अशोक मिश्र
कतरब्योंत
मैंने तो पाया है यही कि सच बोलने पर कतर दी जाती है जुबां
Thursday, April 25, 2024
स्वर्ग जैसे ‘न्यू इंडिया’ में नंगे-अधनंगे किसान
Tuesday, February 16, 2021
चीखो मत! चीखने से कुछ नहीं होगा
-अशोक मिश्र
Sunday, February 14, 2021
अभी नहीं आया समय प्रणय गीत गाने का
Thursday, January 28, 2021
सिर्फ यही एक विकल्प है
Sunday, January 24, 2021
मुर्दे कभी विद्रोह नहीं करते
Wednesday, January 20, 2021
यकीन मानो
-अशोक मिश्र
हम बोलेंगे, विरोध करेंगे
तुम्हारी जनविरोधी नीतियों और शोषक व्यवस्था के खिलाफ
हम लामबंद करेंगे उन लोगों को
जिनके जिस्म और आत्मा पर दर्ज हैं तुम्हारी बर्बरता की कहानियां
हम तैयार करेंगे एक हरावल दस्ता
उन लोगों का जिनके सपनों को कुचल दिया है तुमने फौजी बूटों के तले
हम खोजते रहेंगे राख में पड़ी एक चिन्गारी
भले ही कुचल दो हमें
अपनी बख्तर बंद गाड़ियों और पैटर्न टैंकों के तले
भले ही हमें अपने परमाणु बमों में बांधकर फेंक दो अंतरिक्ष में
भले ही काट दो हमारी जुबां
ताकि निकल न सके विद्रोही स्वर
तुम्हारा दमन न सह पाने से निकलती चीख को
रोकने के लिए सिल दो होंठ भले ही
भले ही सागर में फेंक दो सारी दुनिया की कलम-दवात
बहा दो नाली में सारी स्याही
ताकि कुछ लिखा न जा सके तुम्हारे खिलाफ।
हम तब भी लिखेंगे
अपनी हड्डियां अपने साथी को देकर
ताकि वह इन हड्डियों की नोक से जमीन पर
गुफाओं की दीवारों पर
तुम्हारे महलों और अट्टालिकाओं की दीवारों के किसी कोने में
इन्कलाब लिख सके
हम अपनी मूक आंखों से कहेंगे अपनी दास्तां
कटी जुबान वाले चेहरे की भाव भंगिमा से ही
लोग अनुमान लगा लेंगे तुम्हारी बर्बरता की पराकाष्ठा का
हम मिटकर भी बो जाएंगे
बगावत की फसल, यकीन मानो।
Tuesday, September 8, 2020
बस यों ही बैठे ठाले-4
-अशोक मिश्र
हां, तो मैंने पिछली
पोस्ट में दो पुस्तकों का जिक्र किया था। एक थी कार्ल मार्क्स और फेडरिक
एंगेल्स की ‘द फर्स्ट इंडियन वार आफ इंडिपेंडेंस’ और दूसरी विष्णुभट्ट
गोड्से वरसाईकर की ‘माझा प्रवास’ (आंखों देखा गदर-अनुवाद अमृत लाल नागर)।
मेरे ख्याल से (मेरे ख्याल से आप इत्तफाक ही रखे, यह किसी पुस्तक में लिखा
तो नहीं है) इन दोनों पुस्तकों में अट्ठारह सौ सत्तावन की घटनाओं का सटीक
वर्णन और विश्लेषण मौजूद है। इन दोनों पुस्तकों से कम से कम 1857 के सैनिक
विद्रोह की बहुत सी बातों का खुलासा हो जाता है। विष्णुभट्ट की पुस्तक
माझा प्रवास क्यों लिखी गई, इसकी एक बहुत ही मजेदार कहानी है। वे अपने बारे
में बताते हुए कहते हैं कि हमारा गोड्सों का घराना भिक्षुकों का था। जब
श्रीमंत पेशवा महाराष्ट्र छोड़कर ब्रह्मावर्त (कानपुर के बिठूर) जाने के
लिए निकले, तो उनके पिता बालकृष्ण पंत भी उनके साथ जाने के लिए निकले,
नर्मदा के तट तक गए भी, लेकिन बुढ़ापे के कारण शरीर जर्जर होने और बुखार आ
जाने के कारण उन्हें लौटना पड़ा। बाद में उन्होंने विन्चूर (यह कौन थे, यह
उनकी पुस्तक में स्पष्ट नहीं है) के यहां की कारकूनी छोडकर वरसई में बसने
का निश्चय किया। यहां उनकी आय का साधन एक मात्र ब्रह्मयज्ञ (पुरोहिताई) और
भिक्षुकी ही था। ऐसे माहौल में पले-बढ़े विष्णुभट्ट का बचपन बहुत ही गरीबी
में बीता। भिक्षुकी से बहुत सी आय होती नहीं थी क्योंकि उस समय भी गृहस्थ
होने के चलते भिक्षा मांगने में बहुत सी सामाजिक बाधाएं थीं। ब्रह्मयज्ञ और
थोड़ी सी खेती ही थी, जिससे उनके परिवार का गुजर बसर होती थी। वे लिखते
हैं कि हालात तब और बिगड़ गए जब उनके काका कृष्ण भट्ट और राम भट्ट उनसे अलग
हो गए। तब विष्णु भट्ट की उम्र दस वर्ष थी। प्रात:काल से सायंकाल पर्यंत
स्नान, सन्ध्या, ब्रह्मयज्ञ, रुद्र की एकादशणी, देवपूजा, भागवत पाठ, श्री
बैजनाथेश्वर का षोडशोपचार पूजन, भोजन के बाद अष्टाध्याय गीता का पाठ
इत्यादि ऋषि कर्मों में उनके निमग्न रहने से गृहस्थों की तरह भी
रोजी-रोजगार का कोई साधन न रहा। पिता जी गृहस्थ कर्मों में कुशल थे।
उन्होंने मोड़ी, बालबोध लिखना, बांचना, ब्याज का हिसा फैलाना, जमा-खर्च
वगैरह की बावत मुझे शिक्षण देकर कहीं नौकरी पर लगाने का विचार कर रहे थे कि
एक दिन विष्णुभट्ट के बड़े काका (चाचा) उनके पिता के पास आए और बोले कि
मेरे कोई लड़का नहीं है। राम भट्ट की पत्नी मर गई है। इसलिए हमारे पच्चीस
यजमानों के घर का कोई कुल गुरु नहीं रहेगा, सो उचित नहीं है। मैं दो-तीन
विद्यार्थी जमा करके विष्णु को संहिता पाठ कराने का मुहूर्त करता हूं।
लड़के को गृहस्थ बनाकर किसी परधर्मी राजा के यहां द्रव्य (पैसा) कमाने के
लिए भेजने से बेहतर है कि उसे ब्रह्म कर्म में तैयार करके यजमानी से जो कुछ
मिले, उससे पेट पालना लाख गुना बेहतर है। इसके बाद वे संहिता पढ़ने के लिए
अपने काका के साथ रहने लगे। दुर्योग से संहिता का अध्ययन पूरा हो पाता,
उससे पहले उनके काका कृष्ण भट्ट शके 1768 के ज्येष्ठ मास में काल कविलत हो
गए। इतना ही नहीं, उनके दूसरे काका राम भट्ट जो धर्मशास्त्र में काफी
प्रवीण और विद्वान माने जाते थे, वह हिंदुस्तान ब्रह्मावर्त (बिठूर) में
श्रीमंत पेशवा के यहां होमशाल के अध्यक्ष थे, वह भी दूसरा विवाह करके वरसई
आकर रहने लगे।
Thursday, August 20, 2020
बस यों ही बैठे ठाले-3
-अशोक मिश्र
हां, तो बात स्वाधीनता
संग्राम में बंगाल के किसान विद्रोह से आगे बढ़कर ईस्ट इंडिया कंपनी (‘द
यूनाइटेड कंपनी आफ मर्चेंट्स आफ इंग्लैंड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज’) तक आ
पहुंची थी। सन 1821 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भड़की विद्रोह की चिंगारी
धीरे-धीरे सुलगती रही और 1657 में सैनिक विद्रोह के रूप में प्रस्फुटित
हुई। 1857 का सैनिक विद्रोह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था या गदर, इस पर
इतिहासकारों में मतवैभिन्य है। जहां तक मेरी जानकारी है, ज्यादातर
इतिहासकार सन 1857 के विद्रोह को सैनिक विद्रोह ही मानते हैं।
राजे-रजवाड़ों का विद्रोह। लेकिन सबसे पहले सन 1857 के विद्रोह को अगर किसी
ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम माना, तो वह थे कार्ल मार्क्स और फेडरिक
एंगेल्स। जिन दिनों अट्ठारह सौ सत्तावन का विद्रोह भारत में चल रहा था,
उन्हीं दिनों लंदन में निर्वासित जीवन बिता रहे कार्ल मार्क्स और उनके
सहयोगी फेडरिक एंगेल्स ने न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में भारत और उसके
सिपाही विद्रोह को प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बारे में बताते हुए
सिलसिलेवार लेख लिखा था। बाद में ये सभी लेख ‘द फर्स्ट इंडियन वार आफ
इंडिपेंडेंस 1857-59’ (भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857-59) के नाम
से पुस्तकीय रूप में प्रकाशित हुए। उन दिनों लंदन में निर्वासित जीवन बिता
रहे कार्ल मार्क्स न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून से एक पत्रकार के रूप में
(फ्रीलांस जर्नलिस्ट) जुड़े हुए थे। अपनी पुस्तक में कार्ल मार्क्स ने मेरठ
का सैनिक विद्रोह, लखनऊ और कानपुर के सैनिक विद्रोह सहित भारत में होने
वाले तमाम विद्रोहों के बारे में लेख लिख हैं। भारत में कुछ लोग मानते हैं
कि सन 1857 के सैनिक विद्रोह को सबसे पहले सावरकर ने स्वाधीनता संग्राम कहा
था, उन लोगों को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि पूरी दुनिया में
सबसे पहले भारतीय सैनिक विद्रोह को स्वाधीनता संग्राम कहने वाले कार्ल
मार्क्स और फेडरिक एंगेल्स थे, सावरकर नहीं। सावरकर की किताब सन 1908 में
पूरी हुई थी। नाम था 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर। एक बात और। कार्ल
मार्क्स और फेडरिक एंगेल्स भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान जीवित रहे
थे और दामोदर विनायक सावरकर का जन्म ही 28 मई 1883 में हुआ था। यदि हमें
अट्ठारह सौ सत्तावन के सैनिक गदर को अच्छी तरह से समझना हो, तो हमारी दो
पुस्तकें बहुत अधिक मदद कर सकती हैं। पहली पुस्तक तो है द फर्स्ट इंडियन
वार आफ इंडिपेंडेंस 1857-59 और दूसरी पुस्तक है विष्णुभट्ट गोड्से वरसाईकर
की मराठी में लिखी माझा प्रवास। इस पुस्तक का प्रख्यात साहित्यकार अमृतलाल
नागर ने आंखों देखा गदर के नाम से अनुवाद किया है। ये दोनों पुस्तकें भारत
के प्रथम सैनिक विद्रोह के दौरान या उसके एकाध साल के बाद लिखी गई थीं।
वैसे यह भी सही है कि कार्ल मार्क्स और फेडरिक एंगेल्स कभी भारत नहीं आए
थे, लेकिन भारत के इतिहास, यहां से सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक
ताने-बाने का गहन अध्ययन उन्होंने 1850 से 1860 के बीच ही करना शुरू कर
दिया था। उनका मानना था कि भारत में स्वतंत्रता संग्राम की चिन्गारी यदि
प्रस्फुटित होती है, तो उसका प्रभाव यूरोप, अमेरिका और एशिया के उन तमाम
देशों पर पड़ेगा जो अपनी आजादी के लिए भीतर ही भीतर तैयारी कर रहे हैं या
फिर उन देशों में स्वाधीनता संग्राम अभी भीतर ही भीतर हिलोरें ले रहा है।
अपनी पुस्तक इ फर्स्ट इंडियन वार आफ इंडिपेंडेंस में संग्रहीत एक लेख में
न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून के 15 जुलाई, 1857 के अंक में स्पष्ट तौर पर मेरठ
में हुई घटना का कार्ल मार्क्स ने पूरा विवरण दिया है। उन्होंने अपनी
रिपोर्ट में लिखा है कि जब 10 मई को मेरठ छावनी में क्रांति फूटी और भारतीय
सिपाही विद्रोह कर अंग्रेजी फौज को चुनौती देते हुए दिल्ली कूच कर गए, तो
रुड़की से नेटिव सैपर्स एंड माइनर्स (गोला दागने वाले, पुल आदि बनाने वाली
रेजीमेंट) को 15 मई को मेरठ छावनी बुला लिया गया। इनकी अस्थायी बसावट
ब्रितानी फौजियों के साथ की गई। अचानक अगले ही दिन 16 मई को इस रेजीमेंट के
एक हिंदुस्तानी सिपाही ने अपने अफसर मेजर फ्रेजर का कत्ल कर दिया। इसके
बाद सभी भारतीय सिपाहियों ने छावनी के पीछे (मौजूदा समय में डिफेंस कालोनी
से होते हुए) काली नदी की तरफ भागे। घोड़े पर सवार ब्रितानी अफसर और
सिपाहियों ने पीछा किया। इनमें से 50-60 को वहीं मौत के घाट उतार दिया। जो
सिपाही बचे थे, वे दिल्ली पहुंच गए और दूसरे क्रांतिकारियों से मिल गए।
Monday, August 10, 2020
बस यों ही बैठे ठाले-2
हां, तो बात हो रही थी भारतीय स्वाधीनता संग्राम की पहली बगावत को लेकर। संन्यासी विद्रोह का जिस वर्ष (सन 1820) पूरी तरह दमन हो गया, उसके एक साल बाद तित्तू मियां के नेतृत्व में बंगाल के पांच हजार किसानों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ परचम लहरा दिया। कुछ ही दिनों में बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के नेतृत्व में ब्रिटिश फौजों ने किसान बगावत को बुरी तरह कुचल दिया। अधिसंख्य किसान पकड़कर फांसी पर लटा दिए गए। कुछ को अंग्रेज भक्त जमींदारों ने पकड़कर राजभक्ति दिखाने के लिए बुरी तरह प्रताड़ित किया, उन्हें मार दिया। इस विद्रोह में जिन-जिन गांवों के लोग शामिल थे, वे गांव के गांव अंग्रेज भक्त जमींदारों ने तबाह कर दिए। गांव के गांव जला दिए गए। पुरुषों और बच्चों को पकड़कर लाठियों, डंडों और कोड़ों से सरेआम पीटा गया, उनकी चमड़ी उधेड़ दी गई। ताकि भविष्य में कोई भी जालिम जमींदारों और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत करने की हिम्मत न जुटा सके। महिलाओं के साथ बलात्कार किए गए। उनके शरीर को चाकुओं, तलवारों और नुकीले बल्लम से गोदा गया। खूबसूरत और कम उम्र लड़कियों को अंग्रेज अफसरों और जमींदारों की हवेलियों और महलों में पहुंचा दिया गया। इस लूट खसोट का लाभ सबने उठाया, चाहे वह हिंदू जमींदार रहा हो, अफसर रहा हो या मुस्लिम जमींदार और अफसर रहा हो। इसमें जाति, धर्म का कोई भेद नहीं थी। और इस लूट खसोट को अंजाम दिया उन भारतीयों ने, जो रुपये दो रुपये की नौकरी जमींदारों के यहां करते थे। ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी करते थे या कहो कि ईष्ट इंडिया कंपनी की करते थे। मेरा मानना है कि (पाठकों को मेरे इस मत से असहमत होने का पूरा अधिकार है) अपने स्थापना काल से ही ईष्ट इंडिया कंपनी भले ही लंदन के व्यापारियों की कंपनी रही हो, लेकिन उसके विस्तारवादी, उत्पीड़न, शोषण और दोहन की नीतियों के प्रति इंग्लैंड के शासकों की सहमति अवश्य थी। दरअसल, शाही अधिकार पत्र लेकर वर्ष 1608 में पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी का पहला पोत व्यापार करने सूरत (भारत) आया था। इसका पुर्तगालियों ने जबरदस्त विरोध किया। ईस्ट इंडिया कंपनी लंदन के व्यापारियों की एक निजी कंपनी थी जिसे वर्ष 1600 की एक घोषणा के आधार पर महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रतिद्वंद्वी कंपनी न्यू कंपनी का विलय वर्ष 1708 में भारत में प्रवेश के ठीक सौ साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी में हो गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार की देखभाल के लिए ‘गवर्नर इन काउंसिल’ की स्थापना हुई और ईस्ट इंडिया कंपनी का नाम रखा गया ‘द यूनाइटेड कंपनी आफ मर्चेंट्स आफ इंग्लैंड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज’। चूंकि कंपनी के व्यापार में गवर्नर इन काउंसिल का पूरा दखल रहता था, इसलिए भारत में होने वाले अत्याचार, शोषण, दोहन, उत्पीड़न आदि के लिए ब्रिटिश हुकूमत को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है और ईस्ट इंडिया कंपनी की जगह पर ब्रिटिश हुकूमत कहा जा सकता है। यह भी सही है कि सन अट्ठारह सौ सत्तावन के गदर (स्वाधीनता संग्राम) की शुरुआत के एक साल बाद वर्ष 1858 में
ब्रिटिश हुकूमत ने ईस्ट इंडिया के सारे अधिकार रद्द करते हुए कंपनी की बागडोर खुद संभाल ली।
Saturday, August 8, 2020
बस यों ही बैठे ठाले-1
अशोक मिश्र
हां, तो बात हो रही
थी राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में राष्ट्रवादी विप्लवी नेताजी सुभाष
चंद्र बोस के खिलाफ पेश किए गए पंत प्रस्ताव के समर्थन में जय प्रकाश
नारायण और राम मनोहर लोहिया की भूमिका की। तो इस बात को अच्छी तरह समझने के
लिए जरूरी है कि हम भारतीय स्वाधीनता संग्राम को सिलसिलेवार समझें। यह पंत
प्रस्ताव क्यों, किन परिस्थितियों और किसके इशारे पर पेश किया गया था, इसे
समझने से पहले स्वाधीनता संग्राम का संक्षिप्त इतिहास जान लें, तो बेहतर
होगा। अगर हम भारतीय स्वाधीनता संग्राम पर दृष्टि डालें, तो पता चलता है कि
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सबसे पहली बगावत सन 1821 में तित्तू मियां (कुछ
इतिहासकार तित्तू मीर के नाम से भी पुकारते हैं) के नेतृत्व में बंगाल में
हुई थी। पांच हजार किसानों ने ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचार और शोषण के खिलाफ
बगावत की। ब्रिटिश हुकूमत और उसके नुमाइंदे जमीदार न केवल किसानों,
मजदूरों का निर्मम शोषण करते थे, बल्कि यहां से कच्चा माल ब्रिटेन ले जाकर
वहां बना सामान भारत में लाकर दोहरा मुनाफा कमाते थे। ब्रिटिश हुकूमत के
नुमाइंदे जमींदार अपने मालिक के प्रति अपनी भक्ति दिखाने के लिए किसानों और
मजदूरों का निर्मम शोषण करते थे। इस हालात से समझौता करने के सिवा उनके
पास कोई दूसरा चारा भी नहीं था। लेकिन तित्तू मियां से यह बर्दाश्त नहीं
हुआ और उसने किसानों को संगठित करना शुरू कर दिया। पांच हजार किसानों ने
अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह कर दिया। अंग्रेजी फौज और पुलिस ने
पूरे बंगाल में दमन चक्र चलाया। काफी संख्या में किसान मारे गए। बगावत विफल
होने पर बहुतों को फांसी पर लटा दिया गया। कुछ जंगलों में जा छिपे और
भूखों मारे गए। यह भारतीय स्वाधीनता संग्राम की पहली चिन्गारी थी, जो भड़की
जरूर लेकिन अपनी निहित विसंगतियों और अंतरविरोधों के चलते जल्दी ही बुझ
गई। लेकिन इससे इस सशस्त्र बगावत का महत्व कम नहीं होता है। कुछ लोग तित्तू
मियां के नेतृत्व से पहले हुए संन्यासी विद्रोह (1763 से लेकर 1820) को
स्वाधीनता संग्राम का पहला विद्रोह मानते हैं। यदि दोनों विद्रोहों के
उद्देश्य को लेकर बात करें, तो यह स्पष्ट होता है कि संन्यासी विद्रोह का
आधार अंग्रेजों द्वारा तीर्थयात्रा पर लगाया गया प्रतिबंध था। इन विद्रोही
संन्यासियों का नारा ओम वंदेमातरम था। यह सही है कि ब्रिटिश हुकूमत की शोषण
और दोहन की नीति के प्रति किसानों, मजदूरों, कुछ जमींदारों में असंतोष था।
बंगाल और बिहार के नागा और गिरि संन्यासियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ
बगावत का झंडा बुलंद इसलिए किया था क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत ने उनकी
तीर्थयात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया था। संन्यासियों ने इस प्रतिबंध के खिलाफ
आवाज बुलंद की और उनके साथ मुस्लिम फकीर, जमींदार और किसान आ मिले। और यह
विद्रोह किसी न किसी रूप में 1820 तक चलता रहा। संन्यासी विद्रोह अपने
शुरुआती दौर (1763 और उसके कुछ वर्षों तक) में जितना प्रबल था, बाद में
जैसे-जैसे समय बीतता गया कमजोर पड़ता गया। बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन
हेस्टिंग्स ने 1820 में संन्यासी विद्रोह का पूरी तरह दमन कर दिया।
प्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1882 में आनंदमठ की रचना की।
आनंदमठ का मूल आधार यही संन्यासी विद्रोह है। इन संन्यासियों का उद्देश्य
उतना व्यापक नहीं था जितना तित्तू मीर के विद्रोह का था। तित्तू मियां और
उनके पांच हजार किसान साथी पूरे बंगाल में शोषण और दमन का खात्मा करने के
लिए उठ खड़े हुए थे। वे पूरी ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने को प्रतिबद्ध
थे।
(शेष फुरसत मिलने पर……….)