अशोक मिश्र
हां, तो बात हो रही
थी राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में राष्ट्रवादी विप्लवी नेताजी सुभाष
चंद्र बोस के खिलाफ पेश किए गए पंत प्रस्ताव के समर्थन में जय प्रकाश
नारायण और राम मनोहर लोहिया की भूमिका की। तो इस बात को अच्छी तरह समझने के
लिए जरूरी है कि हम भारतीय स्वाधीनता संग्राम को सिलसिलेवार समझें। यह पंत
प्रस्ताव क्यों, किन परिस्थितियों और किसके इशारे पर पेश किया गया था, इसे
समझने से पहले स्वाधीनता संग्राम का संक्षिप्त इतिहास जान लें, तो बेहतर
होगा। अगर हम भारतीय स्वाधीनता संग्राम पर दृष्टि डालें, तो पता चलता है कि
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सबसे पहली बगावत सन 1821 में तित्तू मियां (कुछ
इतिहासकार तित्तू मीर के नाम से भी पुकारते हैं) के नेतृत्व में बंगाल में
हुई थी। पांच हजार किसानों ने ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचार और शोषण के खिलाफ
बगावत की। ब्रिटिश हुकूमत और उसके नुमाइंदे जमीदार न केवल किसानों,
मजदूरों का निर्मम शोषण करते थे, बल्कि यहां से कच्चा माल ब्रिटेन ले जाकर
वहां बना सामान भारत में लाकर दोहरा मुनाफा कमाते थे। ब्रिटिश हुकूमत के
नुमाइंदे जमींदार अपने मालिक के प्रति अपनी भक्ति दिखाने के लिए किसानों और
मजदूरों का निर्मम शोषण करते थे। इस हालात से समझौता करने के सिवा उनके
पास कोई दूसरा चारा भी नहीं था। लेकिन तित्तू मियां से यह बर्दाश्त नहीं
हुआ और उसने किसानों को संगठित करना शुरू कर दिया। पांच हजार किसानों ने
अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह कर दिया। अंग्रेजी फौज और पुलिस ने
पूरे बंगाल में दमन चक्र चलाया। काफी संख्या में किसान मारे गए। बगावत विफल
होने पर बहुतों को फांसी पर लटा दिया गया। कुछ जंगलों में जा छिपे और
भूखों मारे गए। यह भारतीय स्वाधीनता संग्राम की पहली चिन्गारी थी, जो भड़की
जरूर लेकिन अपनी निहित विसंगतियों और अंतरविरोधों के चलते जल्दी ही बुझ
गई। लेकिन इससे इस सशस्त्र बगावत का महत्व कम नहीं होता है। कुछ लोग तित्तू
मियां के नेतृत्व से पहले हुए संन्यासी विद्रोह (1763 से लेकर 1820) को
स्वाधीनता संग्राम का पहला विद्रोह मानते हैं। यदि दोनों विद्रोहों के
उद्देश्य को लेकर बात करें, तो यह स्पष्ट होता है कि संन्यासी विद्रोह का
आधार अंग्रेजों द्वारा तीर्थयात्रा पर लगाया गया प्रतिबंध था। इन विद्रोही
संन्यासियों का नारा ओम वंदेमातरम था। यह सही है कि ब्रिटिश हुकूमत की शोषण
और दोहन की नीति के प्रति किसानों, मजदूरों, कुछ जमींदारों में असंतोष था।
बंगाल और बिहार के नागा और गिरि संन्यासियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ
बगावत का झंडा बुलंद इसलिए किया था क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत ने उनकी
तीर्थयात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया था। संन्यासियों ने इस प्रतिबंध के खिलाफ
आवाज बुलंद की और उनके साथ मुस्लिम फकीर, जमींदार और किसान आ मिले। और यह
विद्रोह किसी न किसी रूप में 1820 तक चलता रहा। संन्यासी विद्रोह अपने
शुरुआती दौर (1763 और उसके कुछ वर्षों तक) में जितना प्रबल था, बाद में
जैसे-जैसे समय बीतता गया कमजोर पड़ता गया। बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन
हेस्टिंग्स ने 1820 में संन्यासी विद्रोह का पूरी तरह दमन कर दिया।
प्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1882 में आनंदमठ की रचना की।
आनंदमठ का मूल आधार यही संन्यासी विद्रोह है। इन संन्यासियों का उद्देश्य
उतना व्यापक नहीं था जितना तित्तू मीर के विद्रोह का था। तित्तू मियां और
उनके पांच हजार किसान साथी पूरे बंगाल में शोषण और दमन का खात्मा करने के
लिए उठ खड़े हुए थे। वे पूरी ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने को प्रतिबद्ध
थे।
(शेष फुरसत मिलने पर……….)
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Saturday, August 8, 2020
बस यों ही बैठे ठाले-1
Tuesday, March 10, 2015
भाजपा कब तक ढोएगी पीडीपी को?
अशोक मिश्र
एक बहुत पुरानी कहावत है कि पूत के पांव पालने से ही दिखाई देने लगते हैं। यह कहावत अभी इसी महीने जम्मू-कश्मीर में गठित हुई भाजपा और पीडीपी की गठबंधन सरकार पर पूरी तरह चरितार्थ हो रही है। पीडीपी के मुखिया मुफ्ती मोहम्मद सईद ने मुख्यमंत्री बनने के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में ही भाजपा के लिए संकट खड़ा कर दिया। अब गठबंधन धर्म के नाते संसद में भाजपा सवालों के घेरे में खड़ी है। इतना ही नहीं, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद जहां राज्य में सही ढंग से हुए चुनाव में पाकिस्तान और अलगाववादियों की भूमिका को सही ठहराते हुए अपनी बात पर अड़े हुए हैं, वहीं उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती मीडिया पर दोष मढ़ रही हैं कि मीडिया ने उनकी बात को सही तरीके से समझा नहीं। बात इतनी ही होती, तो शायद भाजपा-पीडीपी गठबंधन सरकार के रिश्तों को लेकर आशंका नहीं पैदा होती। इस विवादित बयान के दूसरे ही दिन पीडीपी विधायकों ने अफजल गुरु के शव के अवशेष मांगकर भाजपा के सामने एक और नई मुसीबत खड़ी कर दी। यह एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिस पर मोदी सरकार ही नहीं, पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह की सरकार भी फूंक-फूंक कर कदम रख रही थी।
दरअसल, पीडीपी से गठबंधन करके भाजपा ने एक जुआ खेला है। इस बात को भाजपा भी समझती है कि यदि जरा सी चूक हुई, तो यह दांव उलटा पड़ सकता है। जम्मू-कश्मीर में खोने के लिए पीडीपी के पास भले ही कुछ न हो, लेकिन भाजपा के पास बहुत कुछ है। यह सही है कि भाजपा का कश्मीरघाटी में जनाधार नहीं है। यदि यह सरकार छह साल चल भी गई, तो भी उसका जनाधार कश्मीर में बनने वाला नहीं है। वहां का माहौल ही भाजपा और भारतीय सेना के विरोध में हैं। केंद्र में इतने वर्षों तक शासन करने के बावजूद कांग्रेस वहां अपना जनाधार नहीं बना पाई, तो भाजपा के प्रति वहां पहले से ही दुराग्रह का भाव है। हां, यदि निकट भविष्य में भाजपा और पीडीपी सरकार का पतन होता है, तो भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि के साथ-साथ कुछ प्रतिशत जनाधार से भी हाथ धोना पड़ेगा। इस बात से सभी वाकिफ हैं कि पीडीपी और भाजपा दोनों विपरीत ध्रुव वाली पार्टियां हैं। इन दोनों का आपसी तालमेल कायम रखना, तेल और पानी को मिलाने की कोशिश करने जैसा है। ठीक वैसे ही जैसे जम्मू और कश्मीर में रहने वाले लोगों की मानसिकता में जमीन आसमान का अंतर है, ठीक वैसा ही अंतर इन दोनों पार्टियों की विचारधारा में है। फिर भी यदि दोनों पार्टियों के मुखिया यह गठबंधन की सरकार बनाए रखना चाहते हैं, तो सबसे पहले दोनों को विवादास्पद बयान देने से बचना होगा। यह जिम्मेदारी मुख्यमंत्री होने के नाते सईद की सबसे ज्यादा है। उन्हें भारतीय जनमानस की मानसिकता को समझना होगा। उन्हें ऐसे हालात पैदा करने से बचना होगा, जो भाजपा को असहज कर दें। पीडीपी से गठबंधन करने के बाद से ही भाजपा के उन समर्थकों को लग रहा है कि जम्मू-कश्मीर से धारा ३७० को हटते हुए देखना चाहते हैं। ऐसे लोगों को लग सकता है कि भाजपा ने सत्ता की लालच में पीडीपी को ज्यादा ही छूट दी है और ये लोग उससे दूर जा सकते हैं। भाजपा के साथ-साथ पीडीपी को यह भी तय करना होगा कि राज्य सरकार और सेना का संबंध कैसा रहे। पीडीपी और अलगाववादी नेता काफी दिनों से अफ्सा जैसे कानून को हटाने की मांग करते आ रहे हैं। अफ्सा जैसे कानून की मदद से ही सेना अलगाववादी ताकतों और पाक समर्थित-पोषित आतंकवादियों पर काबू पाने में सफल हो पाती है। वैसे, तो नेशनल कान्फ्रेंस भी अफ्सा को हटाने की बात करती रही है, लेकिन जब तक उनकी सरकार रही, वह ऐसे मुद्दे पर खामोश रही। अब जब उनके हाथ से सत्ता जा चुकी है, तो वह भी पीडीपी के सुर में सुर मिला रही है। मुख्यमंत्री सईद को सेना के साथ सहयोगात्मक रवैया अपनाना होगा। यदि ऐसा नहीं होता है, तो भाजपा को मजबूरन गठबंधन तोडऩा पड़ सकता है। इसके साथ ही कई ऐसे क्षेत्रीय मुद्दे हैं जिन पर भाजपा और पीडीपी में टकराव संभव है। पीडीपी अपने जन्मकाल से ही जम्मू को हिंदुओं का और कश्मीर को मुसलमानों का मानती आई है। उसके नेता कश्मीरी पंडितों के पलायन को उचित ठहराने की कोशिश करते रहे हैं।
इन दोनों हिस्सों में रहने वालों के बीच प्रतिद्वंद्विता का भाव भी काफी गहरा है। गठबंधन सरकार की यह पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि वे ऐसी भावना को कतई हवा न दें। यदि ऐसा होता है, तो यह न केवल राज्य बल्कि पूरे देश का माहौल बिगाड़ सकता है। मुख्यमंत्री को दोनों समुदायों हिंदू और मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा करनी होगी। अगर आपसी समझदारी और सामंजस्य से चलाया गया तो यह राज्य के क्षेत्रीय और धार्मिक विभाजन को पाटने में ऐतिहासिक साबित हो सकता है।
एक बहुत पुरानी कहावत है कि पूत के पांव पालने से ही दिखाई देने लगते हैं। यह कहावत अभी इसी महीने जम्मू-कश्मीर में गठित हुई भाजपा और पीडीपी की गठबंधन सरकार पर पूरी तरह चरितार्थ हो रही है। पीडीपी के मुखिया मुफ्ती मोहम्मद सईद ने मुख्यमंत्री बनने के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में ही भाजपा के लिए संकट खड़ा कर दिया। अब गठबंधन धर्म के नाते संसद में भाजपा सवालों के घेरे में खड़ी है। इतना ही नहीं, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद जहां राज्य में सही ढंग से हुए चुनाव में पाकिस्तान और अलगाववादियों की भूमिका को सही ठहराते हुए अपनी बात पर अड़े हुए हैं, वहीं उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती मीडिया पर दोष मढ़ रही हैं कि मीडिया ने उनकी बात को सही तरीके से समझा नहीं। बात इतनी ही होती, तो शायद भाजपा-पीडीपी गठबंधन सरकार के रिश्तों को लेकर आशंका नहीं पैदा होती। इस विवादित बयान के दूसरे ही दिन पीडीपी विधायकों ने अफजल गुरु के शव के अवशेष मांगकर भाजपा के सामने एक और नई मुसीबत खड़ी कर दी। यह एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिस पर मोदी सरकार ही नहीं, पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह की सरकार भी फूंक-फूंक कर कदम रख रही थी।
दरअसल, पीडीपी से गठबंधन करके भाजपा ने एक जुआ खेला है। इस बात को भाजपा भी समझती है कि यदि जरा सी चूक हुई, तो यह दांव उलटा पड़ सकता है। जम्मू-कश्मीर में खोने के लिए पीडीपी के पास भले ही कुछ न हो, लेकिन भाजपा के पास बहुत कुछ है। यह सही है कि भाजपा का कश्मीरघाटी में जनाधार नहीं है। यदि यह सरकार छह साल चल भी गई, तो भी उसका जनाधार कश्मीर में बनने वाला नहीं है। वहां का माहौल ही भाजपा और भारतीय सेना के विरोध में हैं। केंद्र में इतने वर्षों तक शासन करने के बावजूद कांग्रेस वहां अपना जनाधार नहीं बना पाई, तो भाजपा के प्रति वहां पहले से ही दुराग्रह का भाव है। हां, यदि निकट भविष्य में भाजपा और पीडीपी सरकार का पतन होता है, तो भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि के साथ-साथ कुछ प्रतिशत जनाधार से भी हाथ धोना पड़ेगा। इस बात से सभी वाकिफ हैं कि पीडीपी और भाजपा दोनों विपरीत ध्रुव वाली पार्टियां हैं। इन दोनों का आपसी तालमेल कायम रखना, तेल और पानी को मिलाने की कोशिश करने जैसा है। ठीक वैसे ही जैसे जम्मू और कश्मीर में रहने वाले लोगों की मानसिकता में जमीन आसमान का अंतर है, ठीक वैसा ही अंतर इन दोनों पार्टियों की विचारधारा में है। फिर भी यदि दोनों पार्टियों के मुखिया यह गठबंधन की सरकार बनाए रखना चाहते हैं, तो सबसे पहले दोनों को विवादास्पद बयान देने से बचना होगा। यह जिम्मेदारी मुख्यमंत्री होने के नाते सईद की सबसे ज्यादा है। उन्हें भारतीय जनमानस की मानसिकता को समझना होगा। उन्हें ऐसे हालात पैदा करने से बचना होगा, जो भाजपा को असहज कर दें। पीडीपी से गठबंधन करने के बाद से ही भाजपा के उन समर्थकों को लग रहा है कि जम्मू-कश्मीर से धारा ३७० को हटते हुए देखना चाहते हैं। ऐसे लोगों को लग सकता है कि भाजपा ने सत्ता की लालच में पीडीपी को ज्यादा ही छूट दी है और ये लोग उससे दूर जा सकते हैं। भाजपा के साथ-साथ पीडीपी को यह भी तय करना होगा कि राज्य सरकार और सेना का संबंध कैसा रहे। पीडीपी और अलगाववादी नेता काफी दिनों से अफ्सा जैसे कानून को हटाने की मांग करते आ रहे हैं। अफ्सा जैसे कानून की मदद से ही सेना अलगाववादी ताकतों और पाक समर्थित-पोषित आतंकवादियों पर काबू पाने में सफल हो पाती है। वैसे, तो नेशनल कान्फ्रेंस भी अफ्सा को हटाने की बात करती रही है, लेकिन जब तक उनकी सरकार रही, वह ऐसे मुद्दे पर खामोश रही। अब जब उनके हाथ से सत्ता जा चुकी है, तो वह भी पीडीपी के सुर में सुर मिला रही है। मुख्यमंत्री सईद को सेना के साथ सहयोगात्मक रवैया अपनाना होगा। यदि ऐसा नहीं होता है, तो भाजपा को मजबूरन गठबंधन तोडऩा पड़ सकता है। इसके साथ ही कई ऐसे क्षेत्रीय मुद्दे हैं जिन पर भाजपा और पीडीपी में टकराव संभव है। पीडीपी अपने जन्मकाल से ही जम्मू को हिंदुओं का और कश्मीर को मुसलमानों का मानती आई है। उसके नेता कश्मीरी पंडितों के पलायन को उचित ठहराने की कोशिश करते रहे हैं।
इन दोनों हिस्सों में रहने वालों के बीच प्रतिद्वंद्विता का भाव भी काफी गहरा है। गठबंधन सरकार की यह पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि वे ऐसी भावना को कतई हवा न दें। यदि ऐसा होता है, तो यह न केवल राज्य बल्कि पूरे देश का माहौल बिगाड़ सकता है। मुख्यमंत्री को दोनों समुदायों हिंदू और मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा करनी होगी। अगर आपसी समझदारी और सामंजस्य से चलाया गया तो यह राज्य के क्षेत्रीय और धार्मिक विभाजन को पाटने में ऐतिहासिक साबित हो सकता है।
Sunday, February 22, 2015
मोदी के खिलाफ गरजेंगे अन्ना
आंदोलनों से तपे-तपाये नेताओं की फौज है अन्ना के साथ
अशोक मिश्र
दिल्ली एक बार फिर दो दिन के लिए अन्नामय होने जा रही है। लगभग दो साल बाद फिर से प्रसिद्ध गांधीवादी नेता अन्ना हजारे दिल्ली में हुंकार भरेंगे। पिछली बार दिल्ली में जब अन्ना हजारे अनशन-आंदोलन कर रहे थे, तब निशाने पर थे तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार। तब भाजपा और योग गुरु रामदेव जैसे लोग प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अन्ना के बगलगीर थे। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और भाजपा की मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार होते हुए दिल्ली चुनाव में हार चुकी किरन बेदी अन्ना के दायें-बायें हाथ की भूमिका में थे। अनशन और आंदोलन का सारा दारोमदार इन्हीं लोगों पर था। लेकिन अब जब अन्ना एक बार फिर केंद्र सरकार द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश और कालेधन की वापसी, लोकपाल बिल जैसे मुद्दे पर गर्जना करने जा रहे हैं, तो सारे समीकरण बदल चुके हैं। किरण बेदी उस पार्टी की नेता हो चुकी हैं जिनके खिलाफ अन्ना बिगुल फूंकने जा रहे हैं। कभी राजनीतिक दलों को चोर और भ्रष्ट बताने वाले अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी बनाकर दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो चुके हैं। वीके सिंह, संतोष भारतीय, कुमार विश्वास जैसे लोग या तो इस खेमे में हैं या उस खेमे में, लेकिन अन्ना हजारे के साथ कोई नहीं है।
अभी अन्ना हजारे हरियाणा में गरज रहे हैं। दो दिन बाद वे दिल्ली में होंगे। लेकिन उनके हुंकार में कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे दिल्ली में हैं या किसी दूसरे राज्य में। उनकी ²ष्टि और समझ एकदम साफ है। हरियाणा के पलवल में भूमि अधिकार चेतावनी सत्याग्रह पदयात्रा को रवाना करते हुए उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला बोल रहे हैं, उन्हें चुनौती देते हुए कह रहे हैं कि मोदी गरीबों और किसानों के बारे में नहीं, सिर्फ उद्योगपतियों के बारे में सोचते हैं। जब केंद्र की सरकार बनी तो कहा गया कि अच्छे दिन आ गए, लेकिन हकीकत में अच्छे दिन पैसे वालों के लिए आए हैं। गरीबों के लिए नहीं। सरकार किसानों की जमीन को उद्योगपतियों को देने की योजना बना रही है। मतलब साफ है कि इस बार भी अन्ना हजारे को छोटे-मोटे आश्वासन देकर बहलाया नहीं जा सकेगा। उनकी जितनी भी और जैसी भी ताकत है, वे भाजपा सरकार को कठघरे में खड़ा करने की हर संभव कोशिश करेंगे। इस बार भी उनके साथ एनजीओज के ही लोग खड़े हैं। ये चेहरे नए नहीं हैं। हां, इससे पहले हुए अनशन-आंदोलन के समय ये लोग अग्रपंक्ति में इसलिए नहीं थे क्योंकि अन्ना टीम की अग्रपंक्ति में खड़े अरविंद केजरीवाल, किरन बेदी, वीके सिंह जैसे लोगों ने इन्हें आगे आने नहीं दिया था। इस बार भी उनके पुराने साथी आगे बढ़कर झंडा थामने की कोशिश में थे, लेकिन अन्ना साफ कह चुके हैं कि ऐसे लोगों को मंच पर स्थान नहीं दिया जाएगा। भीड़ में शामिल होना चाहते हैं ये लोग, तो उनका स्वागत है।
इस बार अन्ना हजारे के साथ जो टीम है, वह आंदोलनों की शृंखला में तपे-तपाए लोगों की है। इन्होंने आंदोलन के लिए एनजीओज खड़े किए हैं, एनजीओज के लिए आंदोलन नहीं किया है। विचारों और सिद्धांतों के लिए भाजपा से बगावत करने वाले केएन गोविंदाचार्य तो अन्ना के साथ हैं ही, सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली सलाहकार परिषद में रही अरुणा राय, मोदी की नीतियों की मुखरता से आलोचना करने वाले जलपुरुष के नाम से विख्यात राजेंद्र सिंह, राष्ट्रीय परिषद के संयोजक पीवी राजगोपाल, नर्मदा बचाओ आंदोलन के दौरान गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री (अब प्रधानमंत्री) नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक बड़ी लंबी लड़ाई लडऩे वाली मेधा पाटकर जैसे लोग अन्ना के साथ हुंकार भरने को तैयार हैं। पिछली टीम की अपेक्षा वर्तमान टीम ज्यादा ही परिपक्व और विचारवान नजर आती है। महाराष्ट्र के रालेगण सिद्धि के संत की उपमा से नवाजे गए गांधीवादी अन्ना हजारे का बहरहाल दिल्ली में दो ही दिन धरने का कार्यक्रम है, लेकिन एकता परिषद की ओर शुरू की गई भूमि अधिकार सत्याग्रह पदयात्रा में अन्ना हजारे ने जो संकेत दिया है, उसके मुताबिक यह आंदोलन लंबा भी खिंच सकता है। अन्ना हजारे के साथ पहले की तरह इस बार भी एकता परिषद से जुड़े वे हजारों आदिवासी और खेतिहर मजदूर भी सक्रिय रूप से खड़े नजर आ रहे हैं, जो पिछले कई दशकों से पीवी राजगोपाल के नेतृत्व में जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस बार अन्ना के साथ जोशीले युवाओं की फौज भले ही न हो, लेकिन समर्पित कार्यकर्ताओं, अपने लक्ष्य के प्रति अडिग आदिवासियों, गरीबों, खेतिहर मजदूरों और किसानों की फौज जरूर होगी।
भारतीय बाजार चाहता है जमीनी सुधार
अशोक मिश्र
अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं नरेंद्र मोदी को सत्ता पर काबिज हुए। नौ-दस महीने किसी भी नई सरकार के लिए बहुत नहीं होते हैं, लेकिन इतने भी कम नहीं होते हैं कि उसके भावी कामकाज का आकलन न किया जा सके। २६ मई को बड़ी आन, बान और शान के साथ दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की बागडोर संभालने वाले नरेंद्र मोदी की छवि उस समय एकदम मसीहाई थी। देश के युवा, वृद्ध और बच्चों में एक जोश था, जुनून था, उनके करिश्माई व्यक्तित्व को लेकर, उनकी नीतियों को लेकर, उनके द्वारा दिखाए गए सपनों को लेकर। उन्होंने चुनाव से पूर्व देश के मतदाताओं को यह सपना देखने को मजबूर कर दिया था कि कांग्रेस की पिछले दस साल से मजबूरी में ढोयी जार रही भ्रष्ट सरकार से मुक्ति पाकर एक प्रगतिशील भारत के निर्माण का वक्त आ गया है। देश की जनता ने उन पर और उनके द्वारा दिखाए गए सपनों पर ऐतबार किया। उन्हें प्रचंड बहुमत से जिताकर देश का प्रधानमंत्री बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। अब वही युवा, वृद्ध और बच्चे अपने सपनों को पूरा होते देखना चाहते हैं। जिस बाजार ने उन्हें रातोंरात सिर माथे पर बिठाया, वह चाहता है कि बाजार के सामने पेश होने वाली कठिनाइयां दूर हों, पूंजी निवेश का मार्ग प्रशस्त हो। नौ महीने बीतने के बाद भी जब स्थितियों में कोई बदलाव नहीं दिखाई दे रहा है, तो वही बाजार, वही मतदाता अब बेजार होने लगा है।
ऐसा भी नहीं है कि कारोबारी मोदी सरकार से पूरी तरह निराश हैं, लेकिन कुछ होता हुआ नहीं दिखने से उनमें बेचैनी होनी स्वाभाविक भी है। जमीनी स्तर पर बदलाव की आहट तो सुनाई दे। एडीएफसी बैंक से प्रमुख दीपक पारेख की इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मोदी सरकार ने जब देश की सत्ता संभाली थी, तो उनके सामने उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह के समान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां विषम नहीं थीं। मोदी के लिए सबसे अच्छी और अनुकूल बात यह थी कि अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल बाजार में तेल की कीमतें कम होनी शुरू हो गई थीं। हालांकि यह भी सही है कि जिस अनुपात में विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमतें कम हो रही थीं या हुईं, उसके मुकाबले भारतीय उपभोक्ताओं को छूट नहीं दी गई, लेकिन फिर भी इसका लाभ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा ने महाराष्ट्र, हरियाणा जैसे राज्यों में होने वाले चुनावों के दौरान यह कहकर उठाया कि मोदी के आते ही तेल की कीमतें कम हो गई हैं, महंगाई घटी है। आंकड़ों की भी बाजीगरी दिखाई गई। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह जुमला काफी चर्चा में रहा कि दिल्ली की जनता को अब नसीबवाला चुनना है कि बदनसीब वाला, यह उसे तय करना है।
बैंकिंग क्षेत्र की प्रमुख शख्सियत माने जाने वाले दीपक पारेख कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी को कच्चे तेल कीमतों में गिरावट से नौ भाग्यशाली महीने मिले, लेकिन फिर भी जमीनी तौर पर कोई बदलाव नहीं आया। कारोबार करने में सहूलियत के मामले में भी कोई सुधार नहीं दिखा। कारोबार को सुगम बनाने के मोर्चे पर अभी बहुत कम सुधार देखने को मिला है। 'मेक इन इंडियाÓ अभियान तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक कि लोगों के लिए कारोबार करना सुगम नहीं किया जाता और त्वरित फैसले नहीं किए जाते हैं। अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट पर उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी ही सवाल उठाने लगे हैं। एयरो इंडिया २०१५ के उद्घाटन के मौके पर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट में स्पष्टता का अभाव बताकर अपने ही प्रधानमंत्री को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का कहना है कि रक्षा उपकरणों की खरीदारी की प्रक्रिया के दस्तावेज को सही से तैयार नहीं किया गया है और इसमें बहुत ही कन्फ्यूजन है। इन कमियों को दूर करने के लिए हम मेक इन इंडिया पर एक अलग पॉलिसी बना रहे हैं क्योंकि हर चीज को सिर्फ एक ही प्रोग्राम में ठूंसा नहीं जा सकता है। रक्षा मंत्री की बात का अगर हम कोई दूसरा अर्थ न भी निकालें, तो भी, यह स्पष्ट है कि जिस तरह मेक इन इंडिया के नाम पर बाजार को हांकने का उपक्रम किया जा रहा है, उसको लेकर सवाल उठने लगे हैं। अब तो नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान और गांवों को इंटरनेट से जोडऩे की योजना के लक्ष्य प्राप्ति को लेकर सवालिया निशान उठने लगे हैं। जिस गति से ग्राम पंचायतों को इंटरनेट से जोडऩे और गांवों में टॉयलेट बनाने की योजना पर काम हो रहा है, उस गति से तो इस फाइनेंसियल इयर की बात कौन कहे, अगले पांच साल में भी लक्ष्य पूरा होने वाला नहीं है। सरकार ने वर्ष २०१४-१५ में ५० हजार गांवों को नेशनल आप्टिक फाइबर नेटवर्क से जोडऩे का लक्ष्य तय किया था, लेकिन जनवरी माह तक सिर्फ १२ फीसदी गांव ही इससे जोड़े जा सके हैं। यही हाल स्वच्छ भारत अभियान का है। इस फाइनेंसियल इयर में १.२ करोड़ लोगों के घरों में शौचालय के निर्माण का लक्ष्य हासिल कर पाना मुश्किल लग रहा है।
अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं नरेंद्र मोदी को सत्ता पर काबिज हुए। नौ-दस महीने किसी भी नई सरकार के लिए बहुत नहीं होते हैं, लेकिन इतने भी कम नहीं होते हैं कि उसके भावी कामकाज का आकलन न किया जा सके। २६ मई को बड़ी आन, बान और शान के साथ दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की बागडोर संभालने वाले नरेंद्र मोदी की छवि उस समय एकदम मसीहाई थी। देश के युवा, वृद्ध और बच्चों में एक जोश था, जुनून था, उनके करिश्माई व्यक्तित्व को लेकर, उनकी नीतियों को लेकर, उनके द्वारा दिखाए गए सपनों को लेकर। उन्होंने चुनाव से पूर्व देश के मतदाताओं को यह सपना देखने को मजबूर कर दिया था कि कांग्रेस की पिछले दस साल से मजबूरी में ढोयी जार रही भ्रष्ट सरकार से मुक्ति पाकर एक प्रगतिशील भारत के निर्माण का वक्त आ गया है। देश की जनता ने उन पर और उनके द्वारा दिखाए गए सपनों पर ऐतबार किया। उन्हें प्रचंड बहुमत से जिताकर देश का प्रधानमंत्री बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। अब वही युवा, वृद्ध और बच्चे अपने सपनों को पूरा होते देखना चाहते हैं। जिस बाजार ने उन्हें रातोंरात सिर माथे पर बिठाया, वह चाहता है कि बाजार के सामने पेश होने वाली कठिनाइयां दूर हों, पूंजी निवेश का मार्ग प्रशस्त हो। नौ महीने बीतने के बाद भी जब स्थितियों में कोई बदलाव नहीं दिखाई दे रहा है, तो वही बाजार, वही मतदाता अब बेजार होने लगा है।
ऐसा भी नहीं है कि कारोबारी मोदी सरकार से पूरी तरह निराश हैं, लेकिन कुछ होता हुआ नहीं दिखने से उनमें बेचैनी होनी स्वाभाविक भी है। जमीनी स्तर पर बदलाव की आहट तो सुनाई दे। एडीएफसी बैंक से प्रमुख दीपक पारेख की इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मोदी सरकार ने जब देश की सत्ता संभाली थी, तो उनके सामने उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह के समान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां विषम नहीं थीं। मोदी के लिए सबसे अच्छी और अनुकूल बात यह थी कि अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल बाजार में तेल की कीमतें कम होनी शुरू हो गई थीं। हालांकि यह भी सही है कि जिस अनुपात में विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमतें कम हो रही थीं या हुईं, उसके मुकाबले भारतीय उपभोक्ताओं को छूट नहीं दी गई, लेकिन फिर भी इसका लाभ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा ने महाराष्ट्र, हरियाणा जैसे राज्यों में होने वाले चुनावों के दौरान यह कहकर उठाया कि मोदी के आते ही तेल की कीमतें कम हो गई हैं, महंगाई घटी है। आंकड़ों की भी बाजीगरी दिखाई गई। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह जुमला काफी चर्चा में रहा कि दिल्ली की जनता को अब नसीबवाला चुनना है कि बदनसीब वाला, यह उसे तय करना है।
बैंकिंग क्षेत्र की प्रमुख शख्सियत माने जाने वाले दीपक पारेख कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी को कच्चे तेल कीमतों में गिरावट से नौ भाग्यशाली महीने मिले, लेकिन फिर भी जमीनी तौर पर कोई बदलाव नहीं आया। कारोबार करने में सहूलियत के मामले में भी कोई सुधार नहीं दिखा। कारोबार को सुगम बनाने के मोर्चे पर अभी बहुत कम सुधार देखने को मिला है। 'मेक इन इंडियाÓ अभियान तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक कि लोगों के लिए कारोबार करना सुगम नहीं किया जाता और त्वरित फैसले नहीं किए जाते हैं। अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट पर उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी ही सवाल उठाने लगे हैं। एयरो इंडिया २०१५ के उद्घाटन के मौके पर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट में स्पष्टता का अभाव बताकर अपने ही प्रधानमंत्री को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का कहना है कि रक्षा उपकरणों की खरीदारी की प्रक्रिया के दस्तावेज को सही से तैयार नहीं किया गया है और इसमें बहुत ही कन्फ्यूजन है। इन कमियों को दूर करने के लिए हम मेक इन इंडिया पर एक अलग पॉलिसी बना रहे हैं क्योंकि हर चीज को सिर्फ एक ही प्रोग्राम में ठूंसा नहीं जा सकता है। रक्षा मंत्री की बात का अगर हम कोई दूसरा अर्थ न भी निकालें, तो भी, यह स्पष्ट है कि जिस तरह मेक इन इंडिया के नाम पर बाजार को हांकने का उपक्रम किया जा रहा है, उसको लेकर सवाल उठने लगे हैं। अब तो नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान और गांवों को इंटरनेट से जोडऩे की योजना के लक्ष्य प्राप्ति को लेकर सवालिया निशान उठने लगे हैं। जिस गति से ग्राम पंचायतों को इंटरनेट से जोडऩे और गांवों में टॉयलेट बनाने की योजना पर काम हो रहा है, उस गति से तो इस फाइनेंसियल इयर की बात कौन कहे, अगले पांच साल में भी लक्ष्य पूरा होने वाला नहीं है। सरकार ने वर्ष २०१४-१५ में ५० हजार गांवों को नेशनल आप्टिक फाइबर नेटवर्क से जोडऩे का लक्ष्य तय किया था, लेकिन जनवरी माह तक सिर्फ १२ फीसदी गांव ही इससे जोड़े जा सके हैं। यही हाल स्वच्छ भारत अभियान का है। इस फाइनेंसियल इयर में १.२ करोड़ लोगों के घरों में शौचालय के निर्माण का लक्ष्य हासिल कर पाना मुश्किल लग रहा है।
वित्तमंत्री के सामने चुनौतियां का पहाड़
अशोक मिश्र
आगामी २८ फरवरी को बजट पेश करने जा रहे वित्त मंत्री अरुण जेटली के सामने लोगों की अपेक्षाओं का बहुत बड़ा पहाड़ खड़ा हुआ है। नौकरी पेशा मध्यम वर्ग, निवेशक, उद्योगपतियों से लेकर इस देश के मजदूर, किसान तक की निगाहें अरुण जेटली के आम बजट पर टिकी हुई हैं। कहा तो यह जा रहा है कि वित्त मंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की इकोनॉमी रेट को ७-८ फीसदी के लक्ष्य तक पहुंचाने और उस स्तर को बनाए रखने की है। अगर वित्त मंत्री जेटली आर्थिक विकास की दर बरकरार रखने में सफल हो जाते हैं, तो यह उनकी बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। माना यह भी जा रहा है कि आगामी दो वर्षों के लिए डेफिसिट का टारगेट घरेलू आय का क्रमश: 3.6 फीसदी और 3.0 फीसदी रखेंगे। जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है, तब से प्रधानमंत्री देश-विदेश में पूंजी निवेशकों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि भारत में पूंजी निवेश के संबंध में आने वाली बाधाओं को दूर करने की भरपूर कोशिश की जा रही है। यहां पंूजी निवेश का अच्छा माहौल उनकी सरकार बना रही है। ऐसे में स्वाभाविक है कि इन निवेशकों को बजट में डीजल पर से मूल्य प्रतिबंध हटाने और सब्सिडी पर दिए जा रहे अन्य पेट्रोलियम पदार्थों पर सुधार की दिशा में कदम उठाए जाते रहेंगे। निवेशकों को यह भी उम्मीद है कि वे इस बार के बजट में खाद्य और उर्वरकों पर दी जा रही सब्सिडी पर होने वाले खर्च में कटौती को कोई कारगर कदम उठाएंगे। वित्त मंत्री अरुण जेटली से सबसे अधिक देश के मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों मसलन, सरकारी नौकरी पेशा, मजदूर, किसान और बेरोजगारों को है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) की जब से शुरुआत हुई है, तब से यह विवादों में है। कभी इसमें होने वाले भ्रष्टाचार की चर्चा होती है, तो कभी इससे ग्रामीणों को मिलने वाले लाभ की। मनरेगा दुनिया भर में आम जनता के हित में चलने वाली सबसे बड़ी योजना मानी जाती है। इस योजना से देश में करीब पांच करोड़ परिवारों को वर्ष में सौ दिन से अधिक रोजगार मिलता है। हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि यह योजना उन करदाताओं पर बोझ है जिनके खून पसीने की कमाई से उगाहे गए कर का उपयोग किया जाता है। यदि इस धनराशि का उपयोग अन्य उत्पादक कार्यों में किया जाता, तो शायद विकास की गति कुछ ज्यादा ही तेज होती। वित्त मंत्री से उम्मीद है कि वे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून में संतुलन स्थापित करने की कोशिश करेंगे।
दिसंबर में संसद में पेश एक रिपोर्ट में वित्त मंत्रालय ने कमजोर कार्पोरेट खर्च को गति देने के लिए भारी सरकारी निवेश का आहवान किया था। वित्त मंत्रालय का मानना है कि भारत को हर साल 7 फीसदी ग्रोथ के लिए करीब 50,000 अरब रुपये निवेश की जरूरत है। जेटली से उम्मीद है कि वह नई सड़कों, रेल लाइनों, बंदरगाहों और सिंचाई की सुविधा पर खर्च करने के लिए बजट में करीब 800 अरब रुपये का प्रावधान कर सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशी और विदेशी पूंजी निवेश को आकर्षित करने के लिए मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रम की शुरुआत की है। हालांकि इस क्रार्यक्रम की आलोचना भी सबसे ज्यादा हो रही है। कहा तो यह जा रहा है कि इस योजना के माध्यम से उन देशों को राहत पहुंचाने की कोशिश की जा रही है जिन देशों में श्रम बहुत महंगा है। भारत में श्रम सस्ता होने से विदेशी कंपनियां भारतीय श्रम का उपयोग तो करेंगी, लेकिन उससे होने वाले अतिरिक्त मूल्य यानी मुनाफा सिमटकर उन देशों में चला जाएगा, जिस देश की ये कंपनियां हैं। बहरहाल, इन पूंजी निवेशकों को इस बजट से यह उम्मीद तो है कि वर्ष २०१५-१६ के लिए वित्त मंत्री मेक इन इंडिया जैसे दूसरे कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए कई सेक्टरों को टैक्स में छूट का प्राविधान कर सकते हैं। उन्हें दूसरे किस्म की सुविधाएं भी प्रदान की जा सकती हैं। लोकसभा चुनाव से पहले ही भाजपा ने घोषणा की थी कि यदि उनकी सरकार बनी, तो पूरे देश में वस्तु एवं सेवा कर लागू किया जाएगा। वह मौका अब आ गया है। भारतीय उद्योगपतियों को यह उम्मीद है कि वित्तमंत्री एक अप्रैल से पूरे देश में एक समान वस्तु एवं सेवा कर लागू करके अपना वायदा पूरा करेंगे। हालांकि, इससे होने वाले राजस्व घाटे को कैसे पूरा करेंगे, इसका आश्वासन जब तक सरकार नहीं देती, तब तक यह अभी दूर की कौड़ी लग रही है। इन्वेस्टर्स जनरल ऐंटी एवायडेंस रूल्स (गार) और बैंकिंग रिफॉम्र्स जैसे मुद्दों पर अभी संशय के बादल छंटे नहीं हैं। इस संबंध में केंद्रीय वित्त मंत्री का रवैया क्या होगा, यह बजट पेश होने पर ही पता चलेगा।
आगामी २८ फरवरी को बजट पेश करने जा रहे वित्त मंत्री अरुण जेटली के सामने लोगों की अपेक्षाओं का बहुत बड़ा पहाड़ खड़ा हुआ है। नौकरी पेशा मध्यम वर्ग, निवेशक, उद्योगपतियों से लेकर इस देश के मजदूर, किसान तक की निगाहें अरुण जेटली के आम बजट पर टिकी हुई हैं। कहा तो यह जा रहा है कि वित्त मंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की इकोनॉमी रेट को ७-८ फीसदी के लक्ष्य तक पहुंचाने और उस स्तर को बनाए रखने की है। अगर वित्त मंत्री जेटली आर्थिक विकास की दर बरकरार रखने में सफल हो जाते हैं, तो यह उनकी बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। माना यह भी जा रहा है कि आगामी दो वर्षों के लिए डेफिसिट का टारगेट घरेलू आय का क्रमश: 3.6 फीसदी और 3.0 फीसदी रखेंगे। जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है, तब से प्रधानमंत्री देश-विदेश में पूंजी निवेशकों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि भारत में पूंजी निवेश के संबंध में आने वाली बाधाओं को दूर करने की भरपूर कोशिश की जा रही है। यहां पंूजी निवेश का अच्छा माहौल उनकी सरकार बना रही है। ऐसे में स्वाभाविक है कि इन निवेशकों को बजट में डीजल पर से मूल्य प्रतिबंध हटाने और सब्सिडी पर दिए जा रहे अन्य पेट्रोलियम पदार्थों पर सुधार की दिशा में कदम उठाए जाते रहेंगे। निवेशकों को यह भी उम्मीद है कि वे इस बार के बजट में खाद्य और उर्वरकों पर दी जा रही सब्सिडी पर होने वाले खर्च में कटौती को कोई कारगर कदम उठाएंगे। वित्त मंत्री अरुण जेटली से सबसे अधिक देश के मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों मसलन, सरकारी नौकरी पेशा, मजदूर, किसान और बेरोजगारों को है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) की जब से शुरुआत हुई है, तब से यह विवादों में है। कभी इसमें होने वाले भ्रष्टाचार की चर्चा होती है, तो कभी इससे ग्रामीणों को मिलने वाले लाभ की। मनरेगा दुनिया भर में आम जनता के हित में चलने वाली सबसे बड़ी योजना मानी जाती है। इस योजना से देश में करीब पांच करोड़ परिवारों को वर्ष में सौ दिन से अधिक रोजगार मिलता है। हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि यह योजना उन करदाताओं पर बोझ है जिनके खून पसीने की कमाई से उगाहे गए कर का उपयोग किया जाता है। यदि इस धनराशि का उपयोग अन्य उत्पादक कार्यों में किया जाता, तो शायद विकास की गति कुछ ज्यादा ही तेज होती। वित्त मंत्री से उम्मीद है कि वे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून में संतुलन स्थापित करने की कोशिश करेंगे।
दिसंबर में संसद में पेश एक रिपोर्ट में वित्त मंत्रालय ने कमजोर कार्पोरेट खर्च को गति देने के लिए भारी सरकारी निवेश का आहवान किया था। वित्त मंत्रालय का मानना है कि भारत को हर साल 7 फीसदी ग्रोथ के लिए करीब 50,000 अरब रुपये निवेश की जरूरत है। जेटली से उम्मीद है कि वह नई सड़कों, रेल लाइनों, बंदरगाहों और सिंचाई की सुविधा पर खर्च करने के लिए बजट में करीब 800 अरब रुपये का प्रावधान कर सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशी और विदेशी पूंजी निवेश को आकर्षित करने के लिए मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रम की शुरुआत की है। हालांकि इस क्रार्यक्रम की आलोचना भी सबसे ज्यादा हो रही है। कहा तो यह जा रहा है कि इस योजना के माध्यम से उन देशों को राहत पहुंचाने की कोशिश की जा रही है जिन देशों में श्रम बहुत महंगा है। भारत में श्रम सस्ता होने से विदेशी कंपनियां भारतीय श्रम का उपयोग तो करेंगी, लेकिन उससे होने वाले अतिरिक्त मूल्य यानी मुनाफा सिमटकर उन देशों में चला जाएगा, जिस देश की ये कंपनियां हैं। बहरहाल, इन पूंजी निवेशकों को इस बजट से यह उम्मीद तो है कि वर्ष २०१५-१६ के लिए वित्त मंत्री मेक इन इंडिया जैसे दूसरे कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए कई सेक्टरों को टैक्स में छूट का प्राविधान कर सकते हैं। उन्हें दूसरे किस्म की सुविधाएं भी प्रदान की जा सकती हैं। लोकसभा चुनाव से पहले ही भाजपा ने घोषणा की थी कि यदि उनकी सरकार बनी, तो पूरे देश में वस्तु एवं सेवा कर लागू किया जाएगा। वह मौका अब आ गया है। भारतीय उद्योगपतियों को यह उम्मीद है कि वित्तमंत्री एक अप्रैल से पूरे देश में एक समान वस्तु एवं सेवा कर लागू करके अपना वायदा पूरा करेंगे। हालांकि, इससे होने वाले राजस्व घाटे को कैसे पूरा करेंगे, इसका आश्वासन जब तक सरकार नहीं देती, तब तक यह अभी दूर की कौड़ी लग रही है। इन्वेस्टर्स जनरल ऐंटी एवायडेंस रूल्स (गार) और बैंकिंग रिफॉम्र्स जैसे मुद्दों पर अभी संशय के बादल छंटे नहीं हैं। इस संबंध में केंद्रीय वित्त मंत्री का रवैया क्या होगा, यह बजट पेश होने पर ही पता चलेगा।
Thursday, February 12, 2015
हिंदू राष्ट्र है भारत?
अशोक मिश्र
भारत एक हिंदू राष्ट्र है? भारतीय संविधान की मूल आत्मा से धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द मेल नहीं खाते हैं? आपातकाल के दौरान संविधान की उद्देश्यिका में जोड़े गए इन दोनों शब्दों का कोई औचित्य नहीं है? भारत की जनता अब धर्मनिरेपक्षता से ऊब गई है और भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है? ऐसे कई सवाल हैं, जो किए जा सकते हैं। इस वर्ष जब गणतंत्र दिवस के मौके पर केंद्र सरकार ने जो विज्ञापन जारी किया, उसमें से धर्म निरपेक्षता और समाजवाद शब्द गायब था। यह एक मानवीय चूक थी या जान-बूझकर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में उठाया गया एक सोचा-समझा कदम था।
राजनीतिक हलके में एक संभावना यह भी व्यक्त की जा रही है कि भाजपा सरकार ने एक योजना के तहत इस बार गणतंत्र दिवस के दौरान सरकारी विज्ञापन से इन दोनों शब्दों को हटाया था। दरअसल, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इन शब्दों को हटाकर आम जनमानस की प्रतिक्रिया से वाकिफ होना चाहते थे। राजनीतिक हलकों में जब इन शब्दों को हटाने को लेकर तीव्र प्रतिक्रिया हुई, तो केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली को यह आश्वासन देना पड़ा कि केंद्र सरकार भविष्य में इन बातों को ध्यान में रखेगी। हालांकि केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद यह कहने से नहीं चूके कि सन १९५० में जो संविधान भारत में लागू किया गया था, उसमें ये दोनों शब्द नहीं थे। इन्हें आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार ने ये शब्द संविधान की उद्देश्यिका में शामिल किए थे। आपात काल के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उसने भी इन शब्दों को बदलने की जरूरत नहीं समझी क्योंकि वह जानती थी कि भले ही ये शब्द संविधान की मूल उद्देश्यिका में नहीं रहे हों, लेकिन संविधान की मूल प्रवृत्ति धर्म निरपेक्ष और समाजवादी ही रही है। नेहरू के नेतृत्व में बनने वाली पहली सरकार का झुकाव भी समाजवादी व्यवस्थाओं की ओर ही था। यही वजह थी कि संविधान की अवधारणाएं समाजवादी और धर्म निरपेक्षतावादी होते हुए भी उनमें इन शब्दों को जोडऩे की जरूरत नहीं समझी गई। लोगों को याद होगा कि जनता पार्टी की सरकार के अवसान के बाद जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में १९८० में सरकार बनी, तो भाजपा ने भी अपने राजनीतिक एजेंडे में गांधीवादी समाजवादी विचारधारा को शामिल किया था। यह उसकी राजनीतिक मजबूरी थी क्योंकि देश की बहुसंख्यक आबादी का धर्म निरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों से मोहभंग नहीं हुआ है।
इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि जब १९९८ में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी थी, तब भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने संविधान में आमूलचूल परिवर्तन करने की बात कही थी, तब भी ठीक वैसी ही प्रतिक्रिया हुई थी, जैसी आज इन दोनों शब्दों को सरकारी विज्ञापन से हटा देने पर हुई है। यह भाजपा और आरएसएस द्वारा अपने हिंदूवादी एजेंडे को लागू करने का ट्रायल केस हो सकता है। जब से केंद्र में मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार का गठन हुआ है, उससे कुछ महीने पहले से ही आरएसएस के प्रमुख नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया था कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है। आरएसएस प्रमुख मोहन मधुकर भागवत तो कई अवसरों पर यह कह चुके हैं कि भारत में जन्म लेने वाला प्रत्येक नागरिक हिंदू है, भले ही वह मुस्लिम परिवार में जन्मा हो, ईसाई हो या सिख हो। गोवा के मंत्री और उपमुख्यमंत्री भी इसी बात को दोहरा चुके हैं। केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला ने भी मोहन भागवत की ही बात दोहराई और बाद में जब इसकी मुसलमानों में तीखी प्रतिक्रिया हुई, तो वे अपनी बात से भी मुकर गई थीं। भाजपा और संघ पिछले कुछ महीनों से बार-बार जिस तरह हिंदू राष्ट्र का मुद्दा उठा रहा है, उससे यह समझा जा सकता है कि मोदी सरकार की मंशा क्या है? वह बहुत ही सधे कदमों से हिंदू एजेंडा देश में लागू करने की फिराक मे ंहै, बस उसे मौका मिले। इस एजेंडे को शिवसेना जैसे संगठन का समर्थन हासिल है। शिवसेना के सांसद संजय राउत का तो यहां तक कहना था कि यदि विज्ञापन से धर्म निरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्द गलती से हट गए हैं, तो इन्हें स्थायी रूप से हटा देनी चाहिए। महाराष्ट्र में रहने वाले दूसरे राज्यों के निवासियों के खिलाफ कई बार मोर्चा खोलने वाली शिवसेना और मनसे नेता बार-बार हिंदू राष्ट्र की बात करते रहे हैं। शिवसेना के संस्थापक बालासाहब ठाकरे भी हिंदू राष्ट्र की बात करते रहे हैं। लेकिन अपने को हिंदू राष्ट्र का ध्वजवाहक बताने वाले भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, शिवसेना और महाराष्ट्र निर्माण सेना जैसे संगठनों को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि हिंदुस्तान की जनता का मोह अभी तक इस विचारधारा से भंग नहीं हुआ है, भले ही इस देश में वामपंथियों का पराभव हो गया हो। आम आदमी की मानसिकता इतनी जल्दी नहीं बदला करती है। हालांकि यह भी सही है कि इस देश में न तो सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्षता कभी रही है और न ही समाजवाद।
भारत एक हिंदू राष्ट्र है? भारतीय संविधान की मूल आत्मा से धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द मेल नहीं खाते हैं? आपातकाल के दौरान संविधान की उद्देश्यिका में जोड़े गए इन दोनों शब्दों का कोई औचित्य नहीं है? भारत की जनता अब धर्मनिरेपक्षता से ऊब गई है और भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है? ऐसे कई सवाल हैं, जो किए जा सकते हैं। इस वर्ष जब गणतंत्र दिवस के मौके पर केंद्र सरकार ने जो विज्ञापन जारी किया, उसमें से धर्म निरपेक्षता और समाजवाद शब्द गायब था। यह एक मानवीय चूक थी या जान-बूझकर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में उठाया गया एक सोचा-समझा कदम था।
राजनीतिक हलके में एक संभावना यह भी व्यक्त की जा रही है कि भाजपा सरकार ने एक योजना के तहत इस बार गणतंत्र दिवस के दौरान सरकारी विज्ञापन से इन दोनों शब्दों को हटाया था। दरअसल, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इन शब्दों को हटाकर आम जनमानस की प्रतिक्रिया से वाकिफ होना चाहते थे। राजनीतिक हलकों में जब इन शब्दों को हटाने को लेकर तीव्र प्रतिक्रिया हुई, तो केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली को यह आश्वासन देना पड़ा कि केंद्र सरकार भविष्य में इन बातों को ध्यान में रखेगी। हालांकि केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद यह कहने से नहीं चूके कि सन १९५० में जो संविधान भारत में लागू किया गया था, उसमें ये दोनों शब्द नहीं थे। इन्हें आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार ने ये शब्द संविधान की उद्देश्यिका में शामिल किए थे। आपात काल के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उसने भी इन शब्दों को बदलने की जरूरत नहीं समझी क्योंकि वह जानती थी कि भले ही ये शब्द संविधान की मूल उद्देश्यिका में नहीं रहे हों, लेकिन संविधान की मूल प्रवृत्ति धर्म निरपेक्ष और समाजवादी ही रही है। नेहरू के नेतृत्व में बनने वाली पहली सरकार का झुकाव भी समाजवादी व्यवस्थाओं की ओर ही था। यही वजह थी कि संविधान की अवधारणाएं समाजवादी और धर्म निरपेक्षतावादी होते हुए भी उनमें इन शब्दों को जोडऩे की जरूरत नहीं समझी गई। लोगों को याद होगा कि जनता पार्टी की सरकार के अवसान के बाद जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में १९८० में सरकार बनी, तो भाजपा ने भी अपने राजनीतिक एजेंडे में गांधीवादी समाजवादी विचारधारा को शामिल किया था। यह उसकी राजनीतिक मजबूरी थी क्योंकि देश की बहुसंख्यक आबादी का धर्म निरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों से मोहभंग नहीं हुआ है।
इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि जब १९९८ में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी थी, तब भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने संविधान में आमूलचूल परिवर्तन करने की बात कही थी, तब भी ठीक वैसी ही प्रतिक्रिया हुई थी, जैसी आज इन दोनों शब्दों को सरकारी विज्ञापन से हटा देने पर हुई है। यह भाजपा और आरएसएस द्वारा अपने हिंदूवादी एजेंडे को लागू करने का ट्रायल केस हो सकता है। जब से केंद्र में मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार का गठन हुआ है, उससे कुछ महीने पहले से ही आरएसएस के प्रमुख नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया था कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है। आरएसएस प्रमुख मोहन मधुकर भागवत तो कई अवसरों पर यह कह चुके हैं कि भारत में जन्म लेने वाला प्रत्येक नागरिक हिंदू है, भले ही वह मुस्लिम परिवार में जन्मा हो, ईसाई हो या सिख हो। गोवा के मंत्री और उपमुख्यमंत्री भी इसी बात को दोहरा चुके हैं। केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला ने भी मोहन भागवत की ही बात दोहराई और बाद में जब इसकी मुसलमानों में तीखी प्रतिक्रिया हुई, तो वे अपनी बात से भी मुकर गई थीं। भाजपा और संघ पिछले कुछ महीनों से बार-बार जिस तरह हिंदू राष्ट्र का मुद्दा उठा रहा है, उससे यह समझा जा सकता है कि मोदी सरकार की मंशा क्या है? वह बहुत ही सधे कदमों से हिंदू एजेंडा देश में लागू करने की फिराक मे ंहै, बस उसे मौका मिले। इस एजेंडे को शिवसेना जैसे संगठन का समर्थन हासिल है। शिवसेना के सांसद संजय राउत का तो यहां तक कहना था कि यदि विज्ञापन से धर्म निरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्द गलती से हट गए हैं, तो इन्हें स्थायी रूप से हटा देनी चाहिए। महाराष्ट्र में रहने वाले दूसरे राज्यों के निवासियों के खिलाफ कई बार मोर्चा खोलने वाली शिवसेना और मनसे नेता बार-बार हिंदू राष्ट्र की बात करते रहे हैं। शिवसेना के संस्थापक बालासाहब ठाकरे भी हिंदू राष्ट्र की बात करते रहे हैं। लेकिन अपने को हिंदू राष्ट्र का ध्वजवाहक बताने वाले भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, शिवसेना और महाराष्ट्र निर्माण सेना जैसे संगठनों को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि हिंदुस्तान की जनता का मोह अभी तक इस विचारधारा से भंग नहीं हुआ है, भले ही इस देश में वामपंथियों का पराभव हो गया हो। आम आदमी की मानसिकता इतनी जल्दी नहीं बदला करती है। हालांकि यह भी सही है कि इस देश में न तो सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्षता कभी रही है और न ही समाजवाद।
Sunday, February 1, 2015
किसानों को सचमुच मर जाना चाहिए?
मई 2014 से पहले इस देश के करोड़ों किसानों ने भी एक सपना देखा था। अच्छे दिनों का। भाजपा ने यह वायदा भी किया था कि उसकी सरकार आई, तो अच्छे दिन आएंगे इस देश के करोड़ों किसानों के, मजदूरों के, खेतिहर मजदूरों के, गरीबों के, बेरोजगार युवाओं के, व्यापारियों के, उद्योगपतियों के। अच्छे दिन आए, लेकिन करोड़ों किसानों, मजदूरों, खेतिहर मजदूरों और युवाओं के नहीं। छोटे-मंझोले उद्योगपतियों और व्यापारियों के नहीं, देश के उन चंद पूंजीपतियों के जिनकी तिजोरी पहले से ही भरी हुई थी। पिछले दिनों भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाकर मोदी सरकार ने कम से कम एक बात तो साफ कर दी है कि किसानों के अब अच्छे दिन आने वाले नहीं हैं। मोदी सरकार सिर्फ उद्योगपतियों के हितों को ही ध्यान में रखकर योजनाएं बना रही है। यह कहा जाए कि पूरे देश की अर्थव्यवस्था को उद्योगपतियों के हाथों में सौंपने की एक कवायद मोदी सरकार ने आते ही शुरू कर दी थी, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
गजब तो यह है कि किसानों के हितों को लेकर लोकसभा चुनाव से पहले मनमोहन सरकार की खिल्ली उड़ाने वाली भाजपा के एक सांसद संजय शामराव धोत्रे तो अब यहां तक कहने लगे हैं कि अगर किसान मरते हैं, तो मरने दो। जिन्हें खेती करनी है, वे करेंगे। जिन्हें नहीं करनी है, वे नहीं करेंगे। उनके आत्महत्या कर लेने से हम पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। ये वही संजय शामराव धोत्रे हैं जिन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले पूरे देश सहित महाराष्ट्र के किसानों की दुर्दशा पर, उनके आत्महत्या करने पर तत्कालीन यूपीए सरकार को छाती पीट-पीटकर कोसते हुए जार-जार आंसू बहाए थे। वे पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूम कर कांग्रेस और एनसीपी सरकार के खिलाफ किसानों को जगा रहे थे कि किसानों उठो और कांग्रेस की सरकार बदल दो अपने सुखद भविष्य के लिए। लेकिन अब मोदी सरकार अपनी नीतियों से किसानों को खुदकुशी करने पर मजबूर कर रहे हैं। सरकारी आंकड़े की ही बात करें, तो पिछले सौ दिनों में देश के 4600 किसानों ने आत्महत्या की है। 46 से 69 हजार किसान आत्महत्या की कोशिश कर चुके हैं। यह आंकड़ा तो और भी खौफनाक है कि पिछले बीस सालों से सरकारी नीतियों के चलते हर दिन दो हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं। इसका कारण मोदी और उनकी पूर्ववर्ती सरकार की कृषि विरोधी नीतियां हैं। मोदी सरकार आने के बाद गांवों से न केवल पलायन बढ़ा है, बल्कि मनरेगा और खाद्य सुरक्षा के बजट में कटौती हुई है जिससे किसानों में असुरक्षा की भावना तीव्र हुई है। पिछले 100 दिनों में मोदी सरकार ने 145750 करोड़ रुपये की छूट देश के सबसे अमीर 1 से 2 प्रतिशत पूंजीपतियों को दी है। पूंजीपतियों को हजारों हजार करोड़ रुपये के सरकारी कर्ज दिलाए जा रहे हैं, लेकिन जब भी किसानों की बारी आती है, तो सरकार राजस्व घाटे का रोना रोने लगती है।
केंद्रीय कर्मचारियों से लेकर राज्य कर्मचारियों के वेतन में हर साल बढ़ोत्तरी होती है। महंगाई भत्ते सहित अन्य भत्ते दिए जाते हैं, लेकिन इस देश के 60 से 70 करोड़ किसानों को किसी तरह के न्यूनतम पैकेज देने की बात न तो किसान संगठनों ने की है, न वर्तमान सरकार ने और न ही इससे पहले की सरकारों ने। आजादी के बाद से अब तक बनी सरकारों के लिए देश के अन्नदाता किसी अस्पृश्य से कम नहीं रहे हैं। मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाकर किसानों की खेती योग्य जमीन का पंूजीपतियों के हित में अधिग्रहण का मार्ग प्रशस्त कर रही है। 1998 से 2004 तक चली वाजपेयी सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्यों में सिर्फ 11 रुपये की ही बढ़ोत्तरी की थी। दस साल तक गरीबों और किसानों की रहनुमा होने का दावा करने वाली कांग्रेस सरकार ने भी किसानों के लिए किसी खजाने का मुंह नहीं खोला था। वर्ष 2004 से 2014 तक कांग्रेस सरकार ने धान और गेहूं के समर्थन मूल्यों में सिर्फ 70 रुपये की बढ़ोतरी की थी, जबकि इस दौरान डीजल, खाद, बीज आदि के दाम किस अनुपात में बढ़ गए, इसको जानने के लिए कोई विशेष जतन करने की जरूरत नहीं है। सरकार किसी भी पार्टी की हो, सभी सरकारों (जिनमें राज्य सरकारें भी शामिल हैं) के आंकड़ों में किसान खुशहाल, सुविधा-साधन संपन्न दिखाई देता है। कोई इन सरकारों से यह पूछे कि अगर तुम्हारे आंकड़ों के हिसाब से 60 से 70 करोड़ किसान सुखी और सपन्न हैं, तो फिर वे आत्महत्या क्यों कर रहे हैं, प्रति दिन दो हजार किसान खेती करना क्यों छोड़ रहे हैं? कोई जवाब नहीं होगा इन सरकारों के पास।
Sunday, January 25, 2015
मोदी ने चुकाया राम रहीम का एहसान!
अशोक मिश्र
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) का अध्यक्ष पहलाज निहलानी को नियुक्त कर दिया गया है। यह पद लीला सेम्सन के इस्तीफे के बाद खाली हुआ था। डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म 'एमएसजी : मैसेंजर ऑफ गॉडÓ को दबाव डालकर सेंसर सर्टिफिकेट दिलाने का आरोप लगाते हुए लीला सेम्सन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। बाद में नौ और सदस्यों ने अपने इस्तीफे सरकार को भेज दिए थे। हालांकि पहलाज निहलानी सहित नौ सदस्यों की नियुक्ति सरकार ने कर दी है, लेकिन जिस तरह भाजपा सरकार ने डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट जारी करने के लिए दबाव डाला, उससे देश में कोई अच्छा संदेश नहीं गया। ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले की सरकारों का दबाव सेंसर बोर्ड पर नहीं रहता था या इससे पहले की सरकारें ऐसे मामलों में दूध की धुली रही हैं। दरअसल, देखा जाए, तो फिल्म मैसेंजर ऑफ गॉड का मुद्दा तो एक बहाना है, असली लड़ाई सेंसर बोर्ड को स्वायत्तता प्रदान करने की है।
यह विवाद तो यूपीए के शासनकाल से भी चला आ रहा है। सेंसर बोर्ड पहले भी कई बार सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को स्वायत्तता प्रदान करने के लिए पत्र लिखकर कह चुका था कि सरकारी और राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते बोर्ड के ज्यादातर सदस्य ऐसे आ जाते हैं जिनका फिल्म से कोई लेना देना नहीं होता है। ऐसे सदस्य सिर्फ अपने या अपनी पार्टी के राजनीतिक फायदे को ही ध्यान में रखते हैं। मनमोहन सरकार ने अपने दस साल के कार्यकाल में सेंसर बोर्ड को अपनी गाय की तरह पालतू बनाए रखा। जब चाहा, जैसा चाहा, काम लिया। मनमोहन सिंह की सरकार ने न्यूनतम कामों की स्वायत्तता और आर्थिक संसाधन जरूर मुहैया कराए।
इस तरह हम कह सकते हैं कि मनमोहन सरकार का रवैया भी सेंसर बोर्ड को पालतू गाय समझने से ज्यादा नहीं रहा। केंद्र या प्रदेशों में सरकार किसी की भी हो, शासन का हर मुखिया चाहता है कि देश प्रदेश में जितने भी विभाग हैं, संस्थाएं हैं, उनके ही इशारे पर उठे-बैठे। वे जैसा कहें, बिना कोई आपत्ति दर्ज कराए, बस चुपचाप करती जाएं। सरकारों के इशारे पर फिल्मों को सर्टिफिकेट देने का खेल तो काफी दिनों से खेला जा रहा है। हद तब हो गई, जब मैसेंजर ऑफ गॉड को भी सेंसर सर्टिफिकेट देने का दबाव डाला गया।
इस बात को सभी जानते हैं कि हरियाणा में चुनाव से पहले सभी दलों ने गुरमीत राम रहीम से समर्थन हासिल करने के लिए संपर्क किया था, लेकिन सफलता मिली थी भाजपा को। गुरमीत राम रहीम ने न केवल भाजपा का समर्थन किया था, बल्कि अपने अनुनाइयों को भाजपा प्रत्याशियों को वोट देकर जिताने का फरमान भी जारी किया था। केंद्र की मोदी सरकार ने गुरमीत राम रहीम के उन एहसानों का बदला उनकी फिल्म को प्रसारण का प्रमाण पत्र दिलवाकर चुकाया है। केंद्र में मोदी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद सेंसर बोर्ड को न तो अपनी बैठक बुलाने की अनुमति दी गई और न ही जरूरी आर्थिक संसाधन मुहैया कराए गए। इसी दौरान डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट देने का जब दबाव डाला जाने लगा, तो स्थिति विस्फोटक हो गई और नतीजा यह हुआ कि मोदी सरकार में कांग्रेसी एजेंट होने का आरोप झेल रही लीला सेम्सन ने अपने पद से त्याग पत्र दे दिया। लीला सेम्सन अपने पद के लिए कितनी काबिल थीं, उनका फिल्म जगत में क्या योगदान रहा है? वे कांग्रेस की एजेंट थीं या नहीं?
यह अलग मुद्दा है। असल मुद्दा यह है कि फिल्मों का समाज पर अच्छा या बुरा प्रभाव जरूर पड़ता है। यदि फिल्मों को सर्टिफिकेट देते वक्त संवेदनशीलता नहीं बरती गई, तो समाज के लोगों पर बुरी फिल्मों का क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसे संगठनों में विषय विशेषज्ञों का होना, बहुत जरूरी है। बहरहाल, पहलाज निहलानी ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में कामकाज संभाल लिया है। जाहिर सी बात है कि उन्हें बनारस में नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार करने और 'हर हर मोदीÓ नारा लगाने का ईनाम मिला है। वे यह बात स्वीकार भी करते हैं कि उन्हें मोदी समर्थक या भाजपा का आदमी होने पर गर्व है। इससे पहले की सरकारों ने कम से कम इतनी नैतिकता तो जरूर दिखाई थी कि उन्होंने इस तरह के संगठनों में ऐसे लोगों को बिठाने से परहेज अवश्य किया था जिन पर अंध भक्त होने का आरोप लगा हो। मोदी सरकार ने यह परंपरा भी तोड़ दी है।
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) का अध्यक्ष पहलाज निहलानी को नियुक्त कर दिया गया है। यह पद लीला सेम्सन के इस्तीफे के बाद खाली हुआ था। डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म 'एमएसजी : मैसेंजर ऑफ गॉडÓ को दबाव डालकर सेंसर सर्टिफिकेट दिलाने का आरोप लगाते हुए लीला सेम्सन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। बाद में नौ और सदस्यों ने अपने इस्तीफे सरकार को भेज दिए थे। हालांकि पहलाज निहलानी सहित नौ सदस्यों की नियुक्ति सरकार ने कर दी है, लेकिन जिस तरह भाजपा सरकार ने डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट जारी करने के लिए दबाव डाला, उससे देश में कोई अच्छा संदेश नहीं गया। ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले की सरकारों का दबाव सेंसर बोर्ड पर नहीं रहता था या इससे पहले की सरकारें ऐसे मामलों में दूध की धुली रही हैं। दरअसल, देखा जाए, तो फिल्म मैसेंजर ऑफ गॉड का मुद्दा तो एक बहाना है, असली लड़ाई सेंसर बोर्ड को स्वायत्तता प्रदान करने की है।
यह विवाद तो यूपीए के शासनकाल से भी चला आ रहा है। सेंसर बोर्ड पहले भी कई बार सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को स्वायत्तता प्रदान करने के लिए पत्र लिखकर कह चुका था कि सरकारी और राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते बोर्ड के ज्यादातर सदस्य ऐसे आ जाते हैं जिनका फिल्म से कोई लेना देना नहीं होता है। ऐसे सदस्य सिर्फ अपने या अपनी पार्टी के राजनीतिक फायदे को ही ध्यान में रखते हैं। मनमोहन सरकार ने अपने दस साल के कार्यकाल में सेंसर बोर्ड को अपनी गाय की तरह पालतू बनाए रखा। जब चाहा, जैसा चाहा, काम लिया। मनमोहन सिंह की सरकार ने न्यूनतम कामों की स्वायत्तता और आर्थिक संसाधन जरूर मुहैया कराए।
इस तरह हम कह सकते हैं कि मनमोहन सरकार का रवैया भी सेंसर बोर्ड को पालतू गाय समझने से ज्यादा नहीं रहा। केंद्र या प्रदेशों में सरकार किसी की भी हो, शासन का हर मुखिया चाहता है कि देश प्रदेश में जितने भी विभाग हैं, संस्थाएं हैं, उनके ही इशारे पर उठे-बैठे। वे जैसा कहें, बिना कोई आपत्ति दर्ज कराए, बस चुपचाप करती जाएं। सरकारों के इशारे पर फिल्मों को सर्टिफिकेट देने का खेल तो काफी दिनों से खेला जा रहा है। हद तब हो गई, जब मैसेंजर ऑफ गॉड को भी सेंसर सर्टिफिकेट देने का दबाव डाला गया।
इस बात को सभी जानते हैं कि हरियाणा में चुनाव से पहले सभी दलों ने गुरमीत राम रहीम से समर्थन हासिल करने के लिए संपर्क किया था, लेकिन सफलता मिली थी भाजपा को। गुरमीत राम रहीम ने न केवल भाजपा का समर्थन किया था, बल्कि अपने अनुनाइयों को भाजपा प्रत्याशियों को वोट देकर जिताने का फरमान भी जारी किया था। केंद्र की मोदी सरकार ने गुरमीत राम रहीम के उन एहसानों का बदला उनकी फिल्म को प्रसारण का प्रमाण पत्र दिलवाकर चुकाया है। केंद्र में मोदी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद सेंसर बोर्ड को न तो अपनी बैठक बुलाने की अनुमति दी गई और न ही जरूरी आर्थिक संसाधन मुहैया कराए गए। इसी दौरान डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट देने का जब दबाव डाला जाने लगा, तो स्थिति विस्फोटक हो गई और नतीजा यह हुआ कि मोदी सरकार में कांग्रेसी एजेंट होने का आरोप झेल रही लीला सेम्सन ने अपने पद से त्याग पत्र दे दिया। लीला सेम्सन अपने पद के लिए कितनी काबिल थीं, उनका फिल्म जगत में क्या योगदान रहा है? वे कांग्रेस की एजेंट थीं या नहीं?
यह अलग मुद्दा है। असल मुद्दा यह है कि फिल्मों का समाज पर अच्छा या बुरा प्रभाव जरूर पड़ता है। यदि फिल्मों को सर्टिफिकेट देते वक्त संवेदनशीलता नहीं बरती गई, तो समाज के लोगों पर बुरी फिल्मों का क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसे संगठनों में विषय विशेषज्ञों का होना, बहुत जरूरी है। बहरहाल, पहलाज निहलानी ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में कामकाज संभाल लिया है। जाहिर सी बात है कि उन्हें बनारस में नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार करने और 'हर हर मोदीÓ नारा लगाने का ईनाम मिला है। वे यह बात स्वीकार भी करते हैं कि उन्हें मोदी समर्थक या भाजपा का आदमी होने पर गर्व है। इससे पहले की सरकारों ने कम से कम इतनी नैतिकता तो जरूर दिखाई थी कि उन्होंने इस तरह के संगठनों में ऐसे लोगों को बिठाने से परहेज अवश्य किया था जिन पर अंध भक्त होने का आरोप लगा हो। मोदी सरकार ने यह परंपरा भी तोड़ दी है।
यात्रा से मिलेगी संबंधों को एक नई दिशा?
अशोक मिश्र
दिल्ली में आयोजित होने वाले गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में भाग लेने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आ रहे हैं। ओबामा की इस यात्रा को लेकर दोनों देशों के नेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों में काफी उत्साह देखने को मिल रहा है। ऊर्जा, रक्षा और पूंजी निवेश के मामले में दोनों देशों के संबंध एक नए आयाम हासिल करेंगे, ऐसी उम्मीद दोनों देशों के उच्च पदस्थ अधिकारी जता रहे हैं। दरअसल, यह सच है कि बराक ओबामा की यह यात्रा भारत-अमेरिकी संबंधों की एक नई आधारशिला साबित होगी। भारत काफी पहले से अपनी परमाणु ऊर्जा की जरूरत को ध्यान में रखते हुए अमेरिका से कोई सार्थक समझौता करने के प्रयास में है। हालांकि अमेरिका का रवैया इस मामले में अडिय़ल है।
यह यात्रा इस समझौते को कोई आकार प्रदान कर सकती है। अमेरिका भी यही चाहता है कि दोनों देशों के बीच कोई कारगर परमाणु संधि हो जाए, ताकि दोनों इस मामले में एक दूसरे की जरूरत को समझ और पूरा कर सकें। भारत जैसा विश्वसनीय सहयोगी भारत को अभी एशिया में कोई दूसरा नजर नहीं आता है। यही वजह है कि भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के समूह की मंजूरी दिलवाने में अमेरिका ने काफी मदद की थी। इस मामले में भारत और अमेरिकी अधिकारियों के बीच कई स्तरों पर बातचीत भी हो चुकी है। अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा के दौरान लगभग विभिन्न क्षेत्र में काम कर रही अमेरिकी और भारतीय कंपनियां पांच सौ अरब डालर के पूंजी निवेश को अंतिम रूप दे सकती हैं। यदि भारत यह पूंजीनिवेश अपनी ओर खींचने में सफल हो जाए, तो विकास को एक नई गति प्रदान की जा सकती है। पूंजी निवेश का प्रवाह भारत की ओर होने से विकास की गति तेज होगी और कई शहरों और क्षेत्रों में रोजगार की संभावनाएं पैदा होंगी। यह पूंजी निवेश भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए काफी महत्वपूर्ण होगा। ओबामा की यात्रा के साथ ही साथ ऊर्जा क्षेत्र में भी नए संबंधों की शुरुआत हो सकती है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के साथ वहां के कई उद्योगपतियों का एक समूह भारत आ रहा है, जो भारत में पूंजी निवेश के साथ-साथ कुछ मामलों में भारतीय पक्ष से भी पूंजी निवेश की इच्छा रखता है। यदि इन उद्योगपतियों को अपने मकसद में कामयाबी मिल जाती है, तो यकीनन दोनों देशों के बीच संबंध काफी मजबूत हो जाएंगे। भारत को एकाध साल में 60 हजार मेगावाट बिजली की जरूरत होगी। इतनी बड़ी मात्रा में बिजली उत्पादन का लक्ष्य तब तक पूरा होने की संभावना नजर नहीं आती, जब तक अमेरिका भारत की मदद करने या इस क्षेत्र में पूंजी निवेश करने को तैयार न हो जाए। इसके साथ ही साथ रक्षा मामले में भी भारत को अमेरिकी सहयोग की जरूरत होगी। इस दिशा में भी भारत सरकार काफी दिनों से प्रयास कर रही थी। मोदी सरकार की नीति है कि रक्षा मामलों में आत्मनिर्भर बना जाए। इसके लिए जरूरी है कि रक्षा और सैन्य सामग्री का निर्माण देश में ही किया जाए। अमेरिका हल्के और छोटे लड़ाकू हैलिकॉप्टरों के निर्माण के साथ-साथ अन्य हथियारों के निर्माण की तकनीक विकसित करने में काफी मददगार साबित हो सकता है। उसके साथ ही सबसे अहम फैसला यह हो सकता है कि दोनों देश एकदूसरे के हितों का ध्यान रखते हुए खुफिया सूचनाएं साझा करेंगे, ताकि आतंकवाद के खिलाफ एक नेटवर्क तैयार किया जा सके। देश के भीतर और बाहर हो रहे आतंकी हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके।
जब तक यह नेटवर्क तैयार नहीं होता, तब तक एक मजबूत रक्षा तंत्र नहीं विकसित किया जा सकता है। आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए सबसे जरूरी तो यह है कि जिन देशों को पीछे के दरवाजे से आतंकवादियों को खाद-पानी मिल रहा है, उन पर अंकुश लगाने की कोशिश वैश्विक आधार पर हो। आतंकवादियों के पनाहगाहों को पूरी तरह मिटाने का साझा प्रयास किया जाए। ऐसे देशों पर कई तरह के आर्थिक प्रतिबंध भी लगाए जा सकते हैं, उसके साथ-साथ कूटनीतिक संबंध भी तोड़ लेने के साथ-साथ व्यापारिक संबंध भी खत्म कर लेने चाहिए। कहने का मतलब यह है कि आयात-निर्यात बिल्कुल खत्म कर देने चाहिए, लेकिन ऐसा होना काफी मुश्किल है। क्योंकि अमेरिका ही नहीं, भारत को भी अपने कई हितों को देखना और साधना है। कई बार कुछ ऐसी भी मजबूरियां सामने होती हैं जिसके चलते ऐसा कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। यदि अमेरिका और भारत चाहें, तो सूचनाओं के आदान-प्रदान से आतंकी नेटवर्क को तोड़ सकते हैं।
दिल्ली में आयोजित होने वाले गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में भाग लेने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आ रहे हैं। ओबामा की इस यात्रा को लेकर दोनों देशों के नेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों में काफी उत्साह देखने को मिल रहा है। ऊर्जा, रक्षा और पूंजी निवेश के मामले में दोनों देशों के संबंध एक नए आयाम हासिल करेंगे, ऐसी उम्मीद दोनों देशों के उच्च पदस्थ अधिकारी जता रहे हैं। दरअसल, यह सच है कि बराक ओबामा की यह यात्रा भारत-अमेरिकी संबंधों की एक नई आधारशिला साबित होगी। भारत काफी पहले से अपनी परमाणु ऊर्जा की जरूरत को ध्यान में रखते हुए अमेरिका से कोई सार्थक समझौता करने के प्रयास में है। हालांकि अमेरिका का रवैया इस मामले में अडिय़ल है।
यह यात्रा इस समझौते को कोई आकार प्रदान कर सकती है। अमेरिका भी यही चाहता है कि दोनों देशों के बीच कोई कारगर परमाणु संधि हो जाए, ताकि दोनों इस मामले में एक दूसरे की जरूरत को समझ और पूरा कर सकें। भारत जैसा विश्वसनीय सहयोगी भारत को अभी एशिया में कोई दूसरा नजर नहीं आता है। यही वजह है कि भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के समूह की मंजूरी दिलवाने में अमेरिका ने काफी मदद की थी। इस मामले में भारत और अमेरिकी अधिकारियों के बीच कई स्तरों पर बातचीत भी हो चुकी है। अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा के दौरान लगभग विभिन्न क्षेत्र में काम कर रही अमेरिकी और भारतीय कंपनियां पांच सौ अरब डालर के पूंजी निवेश को अंतिम रूप दे सकती हैं। यदि भारत यह पूंजीनिवेश अपनी ओर खींचने में सफल हो जाए, तो विकास को एक नई गति प्रदान की जा सकती है। पूंजी निवेश का प्रवाह भारत की ओर होने से विकास की गति तेज होगी और कई शहरों और क्षेत्रों में रोजगार की संभावनाएं पैदा होंगी। यह पूंजी निवेश भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए काफी महत्वपूर्ण होगा। ओबामा की यात्रा के साथ ही साथ ऊर्जा क्षेत्र में भी नए संबंधों की शुरुआत हो सकती है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के साथ वहां के कई उद्योगपतियों का एक समूह भारत आ रहा है, जो भारत में पूंजी निवेश के साथ-साथ कुछ मामलों में भारतीय पक्ष से भी पूंजी निवेश की इच्छा रखता है। यदि इन उद्योगपतियों को अपने मकसद में कामयाबी मिल जाती है, तो यकीनन दोनों देशों के बीच संबंध काफी मजबूत हो जाएंगे। भारत को एकाध साल में 60 हजार मेगावाट बिजली की जरूरत होगी। इतनी बड़ी मात्रा में बिजली उत्पादन का लक्ष्य तब तक पूरा होने की संभावना नजर नहीं आती, जब तक अमेरिका भारत की मदद करने या इस क्षेत्र में पूंजी निवेश करने को तैयार न हो जाए। इसके साथ ही साथ रक्षा मामले में भी भारत को अमेरिकी सहयोग की जरूरत होगी। इस दिशा में भी भारत सरकार काफी दिनों से प्रयास कर रही थी। मोदी सरकार की नीति है कि रक्षा मामलों में आत्मनिर्भर बना जाए। इसके लिए जरूरी है कि रक्षा और सैन्य सामग्री का निर्माण देश में ही किया जाए। अमेरिका हल्के और छोटे लड़ाकू हैलिकॉप्टरों के निर्माण के साथ-साथ अन्य हथियारों के निर्माण की तकनीक विकसित करने में काफी मददगार साबित हो सकता है। उसके साथ ही सबसे अहम फैसला यह हो सकता है कि दोनों देश एकदूसरे के हितों का ध्यान रखते हुए खुफिया सूचनाएं साझा करेंगे, ताकि आतंकवाद के खिलाफ एक नेटवर्क तैयार किया जा सके। देश के भीतर और बाहर हो रहे आतंकी हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके।
जब तक यह नेटवर्क तैयार नहीं होता, तब तक एक मजबूत रक्षा तंत्र नहीं विकसित किया जा सकता है। आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए सबसे जरूरी तो यह है कि जिन देशों को पीछे के दरवाजे से आतंकवादियों को खाद-पानी मिल रहा है, उन पर अंकुश लगाने की कोशिश वैश्विक आधार पर हो। आतंकवादियों के पनाहगाहों को पूरी तरह मिटाने का साझा प्रयास किया जाए। ऐसे देशों पर कई तरह के आर्थिक प्रतिबंध भी लगाए जा सकते हैं, उसके साथ-साथ कूटनीतिक संबंध भी तोड़ लेने के साथ-साथ व्यापारिक संबंध भी खत्म कर लेने चाहिए। कहने का मतलब यह है कि आयात-निर्यात बिल्कुल खत्म कर देने चाहिए, लेकिन ऐसा होना काफी मुश्किल है। क्योंकि अमेरिका ही नहीं, भारत को भी अपने कई हितों को देखना और साधना है। कई बार कुछ ऐसी भी मजबूरियां सामने होती हैं जिसके चलते ऐसा कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। यदि अमेरिका और भारत चाहें, तो सूचनाओं के आदान-प्रदान से आतंकी नेटवर्क को तोड़ सकते हैं।
गणतंत्र में कहां है 'गण'
अशोक मिश्र
हर साल गणतंत्र दिवस पर मुझे रघुवीर सहाय की यह पंक्तियां जरूर याद आ जाती हैं, राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत-भाग्य विधाता है, फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है। वाकई इस हरचरना की ओर देखने की फुरसत किसी को भी नहीं है। और...अब यह सवाल खुद हरचरना को ही उद्वेलित नहीं करता कि 'कौन-कौन है वह जन-गण-मन अधिनायक वह महाबली, डरा हुआ मन बेमन जिसका बाजा रोज बजाता है।Ó ऐसे में हरचरना की परेशानियों, उसके दुख-दर्द, हर्ष-विषाद की बात सोचने की जहमत कौन उठाए और क्यों? लोकतंत्र के कथित सरमाएदार तो गणतंत्र दिवस को लेकर कुछ दशक पहले तक पैदा होने वाले उत्साह और चेतना को ही उनके मानस से खुरच देना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि भले ही देश में कहने को गणतंत्र है, लेकिन इस दिन कहीं ऐसा न हो कि यही हरचरना पूछ बैठे कि तुम्हारे गणतंत्र में 'गणÓ कहां है और 'तंत्रÓ कहां? पिछले एक महीने से पूरे देश में गणतंत्र को लेकर जो गहमागहमी है, उसका कारण यह है कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने आने वाले हैं। पिछले एक महीने से पूरे देश को इस तरह मथा जा रहा है कि भारत की अस्मिता और संप्रभुता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण ओबामा की सुरक्षा है। कि भारतीय खुफिया एजेंसियां ओबामा की सुरक्षा कर पाने में अक्षम हैं, नाकारा हैं, निकम्मी हैं। हमारे देश के भाग्य विधाता, नौकरशाह और पूंजीपतियों की तिकड़ी उनके आगे बिछी जा रही है क्योंकि उनके आने से दोनों देशों के पूंजीपतियों को पांच सौ अरब डॉलर मूल्य के कारोबार का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।
इस मामले में मजेदार बात तो यह है कि पिछले 66 सालों से हर बार इस गणतंत्र के औचित्य पर सवाल खड़ा होता है कि यह सब आयोजन आखिर किसके लिए हो रहा है? उस 'गणÓ के लिए, जिसकी पीठ पर पडऩे वाला 'तंत्रÓ का चाबुक रोज कहीं न कहीं उसकी खाल उधेड़ रहा है? या फिर उन पूंजीपतियों के लिए जो इस पूरी व्यवस्था के संचालक और पोषक हैं। अगर हम पूरी पूंजीवादी व्यवस्था पर गौर करें, तो पाते हैं कि इसी गणतंत्र दिवस की आड़ में भ्रष्ट और आम अवाम विरोधी व्यवस्था के नुमाइंदे मंत्री, सांसद, विधायक और नेता, व्यवस्था के संचालक नौकरशाह और पूंजीपति वर्ग की आपसी गठजोड़ से मौज करते हैं, अवाम का निर्मम रक्त शोषण करते हैं और बेचारा गण अपनी लहूलुहान पीठ लिए इसी व्यवस्था की सेवा में दिन-रात लगा रहता है। उफ तक नहीं करता। पिछले 66 सालों से पूरे तामझाम के साथ गणतंत्र दिवस समारोह आयोजित किए जा रहे हैं। कई सौ करोड़ रुपये हर साल इन समारोहों पर खर्च होते हैं। इन आयोजनों में देश की आम जनता की कितनी भागीदारी है? वह तो दिल्ली और देश के अन्य प्रदेशों की राजधानियों और जिलों में होने वाली परेड, झांकी को सिर्फ मूक दर्शक की तरह देखने को मजबूर है। देश का विकास नहीं हुआ है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। देश में फैला सड़कों का संजाल, ऊंची-ऊंची इमारतें, विकसित होते मेट्रो और स्मार्ट शहर, आवागमन की बढ़ती सुविधाएं, गांवों और दूरदराज के कस्बों तक पहुंचती बिजली, पानी और स्वास्थ्य की सुविधाएं, हवाई जहाज से लेकर दुपहिया वाहनों की दिनोंदिन बढ़ती तादाद विकास का एक दूसरा ही रूप सामने पेश करते हैं। ये सुविधाएं किस कीमत पर हैं?
यह भी देखने की कोशिश कभी शासकों ने की है? स्मार्ट शहरों की चमक-दमक के पीछे कितना सघन अंधकार छिपा हुआ है, यह कौन देखेगा? माना कि विकास हुआ है, लेकिन किसके लिए? झोपड़पट्टी से लेकर गांव-कस्बों में रहने वाले लोगों की भलाई के लिए? देश के मंत्री, सांसद और विधायक से लेकर गांव-गली का छुटभैया नेता, छोटे से लेकर बड़े नौकरशाह और पूंजीपति इस देश की शोषित, पीडि़त जनता को दिखाते हुए यह कहते नहीं थकते कि देखो...यह सड़क जो किसी नवयौवना के गाल से भी ज्यादा चिकनी है, तुम्हारे लिए बनवाई है। यह सारा विकास सिर्फ तुम्हारे लिए है। लेकिन क्या सच यही है? गणतंत्र में आम जनता के हितों के नाम पर चलने वाली परियोजनाओं और होने वाले विकास के पीछे सत्ता और पूंजी का निर्मम खेल किसी की समझ में नहीं आता है।
उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, मध्य प्रदेश सहित अन्य राज्यों में रहने वाले दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की हालत क्या है, इसको जानने के लिए बहुत ज्यादा शोध करने की जररूत नहीं है। अभी हाल ही में वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की मीटिंग में ऑक्सफैम चैरिटी संस्था के कार्यकारी निदेशक विन्नी बयनिमा ने कहा है कि पूरी दुनिया में जितनी दौलत 99 फीसदी लोगों के पास है, उससे भी कहीं ज्यादा दौलत सिर्फ एक फीसदी लोगों के पास है। यह फासला समय बीतने के साथ-साथ बढ़ता जाएगा। यह उस विकास की एक तस्वीर भर है, जो दुनिया में आम जनता के हितों के नाम पर किया जा रहा है। भ्रष्ट और निकम्मी पूंजीवादी व्यवस्था में विकास की अनिवार्यता इसलिए भी है कि फैक्ट्रियों में उत्पादित माल आसानी के साथ दूरदराज इलाकों तक सुगमता से पहुंच सके और पूंजीपतियों को अकूत मुनाफा हो सके। गणतंत्रवादी विकास की असलियत यही है।
भारत में इस विकास की आधारशिला रखने वाली थी बुर्जुआ कांग्रेस। कांग्रेस की ही आमजन विरोधी नीतियों में थोड़ा बहुत फेरबदल करके बड़े गाजे-बाजे के साथ आगे बढ़ा रहे हैं दक्षिणपंथी भाजपा के नरेंद्र मोदी। देश के विभिन्न राज्यों में पूंजीपतियों के रक्षक-पोषक की भूमिका में हैं विभिन्न झंडे और नारों वाले सभी वामपंथी दल और बसपा, सपा, राजद, टीएमसी, द्रुमुक, अन्नाद्रुमुक जैसी छोटी-बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां। इनकी आपस में प्रतिद्वंद्विता सिर्फ इस बात के लिए है कि हर पांच साल बाद इस भ्रष्ट और निकम्मी पूंजीवादी व्यवस्था का संचालक कौन बने?
शोषण पर आधारित बिकाऊ माल की अर्थव्यवस्था का संचालक बनने की होड़ में ये पार्टियां एक दूसरे पर लांछन लगाती हैं, एक दूसरे की टांग खींचती हैं, लेकिन जहां भी आम जन की पीठ पर लाठियां बरसाने की बात आती है, पूंजीपतियों के हित साधने होते हैं, सब एक हो जाती हैं। यही इनका वर्गीय चरित्र है। विभिन्न किस्म के झंडों और नारों की बदौलत देश के वास्तविक 'गणÓ को 'तंत्रÓ का भय दिखाकर उन्हें बरगालाती हैं।
इस मामले में मजेदार बात तो यह है कि पिछले 66 सालों से हर बार इस गणतंत्र के औचित्य पर सवाल खड़ा होता है कि यह सब आयोजन आखिर किसके लिए हो रहा है? उस 'गणÓ के लिए, जिसकी पीठ पर पडऩे वाला 'तंत्रÓ का चाबुक रोज कहीं न कहीं उसकी खाल उधेड़ रहा है? या फिर उन पूंजीपतियों के लिए जो इस पूरी व्यवस्था के संचालक और पोषक हैं। अगर हम पूरी पूंजीवादी व्यवस्था पर गौर करें, तो पाते हैं कि इसी गणतंत्र दिवस की आड़ में भ्रष्ट और आम अवाम विरोधी व्यवस्था के नुमाइंदे मंत्री, सांसद, विधायक और नेता, व्यवस्था के संचालक नौकरशाह और पूंजीपति वर्ग की आपसी गठजोड़ से मौज करते हैं, अवाम का निर्मम रक्त शोषण करते हैं और बेचारा गण अपनी लहूलुहान पीठ लिए इसी व्यवस्था की सेवा में दिन-रात लगा रहता है। उफ तक नहीं करता। पिछले 66 सालों से पूरे तामझाम के साथ गणतंत्र दिवस समारोह आयोजित किए जा रहे हैं। कई सौ करोड़ रुपये हर साल इन समारोहों पर खर्च होते हैं। इन आयोजनों में देश की आम जनता की कितनी भागीदारी है? वह तो दिल्ली और देश के अन्य प्रदेशों की राजधानियों और जिलों में होने वाली परेड, झांकी को सिर्फ मूक दर्शक की तरह देखने को मजबूर है। देश का विकास नहीं हुआ है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। देश में फैला सड़कों का संजाल, ऊंची-ऊंची इमारतें, विकसित होते मेट्रो और स्मार्ट शहर, आवागमन की बढ़ती सुविधाएं, गांवों और दूरदराज के कस्बों तक पहुंचती बिजली, पानी और स्वास्थ्य की सुविधाएं, हवाई जहाज से लेकर दुपहिया वाहनों की दिनोंदिन बढ़ती तादाद विकास का एक दूसरा ही रूप सामने पेश करते हैं। ये सुविधाएं किस कीमत पर हैं?
यह भी देखने की कोशिश कभी शासकों ने की है? स्मार्ट शहरों की चमक-दमक के पीछे कितना सघन अंधकार छिपा हुआ है, यह कौन देखेगा? माना कि विकास हुआ है, लेकिन किसके लिए? झोपड़पट्टी से लेकर गांव-कस्बों में रहने वाले लोगों की भलाई के लिए? देश के मंत्री, सांसद और विधायक से लेकर गांव-गली का छुटभैया नेता, छोटे से लेकर बड़े नौकरशाह और पूंजीपति इस देश की शोषित, पीडि़त जनता को दिखाते हुए यह कहते नहीं थकते कि देखो...यह सड़क जो किसी नवयौवना के गाल से भी ज्यादा चिकनी है, तुम्हारे लिए बनवाई है। यह सारा विकास सिर्फ तुम्हारे लिए है। लेकिन क्या सच यही है? गणतंत्र में आम जनता के हितों के नाम पर चलने वाली परियोजनाओं और होने वाले विकास के पीछे सत्ता और पूंजी का निर्मम खेल किसी की समझ में नहीं आता है।
उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, मध्य प्रदेश सहित अन्य राज्यों में रहने वाले दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की हालत क्या है, इसको जानने के लिए बहुत ज्यादा शोध करने की जररूत नहीं है। अभी हाल ही में वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की मीटिंग में ऑक्सफैम चैरिटी संस्था के कार्यकारी निदेशक विन्नी बयनिमा ने कहा है कि पूरी दुनिया में जितनी दौलत 99 फीसदी लोगों के पास है, उससे भी कहीं ज्यादा दौलत सिर्फ एक फीसदी लोगों के पास है। यह फासला समय बीतने के साथ-साथ बढ़ता जाएगा। यह उस विकास की एक तस्वीर भर है, जो दुनिया में आम जनता के हितों के नाम पर किया जा रहा है। भ्रष्ट और निकम्मी पूंजीवादी व्यवस्था में विकास की अनिवार्यता इसलिए भी है कि फैक्ट्रियों में उत्पादित माल आसानी के साथ दूरदराज इलाकों तक सुगमता से पहुंच सके और पूंजीपतियों को अकूत मुनाफा हो सके। गणतंत्रवादी विकास की असलियत यही है।
भारत में इस विकास की आधारशिला रखने वाली थी बुर्जुआ कांग्रेस। कांग्रेस की ही आमजन विरोधी नीतियों में थोड़ा बहुत फेरबदल करके बड़े गाजे-बाजे के साथ आगे बढ़ा रहे हैं दक्षिणपंथी भाजपा के नरेंद्र मोदी। देश के विभिन्न राज्यों में पूंजीपतियों के रक्षक-पोषक की भूमिका में हैं विभिन्न झंडे और नारों वाले सभी वामपंथी दल और बसपा, सपा, राजद, टीएमसी, द्रुमुक, अन्नाद्रुमुक जैसी छोटी-बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां। इनकी आपस में प्रतिद्वंद्विता सिर्फ इस बात के लिए है कि हर पांच साल बाद इस भ्रष्ट और निकम्मी पूंजीवादी व्यवस्था का संचालक कौन बने?
शोषण पर आधारित बिकाऊ माल की अर्थव्यवस्था का संचालक बनने की होड़ में ये पार्टियां एक दूसरे पर लांछन लगाती हैं, एक दूसरे की टांग खींचती हैं, लेकिन जहां भी आम जन की पीठ पर लाठियां बरसाने की बात आती है, पूंजीपतियों के हित साधने होते हैं, सब एक हो जाती हैं। यही इनका वर्गीय चरित्र है। विभिन्न किस्म के झंडों और नारों की बदौलत देश के वास्तविक 'गणÓ को 'तंत्रÓ का भय दिखाकर उन्हें बरगालाती हैं।
Tuesday, January 20, 2015
बसंत पंचमी को हुई थी शब्द की उत्पत्ति
अशोक मिश्र
नाकारं प्राण नामानं दकारमनलंविंदु
ज्ञात: प्राणाभिसंयोगातेन नादोअभिधीयते।
प्राण का नाम 'ना' है और अग्नि को 'द' कहते हैं। इसी प्राण और अग्नि के संयोग से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे नाद कहते हैं। (पं. श्रीराम शर्मा आचार्य की पुस्तक 'शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म') संगीत के आचार्यों के अनुसार, आकाशस्थ अग्नि और मरुत् के संयोग से नाद की उत्पत्ति हुई है। यही नाद भारतीय दर्शन की आधारशिला है। नाद को परमब्रह्म माना गया है। आहद और अनहद जीवन के दो मूल तत्व हैं। नाद नहीं, तो जीवन में कुछ नहीं। गीत, संगीत, जीवन के विभिन्न आमोद-प्रमोद, कृत्य-अपकृत्य..सबकी आधार शिला यही नाद है। सं और बसंत पंचमी के दिन इसी नाद का जन्म हुआ था। मनुष्य ने पहली बार नाद यानी आवाज को जिस दिन सुना था, वह दिन माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी थी। बाद में इसे बसंत पंचमी के नाम से भी जाना गया।
माना जाता है कि इसी दिन मनुष्य को शब्दों की शक्ति का ज्ञान हुआ था। संपूर्ण ब्रह्मांड में नाद पैदा करने वाली सबसे पहली देवी हैं सरस्वती। चूंकि माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को उनका जन्म हुआ और उसी दिन उन्होंने नाद की उत्पत्ति की थी, इसलिए भारतीय जीवन में इस दिन की महत्ता बहुत ज्यादा है। यही नाद आगे चलकर ज्ञान का आधार बना। नाद यानी आवाज के बारे में जानने के बाद मनुष्य ने बोलना और लिखना सीखा। सरस्वती देवी की मूर्ति या चित्र में दिखाए गए वीणा, पुस्तक और मयूर तो संगीत, विचार और कला के प्रतीक चिन्ह हैं। यही कारण है कि देवी सरस्वती को साहित्य, संगीत, कला की जननी माना जाता है। सरस्वती की वीणा संगीत की, पुस्तक विचार की और मयूर वाहन कला की अभिव्यक्ति है।
सरस्वती के जन्म के विषय में एक कथा कही जाती है। कहा जाता है कि जब ब्रह्मा ने ब्रह्मांड की रचना के बाद मनुष्य और पशुओं की रचना की, तो यह महसूस किया कि शब्द बिना के इस संपूर्ण सृष्टि का कोई मतलब नहीं है। शब्द यानी नाद के बिना तो कोई भी अपने विचार एक दूसरे तक नहीं पहुंचा पाएगा। शब्दहीनता तो ऐसी सृष्टि के लिए अभिशाप साबित होगा। कहते हैं कि उन्होंने विष्णु से अनुमति लेकर एक चतुर्भुजधारी महिला की उत्पत्ति की। इनके एक हाथ में वीणा, दूसरे हाथ में पुस्तक, तीसरे हाथ में माला और चौथा हाथ वरमुद्रा में था। माला तो हमारे दर्शन में वैराग्य का प्रतीक माना जाता है। वरमुद्रा सभी प्राणियों को अभय प्रदान करती है।
वीणा को झंकृत करने से पैदा हुई गूंज ही वह आदिशब्द माना जाता है जिससे आगे चलकर ज्ञान का विकास हुआ। ज्ञान और विज्ञान के प्रचार-प्रसार का मूलस्रोत सरस्वती के होने की वजह से उनके प्रति आभार व्यक्त करने के लिए प्रत्येक वर्ष माघ महीने के शुक्लपक्ष की पंचमी को वसंतोत्सव मनाया जाता है। बसंत पंचमी को ही सरस्वती के वरद पुत्र महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्म हुआ था। इस दिन कामदेव की भी पूजा की जाती है। कड़ाके की सर्दियों के चलते सिमटा-सिकुड़ा मनुष्य माघ में प्रखर होते सूर्य के ताप से थोड़ा-थोड़ा खुलने लगता है। प्रकृति भी नवशृंगार करके वातावरण को मादक बनाने लगती है। ऐसे में भला कामदेव अपना प्रभाव छोडऩे में पीछे कैसे रहते?
बसंत पंचमी को लोग अपने-अपने घरों में सरस्वती की प्रतिमा की पूजा करते हैं। इसदिन लोग अपने बच्चे को अक्षर का अभ्यास भी करवाते हैं। कलश स्थापित करने के बाद गणेश जी तथा नवग्रह की विधिवत पूजा के साथ-साथ सरस्वती की पूजा की जाती है। महिलाएं सरस्वती को सिंदूर और शृंगार की अन्य वस्तुएं अर्पित करती हैं। उन्हें श्वेत वस्त्र भी पहनाए जाते हैं।
यह दिन वसंत ऋतु के आरंभ का दिन होता है। इस दिन देवी सरस्वती और ग्रंथों का पूजन किया जाता है। छोटे बालक-बालिका इस दिन से विद्या का आरंभ करते हैं। संगीतकार अपने वाद्ययंत्रों की पूजा करते हैं। स्कूलों और गुरुकुलों में सरस्वती और वेद पूजन किया जाता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार वसंत पंचमी को अबूझ मुहूर्त माना जाता है। इस दिन बिना मुहूर्त जाने शुभ और मांगलिक कार्य किए जाते हैं।
नाकारं प्राण नामानं दकारमनलंविंदु
ज्ञात: प्राणाभिसंयोगातेन नादोअभिधीयते।
प्राण का नाम 'ना' है और अग्नि को 'द' कहते हैं। इसी प्राण और अग्नि के संयोग से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे नाद कहते हैं। (पं. श्रीराम शर्मा आचार्य की पुस्तक 'शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म') संगीत के आचार्यों के अनुसार, आकाशस्थ अग्नि और मरुत् के संयोग से नाद की उत्पत्ति हुई है। यही नाद भारतीय दर्शन की आधारशिला है। नाद को परमब्रह्म माना गया है। आहद और अनहद जीवन के दो मूल तत्व हैं। नाद नहीं, तो जीवन में कुछ नहीं। गीत, संगीत, जीवन के विभिन्न आमोद-प्रमोद, कृत्य-अपकृत्य..सबकी आधार शिला यही नाद है। सं और बसंत पंचमी के दिन इसी नाद का जन्म हुआ था। मनुष्य ने पहली बार नाद यानी आवाज को जिस दिन सुना था, वह दिन माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी थी। बाद में इसे बसंत पंचमी के नाम से भी जाना गया।
माना जाता है कि इसी दिन मनुष्य को शब्दों की शक्ति का ज्ञान हुआ था। संपूर्ण ब्रह्मांड में नाद पैदा करने वाली सबसे पहली देवी हैं सरस्वती। चूंकि माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को उनका जन्म हुआ और उसी दिन उन्होंने नाद की उत्पत्ति की थी, इसलिए भारतीय जीवन में इस दिन की महत्ता बहुत ज्यादा है। यही नाद आगे चलकर ज्ञान का आधार बना। नाद यानी आवाज के बारे में जानने के बाद मनुष्य ने बोलना और लिखना सीखा। सरस्वती देवी की मूर्ति या चित्र में दिखाए गए वीणा, पुस्तक और मयूर तो संगीत, विचार और कला के प्रतीक चिन्ह हैं। यही कारण है कि देवी सरस्वती को साहित्य, संगीत, कला की जननी माना जाता है। सरस्वती की वीणा संगीत की, पुस्तक विचार की और मयूर वाहन कला की अभिव्यक्ति है।
सरस्वती के जन्म के विषय में एक कथा कही जाती है। कहा जाता है कि जब ब्रह्मा ने ब्रह्मांड की रचना के बाद मनुष्य और पशुओं की रचना की, तो यह महसूस किया कि शब्द बिना के इस संपूर्ण सृष्टि का कोई मतलब नहीं है। शब्द यानी नाद के बिना तो कोई भी अपने विचार एक दूसरे तक नहीं पहुंचा पाएगा। शब्दहीनता तो ऐसी सृष्टि के लिए अभिशाप साबित होगा। कहते हैं कि उन्होंने विष्णु से अनुमति लेकर एक चतुर्भुजधारी महिला की उत्पत्ति की। इनके एक हाथ में वीणा, दूसरे हाथ में पुस्तक, तीसरे हाथ में माला और चौथा हाथ वरमुद्रा में था। माला तो हमारे दर्शन में वैराग्य का प्रतीक माना जाता है। वरमुद्रा सभी प्राणियों को अभय प्रदान करती है।
वीणा को झंकृत करने से पैदा हुई गूंज ही वह आदिशब्द माना जाता है जिससे आगे चलकर ज्ञान का विकास हुआ। ज्ञान और विज्ञान के प्रचार-प्रसार का मूलस्रोत सरस्वती के होने की वजह से उनके प्रति आभार व्यक्त करने के लिए प्रत्येक वर्ष माघ महीने के शुक्लपक्ष की पंचमी को वसंतोत्सव मनाया जाता है। बसंत पंचमी को ही सरस्वती के वरद पुत्र महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्म हुआ था। इस दिन कामदेव की भी पूजा की जाती है। कड़ाके की सर्दियों के चलते सिमटा-सिकुड़ा मनुष्य माघ में प्रखर होते सूर्य के ताप से थोड़ा-थोड़ा खुलने लगता है। प्रकृति भी नवशृंगार करके वातावरण को मादक बनाने लगती है। ऐसे में भला कामदेव अपना प्रभाव छोडऩे में पीछे कैसे रहते?
बसंत पंचमी को लोग अपने-अपने घरों में सरस्वती की प्रतिमा की पूजा करते हैं। इसदिन लोग अपने बच्चे को अक्षर का अभ्यास भी करवाते हैं। कलश स्थापित करने के बाद गणेश जी तथा नवग्रह की विधिवत पूजा के साथ-साथ सरस्वती की पूजा की जाती है। महिलाएं सरस्वती को सिंदूर और शृंगार की अन्य वस्तुएं अर्पित करती हैं। उन्हें श्वेत वस्त्र भी पहनाए जाते हैं।
यह दिन वसंत ऋतु के आरंभ का दिन होता है। इस दिन देवी सरस्वती और ग्रंथों का पूजन किया जाता है। छोटे बालक-बालिका इस दिन से विद्या का आरंभ करते हैं। संगीतकार अपने वाद्ययंत्रों की पूजा करते हैं। स्कूलों और गुरुकुलों में सरस्वती और वेद पूजन किया जाता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार वसंत पंचमी को अबूझ मुहूर्त माना जाता है। इस दिन बिना मुहूर्त जाने शुभ और मांगलिक कार्य किए जाते हैं।
Saturday, January 17, 2015
मोदी सरकार की संघ से बढ़ती दूरियां
अशोक मिश्र
लगता है, इतिहास एक बार फिर दोहराया जाने वाला है। सन 1998 में जब भाजपा के इतिहास पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी सरकार बनाई, तो उसके कुछ ही दिनों बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन पर दबाव डालना शुरू कर दिया था कि वे उसकी नीतियों के मुताबिक शासन का एजेंडा तय करें। तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने जब संघ की नीतियों के मुताबिक चलने से इंकार कर दिया, तो पूरी भाजपा और संघ के रिश्तों में तल्खी आती चली गई। वाजपेयी और संघ के बीच आई तल्खी का फायदा उठाया, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने। फरवरी सन 2002 में गुजरात के गोधरा में हुए दंगे पर मोदी को राजधर्म की शिक्षा देने वाले अटल बिहारी वाजपेयी अपने ही हिसाब से चलते रहे। वाजपेयी की सरकार आई, गई, लेकिन उन्होंने संघ को उतनी ही अहमियत दी जितनी कि उनके हिसाब से देनी चाहिए थी। इस बीच गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में और संघ की नीतियों को समर्थन देने वाले कार्यकर्ता के रूप में मोदी संघ के नजदीक आते गए। बाद में तो संघ ने कट्टर हिंदुत्ववादी समझे जाने वाले लाल कृष्ण आडवानी को भी दरकिनार करके मोदी को प्रमुखता दी। नतीजा यह हुआ कि मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित किए गए और आज वे प्रधानमंत्री भी हैं। भारतीय राजनीतिक परि²श्य से स्वास्थ्य के चलते धीरे-धीरे अटल बिहारी वाजपेयी ओझल होते गए।
आज ठीक वैसी ही स्थितियां नरेंद्र मोदी के सामने मौजूद हैं। संघ और मोदी सरकार के रिश्तों में तल्खी आती जा रही है। कुछ समय पहले मीडिया में खबरें यहां तक आई कि संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों के नेताओं के विवादास्पद बयानों से आजिज आकर प्रधानमंत्री ने संघ के मुखिया मोहन भागवत के सामने पद त्यागने तक की बात कही। उनकी इस बात का प्रभाव यह हुआ कि धर्मांतरण जैसे मुद्दों पर संघ और उसके सहयोगी दलों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े। उसे घरवापसी जैसे मुद्दों पर तल्ख स्वरों को नम्र करना पड़ा। कई कार्यक्रमों को भी रद करना पड़ा।मोदी और संघ के बीच पैदा हुई दरार अब दिनों दिन चौड़ी होती जा रही है। संघ और भाजपा के बीच समन्वय बिठाने वाले सहसरकार्यवाह कृष्ण गोपाल की नाराजगी इस बात का प्रमाण है। संघ के सहसरकार्यवाह कृष्ण गोपाल के मुताबिक,प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही ठीक कार्य कर रहे हों, लेकिन उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों से संघ संतुष्ट नहीं है। वहीं मोदी संघ से भाजपा में आए या संघ में ही रहने कुछ नेताओं के बार-बार विवादित बयान देने से खुश नहीं हैं। वे अपने ही कई मंत्रियों को कड़े शब्दों में यह चेतावनी दे चुके हैं कि वे विवादास्पद बयान देने से बचें, वरना उनके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है, लेकिन यह चेतावनी भी कारगर होती दिखाई नहीं दे रही है। वे गाहे-बगाहे मोदी के लिए मुसीबत खड़ी करते रहते हैं।
एक तरफ जहां मोदी अपने ही कुछ सहयोगियों से परेशान हैं, तो वहीं दूसरी तरफ संघ भी मोदी के कुछ सहयोगियों को पसंद नहीं कर रहा है। संघ मोदी मंत्रिमंडल के कुछ फैसलों से भी नाखुश बताया जाता है। संघ अपने उदयकाल से ही स्वदेशी का हिमायती रहा है। वह आयातित वस्तुओं और दर्शन का विरोधी माना जाता रहा है। राष्ट्रवादी विचारों से ओत-प्रोत संघ कतई नहीं चाहता है कि बीमा क्षेत्र में पूंजी निवेश करके बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहां अपना रोजगार करें और भारतीय पूंजी सिमटकर अपने देश चली जाएं। संघ तो मोदी सरकार की भूमि अधिग्रहण अध्यादेश से भी खुश नहीं है। संघ और उससे जुड़े दूसरे संगठन इस अध्यादेश को किसान विरोधी मानता है। मोदी सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश का विरोध वामपंथी दलों के साथ-साथ बसपा, सपा जैसी पार्टियां भी कर रही हैं। इनका मानना है कि यह अध्यादेश पूंजीपतियों को कृषि भूमि भी अधिग्रहीत करने की इजाजत देता है। सरकारी साठगांठ से किसी भी किसान को उसकी भूमि से वंचित किया जा सकता है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध तो भाजपा के ही मजदूर संगठन और स्वदेशी जागरण मंच जैसे अनुषांगिक संगठन करते रहे हैं। मोदी और संघ के बीच सामंजस्य न बैठने की वजह से भविष्य में क्या होगा, यह कहना तो बड़ा मुश्किल है। लेकिन इतना तो तय है कि यदि ऐसा ही रहा, तो संघ के प्रिय मोदी नहीं रहेंगे।
लगता है, इतिहास एक बार फिर दोहराया जाने वाला है। सन 1998 में जब भाजपा के इतिहास पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी सरकार बनाई, तो उसके कुछ ही दिनों बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन पर दबाव डालना शुरू कर दिया था कि वे उसकी नीतियों के मुताबिक शासन का एजेंडा तय करें। तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने जब संघ की नीतियों के मुताबिक चलने से इंकार कर दिया, तो पूरी भाजपा और संघ के रिश्तों में तल्खी आती चली गई। वाजपेयी और संघ के बीच आई तल्खी का फायदा उठाया, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने। फरवरी सन 2002 में गुजरात के गोधरा में हुए दंगे पर मोदी को राजधर्म की शिक्षा देने वाले अटल बिहारी वाजपेयी अपने ही हिसाब से चलते रहे। वाजपेयी की सरकार आई, गई, लेकिन उन्होंने संघ को उतनी ही अहमियत दी जितनी कि उनके हिसाब से देनी चाहिए थी। इस बीच गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में और संघ की नीतियों को समर्थन देने वाले कार्यकर्ता के रूप में मोदी संघ के नजदीक आते गए। बाद में तो संघ ने कट्टर हिंदुत्ववादी समझे जाने वाले लाल कृष्ण आडवानी को भी दरकिनार करके मोदी को प्रमुखता दी। नतीजा यह हुआ कि मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित किए गए और आज वे प्रधानमंत्री भी हैं। भारतीय राजनीतिक परि²श्य से स्वास्थ्य के चलते धीरे-धीरे अटल बिहारी वाजपेयी ओझल होते गए।
आज ठीक वैसी ही स्थितियां नरेंद्र मोदी के सामने मौजूद हैं। संघ और मोदी सरकार के रिश्तों में तल्खी आती जा रही है। कुछ समय पहले मीडिया में खबरें यहां तक आई कि संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों के नेताओं के विवादास्पद बयानों से आजिज आकर प्रधानमंत्री ने संघ के मुखिया मोहन भागवत के सामने पद त्यागने तक की बात कही। उनकी इस बात का प्रभाव यह हुआ कि धर्मांतरण जैसे मुद्दों पर संघ और उसके सहयोगी दलों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े। उसे घरवापसी जैसे मुद्दों पर तल्ख स्वरों को नम्र करना पड़ा। कई कार्यक्रमों को भी रद करना पड़ा।मोदी और संघ के बीच पैदा हुई दरार अब दिनों दिन चौड़ी होती जा रही है। संघ और भाजपा के बीच समन्वय बिठाने वाले सहसरकार्यवाह कृष्ण गोपाल की नाराजगी इस बात का प्रमाण है। संघ के सहसरकार्यवाह कृष्ण गोपाल के मुताबिक,प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही ठीक कार्य कर रहे हों, लेकिन उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों से संघ संतुष्ट नहीं है। वहीं मोदी संघ से भाजपा में आए या संघ में ही रहने कुछ नेताओं के बार-बार विवादित बयान देने से खुश नहीं हैं। वे अपने ही कई मंत्रियों को कड़े शब्दों में यह चेतावनी दे चुके हैं कि वे विवादास्पद बयान देने से बचें, वरना उनके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है, लेकिन यह चेतावनी भी कारगर होती दिखाई नहीं दे रही है। वे गाहे-बगाहे मोदी के लिए मुसीबत खड़ी करते रहते हैं।
एक तरफ जहां मोदी अपने ही कुछ सहयोगियों से परेशान हैं, तो वहीं दूसरी तरफ संघ भी मोदी के कुछ सहयोगियों को पसंद नहीं कर रहा है। संघ मोदी मंत्रिमंडल के कुछ फैसलों से भी नाखुश बताया जाता है। संघ अपने उदयकाल से ही स्वदेशी का हिमायती रहा है। वह आयातित वस्तुओं और दर्शन का विरोधी माना जाता रहा है। राष्ट्रवादी विचारों से ओत-प्रोत संघ कतई नहीं चाहता है कि बीमा क्षेत्र में पूंजी निवेश करके बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहां अपना रोजगार करें और भारतीय पूंजी सिमटकर अपने देश चली जाएं। संघ तो मोदी सरकार की भूमि अधिग्रहण अध्यादेश से भी खुश नहीं है। संघ और उससे जुड़े दूसरे संगठन इस अध्यादेश को किसान विरोधी मानता है। मोदी सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश का विरोध वामपंथी दलों के साथ-साथ बसपा, सपा जैसी पार्टियां भी कर रही हैं। इनका मानना है कि यह अध्यादेश पूंजीपतियों को कृषि भूमि भी अधिग्रहीत करने की इजाजत देता है। सरकारी साठगांठ से किसी भी किसान को उसकी भूमि से वंचित किया जा सकता है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध तो भाजपा के ही मजदूर संगठन और स्वदेशी जागरण मंच जैसे अनुषांगिक संगठन करते रहे हैं। मोदी और संघ के बीच सामंजस्य न बैठने की वजह से भविष्य में क्या होगा, यह कहना तो बड़ा मुश्किल है। लेकिन इतना तो तय है कि यदि ऐसा ही रहा, तो संघ के प्रिय मोदी नहीं रहेंगे।
शशि थरूर भी पहनेंगे भगवा चोला!
अशोक मिश्र
भाजपा में अंसतुष्ट कांग्रेसी और 'आपÓ नेताओं को अपने पाले में करने की मुहिम चल रही है। पुराने कांग्रेसी नेता और पूर्व गृहमंत्री बूटा सिंह के पुत्र अरविंदर सिंह लवली भाजपा में शामिल हो ही चुके हैं तो पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के लिए भी वन्दनवार सज चुके हैं।
अब भाजपाई सूत्र कह रहे हैं कि पत्नी सुनंदा पुष्कर की हत्या में जाल में फंसते जा रहे सीनियर कांग्रेसी शशि थरूर किसी भी दिन भगवा चोला पहन चौंका सकते हैं। हालांकि सूत्र बता रहे हैं कि थरूर अपनी पत्नी की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत के मामले में एनडीए सरकार द्वारा लपेट लिए जाने की आशंका से ग्रस्त हैं। वे कुछ ही दिन पहले यह कह भी चुके हैं कि दिल्ली पुलिस उन्हें फंसाने की कोशिश कर रही है। ऐसे में उन्हें भगवा चोला धारण कर लेना ज्यादा मुफीद लग रहा है। वैसे भी वे मोदी के प्रधानमंत्री बनने से लेकर अब तक कई बार प्रशंसा कर चुके हैं और करते भी रहते हैं। मोदी थरूर की इस आशंका को समझते भी हैं। भाजपा उसके महत्वपूर्ण और आजीवन पार्टी के प्रति वफादार रहे नेताओं को अपने पाले में करके राजनीतिक शिकस्त देना चाहती है, इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उन कांग्रेसी नेताओं को चिन्हित करना शुरू किया, जो कांग्रेस में काफी समय से होने के बावजूद इन दिनों असंतुष्ट चल रहे हैं। यही वजह है कि एनडीए सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2 अक्टूबर को स्वच्छ भारत अभियान के नौ रत्नों की सूची जारी की, तो उनमें शशि थरूर का नाम भी था। कांग्रेस की केरल इकाई ने तो उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग भी की थी। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी भी उन्हें पार्टी अनुशासन में रहने की हिदायत दे चुकी हैं। पंजाब के कई बार मुख्यमंत्री रह चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह भी भाजपा का दामन थामने की राह पर हैं। उन्हें पिछले कई सालों से पार्टी में कोई तवज्जो नहीं दी जा रही है। इससे वे असंतुष्ट हैं। आजीवन कट्टर कांग्रेसी नेता रहे स्व. माधवराव सिंधिया के सुपुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपाई चोला धारण करवाने के लिए उनकी बुआ विजयाराजे सिंधिया काफी दिनों से प्रयत्नशील हैं। कोई ताज्जुब नहीं है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की कभी कोर टीम के सदस्य रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया भी तवज्जो न मिलने के चलते भाजपाई हो जाएं।
भाजपा में अंसतुष्ट कांग्रेसी और 'आपÓ नेताओं को अपने पाले में करने की मुहिम चल रही है। पुराने कांग्रेसी नेता और पूर्व गृहमंत्री बूटा सिंह के पुत्र अरविंदर सिंह लवली भाजपा में शामिल हो ही चुके हैं तो पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के लिए भी वन्दनवार सज चुके हैं।
अब भाजपाई सूत्र कह रहे हैं कि पत्नी सुनंदा पुष्कर की हत्या में जाल में फंसते जा रहे सीनियर कांग्रेसी शशि थरूर किसी भी दिन भगवा चोला पहन चौंका सकते हैं। हालांकि सूत्र बता रहे हैं कि थरूर अपनी पत्नी की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत के मामले में एनडीए सरकार द्वारा लपेट लिए जाने की आशंका से ग्रस्त हैं। वे कुछ ही दिन पहले यह कह भी चुके हैं कि दिल्ली पुलिस उन्हें फंसाने की कोशिश कर रही है। ऐसे में उन्हें भगवा चोला धारण कर लेना ज्यादा मुफीद लग रहा है। वैसे भी वे मोदी के प्रधानमंत्री बनने से लेकर अब तक कई बार प्रशंसा कर चुके हैं और करते भी रहते हैं। मोदी थरूर की इस आशंका को समझते भी हैं। भाजपा उसके महत्वपूर्ण और आजीवन पार्टी के प्रति वफादार रहे नेताओं को अपने पाले में करके राजनीतिक शिकस्त देना चाहती है, इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उन कांग्रेसी नेताओं को चिन्हित करना शुरू किया, जो कांग्रेस में काफी समय से होने के बावजूद इन दिनों असंतुष्ट चल रहे हैं। यही वजह है कि एनडीए सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2 अक्टूबर को स्वच्छ भारत अभियान के नौ रत्नों की सूची जारी की, तो उनमें शशि थरूर का नाम भी था। कांग्रेस की केरल इकाई ने तो उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग भी की थी। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी भी उन्हें पार्टी अनुशासन में रहने की हिदायत दे चुकी हैं। पंजाब के कई बार मुख्यमंत्री रह चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह भी भाजपा का दामन थामने की राह पर हैं। उन्हें पिछले कई सालों से पार्टी में कोई तवज्जो नहीं दी जा रही है। इससे वे असंतुष्ट हैं। आजीवन कट्टर कांग्रेसी नेता रहे स्व. माधवराव सिंधिया के सुपुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपाई चोला धारण करवाने के लिए उनकी बुआ विजयाराजे सिंधिया काफी दिनों से प्रयत्नशील हैं। कोई ताज्जुब नहीं है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की कभी कोर टीम के सदस्य रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया भी तवज्जो न मिलने के चलते भाजपाई हो जाएं।
Wednesday, January 14, 2015
बेशर्म और मक्कार हैं पाकिस्तान के नेता
अशोक मिश्र
पाकिस्तान के राजनीतिज्ञ निहायत ही बेशर्म, झूठे, मक्कार और मानवता विरोधी हैं। इनकी बेशर्मी और मक्कारी की सजा वहां की आम जनता को भुगतनी पड़ रही है। कई बार वैश्विक मंचों पर यह साबित हो चुका है कि पाकिस्तान ही एशिया महाद्वीप में फैले आतंकवादियों का पनाहगाह है। वहां आंतकवादियों को न केवल पनाह दिया जाता है, बल्कि उन्हें प्रशिक्षित किया जाता है, उन्हें हथियार और आर्थिक मदद मुहैया कराई जाती है। भारत भी न जाने कितनी बार भारत में होने वाली आतंकी घटनाओं में शामिल होने वाले पाक आतंकियों के बारे में पुख्ता सुबूत सौंप चुका है, लेकिन बेशर्म और झूठा पाकिस्तान उसे मानने को तैयार ही नहीं है। पाकिस्तान के बेशर्म राजनेताओं की पोल अमेरिका द्वारा पाक को आतंकवाद के खिलाफ मुहिम चलाने के मामले में पाक साफ करार दिए जाने के दावे में खुल चुकी है। पाकिस्तान के नेताओं ने दावा यह किया था कि अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी ने पाकिस्तान को आतंकी गुटों के खिलाफ कार्रवाई करने की प्रशंसा करते हुए कैरी-लुगार बिल के तहत तीन हजार करोड़ रुपये (५३२ मिलियन डॉलर) असैन्य सहायता देने का प्रस्ताव अमेरिकी सरकार को भेजा है। पाकिस्तान को आतंकवाद के मुद्दे पर क्लीन चिट मिलने की खबर मिलते ही जब भारत ने अमेरिका के सामने अपनी कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की, तो अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने साफ किया कि ऐसी कोई क्लीनचिट पाकिस्तान को नहीं दी गई है। हालांकि यह भी सही है कि अमेरिका पाकिस्तान को गाहे-बगाहे आर्थिक मदद करता रहा है, आगे भी करता रहेगा। एशिया महाद्वीप पर निगाह रखने के लिए अपने सैनिकों को तैनात करने का सबसे बढिय़ा ठिकाना पाकिस्तान के अलावा कोई दूसरा अमेरिका को नहीं मिलने वाला है। यही वजह है कि अमेरिका तमात विसंगतियों के बावजूद पाकिस्तान का साथ नहीं छोड़ता है। पाकिस्तान के राजनीतिज्ञों की गलत नीतियों के चलते वहां की अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है, वह एक विफल राष्ट्र घोषित किए जाने के कगार पर है। ऐसी हालत में उसे अगर अमेरिकी आर्थिक सहायता न प्राप्त हो, तो वह बरबाद हो जाएगा। आर्थिक मदद देने वाले अमेरिका द्वारा बेइज्जत होने और घुड़की मिलने के बावजूद पाकिस्तान के राजनीतिज्ञ, सेना और खुफिया अधिकारियों में कोई तब्दीली आती हुई नहीं दिख रही है।
पाकिस्तान अपने शेखचिल्लीपने के चलते कई बार अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मुंह की खा चुका है, इसके बावजूद वह सुधरने को तैयार नहीं है। पाकिस्तानी नेताओं, सत्ताधीशों की बचकानी हरकतों का खामियाजा वहां की जनता को भुगतना पड़ रहा है। गरीबी, बेकारी, आतंकवाद, भुखमरी, अशिक्षा और धार्मिक अज्ञानता जैसी बेडिय़ों में जकड़ी पाकिस्तानी जनता कराह रही है, अपने भाग्यविधाताओं को कोस रही है। वैसे तो पाकिस्तान में आजादी के बाद से ज्यादातर सैनिक शासन ही रहा है, लेकिन जब भी चुनाव हुए हैं, उसने बड़ी आशा से अपना नेता चुना है, ताकि उनके जीवन में नया सूर्योदय हो। अफसोस तो इस बात का है कि हर बार पाकिस्तानी जनता को निराशा ही हाथ लगी है। भारत के खिलाफ आम जनता में विष वमन करके सत्ता हथियाने वाले पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ छल-प्रपंचों का सहारा बहुत पहले से ही लेते रहे हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी के नाम पर किया गया यह छल-प्रपंच सिर्फ एक कड़ी भर ही है। पाकिस्तान अपनी दुर्गति के बावजूद बाज नहीं आ रहा है। वह भारत के खिलाफ जहर उगलने का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों का हर संभव उपयोग करता है। हालांकि वह हर बार अपने उस कुत्सित प्रयास में विफल ही रहता है। पाकिस्तान ने अमेरिकी विदेश मंंत्री जॉन कैरी के नाम पर क्लीन चिट दिए जाने की अफवाह इसलिए फैलाई क्योंकि गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आ रहे हैं। यह पाकिस्तानी नेताओं को बर्दाश्त नहीं हो रहा है। वे चाहते हैं कि किसी भी तरह भारत और अमेरिका की बढ़ती नजदीकियों को दूरियों में बदल दिया जाए। यह अफवाह शायद इसी प्रयास का एक हिस्सा भर है।
पाकिस्तान के राजनीतिज्ञ निहायत ही बेशर्म, झूठे, मक्कार और मानवता विरोधी हैं। इनकी बेशर्मी और मक्कारी की सजा वहां की आम जनता को भुगतनी पड़ रही है। कई बार वैश्विक मंचों पर यह साबित हो चुका है कि पाकिस्तान ही एशिया महाद्वीप में फैले आतंकवादियों का पनाहगाह है। वहां आंतकवादियों को न केवल पनाह दिया जाता है, बल्कि उन्हें प्रशिक्षित किया जाता है, उन्हें हथियार और आर्थिक मदद मुहैया कराई जाती है। भारत भी न जाने कितनी बार भारत में होने वाली आतंकी घटनाओं में शामिल होने वाले पाक आतंकियों के बारे में पुख्ता सुबूत सौंप चुका है, लेकिन बेशर्म और झूठा पाकिस्तान उसे मानने को तैयार ही नहीं है। पाकिस्तान के बेशर्म राजनेताओं की पोल अमेरिका द्वारा पाक को आतंकवाद के खिलाफ मुहिम चलाने के मामले में पाक साफ करार दिए जाने के दावे में खुल चुकी है। पाकिस्तान के नेताओं ने दावा यह किया था कि अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी ने पाकिस्तान को आतंकी गुटों के खिलाफ कार्रवाई करने की प्रशंसा करते हुए कैरी-लुगार बिल के तहत तीन हजार करोड़ रुपये (५३२ मिलियन डॉलर) असैन्य सहायता देने का प्रस्ताव अमेरिकी सरकार को भेजा है। पाकिस्तान को आतंकवाद के मुद्दे पर क्लीन चिट मिलने की खबर मिलते ही जब भारत ने अमेरिका के सामने अपनी कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की, तो अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने साफ किया कि ऐसी कोई क्लीनचिट पाकिस्तान को नहीं दी गई है। हालांकि यह भी सही है कि अमेरिका पाकिस्तान को गाहे-बगाहे आर्थिक मदद करता रहा है, आगे भी करता रहेगा। एशिया महाद्वीप पर निगाह रखने के लिए अपने सैनिकों को तैनात करने का सबसे बढिय़ा ठिकाना पाकिस्तान के अलावा कोई दूसरा अमेरिका को नहीं मिलने वाला है। यही वजह है कि अमेरिका तमात विसंगतियों के बावजूद पाकिस्तान का साथ नहीं छोड़ता है। पाकिस्तान के राजनीतिज्ञों की गलत नीतियों के चलते वहां की अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है, वह एक विफल राष्ट्र घोषित किए जाने के कगार पर है। ऐसी हालत में उसे अगर अमेरिकी आर्थिक सहायता न प्राप्त हो, तो वह बरबाद हो जाएगा। आर्थिक मदद देने वाले अमेरिका द्वारा बेइज्जत होने और घुड़की मिलने के बावजूद पाकिस्तान के राजनीतिज्ञ, सेना और खुफिया अधिकारियों में कोई तब्दीली आती हुई नहीं दिख रही है।
पाकिस्तान अपने शेखचिल्लीपने के चलते कई बार अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मुंह की खा चुका है, इसके बावजूद वह सुधरने को तैयार नहीं है। पाकिस्तानी नेताओं, सत्ताधीशों की बचकानी हरकतों का खामियाजा वहां की जनता को भुगतना पड़ रहा है। गरीबी, बेकारी, आतंकवाद, भुखमरी, अशिक्षा और धार्मिक अज्ञानता जैसी बेडिय़ों में जकड़ी पाकिस्तानी जनता कराह रही है, अपने भाग्यविधाताओं को कोस रही है। वैसे तो पाकिस्तान में आजादी के बाद से ज्यादातर सैनिक शासन ही रहा है, लेकिन जब भी चुनाव हुए हैं, उसने बड़ी आशा से अपना नेता चुना है, ताकि उनके जीवन में नया सूर्योदय हो। अफसोस तो इस बात का है कि हर बार पाकिस्तानी जनता को निराशा ही हाथ लगी है। भारत के खिलाफ आम जनता में विष वमन करके सत्ता हथियाने वाले पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ छल-प्रपंचों का सहारा बहुत पहले से ही लेते रहे हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी के नाम पर किया गया यह छल-प्रपंच सिर्फ एक कड़ी भर ही है। पाकिस्तान अपनी दुर्गति के बावजूद बाज नहीं आ रहा है। वह भारत के खिलाफ जहर उगलने का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों का हर संभव उपयोग करता है। हालांकि वह हर बार अपने उस कुत्सित प्रयास में विफल ही रहता है। पाकिस्तान ने अमेरिकी विदेश मंंत्री जॉन कैरी के नाम पर क्लीन चिट दिए जाने की अफवाह इसलिए फैलाई क्योंकि गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आ रहे हैं। यह पाकिस्तानी नेताओं को बर्दाश्त नहीं हो रहा है। वे चाहते हैं कि किसी भी तरह भारत और अमेरिका की बढ़ती नजदीकियों को दूरियों में बदल दिया जाए। यह अफवाह शायद इसी प्रयास का एक हिस्सा भर है।
Thursday, January 8, 2015
स्वामी विवेकानंद : ऐसा संन्यासी जिसने देश को जगा दिया
-अशोक मिश्र
'उठो, जागो और तब तक नहीं रुको, जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए।Ó यही वह शब्दों के रूप में जलते हुए अंगार थे जिसे हथेली पर रखकर ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी से त्रस्त भारत के असंख्य युवाओं ने अपनी कुर्बानी दी थी। शोषित, पीडि़त और अज्ञानता के तिमिर में खोए राष्ट्र के युवाओं को अपने इस तप्त वाक्य से जगाने वाले थे युवा संन्यासी, विचारक, दार्शनिक नरेंद्रनाथ दत्त यानी स्वामी विवेकानंद। वेदांत के सिद्धांतों की पुर्नव्याख्या और स्थापना करने वाले युवा आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद ने पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता की ऐसी मशाल जलाई कि जिसको थामकर हजारों युवक देश को स्वाधीन कराने का संकल्प लेकर घर से निकल पड़े और आत्मोत्सर्ग की ऐसी मिसाल पेश की जो आज भी पूरी दुनिया में बेजोड़ है।
धर्म, विज्ञान, अध्यात्म, क्रांति और संस्कृति में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले स्वामी विवेकानंद का जन्म १२ जनवरी १८६३ को अंग्रेजी सभ्यता के समर्थक विश्वनाथ दत्त के यहां हुआ था। वे पुत्र को भी अपने रंग में रंगना चाहते थे, ताकि बड़ा होकर उनकी तरह कलकत्ता हाईकोर्ट का प्रसिद्ध वकील बन सके। लेकिन यह किसे ज्ञात था कि यही नरेंद्र नाथ एक दिन बड़ा होकर भले ही स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग न ले, लेकिन हजारों स्वाधीनता संग्राम सेनानियां का प्रेरणास्रोत बन जाएगा। वेदांत और योग को पश्चिमी जगत में लोकप्रियता दिलाने वाला युग प्रवर्तक बन जाएगा। पुत्र नरेंद्र नाथ पिता के रंग में तो नहीं रंगा, लेकिन उस पर अपनी मां भुवनेश्वरी देवी का रंग जरूर चढ़ा। बचपन से ही परमात्मा को पाने की लालसा जो प्रबल हुई, तो वह आजीवन बनी रही। 'ब्रह्म समाजÓ में जब उनकी उत्सुकताओं का शमन नहीं हो पाया, तो वह पहुंचे रामकृष्ण परमहंस की शरण में। यहां उनकी न केवल जिज्ञासाएं शांत हुईं, बल्कि संन्यासी रूप धारण करके पूरे हिंदुस्तान के दरिद्र नारायणों की दशा और दिशा जानने का मौका मिला।
गले के कैंसर से पीडि़त गुरु रामकृष्ण परमहंस की जितनी लगन और श्रद्धा के साथ उन्होंने सेवा की, वह विरले ही लोगों में दिखाई देती है। गुरु के काल कवलित होने के बाद उन्होंने अपना जीवन दबे-कुचले लोगों के उद्धार, देश को धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में विश्वगुरु बनाने को समर्पित कर दिया। उन्होंने अपने अल्पकालीन जीवन में बस यही सपना देखा कि पूरी दुनिया सुख, शांति और संपन्नता के साथ रह सके। एक ऐसा समाज बने जिसमें मनुष्य मनुष्य के बीच कोई भेदभाव न रहे। ऊंच-नीच और जातीयता जैसी भावना का उस समाज में कोई स्थान न हो। जिस युग में स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ था, उस समय एक लंबे समय से ब्रिटिश दासता में जकड़ा भारतीय समाज नैराश्य की भावना से ओतप्रोत था। युवाओं में कुंठा, हताशा और कई तरह की सामाजिक कुरीतियां व्याप्त थीं। इन कुरीतियों से निजात पाए बिना देश को स्वाधीन कराना नामुमकिन था। ऐसे में ही एक अवतारी पुरुष की तरह भारतीय समाज में प्रकट हुए स्वामी विवेकानंद जी।
उन्होंने न केवल भारती समाज को जाग्रत किया, बल्कि ११ सितंबर १893 में अमेरिका के शिकागो शहर में होने वाले विश्व धर्म महासभा में पहुंचकर 'अमेरिकी बहनों और भाइयोंÓ कहकर पूरे पाश्चात्य जगत को झकझोरकर जगा दिया। पूरा विश्व चौंककर भारतीय दर्शन की ओर आशा भरी निगाहों से देखने लगा। यह क्रांति का प्रेरणास्रोत, आध्यात्मिक जगत का गुरु, युवाओं का पथ प्रवर्तक अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सका। भरी जवानी में देश और समाज हित में गेरुआ वस्त्र धारण कर पूरी दुनिया को जगाने वाला यह महापुरुष, महान देशभक्त, महान वक्ता और दरिद्र नारायण का उद्धारक ४ जुलाई १९०२ को बेंगलूर के रामकृष्ण मठ में अनंत काल के लिए सो गया।
'उठो, जागो और तब तक नहीं रुको, जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए।Ó यही वह शब्दों के रूप में जलते हुए अंगार थे जिसे हथेली पर रखकर ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी से त्रस्त भारत के असंख्य युवाओं ने अपनी कुर्बानी दी थी। शोषित, पीडि़त और अज्ञानता के तिमिर में खोए राष्ट्र के युवाओं को अपने इस तप्त वाक्य से जगाने वाले थे युवा संन्यासी, विचारक, दार्शनिक नरेंद्रनाथ दत्त यानी स्वामी विवेकानंद। वेदांत के सिद्धांतों की पुर्नव्याख्या और स्थापना करने वाले युवा आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद ने पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता की ऐसी मशाल जलाई कि जिसको थामकर हजारों युवक देश को स्वाधीन कराने का संकल्प लेकर घर से निकल पड़े और आत्मोत्सर्ग की ऐसी मिसाल पेश की जो आज भी पूरी दुनिया में बेजोड़ है।
धर्म, विज्ञान, अध्यात्म, क्रांति और संस्कृति में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले स्वामी विवेकानंद का जन्म १२ जनवरी १८६३ को अंग्रेजी सभ्यता के समर्थक विश्वनाथ दत्त के यहां हुआ था। वे पुत्र को भी अपने रंग में रंगना चाहते थे, ताकि बड़ा होकर उनकी तरह कलकत्ता हाईकोर्ट का प्रसिद्ध वकील बन सके। लेकिन यह किसे ज्ञात था कि यही नरेंद्र नाथ एक दिन बड़ा होकर भले ही स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग न ले, लेकिन हजारों स्वाधीनता संग्राम सेनानियां का प्रेरणास्रोत बन जाएगा। वेदांत और योग को पश्चिमी जगत में लोकप्रियता दिलाने वाला युग प्रवर्तक बन जाएगा। पुत्र नरेंद्र नाथ पिता के रंग में तो नहीं रंगा, लेकिन उस पर अपनी मां भुवनेश्वरी देवी का रंग जरूर चढ़ा। बचपन से ही परमात्मा को पाने की लालसा जो प्रबल हुई, तो वह आजीवन बनी रही। 'ब्रह्म समाजÓ में जब उनकी उत्सुकताओं का शमन नहीं हो पाया, तो वह पहुंचे रामकृष्ण परमहंस की शरण में। यहां उनकी न केवल जिज्ञासाएं शांत हुईं, बल्कि संन्यासी रूप धारण करके पूरे हिंदुस्तान के दरिद्र नारायणों की दशा और दिशा जानने का मौका मिला।
गले के कैंसर से पीडि़त गुरु रामकृष्ण परमहंस की जितनी लगन और श्रद्धा के साथ उन्होंने सेवा की, वह विरले ही लोगों में दिखाई देती है। गुरु के काल कवलित होने के बाद उन्होंने अपना जीवन दबे-कुचले लोगों के उद्धार, देश को धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में विश्वगुरु बनाने को समर्पित कर दिया। उन्होंने अपने अल्पकालीन जीवन में बस यही सपना देखा कि पूरी दुनिया सुख, शांति और संपन्नता के साथ रह सके। एक ऐसा समाज बने जिसमें मनुष्य मनुष्य के बीच कोई भेदभाव न रहे। ऊंच-नीच और जातीयता जैसी भावना का उस समाज में कोई स्थान न हो। जिस युग में स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ था, उस समय एक लंबे समय से ब्रिटिश दासता में जकड़ा भारतीय समाज नैराश्य की भावना से ओतप्रोत था। युवाओं में कुंठा, हताशा और कई तरह की सामाजिक कुरीतियां व्याप्त थीं। इन कुरीतियों से निजात पाए बिना देश को स्वाधीन कराना नामुमकिन था। ऐसे में ही एक अवतारी पुरुष की तरह भारतीय समाज में प्रकट हुए स्वामी विवेकानंद जी।
उन्होंने न केवल भारती समाज को जाग्रत किया, बल्कि ११ सितंबर १893 में अमेरिका के शिकागो शहर में होने वाले विश्व धर्म महासभा में पहुंचकर 'अमेरिकी बहनों और भाइयोंÓ कहकर पूरे पाश्चात्य जगत को झकझोरकर जगा दिया। पूरा विश्व चौंककर भारतीय दर्शन की ओर आशा भरी निगाहों से देखने लगा। यह क्रांति का प्रेरणास्रोत, आध्यात्मिक जगत का गुरु, युवाओं का पथ प्रवर्तक अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सका। भरी जवानी में देश और समाज हित में गेरुआ वस्त्र धारण कर पूरी दुनिया को जगाने वाला यह महापुरुष, महान देशभक्त, महान वक्ता और दरिद्र नारायण का उद्धारक ४ जुलाई १९०२ को बेंगलूर के रामकृष्ण मठ में अनंत काल के लिए सो गया।
Tuesday, January 6, 2015
मानसिकता बदलने की जरूरत
-अशोक मिश्र
हालांकि गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने सूरत पुलिस के एंटी टेरर मॉक ड्रिल में नकली आतंकियों को नमाजी टोपी पहनाए जाने के मामले में माफी मांग ली है। मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल ने माना कि अभ्यास में लोगों को एक खास धर्म के अनुयायियों की टोपी पहने हुए आतंकवादी पेश करना एक भूल है। वहीं, गुजरात बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चे के प्रमुख समेत कई वर्गों ने उसकी आलोचना की थी और मुख्यमंत्री ने कहा था कि धर्म को आतंकवाद से जोडऩा गलत है।
यह छद्म अभ्यास सूरत पुलिस ने ओलपाड के नजदीक डाभरी इलाके में किया था। लेकिन यह गुजरात पुलिस की मानसिकता को जाहिर करने के लिए काफी है। गुजरात के ही नर्मदा जिले के केवाडिय़ा क्षेत्र में हुए एक अन्य मॉक ड्रिल (छद्म अभ्यास) का वीडियो सामने आया है जिसमें एक धर्म विशेष की वेशभूषा धारण किए दो छद्म आतंकियों को पुलिस कर्मचारियों ने पकड़ रखा है और वे चिल्लाकर कह रहे हैं कि तुम चाहे मेरी जान ले लो। इस्लाम जिंदाबाद। इन दोनों छद्म अभ्यासों में एक धर्म विशेष को ही दिखाया गया, उन्हें नमाजी टोपी पहनाई गई, छद्म आतंकियों के मुंह से इस्लाम जिंदाबाद कहलवाया गया। अगर हम थोड़ी देर के लिए इस मात्र संयोग ही मान लें, तो भी यह संयोग तब खतरनाक संकेत की ओर इशारा करते हैं, जब देश में कथित धर्म परिवर्तन और घर वापसी के मुद्दे को लेकर मामला गर्म है। संसद से लेकर सड़क तक गर्माया हुआ है। संघ और उससे अनुषांगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद, धर्म जागरण समिति जैसे संगठन बार-बार यह घोषणा कर रहे हैं कि अमुक जिले में इतने मुसलमानों, इतने ईसाइयों की घरवापसी कराई जाएगी। संघ और उसके सहयोगी दलों का दावा है कि सन २०२० तक इस देश के सारे नागरिक हिंदू हो जाएंगे। यही नहीं, कुछ मुस्लिम और ईसाई संगठन भी धर्म परिवर्तन की कोशिश करते बाज नहीं आ रहे है। आए दिन ऐसी खबरें आती रहती हैं कि फलां जगह पर लोगों को ईसाई हो जाने पर अमुक सुविधाएं दिए जाने का आश्वासन दिया गया, तो अमुक जगह पर मुस्लिम संगठन ने हिंदुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया। जबरदस्ती या लालच देकर धर्म परिवर्तन कराने को किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता है।
गौरतलब है कि गुजरात में ७ से ९ जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस और ११ से १३ जनवरी तक वाइब्रेंट गुजरात निवेशक आयोजित किए जाने हैं। इन आयोजनों की सुरक्षा के मद्देनजर गुजरात पुलिस जगह-जगह मॉक ड्रिल करके सुरक्षा में होने वाली खामियों की पड़ताल कर रही है। मॉक ड्रिल के दौरान ठीक वैसा ही अभ्यास किया जा रहा, जैसा सचमुच आंतकी हमला होने के दौरान पुलिस करती है। ऐसे मॉक ड्रिल विभिन्न अवसरों पर लगभग प्रत्येक राज्य की पुलिस करती है, ऐसा छद्म अभ्यास किसी न किसी राज्य में हर महीने होता रहता है। मुद्दे की बात तो यह है कि गुजरात पुलिस ने अब तक सामने आए दोनों मामलों में एक ही धर्म विशेष के आतंकवादियों को ही क्यों दिखाया? क्या गुजरात पुलिस यह मानती है कि आतंकी सिर्फ नमाजी टोपी पहनने वाले ही होते हैं। वह भी तब जब प्रधानमंत्री और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पूरी दुनिया के सामने यह घोषित कर चुके हैं कि मुसलमान भी उतने ही देशभक्त हैं, जितने कि इस देश के हिंदू। क्या गुजरात पुलिस अपने ही राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री की बातों से इत्तफाक नहीं रखती? हो सकता है कि यह मानवीय चूक हो, जैसा कि मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल और गुजरात के अन्य वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने माना है और मामले की जांच कराने की बात भी कही है, लेकिन यह चूक एक धर्म विशेष को आहत करने के लिए काफी है। यह उनकी देशभक्ति पर संदेह करना है, जो किसी भी दशा में उचित नहीं है। यह इत्तफाक होते हुए भी निंदनीय है। पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को कोई भी ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे किसी भी धर्म के लोगों में असंतोष पैदा करे।
हालांकि गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने सूरत पुलिस के एंटी टेरर मॉक ड्रिल में नकली आतंकियों को नमाजी टोपी पहनाए जाने के मामले में माफी मांग ली है। मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल ने माना कि अभ्यास में लोगों को एक खास धर्म के अनुयायियों की टोपी पहने हुए आतंकवादी पेश करना एक भूल है। वहीं, गुजरात बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चे के प्रमुख समेत कई वर्गों ने उसकी आलोचना की थी और मुख्यमंत्री ने कहा था कि धर्म को आतंकवाद से जोडऩा गलत है।
यह छद्म अभ्यास सूरत पुलिस ने ओलपाड के नजदीक डाभरी इलाके में किया था। लेकिन यह गुजरात पुलिस की मानसिकता को जाहिर करने के लिए काफी है। गुजरात के ही नर्मदा जिले के केवाडिय़ा क्षेत्र में हुए एक अन्य मॉक ड्रिल (छद्म अभ्यास) का वीडियो सामने आया है जिसमें एक धर्म विशेष की वेशभूषा धारण किए दो छद्म आतंकियों को पुलिस कर्मचारियों ने पकड़ रखा है और वे चिल्लाकर कह रहे हैं कि तुम चाहे मेरी जान ले लो। इस्लाम जिंदाबाद। इन दोनों छद्म अभ्यासों में एक धर्म विशेष को ही दिखाया गया, उन्हें नमाजी टोपी पहनाई गई, छद्म आतंकियों के मुंह से इस्लाम जिंदाबाद कहलवाया गया। अगर हम थोड़ी देर के लिए इस मात्र संयोग ही मान लें, तो भी यह संयोग तब खतरनाक संकेत की ओर इशारा करते हैं, जब देश में कथित धर्म परिवर्तन और घर वापसी के मुद्दे को लेकर मामला गर्म है। संसद से लेकर सड़क तक गर्माया हुआ है। संघ और उससे अनुषांगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद, धर्म जागरण समिति जैसे संगठन बार-बार यह घोषणा कर रहे हैं कि अमुक जिले में इतने मुसलमानों, इतने ईसाइयों की घरवापसी कराई जाएगी। संघ और उसके सहयोगी दलों का दावा है कि सन २०२० तक इस देश के सारे नागरिक हिंदू हो जाएंगे। यही नहीं, कुछ मुस्लिम और ईसाई संगठन भी धर्म परिवर्तन की कोशिश करते बाज नहीं आ रहे है। आए दिन ऐसी खबरें आती रहती हैं कि फलां जगह पर लोगों को ईसाई हो जाने पर अमुक सुविधाएं दिए जाने का आश्वासन दिया गया, तो अमुक जगह पर मुस्लिम संगठन ने हिंदुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया। जबरदस्ती या लालच देकर धर्म परिवर्तन कराने को किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता है।
गौरतलब है कि गुजरात में ७ से ९ जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस और ११ से १३ जनवरी तक वाइब्रेंट गुजरात निवेशक आयोजित किए जाने हैं। इन आयोजनों की सुरक्षा के मद्देनजर गुजरात पुलिस जगह-जगह मॉक ड्रिल करके सुरक्षा में होने वाली खामियों की पड़ताल कर रही है। मॉक ड्रिल के दौरान ठीक वैसा ही अभ्यास किया जा रहा, जैसा सचमुच आंतकी हमला होने के दौरान पुलिस करती है। ऐसे मॉक ड्रिल विभिन्न अवसरों पर लगभग प्रत्येक राज्य की पुलिस करती है, ऐसा छद्म अभ्यास किसी न किसी राज्य में हर महीने होता रहता है। मुद्दे की बात तो यह है कि गुजरात पुलिस ने अब तक सामने आए दोनों मामलों में एक ही धर्म विशेष के आतंकवादियों को ही क्यों दिखाया? क्या गुजरात पुलिस यह मानती है कि आतंकी सिर्फ नमाजी टोपी पहनने वाले ही होते हैं। वह भी तब जब प्रधानमंत्री और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पूरी दुनिया के सामने यह घोषित कर चुके हैं कि मुसलमान भी उतने ही देशभक्त हैं, जितने कि इस देश के हिंदू। क्या गुजरात पुलिस अपने ही राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री की बातों से इत्तफाक नहीं रखती? हो सकता है कि यह मानवीय चूक हो, जैसा कि मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल और गुजरात के अन्य वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने माना है और मामले की जांच कराने की बात भी कही है, लेकिन यह चूक एक धर्म विशेष को आहत करने के लिए काफी है। यह उनकी देशभक्ति पर संदेह करना है, जो किसी भी दशा में उचित नहीं है। यह इत्तफाक होते हुए भी निंदनीय है। पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को कोई भी ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे किसी भी धर्म के लोगों में असंतोष पैदा करे।
सेक्युलर पार्टियों के वोट बैंक में लगेगी सेंध?
अशोक मिश्र
उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली सहित हिंदी पट्टी में निकट भविष्य में हिंदूवादी संगठन बजरंग दल, शिवसेना, विश्व हिंदू परिषद की तरह मुस्लिम कट्टरवादी संगठन आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएम आईएम) भी सत्ता की प्रबल दावेदार के रूप में उभरे, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इन दिनों देश में धर्मांतरण या कथित घर वापसी का मुद्दा संसद से लेकर सड़क तक गर्माया हुआ है। ऐसे में आगरा के वेदनगर में पिछले दिनों कथित रूप से घर वापसी करने वाले लोगों से एआईएमआईएम के लोगों ने संपर्क साधने के साथ अल्पसंख्यकों को रिझाना शुरू कर दिया है। एआईएमआईएम के उत्तर प्रदेश संयोजक शौकत अली ने कथित धर्मांतरण करने वाले लोगों के बीच पहुंचकर न केवल संघ और बजरंग दल पर निशाना साधा, बल्कि ऐसा करके उन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कवायद भी शुरू कर दी है। अल्पसंख्यकों को प्रभावित करने के लिए एमआईएम के पदाधिकारियों ने कंबल, खाद्यान्न बांटने के साथ-साथ धर्म परिवर्तन करने वाले लोगों को हर संभव मदद का आश्वासन भी दिया है। जाहिर-सी बात है कि अब भाजपा, संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों की तर्ज पर एमआईएम भी उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें मजबूत करने को संवेदनशील मुद्दे उठाएगी, ताकि अल्पसंख्यकों और दलितों में अपनी पैठ कायम की जा सके।
महाराष्ट्र और तेलंगाना में मिली सफलता के बाद तो उसकी उम्मीदों को पंख लग गए हैं। उसने निकट भविष्य में दिल्ली में होने वाले और बाद में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में उतरने की बात कहनी शुरू कर दी है। कयास लगाया जा रहा है कि दिल्ली में मटिया महल सीट से कई बार जीत चुके विधायक शोएब इकबाल को दिल्ली प्रदेश की जिम्मेदारी दी जा सकती है। एमआईएम का अगला पड़ाव पश्चिम बंगाल है। एमआईएम बहुत ही सधे कदमों से हिंदी पट्टी और पश्चिम बंगाल के मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने की तैयार में है।
आपको बता दें कि एआईएमआईएम असदउद्दीन ओवैसी और अकबरुद्दीन ओवैसी की पार्टी है जो हिंदुओं और देश के खिलाफ जहर उगलने के लिए मशहूर रहे हैं। भाजपा, संघ और अन्य हिंदूवादी संगठनों के खिलाफ कठोर शब्दों का उपयोग करके माहौल में उत्तेजना पैदा करना, ओवैसी बंधुओं की आदत रही है। मुसलमानों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए ओवैसी बंधुओं ने कई बार ऐसा किया है। शिवसेना, बजरंग दल, विहिप की ही तर्ज पर गरजने वाले ओवैसी बंधुओं ने इस बार हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दो सीटों पर सफलता पाई है। इसके अलावा पार्टी पांच सीटों पर दूसरे नंबर पर और नौ पर तीसरे स्थान पर रही। सांप्रदायिक पार्टी की छवि वाली एमआईएम के तेलंगाना प्रदेश में सात विधायक और एक सांसद हैं।
राजनीतिक हलकों तो यह बात भी कही जा रही है कि भाजपा और उसके सहयोगी दल चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि में असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी एमआईएम का विस्तार हो। वह यह मानकर चल रही है कि हिंदी भाषी राज्यों में ओवैसी जितना मजबूत होंगे, उतना ही भाजपा के सत्ता पर काबिज होने की संभावना बढ़ती जाएगी। उसका मानना है कि उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में दलित और मुस्लिम मतदाता मिलकर उसका खेल बिगाड़ देते हैं। अगर उत्तर प्रदेश की ही बात करें, तो प्रदेश के कुल मतदाताओं में दलित मतदाताओं का प्रतिशत 21 है। कई चुनाव क्षेत्र तो ऐसे हैं, जहां यही दलित मतदाता उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला करते हैं। उत्तर प्रदेश में ऐसे 44 लोकसभा क्षेत्र हैं, जहां दलितों की संख्या 20 प्रतिशत से ज्यादा है। इसके अलावा 27 लोकसभा क्षेत्रों में दलितों की संख्या 15 से 20 प्रतिशत है। मुस्लिम वोटरों की संख्या 20 फीसदी है। पश्चिम बंगाल में करीब 25 फीसदी मुस्लिम हैं जो ज्यादातर टीएमसी के पाले में जाते हैं। मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन इसी वोट बैंक पर निगाह गड़ाए हुए है।
यही वह वोट बैंक है जिसके सहारे बसपा, सपा, राजद, आरएलडी, जनता दल यूनाइटेड, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, पीस पार्टी, कौमी एकता दल, अपना दल जैसी तमाम पार्टियां विभिन्न राज्यों की सत्ता पर आती-जाती रही हैं। एक समय था, जब उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पश्चिम बंगाल आदि हिंदी और गैर हिंदी भाषी क्षेत्र के राज्यों में मुसलमानों और दलितों के वोट चुनावों के दौरान कांग्रेस को मिलते थे। इन राज्यों में सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के उदय और विकास के बाद कांग्रेस का यह वोट बैंक खिसक गया और इनमें से ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस न केवल सत्ता से बाहर हो गई, बल्कि चौथे-पांचवें नंबर पर सिमट गई। महाराष्ट्र में तो ओवैसी की पार्टी के पांव जमाने के पीछे शिवसेना का भी हाथ रहा है। महाराष्ट्र में दो सीटों पर जीतने वाली ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम और कट्टर मुस्लिम संगठन तीसरा महाज ने मालेगांव के महापौर और उपमहापौर का पद शिवसेना की बदौलत ही हासिल किया है। शिवसेना ने तीसरा महाज के हाजी इब्राहिम को खुला समर्थन दिया, तो उपमहापौर के चुनाव के समय तटस्थ रही जिसका नतीजा यह हुआ कि दोनों कट्टर मुस्लिम संगठनों का इन पदों पर कब्जा हो गया। मालेगांव में कांग्रेस, जनता दल और मालेगांव विकास आघाड़ी हाथ मलते रह गए।
इतना ही नहीं, एनसीपी को झटका देते हुए उसके आठ नगर सेवक हाल में हुए विधानसभा चुनाव से ठीक पहले एआईएमआईएम में चले गए थे। यह वही शिवसेना है, जो पिछले कई सालों से एआईएमआईएम और ओवैसी बंधुओं पर हमले बोलती रही है। शिवसेना के मुखपत्र सामना में तो यहां तक लिखा गया था कि ओवैसी बंधुओं की कट्टरपंथी विचार व्यक्त करने और उनका प्रचार प्रसार करने की आदत है। दोनों ने देश में मुस्लिमों के दिमाग में जहर भरा है। पिछले साल मार्च में शिवसेना नेता दिवाकर रावते ने कहा था कि इस दल पर पूरे महाराष्ट्र में प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। जाहिर सी बात है कि ओवैसी और उनकी पार्टी की सक्रियता के चलते हिंदी भाषी राज्यों में अपनी दुकान चला रहे धर्मनिरपेक्ष कही जाने वाली पार्टियों के सिर पर एक खतरा मंडराने लगा है। अब उनके वोट बैंक पर सेंध लगने वाली है। ऐसी हालत में उन्हें अपना वोट बैंक बचाने के लिए कुछ ऐसा करना होगा, जिससे दलित और अल्प संख्यक वोटों का विभाजन रोका जा सके।
उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली सहित हिंदी पट्टी में निकट भविष्य में हिंदूवादी संगठन बजरंग दल, शिवसेना, विश्व हिंदू परिषद की तरह मुस्लिम कट्टरवादी संगठन आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएम आईएम) भी सत्ता की प्रबल दावेदार के रूप में उभरे, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इन दिनों देश में धर्मांतरण या कथित घर वापसी का मुद्दा संसद से लेकर सड़क तक गर्माया हुआ है। ऐसे में आगरा के वेदनगर में पिछले दिनों कथित रूप से घर वापसी करने वाले लोगों से एआईएमआईएम के लोगों ने संपर्क साधने के साथ अल्पसंख्यकों को रिझाना शुरू कर दिया है। एआईएमआईएम के उत्तर प्रदेश संयोजक शौकत अली ने कथित धर्मांतरण करने वाले लोगों के बीच पहुंचकर न केवल संघ और बजरंग दल पर निशाना साधा, बल्कि ऐसा करके उन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कवायद भी शुरू कर दी है। अल्पसंख्यकों को प्रभावित करने के लिए एमआईएम के पदाधिकारियों ने कंबल, खाद्यान्न बांटने के साथ-साथ धर्म परिवर्तन करने वाले लोगों को हर संभव मदद का आश्वासन भी दिया है। जाहिर-सी बात है कि अब भाजपा, संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों की तर्ज पर एमआईएम भी उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें मजबूत करने को संवेदनशील मुद्दे उठाएगी, ताकि अल्पसंख्यकों और दलितों में अपनी पैठ कायम की जा सके।
महाराष्ट्र और तेलंगाना में मिली सफलता के बाद तो उसकी उम्मीदों को पंख लग गए हैं। उसने निकट भविष्य में दिल्ली में होने वाले और बाद में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में उतरने की बात कहनी शुरू कर दी है। कयास लगाया जा रहा है कि दिल्ली में मटिया महल सीट से कई बार जीत चुके विधायक शोएब इकबाल को दिल्ली प्रदेश की जिम्मेदारी दी जा सकती है। एमआईएम का अगला पड़ाव पश्चिम बंगाल है। एमआईएम बहुत ही सधे कदमों से हिंदी पट्टी और पश्चिम बंगाल के मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने की तैयार में है।
आपको बता दें कि एआईएमआईएम असदउद्दीन ओवैसी और अकबरुद्दीन ओवैसी की पार्टी है जो हिंदुओं और देश के खिलाफ जहर उगलने के लिए मशहूर रहे हैं। भाजपा, संघ और अन्य हिंदूवादी संगठनों के खिलाफ कठोर शब्दों का उपयोग करके माहौल में उत्तेजना पैदा करना, ओवैसी बंधुओं की आदत रही है। मुसलमानों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए ओवैसी बंधुओं ने कई बार ऐसा किया है। शिवसेना, बजरंग दल, विहिप की ही तर्ज पर गरजने वाले ओवैसी बंधुओं ने इस बार हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दो सीटों पर सफलता पाई है। इसके अलावा पार्टी पांच सीटों पर दूसरे नंबर पर और नौ पर तीसरे स्थान पर रही। सांप्रदायिक पार्टी की छवि वाली एमआईएम के तेलंगाना प्रदेश में सात विधायक और एक सांसद हैं।
राजनीतिक हलकों तो यह बात भी कही जा रही है कि भाजपा और उसके सहयोगी दल चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि में असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी एमआईएम का विस्तार हो। वह यह मानकर चल रही है कि हिंदी भाषी राज्यों में ओवैसी जितना मजबूत होंगे, उतना ही भाजपा के सत्ता पर काबिज होने की संभावना बढ़ती जाएगी। उसका मानना है कि उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में दलित और मुस्लिम मतदाता मिलकर उसका खेल बिगाड़ देते हैं। अगर उत्तर प्रदेश की ही बात करें, तो प्रदेश के कुल मतदाताओं में दलित मतदाताओं का प्रतिशत 21 है। कई चुनाव क्षेत्र तो ऐसे हैं, जहां यही दलित मतदाता उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला करते हैं। उत्तर प्रदेश में ऐसे 44 लोकसभा क्षेत्र हैं, जहां दलितों की संख्या 20 प्रतिशत से ज्यादा है। इसके अलावा 27 लोकसभा क्षेत्रों में दलितों की संख्या 15 से 20 प्रतिशत है। मुस्लिम वोटरों की संख्या 20 फीसदी है। पश्चिम बंगाल में करीब 25 फीसदी मुस्लिम हैं जो ज्यादातर टीएमसी के पाले में जाते हैं। मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन इसी वोट बैंक पर निगाह गड़ाए हुए है।
यही वह वोट बैंक है जिसके सहारे बसपा, सपा, राजद, आरएलडी, जनता दल यूनाइटेड, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, पीस पार्टी, कौमी एकता दल, अपना दल जैसी तमाम पार्टियां विभिन्न राज्यों की सत्ता पर आती-जाती रही हैं। एक समय था, जब उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पश्चिम बंगाल आदि हिंदी और गैर हिंदी भाषी क्षेत्र के राज्यों में मुसलमानों और दलितों के वोट चुनावों के दौरान कांग्रेस को मिलते थे। इन राज्यों में सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के उदय और विकास के बाद कांग्रेस का यह वोट बैंक खिसक गया और इनमें से ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस न केवल सत्ता से बाहर हो गई, बल्कि चौथे-पांचवें नंबर पर सिमट गई। महाराष्ट्र में तो ओवैसी की पार्टी के पांव जमाने के पीछे शिवसेना का भी हाथ रहा है। महाराष्ट्र में दो सीटों पर जीतने वाली ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम और कट्टर मुस्लिम संगठन तीसरा महाज ने मालेगांव के महापौर और उपमहापौर का पद शिवसेना की बदौलत ही हासिल किया है। शिवसेना ने तीसरा महाज के हाजी इब्राहिम को खुला समर्थन दिया, तो उपमहापौर के चुनाव के समय तटस्थ रही जिसका नतीजा यह हुआ कि दोनों कट्टर मुस्लिम संगठनों का इन पदों पर कब्जा हो गया। मालेगांव में कांग्रेस, जनता दल और मालेगांव विकास आघाड़ी हाथ मलते रह गए।
इतना ही नहीं, एनसीपी को झटका देते हुए उसके आठ नगर सेवक हाल में हुए विधानसभा चुनाव से ठीक पहले एआईएमआईएम में चले गए थे। यह वही शिवसेना है, जो पिछले कई सालों से एआईएमआईएम और ओवैसी बंधुओं पर हमले बोलती रही है। शिवसेना के मुखपत्र सामना में तो यहां तक लिखा गया था कि ओवैसी बंधुओं की कट्टरपंथी विचार व्यक्त करने और उनका प्रचार प्रसार करने की आदत है। दोनों ने देश में मुस्लिमों के दिमाग में जहर भरा है। पिछले साल मार्च में शिवसेना नेता दिवाकर रावते ने कहा था कि इस दल पर पूरे महाराष्ट्र में प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। जाहिर सी बात है कि ओवैसी और उनकी पार्टी की सक्रियता के चलते हिंदी भाषी राज्यों में अपनी दुकान चला रहे धर्मनिरपेक्ष कही जाने वाली पार्टियों के सिर पर एक खतरा मंडराने लगा है। अब उनके वोट बैंक पर सेंध लगने वाली है। ऐसी हालत में उन्हें अपना वोट बैंक बचाने के लिए कुछ ऐसा करना होगा, जिससे दलित और अल्प संख्यक वोटों का विभाजन रोका जा सके।
Tuesday, December 30, 2014
कांग्रेस को विचार करना होगा
-अशोक मिश्र
इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर अभी तक बरकरार है। इस बात को जम्मू-कश्मीर और झारखंड विधानसभाओं के आए चुनाव परिणाम से भी साबित होता है। लेकिन यह भी सच है कि मोदी की लोकप्रियता की चमक थोड़ी-सी फीकी अवश्य पड़ी है। ऐसा इसलिए माना जा रहा है क्योंकि झारखंड में तो भाजपा और आजसू गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला, लेकिन जम्मू-कश्मीर में उसे दूसरे नंबर पर ही संतोष करना पड़ा। इसी वर्ष हुए लोकसभा चुनाव के दौरान जिस तरह भारतीय मतदाताओं ने उन पर विश्वास किया, शायद कश्मीर के मतदाताओं का विश्वास जीतने में वे सफल नहीं हो पाए। हां, लोकसभा चुनाव के बाद वे हरिणाया में अपनी सफलता को जरूर दोहराने में कामयाब रहे। महाराष्ट्र में भी उन्हें शिवसेना से गठबंधन करने को मजबूर होना पड़ा। कुल मिलाकर अगर देखें, तो एक बात साफ है कि अभी नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व की लहर खत्म नहीं हुई है। १६ मई को लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद राजनीति के विशेषज्ञ यह मानने लगे थे कि अब केंद्र और राज्यों में गठबंधन की राजनीति का युग समाप्त हो गया। लेकिन झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर राज्यों के चुनाव परिणाम से साफ है कि अभी राज्यों में गठबंधन युग की समाप्ति नहीं हुई है।
इसके कुछ महत्वपूर्ण कारण भी हैं। मतदाता अपना सांसद चुनते समय तो राष्ट्रीय मुद्दों को तवज्जो देते हैं। उनके लिए तब विकास, विदेश नीति, महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दे प्रमुख होते हैं, लेकिन जब उन्हें अपना विधायक चुनना होता है, तो स्थानीय मुद्दे उनके लिए प्रमुख हो जाते हैं। वे राष्ट्रीय मुद्दों को दरकिनार कर देते हैं। वे यह आकलन करने लगते हैं कि उनके इलाके का विकास, बिजली, पानी, सड़क और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं को कौन दिला सकता है? उनके दुख-दर्द कौन सुन सकता है। क्षेत्रीय मुद्दों को प्रमुखता देने की वजह से ही कई बार चुनाव परिणाम बिलकुल अप्रत्याशित आते हैं। कश्मीर में भाजपा की लहर इसलिए भी प्रभावी नहीं हो पाई क्योंकि उसकी छवि हिंदूवादी पार्टी की बन गई थी। इसके लिए किसी हद तक भाजपा और संघ के लोग जिम्मेदार हैं। पिछले कुछ महीनों में संघ और भाजपा नेताओं ने हिंदू राष्ट्र, धर्म परिवर्तन और अल्पसंख्यकों में अविश्वास पैदा करने वाले जो बयान दिए, उससे देश के अल्पसंख्यकों में मोदी के प्रति पैदा होता विश्वास डगमगा गया। विहिप, बजरंग दल और संघ को पहले यह तय करना होगा कि उन्हें भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी को विकास के एजेंडे पर काम करने देना है या फिर देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के एजेंडे पर। जिन मुद्दों पर चुनाव लड़कर मोदी ने सफलता हासिल की है, वह रास्ता उन्हें और भाजपा को कई दशक सत्ता का हकदार बना सकता है। भाजपा और लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस की स्थिति अवश्य कमजोर हुई है। उसने अपने कई राज्यों की सत्ता गंवाई है। कांग्रेस लगातार हाशिये पर सिमटती जा रही है। उसे अपनी स्थिति पर गंभीरता से विचार करना होगा। आत्ममंथन करना होगा कि आखिर ऐसी स्थितियां पैदा हो रही हैं, तो क्यों? और इसका कारण क्या है? इन कारणों की पहचान और उसके बाद तदनुरूप क्रियान्वयन बहुत जरूरी है। झारखंड के चुनाव परिणाम तो उन लोगों को भी सोचने पर मजबूर करने वाले हैं जिन्होंने मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए एक महागठबंधन का निर्माण किया है। झारखंड में उनका तो खाता तक नहीं खुल पाया। उन्हें अपने बड़बोलेपन पर लगाम लगाकर गंभीरता से अपनी हार के कारणों की तलाश करनी होगी। अपनी कमजोरियों से निजात पानी होगी। तभी वे राजनीति में अपनी पुरानी साख कायम रख पाने में सफल होंगे।
इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर अभी तक बरकरार है। इस बात को जम्मू-कश्मीर और झारखंड विधानसभाओं के आए चुनाव परिणाम से भी साबित होता है। लेकिन यह भी सच है कि मोदी की लोकप्रियता की चमक थोड़ी-सी फीकी अवश्य पड़ी है। ऐसा इसलिए माना जा रहा है क्योंकि झारखंड में तो भाजपा और आजसू गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला, लेकिन जम्मू-कश्मीर में उसे दूसरे नंबर पर ही संतोष करना पड़ा। इसी वर्ष हुए लोकसभा चुनाव के दौरान जिस तरह भारतीय मतदाताओं ने उन पर विश्वास किया, शायद कश्मीर के मतदाताओं का विश्वास जीतने में वे सफल नहीं हो पाए। हां, लोकसभा चुनाव के बाद वे हरिणाया में अपनी सफलता को जरूर दोहराने में कामयाब रहे। महाराष्ट्र में भी उन्हें शिवसेना से गठबंधन करने को मजबूर होना पड़ा। कुल मिलाकर अगर देखें, तो एक बात साफ है कि अभी नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व की लहर खत्म नहीं हुई है। १६ मई को लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद राजनीति के विशेषज्ञ यह मानने लगे थे कि अब केंद्र और राज्यों में गठबंधन की राजनीति का युग समाप्त हो गया। लेकिन झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर राज्यों के चुनाव परिणाम से साफ है कि अभी राज्यों में गठबंधन युग की समाप्ति नहीं हुई है।
इसके कुछ महत्वपूर्ण कारण भी हैं। मतदाता अपना सांसद चुनते समय तो राष्ट्रीय मुद्दों को तवज्जो देते हैं। उनके लिए तब विकास, विदेश नीति, महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दे प्रमुख होते हैं, लेकिन जब उन्हें अपना विधायक चुनना होता है, तो स्थानीय मुद्दे उनके लिए प्रमुख हो जाते हैं। वे राष्ट्रीय मुद्दों को दरकिनार कर देते हैं। वे यह आकलन करने लगते हैं कि उनके इलाके का विकास, बिजली, पानी, सड़क और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं को कौन दिला सकता है? उनके दुख-दर्द कौन सुन सकता है। क्षेत्रीय मुद्दों को प्रमुखता देने की वजह से ही कई बार चुनाव परिणाम बिलकुल अप्रत्याशित आते हैं। कश्मीर में भाजपा की लहर इसलिए भी प्रभावी नहीं हो पाई क्योंकि उसकी छवि हिंदूवादी पार्टी की बन गई थी। इसके लिए किसी हद तक भाजपा और संघ के लोग जिम्मेदार हैं। पिछले कुछ महीनों में संघ और भाजपा नेताओं ने हिंदू राष्ट्र, धर्म परिवर्तन और अल्पसंख्यकों में अविश्वास पैदा करने वाले जो बयान दिए, उससे देश के अल्पसंख्यकों में मोदी के प्रति पैदा होता विश्वास डगमगा गया। विहिप, बजरंग दल और संघ को पहले यह तय करना होगा कि उन्हें भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी को विकास के एजेंडे पर काम करने देना है या फिर देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के एजेंडे पर। जिन मुद्दों पर चुनाव लड़कर मोदी ने सफलता हासिल की है, वह रास्ता उन्हें और भाजपा को कई दशक सत्ता का हकदार बना सकता है। भाजपा और लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस की स्थिति अवश्य कमजोर हुई है। उसने अपने कई राज्यों की सत्ता गंवाई है। कांग्रेस लगातार हाशिये पर सिमटती जा रही है। उसे अपनी स्थिति पर गंभीरता से विचार करना होगा। आत्ममंथन करना होगा कि आखिर ऐसी स्थितियां पैदा हो रही हैं, तो क्यों? और इसका कारण क्या है? इन कारणों की पहचान और उसके बाद तदनुरूप क्रियान्वयन बहुत जरूरी है। झारखंड के चुनाव परिणाम तो उन लोगों को भी सोचने पर मजबूर करने वाले हैं जिन्होंने मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए एक महागठबंधन का निर्माण किया है। झारखंड में उनका तो खाता तक नहीं खुल पाया। उन्हें अपने बड़बोलेपन पर लगाम लगाकर गंभीरता से अपनी हार के कारणों की तलाश करनी होगी। अपनी कमजोरियों से निजात पानी होगी। तभी वे राजनीति में अपनी पुरानी साख कायम रख पाने में सफल होंगे।
Sunday, December 21, 2014
सिर्फ एक सियासी खेल है धर्मांतरण
-अशोक मिश्र
अगर देश की इतनी बड़ी आबादी में से लाख-दो लाख ईसाई या मुसलमान या फिर दोनों संप्रदाय के लोग अपना धर्म परिवर्तन करके हिंदू हो जाएं, तो उससे क्या हिंदू धर्म में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा? जिस देश में साठ-सत्तर करोड़ से भी ज्यादा हिंदू रहते हों, उस देश में चंद लोगों के धर्म परिवर्तन कराने से धार्मिक क्रांति होने वाली नहीं है। इस बात को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी संगठनों को अच्छी तरह गांठ बांध लेनी चाहिए। आगरा में जिन ५८-६० परिवारों ने पहले धर्म परिवर्तन किया और बाद में मुकरते हुए हिंदुत्ववादी संगठनों पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया, वह देश के माहौल को देखते हुए चिंताजनक है। आगरा में पहले धर्म परिवर्तन और बाद में धोखाधड़ी का आरोप लगाने वाले ५८-६० मुस्लिम परिवारों के लोग इतने भी नादान या नाबालिग नहीं थे कि कोई उनके हाथों में मूर्तियां दे दे, उनके माथे पर तिलक लगाए, हाथों में कलावा बांधे और बाकायदा समारोह आयोजित करके उनसे हवन करवाए और वे यह न जान पाएं कि उनका धर्मांतरण कराया जा रहा है। इन सभी परिवारों की अगुवाई कर रहे इस्माइल (राजकुमार) का कहना है कि उन्हें लालच देकर जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया। हिंदू धर्म अपनाने के लिए पैसे और बीपीएल राशन कार्ड, एक-एक प्लॉट देने का वादा किया गया था। अब जब ये सारे आश्वासन पूरे होते दिखाई नहीं दे रहे हैं, तो यह धोखाधड़ी हो गई!
दरअसल, आगरा में धर्म परिवर्तन के नाम पर जो कुछ भी हुआ, उसमें दोनों पक्षों की बाकायदा सहमति थी। धर्मांतरण या कथित घर वापसी के बाद जब खबरें मीडिया में आईं और इसको लेकर विवाद पैदा हुआ, तो धर्म परिवर्तन करने वालों ने वही किया, जो उस हालत में कोई भी करता। यानी कि बहानेबाजी, आरोप-प्रत्यारोप और चोंचलेबाजी। अब इस मामले में पुलिस ने कथित धर्मांतरण कराने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषांगिक संगठन धर्म जागरण प्रकल्प (मंच) और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया है, तो स्वाभाविक है कि निकट भविष्य में दोनों पक्ष अपने-अपने तर्क और सुबूत के साथ अदालत में होंगे। धर्म परिवर्तन या कथित घर वापसी करने वाले कोलकाता के मूल निवासी हैं या फिर बांग्लादेशी, यह भी एक विवाद का मुद्दा है। जिन ५८-६० मुस्लिम परिवारों के धर्मांतरण का मुद्दा जब संसद से लेकर सड़क तक को गर्मा रहा है। अब धर्मांतरण या कथित घर वापसी को लेकर हिंदू और अन्य धर्मों से जुड़े संगठनों की बयानबाजी दुखद है। यह बयाबबाजी देश में असुरक्षा का माहौल पैदा कर रही है। इसमें हिंदुत्ववादियों के अलावा दूसरे धर्मों के लोग भी शामिल हैं। अभी जो खबरें आ रही हैं, उसके मुताबिक ईसाई संगठन भी इससे बरी नहीं हैं। हो सकता है कि कुछ मुस्लिम संगठन भी ऐसा ही कर रहे हों।
अब जब मामले ने राजनीतिक रुख अख्तियार कर लिया है, तो स्वाभाविक है कि देश के सारे दल इसको लेकर अपने-अपने वोट बैंक को साधने की दिशा में सक्रिय हो जाएंगे, बल्कि हो गए हैं। अब सड़क से लेकर संसद तक देश खास तौर पर उत्तर प्रदेश की सियासत को गर्माने की कोशिश की जाएगी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तो यहां तक कहा था कि आगामी क्रिसमस पर पांच हजार अल्पसंख्यकों की घरवापसी कराई जाएगी। हालाँकि अब इस आयोजन को टाल देने की बात कही जा रही है। आरएसएस ऐसे आयोजन पहले भी कर चुका है। हां, ऐसे आयोजन पहले इस तरह डंके की चोट पर नहीं होते थे। यह शायद पहली बार है कि संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों ने खुले आम धर्म परिवर्तन या कथित घर वापसी की घोषणा की है। हिंदू धर्म त्यागकर ईसाई या मुसलमान बनने वालों या इस्लाम और ईसाइयत त्याग कर कथित रूप से हिंदू बनने वालों को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि वैसे तो धर्मांतरण पर भारत में कोई संवैधानिक रोक नहीं है। यद्यपि केंद्र सरकार कह रही है कि यदि विपक्ष चाहे तो धर्मान्तरण पर प्रतिबन्ध लगाने को सरकार तैयार है। लेकिन इससे पहले जिन लोगों ने अपना धर्म त्याग कर किसी प्रेरणावश, लालच या अपने धर्म की विसंगतियों से ऊबकर दूसरे का धर्म अपनाया है, उनकी क्या दशा हुई है, इसे भी वे जान-समझ लें। आजादी से पहले और आजादी के बाद जितने भी लोगों ने किसी कारणवश हिंदू धर्म का परित्याग किया है, वे आज उस धर्म के लोगों द्वारा कितने स्वीकार किए गए, यह जानना बहुत जरूरी है। जहां तक हिंदुत्व की बात है, तो उसके बारे में एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि हिंदू बनाए नहीं जाते हैं, पैदा होते हैं। हिंदू धर्म की सदस्यता जन्म से ही प्राप्त होती है। इसके लिए कोई अनुष्ठान, आयोजन या प्रयास नहीं करना पड़ता है। हिंदू धर्म का कट्टर आलोचक भी हिंदू ही होता है, यदि वह हिंदू परिवार में पैदा हुआ है, जबकि मुसलमान बनने के लिए उसका अल्लाह पर विश्वास, खतना होना, कुरान की आयतों पर विश्वास रखना जरूरी होता है। मुसलमान बनने की एक निश्चित प्रक्रिया है, उसके बाद ही वह मुसलमान होता है। ऐसा ही ईसाई धर्म में भी होता है। बाकायदा एक धार्मिक अनुष्ठान के बाद ही वह अपने को ईसाई कह सकता है, लेकिन हिंदू..? बच्चा तो हिंदू घर में पैदा होते ही हिंदू हो जाता है।
अब जो लोग ईसाई या मुस्लिम धर्म त्याग कर हिंदू बनेंगे, क्या वे ब्राह्मण हो जाएंगे? क्षत्रिय हो जाएंगे, वैश्य हो जाएंगे या दलितों की तरह जीवन बिताने को अभिशप्त होंगे? उन्हें समाज का वह तबका, जो अपने को उच्च मानता है, उन्हें गले से लगा लेगा? उनकी हालत तो ठीक वैसी ही होगी, जो न घर का हुआ, न घाट का। ऐसे परिवारों में क्या हिंदू समाज का सबसे निचला तबका भी अपनी बहन-बेटी का रिश्ता लेकर जाएगा? फिर लोग कथित धर्मांतरण के बाद मुंगेरी लाल की तरह सुखद जीवन यापन के सुहाने सपने क्यों देखते हैं? भारतीय संविधान के निर्माता कहे जाने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर ने हिंदू समाज की असमानताओं, विसंगतियों और जाति-पांति जैसी क्रूर प्रथाओं से आजिज आकर बौद्ध धर्म अपना लिया था, लेकिन कहते हैं कि बाद में बौद्ध धर्म में अपनाए जा रही कुछ विसंगतियों से वे भी दुखी हो गए थे। किसी भी धर्म से किसी दूसरे धर्म में जाने वाले लोगों से एक बार यह जरूर जानने की कोशिश की जानी चाहिए कि वे जिन रूढिय़ों, कुप्रथाओं, ऊंच-नीच के भेदभावों से ऊबकर उन्होंने अपना धर्म त्यागा था, तो क्या वे जिस धर्म में गए, उसमें यह विसंगतियां हैं या नहीं? उनका जवाब ही सारी हकीकत को उजागर कर देगा। ऊंच-नीच, छोटे-बड़े का भेदभाव हर धर्म में मौजूद है। ऐसे में जाहिर है कि आगरा में धर्म परिवर्तन केपीछे कोई लालच, कोई दबाव, कोई अपेक्षा काम कर रही थी। अभी तो इस बात का खुलासा होना बाकी है कि आगरा में कथित रूप से धर्मांतरण करने वालों को क्या-क्या आश्वासन दिए गए थे? उन्होंने क्या-क्या अपेक्षाएं हिंदुत्व के कथित ठेकेदारों से की थी और जब पूरी नहीं हुईं या मुस्लिम संगठनों का दबाव पड़ा, तो वे अपने बयान से पलट गए या धोखाधड़ी का आरोप लगाकर अपनी सांसत में फंसी जान छुड़ाने की जुगत में हैं।
कोई माने या न माने, लेकिन इतना तो तय है कि पूरी दुनिया में धर्मांतरण एक सियासी खेल है। इस खेल में हिंदूवादी संगठन लगे हुए हैं, तो पाक साफ मुस्लिम और ईसाई संगठन भी नहीं हैं। मुस्लिम और ईसाई संगठन पिछले कई सदियों से भारत में धर्मांतरण का खेल खेल रहे हैं। दलितों, आदिवासियों और समाज के आर्थिक रूप से कमजोर समुदायों को ईसाई संगठन किस तरह आर्थिक मदद के नाम पर, उनकी सेवा के नाम पर और धर्मांतरण के बाद सुखद जीवन का लालच देकर धर्मांतरण कराते चले आ रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, केरल, उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि में सक्रिय ईसाई मिशनरियां यही तो कर रही हैं। इसमें कथित रूप से मुस्लिम संगठन भी पीछे नहीं हैं। इस खेल में पिछले चार-पांच दशक से हिंदू सगंठन भी शामिल हो गए हैं। अब तो सत्ता हथियाने, समाज में विक्षोभ पैदा करके सांप्रदायिक धुव्रीकरण की प्रक्रिया को तेज करने का एक हथियार बन गया है धर्मांतरण। समाज को इससे ही बचाना होगा, तभी हम शांति से रहने की अपेक्षा कर सकते हैं।
अगर देश की इतनी बड़ी आबादी में से लाख-दो लाख ईसाई या मुसलमान या फिर दोनों संप्रदाय के लोग अपना धर्म परिवर्तन करके हिंदू हो जाएं, तो उससे क्या हिंदू धर्म में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा? जिस देश में साठ-सत्तर करोड़ से भी ज्यादा हिंदू रहते हों, उस देश में चंद लोगों के धर्म परिवर्तन कराने से धार्मिक क्रांति होने वाली नहीं है। इस बात को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी संगठनों को अच्छी तरह गांठ बांध लेनी चाहिए। आगरा में जिन ५८-६० परिवारों ने पहले धर्म परिवर्तन किया और बाद में मुकरते हुए हिंदुत्ववादी संगठनों पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया, वह देश के माहौल को देखते हुए चिंताजनक है। आगरा में पहले धर्म परिवर्तन और बाद में धोखाधड़ी का आरोप लगाने वाले ५८-६० मुस्लिम परिवारों के लोग इतने भी नादान या नाबालिग नहीं थे कि कोई उनके हाथों में मूर्तियां दे दे, उनके माथे पर तिलक लगाए, हाथों में कलावा बांधे और बाकायदा समारोह आयोजित करके उनसे हवन करवाए और वे यह न जान पाएं कि उनका धर्मांतरण कराया जा रहा है। इन सभी परिवारों की अगुवाई कर रहे इस्माइल (राजकुमार) का कहना है कि उन्हें लालच देकर जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया। हिंदू धर्म अपनाने के लिए पैसे और बीपीएल राशन कार्ड, एक-एक प्लॉट देने का वादा किया गया था। अब जब ये सारे आश्वासन पूरे होते दिखाई नहीं दे रहे हैं, तो यह धोखाधड़ी हो गई!
दरअसल, आगरा में धर्म परिवर्तन के नाम पर जो कुछ भी हुआ, उसमें दोनों पक्षों की बाकायदा सहमति थी। धर्मांतरण या कथित घर वापसी के बाद जब खबरें मीडिया में आईं और इसको लेकर विवाद पैदा हुआ, तो धर्म परिवर्तन करने वालों ने वही किया, जो उस हालत में कोई भी करता। यानी कि बहानेबाजी, आरोप-प्रत्यारोप और चोंचलेबाजी। अब इस मामले में पुलिस ने कथित धर्मांतरण कराने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषांगिक संगठन धर्म जागरण प्रकल्प (मंच) और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया है, तो स्वाभाविक है कि निकट भविष्य में दोनों पक्ष अपने-अपने तर्क और सुबूत के साथ अदालत में होंगे। धर्म परिवर्तन या कथित घर वापसी करने वाले कोलकाता के मूल निवासी हैं या फिर बांग्लादेशी, यह भी एक विवाद का मुद्दा है। जिन ५८-६० मुस्लिम परिवारों के धर्मांतरण का मुद्दा जब संसद से लेकर सड़क तक को गर्मा रहा है। अब धर्मांतरण या कथित घर वापसी को लेकर हिंदू और अन्य धर्मों से जुड़े संगठनों की बयानबाजी दुखद है। यह बयाबबाजी देश में असुरक्षा का माहौल पैदा कर रही है। इसमें हिंदुत्ववादियों के अलावा दूसरे धर्मों के लोग भी शामिल हैं। अभी जो खबरें आ रही हैं, उसके मुताबिक ईसाई संगठन भी इससे बरी नहीं हैं। हो सकता है कि कुछ मुस्लिम संगठन भी ऐसा ही कर रहे हों।
अब जब मामले ने राजनीतिक रुख अख्तियार कर लिया है, तो स्वाभाविक है कि देश के सारे दल इसको लेकर अपने-अपने वोट बैंक को साधने की दिशा में सक्रिय हो जाएंगे, बल्कि हो गए हैं। अब सड़क से लेकर संसद तक देश खास तौर पर उत्तर प्रदेश की सियासत को गर्माने की कोशिश की जाएगी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तो यहां तक कहा था कि आगामी क्रिसमस पर पांच हजार अल्पसंख्यकों की घरवापसी कराई जाएगी। हालाँकि अब इस आयोजन को टाल देने की बात कही जा रही है। आरएसएस ऐसे आयोजन पहले भी कर चुका है। हां, ऐसे आयोजन पहले इस तरह डंके की चोट पर नहीं होते थे। यह शायद पहली बार है कि संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों ने खुले आम धर्म परिवर्तन या कथित घर वापसी की घोषणा की है। हिंदू धर्म त्यागकर ईसाई या मुसलमान बनने वालों या इस्लाम और ईसाइयत त्याग कर कथित रूप से हिंदू बनने वालों को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि वैसे तो धर्मांतरण पर भारत में कोई संवैधानिक रोक नहीं है। यद्यपि केंद्र सरकार कह रही है कि यदि विपक्ष चाहे तो धर्मान्तरण पर प्रतिबन्ध लगाने को सरकार तैयार है। लेकिन इससे पहले जिन लोगों ने अपना धर्म त्याग कर किसी प्रेरणावश, लालच या अपने धर्म की विसंगतियों से ऊबकर दूसरे का धर्म अपनाया है, उनकी क्या दशा हुई है, इसे भी वे जान-समझ लें। आजादी से पहले और आजादी के बाद जितने भी लोगों ने किसी कारणवश हिंदू धर्म का परित्याग किया है, वे आज उस धर्म के लोगों द्वारा कितने स्वीकार किए गए, यह जानना बहुत जरूरी है। जहां तक हिंदुत्व की बात है, तो उसके बारे में एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि हिंदू बनाए नहीं जाते हैं, पैदा होते हैं। हिंदू धर्म की सदस्यता जन्म से ही प्राप्त होती है। इसके लिए कोई अनुष्ठान, आयोजन या प्रयास नहीं करना पड़ता है। हिंदू धर्म का कट्टर आलोचक भी हिंदू ही होता है, यदि वह हिंदू परिवार में पैदा हुआ है, जबकि मुसलमान बनने के लिए उसका अल्लाह पर विश्वास, खतना होना, कुरान की आयतों पर विश्वास रखना जरूरी होता है। मुसलमान बनने की एक निश्चित प्रक्रिया है, उसके बाद ही वह मुसलमान होता है। ऐसा ही ईसाई धर्म में भी होता है। बाकायदा एक धार्मिक अनुष्ठान के बाद ही वह अपने को ईसाई कह सकता है, लेकिन हिंदू..? बच्चा तो हिंदू घर में पैदा होते ही हिंदू हो जाता है।
अब जो लोग ईसाई या मुस्लिम धर्म त्याग कर हिंदू बनेंगे, क्या वे ब्राह्मण हो जाएंगे? क्षत्रिय हो जाएंगे, वैश्य हो जाएंगे या दलितों की तरह जीवन बिताने को अभिशप्त होंगे? उन्हें समाज का वह तबका, जो अपने को उच्च मानता है, उन्हें गले से लगा लेगा? उनकी हालत तो ठीक वैसी ही होगी, जो न घर का हुआ, न घाट का। ऐसे परिवारों में क्या हिंदू समाज का सबसे निचला तबका भी अपनी बहन-बेटी का रिश्ता लेकर जाएगा? फिर लोग कथित धर्मांतरण के बाद मुंगेरी लाल की तरह सुखद जीवन यापन के सुहाने सपने क्यों देखते हैं? भारतीय संविधान के निर्माता कहे जाने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर ने हिंदू समाज की असमानताओं, विसंगतियों और जाति-पांति जैसी क्रूर प्रथाओं से आजिज आकर बौद्ध धर्म अपना लिया था, लेकिन कहते हैं कि बाद में बौद्ध धर्म में अपनाए जा रही कुछ विसंगतियों से वे भी दुखी हो गए थे। किसी भी धर्म से किसी दूसरे धर्म में जाने वाले लोगों से एक बार यह जरूर जानने की कोशिश की जानी चाहिए कि वे जिन रूढिय़ों, कुप्रथाओं, ऊंच-नीच के भेदभावों से ऊबकर उन्होंने अपना धर्म त्यागा था, तो क्या वे जिस धर्म में गए, उसमें यह विसंगतियां हैं या नहीं? उनका जवाब ही सारी हकीकत को उजागर कर देगा। ऊंच-नीच, छोटे-बड़े का भेदभाव हर धर्म में मौजूद है। ऐसे में जाहिर है कि आगरा में धर्म परिवर्तन केपीछे कोई लालच, कोई दबाव, कोई अपेक्षा काम कर रही थी। अभी तो इस बात का खुलासा होना बाकी है कि आगरा में कथित रूप से धर्मांतरण करने वालों को क्या-क्या आश्वासन दिए गए थे? उन्होंने क्या-क्या अपेक्षाएं हिंदुत्व के कथित ठेकेदारों से की थी और जब पूरी नहीं हुईं या मुस्लिम संगठनों का दबाव पड़ा, तो वे अपने बयान से पलट गए या धोखाधड़ी का आरोप लगाकर अपनी सांसत में फंसी जान छुड़ाने की जुगत में हैं।
कोई माने या न माने, लेकिन इतना तो तय है कि पूरी दुनिया में धर्मांतरण एक सियासी खेल है। इस खेल में हिंदूवादी संगठन लगे हुए हैं, तो पाक साफ मुस्लिम और ईसाई संगठन भी नहीं हैं। मुस्लिम और ईसाई संगठन पिछले कई सदियों से भारत में धर्मांतरण का खेल खेल रहे हैं। दलितों, आदिवासियों और समाज के आर्थिक रूप से कमजोर समुदायों को ईसाई संगठन किस तरह आर्थिक मदद के नाम पर, उनकी सेवा के नाम पर और धर्मांतरण के बाद सुखद जीवन का लालच देकर धर्मांतरण कराते चले आ रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, केरल, उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि में सक्रिय ईसाई मिशनरियां यही तो कर रही हैं। इसमें कथित रूप से मुस्लिम संगठन भी पीछे नहीं हैं। इस खेल में पिछले चार-पांच दशक से हिंदू सगंठन भी शामिल हो गए हैं। अब तो सत्ता हथियाने, समाज में विक्षोभ पैदा करके सांप्रदायिक धुव्रीकरण की प्रक्रिया को तेज करने का एक हथियार बन गया है धर्मांतरण। समाज को इससे ही बचाना होगा, तभी हम शांति से रहने की अपेक्षा कर सकते हैं।
Tuesday, December 9, 2014
किसे छल रहे हैं मोदी?
अशोक मिश्र
इन दिनों पूरा देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लय और ताल पर झूम रहा है। उनके करिश्माई व्यक्तित्व, जोशीले अंदाज में दिए गए भाषणों और साफ-सुथरी छवि पर आम जनता से लेकर मीडिया तक मुग्ध है। होना भी चाहिए। वैश्विक और राष्ट्रीय परिदृश्य में पिछले कई दशकों से व्याप्त नीरसता, जड़ता को तोडऩे में उन्होंने सफलता जो प्राप्त कर ली है। पिछले महीने जब वे दस दिन की विदेश यात्रा से लौटकर वापस आए थे, तो देश की पूरी जनता ही नहीं, प्रधानमंत्री खुद भी आत्ममुग्ध जैसे दिखे थे। वे झारखंड और जम्मू-कश्मीर में होने वाले चुनावी रैलियों में विदेश यात्रा के किस्से सुनाने से भी नहीं चूके। उन्होंने अपनी विदेश यात्राओं का इस अंदाज में जिक्र किया, मानो बस कुछ ही दिनों में विदेशी पूंजी निवेश की बाढ़ आने वाली है और उस बाढ़ में देश का प्रत्येक व्यक्ति डूबेगा-उतराएगा। देश में इतने उद्योग-धंधे लगेंगे, इतना पैसा होगा कि सबकी समस्याएं बस छूमंतर हो जाएंगी। बेरोजगारी तो यों छूमंतर हो जाएगी। मेक इन इंडिया के भी कसीदे खूब काढ़े गए। इसे मोदी मैजिक ही कहा जाएगा कि उनकी बातों पर लोगों ने विश्वास किया।
आगामी गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रस्तावित भारत दौरे को भी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी को यह बात कतई नहीं भूलनी चाहिए कि अभी हाल ही में अमेरिका ने एशिया में पुनर्संतुलन की समर नीति घोषित की है जिसको लेकर एशियाई देश काफी चौकन्ने हो गए हैं। बराक ओबामा की यह प्रस्तावित यात्रा उस सामरिक नीतियों का परिणाम है जिसको प्रधानमंत्री अपनी उपलब्धि बताते नहीं थक रहे हैं। बराक ओबामा भारत आकर चीन पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना चाहते हैं, ताकि वह एशिया में अमेरिकी हस्तक्षेप को लेकर विरोध न करे।
जिन लोगों को चुनाव के दौरान मोदी द्वारा दिए गए भाषणों के थोड़े से भी अंश याद होंगे, उन्हें मालूम होगा कि वे पूरे देश में घूम-घूमकर अच्छे दिन लाने का वायदा कर रहे थे। उनकी पार्टी ने मीडिया में इस बात का प्रचार भी खूब किया था। क्या हुआ उस वायदे का? किसके अच्छे दिन आए? सिर्फ मुकेश-अनिल अंबानी तथा गौतम अडानी के? पिछले महीने की जिस विदेश यात्रा पर मोदी इतना इतरा रहे हैं, उस यात्रा के दौरान आस्ट्रेलिया में अदानी ने एक बड़ा समझौता किया है। इस समझौते में है कि अदानी ग्रुप अब ऑस्ट्रेलिया के क्लेरमांट शहर में कारमाइकल कोयला खान से कोयला निकालेगा। ऑस्ट्रेलिया में कोयला खनन परियोजना के लिए अदानी को एक बड़े कर्ज लगभग एक अरब डॉलर (छह हजार करोड़ रुपये) की जरूरत थी। यह कर्ज दिया देश के सबसे बड़े सार्वजनिक बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने, जबकि दुनिया के छह बड़े बैंक अदानी समूह को लोन देने से मना कर चुके थे। सच बात तो यह है कि सितम्बर, 2014 के अंत तक अदानी ग्रुप पर कुल 72,000 करोड़ रुपये की देनदारी थी। यह देनदारी ज्यादातर राष्ट्रीयकृत बैंकों की है। इसके बावजूद भारतीय स्टेट बैंक ने अडानी समूह को कर्ज क्यों दिया, यह सवाल विचारणीय है। अगर हम थोड़ी देर के लिए मान लें कि इससे देश में कोयला आएगा, तो फिर केंद्रीय बिजली मंत्री पीयूष गोयल के उस बयान का क्या होगा जिसमें उन्होंने कहा है कि देश में कोयले की कोई कमी नहीं है। भारत अगले दो साल में कोयले का आयात बंद कर देगा। जिन दिनों नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, उन दिनों गुजरात की जमीनों को अदानी को सस्ते में देने के आरोप भी मोदी पर लगे थे, लेकिन उन आरोपों का क्या हुआ, आज तक किसी को नहीं मालूम है।
जिस कालेधन की आंधी चलाकर यूपीए की सत्ता को उखाड़कर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, वही काली आंधी एक दिन उन्हें भी निगल लेगी, इस बात को भाजपा को अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए। भ्रष्टाचार और बोफोर्स तोप सौदे में हुए घोटाले के आरोपों के रथ पर सवार होकर एकदम मसीहाई छवि के साथ 2 दिसंबर 1989 को प्रधानमंत्री बनने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह को जनता ने कुछ ही दिनों बाद अस्वीकार कर दिया था। उन्होंने बड़े जोर-शोर से राजीव गांधी के भ्रष्टाचार की कलई खोलने का वायदा जनता से लोकसभा चुनाव के दौरान किया था, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद जब वे बहाने बनाने लगे, तो वे साल भर के अंदर ही जनता की निगाह से उतर गए थे। प्रधानमंत्री मोदी भी अब उसी राह पर चल निकले हैं। चुनाव के दौरान सौ दिन में कालाधन देश में लाने का वायदा करने वाले प्रधानमंत्री अब इस मुद्दे पर किंतु-परंतु करते नजर आ रहे हैं। अब तो वे इस वायदे से मुकर रहे हैं कि उन्होंने ऐसा कोई वायदा किया भी था। अभी तो नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने चुनावी वायदों से मुकरना शुरू किया है। स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस की मौत से जुड़े 39 दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की बात से मोदी सरकार मुकर चुकी है। विपक्ष में रहते इसी मुद्दे पर वह बवाल काट चुकी है। तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपनी कटक यात्रा के समय नेताजी की 117वीं जयंती के मौके पर मांग की थी कि यूपीए सरकार उनसे जुड़े रेकॉर्ड को सार्वजनिक करे। लेकिन मोदी सरकार का पीएमओ अब इस बात से सहमत नहीं दिखाई देता जो कि उसके जवाब से झलकता है। पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे के दौरान मोदी ने बांग्लादेश के साथ जमीनों की अदला-बदली की बात कही है, भाजपा नेता इससे पहले इसका विरोध करते रहे हैं। यूपीए के इस फैसले को राष्ट्रविरोधी तक करार दिया गया था। रेल किराया, इंश्योंरेंस सेक्टर में एफडीआई 26 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी करने, पूरे देश में समान वस्तु और सेवा कर लाने, भूमि अधिग्रहण और फूड सिक्यॉरिटी कानून जैसे मुद्दों पर मोदी सरकार का वही रवैया है, जो इससे पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह का था। भाजपा इन्हीं मुद्दों का विरोध करने के दम पर ही तो सरकार में आने में कामयाब हुई है। लेकिन भाजपा नेता और मोदी सरकार में शामिल मंत्री इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किससे छल रहे हैं? जनता से, अपने आप से या फिर अन्य राजनीतिक दलों से? यह छल एक न एक दिन उन्हें भारी पड़ेगा। जनता की याददाश्त इतनी भी कमजोर नहीं होती कि वह मोदी के चुनावी वायदों को भूल जाएगी।
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