अशोक मिश्र
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) का अध्यक्ष पहलाज निहलानी को नियुक्त कर दिया गया है। यह पद लीला सेम्सन के इस्तीफे के बाद खाली हुआ था। डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म 'एमएसजी : मैसेंजर ऑफ गॉडÓ को दबाव डालकर सेंसर सर्टिफिकेट दिलाने का आरोप लगाते हुए लीला सेम्सन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। बाद में नौ और सदस्यों ने अपने इस्तीफे सरकार को भेज दिए थे। हालांकि पहलाज निहलानी सहित नौ सदस्यों की नियुक्ति सरकार ने कर दी है, लेकिन जिस तरह भाजपा सरकार ने डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट जारी करने के लिए दबाव डाला, उससे देश में कोई अच्छा संदेश नहीं गया। ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले की सरकारों का दबाव सेंसर बोर्ड पर नहीं रहता था या इससे पहले की सरकारें ऐसे मामलों में दूध की धुली रही हैं। दरअसल, देखा जाए, तो फिल्म मैसेंजर ऑफ गॉड का मुद्दा तो एक बहाना है, असली लड़ाई सेंसर बोर्ड को स्वायत्तता प्रदान करने की है।
यह विवाद तो यूपीए के शासनकाल से भी चला आ रहा है। सेंसर बोर्ड पहले भी कई बार सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को स्वायत्तता प्रदान करने के लिए पत्र लिखकर कह चुका था कि सरकारी और राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते बोर्ड के ज्यादातर सदस्य ऐसे आ जाते हैं जिनका फिल्म से कोई लेना देना नहीं होता है। ऐसे सदस्य सिर्फ अपने या अपनी पार्टी के राजनीतिक फायदे को ही ध्यान में रखते हैं। मनमोहन सरकार ने अपने दस साल के कार्यकाल में सेंसर बोर्ड को अपनी गाय की तरह पालतू बनाए रखा। जब चाहा, जैसा चाहा, काम लिया। मनमोहन सिंह की सरकार ने न्यूनतम कामों की स्वायत्तता और आर्थिक संसाधन जरूर मुहैया कराए।
इस तरह हम कह सकते हैं कि मनमोहन सरकार का रवैया भी सेंसर बोर्ड को पालतू गाय समझने से ज्यादा नहीं रहा। केंद्र या प्रदेशों में सरकार किसी की भी हो, शासन का हर मुखिया चाहता है कि देश प्रदेश में जितने भी विभाग हैं, संस्थाएं हैं, उनके ही इशारे पर उठे-बैठे। वे जैसा कहें, बिना कोई आपत्ति दर्ज कराए, बस चुपचाप करती जाएं। सरकारों के इशारे पर फिल्मों को सर्टिफिकेट देने का खेल तो काफी दिनों से खेला जा रहा है। हद तब हो गई, जब मैसेंजर ऑफ गॉड को भी सेंसर सर्टिफिकेट देने का दबाव डाला गया।
इस बात को सभी जानते हैं कि हरियाणा में चुनाव से पहले सभी दलों ने गुरमीत राम रहीम से समर्थन हासिल करने के लिए संपर्क किया था, लेकिन सफलता मिली थी भाजपा को। गुरमीत राम रहीम ने न केवल भाजपा का समर्थन किया था, बल्कि अपने अनुनाइयों को भाजपा प्रत्याशियों को वोट देकर जिताने का फरमान भी जारी किया था। केंद्र की मोदी सरकार ने गुरमीत राम रहीम के उन एहसानों का बदला उनकी फिल्म को प्रसारण का प्रमाण पत्र दिलवाकर चुकाया है। केंद्र में मोदी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद सेंसर बोर्ड को न तो अपनी बैठक बुलाने की अनुमति दी गई और न ही जरूरी आर्थिक संसाधन मुहैया कराए गए। इसी दौरान डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट देने का जब दबाव डाला जाने लगा, तो स्थिति विस्फोटक हो गई और नतीजा यह हुआ कि मोदी सरकार में कांग्रेसी एजेंट होने का आरोप झेल रही लीला सेम्सन ने अपने पद से त्याग पत्र दे दिया। लीला सेम्सन अपने पद के लिए कितनी काबिल थीं, उनका फिल्म जगत में क्या योगदान रहा है? वे कांग्रेस की एजेंट थीं या नहीं?
यह अलग मुद्दा है। असल मुद्दा यह है कि फिल्मों का समाज पर अच्छा या बुरा प्रभाव जरूर पड़ता है। यदि फिल्मों को सर्टिफिकेट देते वक्त संवेदनशीलता नहीं बरती गई, तो समाज के लोगों पर बुरी फिल्मों का क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसे संगठनों में विषय विशेषज्ञों का होना, बहुत जरूरी है। बहरहाल, पहलाज निहलानी ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में कामकाज संभाल लिया है। जाहिर सी बात है कि उन्हें बनारस में नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार करने और 'हर हर मोदीÓ नारा लगाने का ईनाम मिला है। वे यह बात स्वीकार भी करते हैं कि उन्हें मोदी समर्थक या भाजपा का आदमी होने पर गर्व है। इससे पहले की सरकारों ने कम से कम इतनी नैतिकता तो जरूर दिखाई थी कि उन्होंने इस तरह के संगठनों में ऐसे लोगों को बिठाने से परहेज अवश्य किया था जिन पर अंध भक्त होने का आरोप लगा हो। मोदी सरकार ने यह परंपरा भी तोड़ दी है।
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) का अध्यक्ष पहलाज निहलानी को नियुक्त कर दिया गया है। यह पद लीला सेम्सन के इस्तीफे के बाद खाली हुआ था। डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म 'एमएसजी : मैसेंजर ऑफ गॉडÓ को दबाव डालकर सेंसर सर्टिफिकेट दिलाने का आरोप लगाते हुए लीला सेम्सन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। बाद में नौ और सदस्यों ने अपने इस्तीफे सरकार को भेज दिए थे। हालांकि पहलाज निहलानी सहित नौ सदस्यों की नियुक्ति सरकार ने कर दी है, लेकिन जिस तरह भाजपा सरकार ने डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट जारी करने के लिए दबाव डाला, उससे देश में कोई अच्छा संदेश नहीं गया। ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले की सरकारों का दबाव सेंसर बोर्ड पर नहीं रहता था या इससे पहले की सरकारें ऐसे मामलों में दूध की धुली रही हैं। दरअसल, देखा जाए, तो फिल्म मैसेंजर ऑफ गॉड का मुद्दा तो एक बहाना है, असली लड़ाई सेंसर बोर्ड को स्वायत्तता प्रदान करने की है।
यह विवाद तो यूपीए के शासनकाल से भी चला आ रहा है। सेंसर बोर्ड पहले भी कई बार सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को स्वायत्तता प्रदान करने के लिए पत्र लिखकर कह चुका था कि सरकारी और राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते बोर्ड के ज्यादातर सदस्य ऐसे आ जाते हैं जिनका फिल्म से कोई लेना देना नहीं होता है। ऐसे सदस्य सिर्फ अपने या अपनी पार्टी के राजनीतिक फायदे को ही ध्यान में रखते हैं। मनमोहन सरकार ने अपने दस साल के कार्यकाल में सेंसर बोर्ड को अपनी गाय की तरह पालतू बनाए रखा। जब चाहा, जैसा चाहा, काम लिया। मनमोहन सिंह की सरकार ने न्यूनतम कामों की स्वायत्तता और आर्थिक संसाधन जरूर मुहैया कराए।
इस तरह हम कह सकते हैं कि मनमोहन सरकार का रवैया भी सेंसर बोर्ड को पालतू गाय समझने से ज्यादा नहीं रहा। केंद्र या प्रदेशों में सरकार किसी की भी हो, शासन का हर मुखिया चाहता है कि देश प्रदेश में जितने भी विभाग हैं, संस्थाएं हैं, उनके ही इशारे पर उठे-बैठे। वे जैसा कहें, बिना कोई आपत्ति दर्ज कराए, बस चुपचाप करती जाएं। सरकारों के इशारे पर फिल्मों को सर्टिफिकेट देने का खेल तो काफी दिनों से खेला जा रहा है। हद तब हो गई, जब मैसेंजर ऑफ गॉड को भी सेंसर सर्टिफिकेट देने का दबाव डाला गया।
इस बात को सभी जानते हैं कि हरियाणा में चुनाव से पहले सभी दलों ने गुरमीत राम रहीम से समर्थन हासिल करने के लिए संपर्क किया था, लेकिन सफलता मिली थी भाजपा को। गुरमीत राम रहीम ने न केवल भाजपा का समर्थन किया था, बल्कि अपने अनुनाइयों को भाजपा प्रत्याशियों को वोट देकर जिताने का फरमान भी जारी किया था। केंद्र की मोदी सरकार ने गुरमीत राम रहीम के उन एहसानों का बदला उनकी फिल्म को प्रसारण का प्रमाण पत्र दिलवाकर चुकाया है। केंद्र में मोदी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद सेंसर बोर्ड को न तो अपनी बैठक बुलाने की अनुमति दी गई और न ही जरूरी आर्थिक संसाधन मुहैया कराए गए। इसी दौरान डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट देने का जब दबाव डाला जाने लगा, तो स्थिति विस्फोटक हो गई और नतीजा यह हुआ कि मोदी सरकार में कांग्रेसी एजेंट होने का आरोप झेल रही लीला सेम्सन ने अपने पद से त्याग पत्र दे दिया। लीला सेम्सन अपने पद के लिए कितनी काबिल थीं, उनका फिल्म जगत में क्या योगदान रहा है? वे कांग्रेस की एजेंट थीं या नहीं?
यह अलग मुद्दा है। असल मुद्दा यह है कि फिल्मों का समाज पर अच्छा या बुरा प्रभाव जरूर पड़ता है। यदि फिल्मों को सर्टिफिकेट देते वक्त संवेदनशीलता नहीं बरती गई, तो समाज के लोगों पर बुरी फिल्मों का क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसे संगठनों में विषय विशेषज्ञों का होना, बहुत जरूरी है। बहरहाल, पहलाज निहलानी ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में कामकाज संभाल लिया है। जाहिर सी बात है कि उन्हें बनारस में नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार करने और 'हर हर मोदीÓ नारा लगाने का ईनाम मिला है। वे यह बात स्वीकार भी करते हैं कि उन्हें मोदी समर्थक या भाजपा का आदमी होने पर गर्व है। इससे पहले की सरकारों ने कम से कम इतनी नैतिकता तो जरूर दिखाई थी कि उन्होंने इस तरह के संगठनों में ऐसे लोगों को बिठाने से परहेज अवश्य किया था जिन पर अंध भक्त होने का आरोप लगा हो। मोदी सरकार ने यह परंपरा भी तोड़ दी है।