


अशोक मिश्र

राजस्थान, दिल्ली और हरियाणा में अरावली को लेकर आंदोलन तेज होता जा रहा है। राजस्थान के सीकर, अलवर और जोधपुर क्षेत्र में लोग अरावली पर्वत शृंखला को बचाने के लिए सड़कों पर उतर आए हैं। लोगों ने अरावली को राजस्थान को प्राणवायु देने वाला बताकर सुप्रीमकोर्ट के फैसले को बदलने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। राजस्थान के कुछ शहरों में अरावली को बचाने के लिए प्रदर्शन कर रहे लोगों पर हल्का लाठी चार्ज भी किया। गुरुग्राम में सेव अरावली अभियान चलाया जा रहा है। 

लोग यहां भी धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। अरावली को बचाने की मुहिम में लगे लोगों ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव के हालिया बयान का विरोध जताते हुए उसे भ्रामक बताया। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री ने इस मामले में फैले भ्रम को दूर का प्रयास करते हुए कहा था कि कुल 1.47 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में से 90 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र संरक्षित है। केवल 0.19 प्रतिशत क्षेत्र ही खनन योग्य है। वहीं पर्यावरणविदों का कहना है कि सुप्रीमकोर्ट के आदेश में सौ मीटर पहाड़ को नीचे से मापने का उल्लेख ही नहीं है।

 इस मामले में सेव अरावली ट्रस्ट का तर्क है कि केंद्रीय मंत्री कह चुके हैंकि अरावली में मौजूद किले, मंदिर, रिजर्व वन क्षेत्र और संरक्षित क्षेत्र को नुकसान नहीं पहुंचने दिया जाएगा। लेकिन बाकी हिस्सों का क्या होगा? इस बारे में मंत्री के बयान से कुछ भी साफ नहीं होता है। बाकी क्षेत्रों की रक्षा की जिम्मेदारी किसकी है? इस बारे में केंद्रीय मंत्री कुछ साफ नहीं किया है। पर्यावरणविदों ने  सरकार से इस मामले में पूरी योजना सार्वजनिक करने की मांग की है। ताकि सच्चाई सामने आ सके। 

दरअसल, लोगों की अरावली पर्वत को लेकर चिंता बहुत जायज है। पिछले कई दशकों से सरकारी नीतियों की कमियों का फायदा उठाकर ही खनन और वन माफिया मालामाल होते रहे हैं और उत्तर भारत के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते रहे हैं। तब लोगों में पर्यावरण को लेकर इतनी जागरूकता भी नहीं थी।  पिछले पंद्रह साल में खनन माफिया ने आठ से दस किमी क्षेत्र में पूरी पहाड़ी को ही वीरान कर दिया। 2023 के दौरान राजस्थान में किए एक अध्ययन के मुताबिक 1975 से 2019 के बीच अरावली की करीब आठ फीसदी पहाड़ियां गायब हो गईं। 

अगर अवैध खनन और शहरीकरण ऐसे ही बढ़ता रहा तो 2059 तक यह नुकसान 22 फीसदी पर पहुंच जाएगा। अगर अरावली को लेकर अभी सरकारें, अदालतें और लोग जागरूक नहीं हुए तो खनन और वन माफिया इसे वीरान करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इस मामले में किसी प्रकार की लापरवाही अरावली पर्वतमाला के लिए काफी खतरनाक साबित हो सकती है। अरावली को नुकसान पहुंचने पर लाखों करोड़ों लोगों का पलायन निश्चित है।

Tuesday, December 23, 2025

शार्गिद ने जीवन भर उस्ताद का कहा माना


बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

अलाउद्दीन खान का जन्म 1862 ईस्वी में बंगाल (अब बांग्लादेश) के ब्राह्मणबारिया जिले के शिवपुर में हुआ था। मैहर घराने की नींव रखने वाले विश्व प्रसिद्ध सरोदवादक उस्ताद अलाउद्दीन खान को बीसवीं सदी का सबसे महान संगीतकार माना जाता है। उन्होंने कई नए रागों की रचना की थी। एक साधारण मुस्लिम बंगाली परिवार में जन्म लेने वाले अलाउद्दीन खान पंडित रवि शंकर, निखिल बनर्जी, पन्नालाल घोष, वसंत राय, बहादुर राय आदि सफल संगीतकारों के गुरु भी रहे। 

अलाउद्दीन खान ने अपने जीवन में कई गुरुओं से संगीत की शिक्षा ली। उन्होंने कड़ी मेहनत के बाद मशहूर वीणावादक रामपुर के वजीर खाँ से भी संगीत के गुर सीखे। कहा जाता है कि जब अलाउद्दीन वजीर खां को अपना गुरु बनाने पहुंचे, तो पहले उन्होंने मना कर दिया। वह वजीर खां को कई दिनों तक मनाते रहे, लेकिन आखिर में वे वजीर खां की बग्घी के नीचे लेट गए और कहा कि आप मुझे अपना शार्गिद बना लीजिए। नहीं तो मुझ पर अपनी बग्घी चढ़ा दीजिए। 

वजीर खां मान गए। उन्होंने वीणा सिखाना शुरू किया। कठोर साधना की बदौलत अलाउद्दीन ने सरोद पर असाधारण पकड़ बना ली। एक दिन उस्ताद वजीर खां को लगा कि उनका शिष्य उनके वंशजों से आगे न निकल जाए। पंद्रह साल बाद जब वह विदा होने लगे, तोवजीर खां ने कहा कि अलाउद्दीन कभी सीधे हाथ से सरोद न बजाना। शार्गिद ने जीवन भर उस्ताद के वचन की लाज रखी। 

अलाउद्दीन सरोद ही नहीं, बहुत सारे वाद्य यंत्र बजाने में माहिर थे। भारत सरकार ने 1958 में अलाउद्दीन खां को पद्म भूषण सम्मान दिया। इसके अलावा और भी पुरस्कार से वह नवाजे गए।

सूरजकुंड मेले में दिखेगी भारतीय संस्कृति और शिल्पकला की झलक



अशोक मिश्र

मेला लगाने की परंपरा भारत में बहुत पुरानी है। सदियों से देश के हर गांव और शहर में कोस-दो कोस पर लगने वाले मेले भारतीय संस्कृति के आदान-प्रदान के स्रोत हुआ करते थे। ये मेले लोगों के आपस में मिलने और एक दूसरे का हालचाल जानने का जरिया भी हुआ करता था। गांव और शहर के लोग इन मेलों में अपने दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं की खरीदारी करते थे और मेले में आने वाले अपने रिश्तेदारों से इसी बहाने मुलाकात भी कर लिया करते थे। दूसरे रिश्तेदारों का हालचाल भी उन्हें मालूम हो जाता था। लेकिन जैसे-जैसे आवागमन के साधन बढ़े, नगरीय सभ्यता का प्रभाव गांवों तक पहुंचा, मेलों का आयोजन खत्म होने लगा। 

एक तरह से मेलों की प्रासंगिकता खत्म होने लगी। लेकिन हरियाणा में हस्तशिल्प, धार्मिक और सांस्कृतिक मेलों की परंपरा किसी न किसी रूप में अभी तक विद्यमान है। आगामी 31 जनवरी से 15 फरवरी तक फरीदाबाद के सूरज कुंड पर लगने वाले अंतर्राष्ट्रीय हस्तशिल्प मेले की तैयारियां इन दिनों बड़े जोरशोर से हो रही हैं। सूरज कुंड मेले में विदेश और देश के विभिन्न राज्यों के कलाकार, संस्कृति कर्मी, शिल्पकार और नागरिक शामिल होंगे। हर बार मेले की एक थीम हुआ करती है। इस बार भी मेले में पर्यावरण संरक्षण, प्रकृति प्रेम, स्वच्छता अभियान, राष्ट्र प्रेम, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, जल संरक्षण जैसे सरोकार पर आधारित रंगोली तथा चित्रकला प्रतियोगिताएं आयोजित की जाएंगी। 

देशभक्ति और कला-संस्कृति से जुड़ी गायन और नृत्य प्रतियोगिताएं भी होंगी। जिला शिक्षा विभाग के सहयोग से मेला परिसर स्थित नाट्यशाला में विद्यार्थियों के लिए विभिन्न प्रतियोगिताएं होंगी। इस दौरान होने वाली विभिन्न प्रतियोगिताओं में प्रतिदिन अलग-अलग स्कूलों के 300 से अधिक बच्चों को प्रतिभा प्रदर्शन का अवसर प्रदान किया जाएगा। हरियाणा पर्यटन निगम का उद्देश्य है कि बच्चों को प्रतिभा प्रदर्शन के साथ ही सामाजिक सरोकार से भी जोड़ा जाए। बच्चों की प्रस्तुति से मेले में आने वाले पर्यटकों तक भी सामाजिक सरोकार का संदेश जाएगा। मेले में भाग लेने के लिए देश-विदेश से कलाकारों और शिल्पकारों को आमंत्रित किया गया है। 

यह कलाकार और शिल्पकार अपनी अनूठी कला, संस्कृति और परंपराओं का सूरजकुंड मेले में आए लोगों के सामने प्रदर्शन करेंगे। यहां आने वाले शिल्पकार आदि और आम नागरिक एक दूसरे की कला, संस्कृति और परंपराओं से परिचित होंगे। यहां विभिन्न देशों की वेशभूषा, लोककला आदि प्रदर्शित की जाएगी। सचमुच, हर साल आयोजित होने वाला यह मेला सूरजकुंड की ऐतिहासिकता को भी प्रकट करती है। वैसे तो सूरजकुंड का इतिहास दसवीं शताब्दी से जुड़ा है। तोमर वंश के शासक  सूरजपाल ने इस कुंड का निर्माण करवाया था।