-अशोक मिश्र
'उठो, जागो और तब तक नहीं रुको, जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए।Ó यही वह शब्दों के रूप में जलते हुए अंगार थे जिसे हथेली पर रखकर ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी से त्रस्त भारत के असंख्य युवाओं ने अपनी कुर्बानी दी थी। शोषित, पीडि़त और अज्ञानता के तिमिर में खोए राष्ट्र के युवाओं को अपने इस तप्त वाक्य से जगाने वाले थे युवा संन्यासी, विचारक, दार्शनिक नरेंद्रनाथ दत्त यानी स्वामी विवेकानंद। वेदांत के सिद्धांतों की पुर्नव्याख्या और स्थापना करने वाले युवा आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद ने पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता की ऐसी मशाल जलाई कि जिसको थामकर हजारों युवक देश को स्वाधीन कराने का संकल्प लेकर घर से निकल पड़े और आत्मोत्सर्ग की ऐसी मिसाल पेश की जो आज भी पूरी दुनिया में बेजोड़ है।
धर्म, विज्ञान, अध्यात्म, क्रांति और संस्कृति में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले स्वामी विवेकानंद का जन्म १२ जनवरी १८६३ को अंग्रेजी सभ्यता के समर्थक विश्वनाथ दत्त के यहां हुआ था। वे पुत्र को भी अपने रंग में रंगना चाहते थे, ताकि बड़ा होकर उनकी तरह कलकत्ता हाईकोर्ट का प्रसिद्ध वकील बन सके। लेकिन यह किसे ज्ञात था कि यही नरेंद्र नाथ एक दिन बड़ा होकर भले ही स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग न ले, लेकिन हजारों स्वाधीनता संग्राम सेनानियां का प्रेरणास्रोत बन जाएगा। वेदांत और योग को पश्चिमी जगत में लोकप्रियता दिलाने वाला युग प्रवर्तक बन जाएगा। पुत्र नरेंद्र नाथ पिता के रंग में तो नहीं रंगा, लेकिन उस पर अपनी मां भुवनेश्वरी देवी का रंग जरूर चढ़ा। बचपन से ही परमात्मा को पाने की लालसा जो प्रबल हुई, तो वह आजीवन बनी रही। 'ब्रह्म समाजÓ में जब उनकी उत्सुकताओं का शमन नहीं हो पाया, तो वह पहुंचे रामकृष्ण परमहंस की शरण में। यहां उनकी न केवल जिज्ञासाएं शांत हुईं, बल्कि संन्यासी रूप धारण करके पूरे हिंदुस्तान के दरिद्र नारायणों की दशा और दिशा जानने का मौका मिला।
गले के कैंसर से पीडि़त गुरु रामकृष्ण परमहंस की जितनी लगन और श्रद्धा के साथ उन्होंने सेवा की, वह विरले ही लोगों में दिखाई देती है। गुरु के काल कवलित होने के बाद उन्होंने अपना जीवन दबे-कुचले लोगों के उद्धार, देश को धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में विश्वगुरु बनाने को समर्पित कर दिया। उन्होंने अपने अल्पकालीन जीवन में बस यही सपना देखा कि पूरी दुनिया सुख, शांति और संपन्नता के साथ रह सके। एक ऐसा समाज बने जिसमें मनुष्य मनुष्य के बीच कोई भेदभाव न रहे। ऊंच-नीच और जातीयता जैसी भावना का उस समाज में कोई स्थान न हो। जिस युग में स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ था, उस समय एक लंबे समय से ब्रिटिश दासता में जकड़ा भारतीय समाज नैराश्य की भावना से ओतप्रोत था। युवाओं में कुंठा, हताशा और कई तरह की सामाजिक कुरीतियां व्याप्त थीं। इन कुरीतियों से निजात पाए बिना देश को स्वाधीन कराना नामुमकिन था। ऐसे में ही एक अवतारी पुरुष की तरह भारतीय समाज में प्रकट हुए स्वामी विवेकानंद जी।
उन्होंने न केवल भारती समाज को जाग्रत किया, बल्कि ११ सितंबर १893 में अमेरिका के शिकागो शहर में होने वाले विश्व धर्म महासभा में पहुंचकर 'अमेरिकी बहनों और भाइयोंÓ कहकर पूरे पाश्चात्य जगत को झकझोरकर जगा दिया। पूरा विश्व चौंककर भारतीय दर्शन की ओर आशा भरी निगाहों से देखने लगा। यह क्रांति का प्रेरणास्रोत, आध्यात्मिक जगत का गुरु, युवाओं का पथ प्रवर्तक अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सका। भरी जवानी में देश और समाज हित में गेरुआ वस्त्र धारण कर पूरी दुनिया को जगाने वाला यह महापुरुष, महान देशभक्त, महान वक्ता और दरिद्र नारायण का उद्धारक ४ जुलाई १९०२ को बेंगलूर के रामकृष्ण मठ में अनंत काल के लिए सो गया।
'उठो, जागो और तब तक नहीं रुको, जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए।Ó यही वह शब्दों के रूप में जलते हुए अंगार थे जिसे हथेली पर रखकर ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी से त्रस्त भारत के असंख्य युवाओं ने अपनी कुर्बानी दी थी। शोषित, पीडि़त और अज्ञानता के तिमिर में खोए राष्ट्र के युवाओं को अपने इस तप्त वाक्य से जगाने वाले थे युवा संन्यासी, विचारक, दार्शनिक नरेंद्रनाथ दत्त यानी स्वामी विवेकानंद। वेदांत के सिद्धांतों की पुर्नव्याख्या और स्थापना करने वाले युवा आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद ने पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता की ऐसी मशाल जलाई कि जिसको थामकर हजारों युवक देश को स्वाधीन कराने का संकल्प लेकर घर से निकल पड़े और आत्मोत्सर्ग की ऐसी मिसाल पेश की जो आज भी पूरी दुनिया में बेजोड़ है।
धर्म, विज्ञान, अध्यात्म, क्रांति और संस्कृति में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले स्वामी विवेकानंद का जन्म १२ जनवरी १८६३ को अंग्रेजी सभ्यता के समर्थक विश्वनाथ दत्त के यहां हुआ था। वे पुत्र को भी अपने रंग में रंगना चाहते थे, ताकि बड़ा होकर उनकी तरह कलकत्ता हाईकोर्ट का प्रसिद्ध वकील बन सके। लेकिन यह किसे ज्ञात था कि यही नरेंद्र नाथ एक दिन बड़ा होकर भले ही स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग न ले, लेकिन हजारों स्वाधीनता संग्राम सेनानियां का प्रेरणास्रोत बन जाएगा। वेदांत और योग को पश्चिमी जगत में लोकप्रियता दिलाने वाला युग प्रवर्तक बन जाएगा। पुत्र नरेंद्र नाथ पिता के रंग में तो नहीं रंगा, लेकिन उस पर अपनी मां भुवनेश्वरी देवी का रंग जरूर चढ़ा। बचपन से ही परमात्मा को पाने की लालसा जो प्रबल हुई, तो वह आजीवन बनी रही। 'ब्रह्म समाजÓ में जब उनकी उत्सुकताओं का शमन नहीं हो पाया, तो वह पहुंचे रामकृष्ण परमहंस की शरण में। यहां उनकी न केवल जिज्ञासाएं शांत हुईं, बल्कि संन्यासी रूप धारण करके पूरे हिंदुस्तान के दरिद्र नारायणों की दशा और दिशा जानने का मौका मिला।
गले के कैंसर से पीडि़त गुरु रामकृष्ण परमहंस की जितनी लगन और श्रद्धा के साथ उन्होंने सेवा की, वह विरले ही लोगों में दिखाई देती है। गुरु के काल कवलित होने के बाद उन्होंने अपना जीवन दबे-कुचले लोगों के उद्धार, देश को धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में विश्वगुरु बनाने को समर्पित कर दिया। उन्होंने अपने अल्पकालीन जीवन में बस यही सपना देखा कि पूरी दुनिया सुख, शांति और संपन्नता के साथ रह सके। एक ऐसा समाज बने जिसमें मनुष्य मनुष्य के बीच कोई भेदभाव न रहे। ऊंच-नीच और जातीयता जैसी भावना का उस समाज में कोई स्थान न हो। जिस युग में स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ था, उस समय एक लंबे समय से ब्रिटिश दासता में जकड़ा भारतीय समाज नैराश्य की भावना से ओतप्रोत था। युवाओं में कुंठा, हताशा और कई तरह की सामाजिक कुरीतियां व्याप्त थीं। इन कुरीतियों से निजात पाए बिना देश को स्वाधीन कराना नामुमकिन था। ऐसे में ही एक अवतारी पुरुष की तरह भारतीय समाज में प्रकट हुए स्वामी विवेकानंद जी।
उन्होंने न केवल भारती समाज को जाग्रत किया, बल्कि ११ सितंबर १893 में अमेरिका के शिकागो शहर में होने वाले विश्व धर्म महासभा में पहुंचकर 'अमेरिकी बहनों और भाइयोंÓ कहकर पूरे पाश्चात्य जगत को झकझोरकर जगा दिया। पूरा विश्व चौंककर भारतीय दर्शन की ओर आशा भरी निगाहों से देखने लगा। यह क्रांति का प्रेरणास्रोत, आध्यात्मिक जगत का गुरु, युवाओं का पथ प्रवर्तक अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सका। भरी जवानी में देश और समाज हित में गेरुआ वस्त्र धारण कर पूरी दुनिया को जगाने वाला यह महापुरुष, महान देशभक्त, महान वक्ता और दरिद्र नारायण का उद्धारक ४ जुलाई १९०२ को बेंगलूर के रामकृष्ण मठ में अनंत काल के लिए सो गया।
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