अशोक मिश्र
हर साल गणतंत्र दिवस पर मुझे रघुवीर सहाय की यह पंक्तियां जरूर याद आ जाती हैं, राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत-भाग्य विधाता है, फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है। वाकई इस हरचरना की ओर देखने की फुरसत किसी को भी नहीं है। और...अब यह सवाल खुद हरचरना को ही उद्वेलित नहीं करता कि 'कौन-कौन है वह जन-गण-मन अधिनायक वह महाबली, डरा हुआ मन बेमन जिसका बाजा रोज बजाता है।Ó ऐसे में हरचरना की परेशानियों, उसके दुख-दर्द, हर्ष-विषाद की बात सोचने की जहमत कौन उठाए और क्यों? लोकतंत्र के कथित सरमाएदार तो गणतंत्र दिवस को लेकर कुछ दशक पहले तक पैदा होने वाले उत्साह और चेतना को ही उनके मानस से खुरच देना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि भले ही देश में कहने को गणतंत्र है, लेकिन इस दिन कहीं ऐसा न हो कि यही हरचरना पूछ बैठे कि तुम्हारे गणतंत्र में 'गणÓ कहां है और 'तंत्रÓ कहां? पिछले एक महीने से पूरे देश में गणतंत्र को लेकर जो गहमागहमी है, उसका कारण यह है कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने आने वाले हैं। पिछले एक महीने से पूरे देश को इस तरह मथा जा रहा है कि भारत की अस्मिता और संप्रभुता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण ओबामा की सुरक्षा है। कि भारतीय खुफिया एजेंसियां ओबामा की सुरक्षा कर पाने में अक्षम हैं, नाकारा हैं, निकम्मी हैं। हमारे देश के भाग्य विधाता, नौकरशाह और पूंजीपतियों की तिकड़ी उनके आगे बिछी जा रही है क्योंकि उनके आने से दोनों देशों के पूंजीपतियों को पांच सौ अरब डॉलर मूल्य के कारोबार का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।
इस मामले में मजेदार बात तो यह है कि पिछले 66 सालों से हर बार इस गणतंत्र के औचित्य पर सवाल खड़ा होता है कि यह सब आयोजन आखिर किसके लिए हो रहा है? उस 'गणÓ के लिए, जिसकी पीठ पर पडऩे वाला 'तंत्रÓ का चाबुक रोज कहीं न कहीं उसकी खाल उधेड़ रहा है? या फिर उन पूंजीपतियों के लिए जो इस पूरी व्यवस्था के संचालक और पोषक हैं। अगर हम पूरी पूंजीवादी व्यवस्था पर गौर करें, तो पाते हैं कि इसी गणतंत्र दिवस की आड़ में भ्रष्ट और आम अवाम विरोधी व्यवस्था के नुमाइंदे मंत्री, सांसद, विधायक और नेता, व्यवस्था के संचालक नौकरशाह और पूंजीपति वर्ग की आपसी गठजोड़ से मौज करते हैं, अवाम का निर्मम रक्त शोषण करते हैं और बेचारा गण अपनी लहूलुहान पीठ लिए इसी व्यवस्था की सेवा में दिन-रात लगा रहता है। उफ तक नहीं करता। पिछले 66 सालों से पूरे तामझाम के साथ गणतंत्र दिवस समारोह आयोजित किए जा रहे हैं। कई सौ करोड़ रुपये हर साल इन समारोहों पर खर्च होते हैं। इन आयोजनों में देश की आम जनता की कितनी भागीदारी है? वह तो दिल्ली और देश के अन्य प्रदेशों की राजधानियों और जिलों में होने वाली परेड, झांकी को सिर्फ मूक दर्शक की तरह देखने को मजबूर है। देश का विकास नहीं हुआ है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। देश में फैला सड़कों का संजाल, ऊंची-ऊंची इमारतें, विकसित होते मेट्रो और स्मार्ट शहर, आवागमन की बढ़ती सुविधाएं, गांवों और दूरदराज के कस्बों तक पहुंचती बिजली, पानी और स्वास्थ्य की सुविधाएं, हवाई जहाज से लेकर दुपहिया वाहनों की दिनोंदिन बढ़ती तादाद विकास का एक दूसरा ही रूप सामने पेश करते हैं। ये सुविधाएं किस कीमत पर हैं?
यह भी देखने की कोशिश कभी शासकों ने की है? स्मार्ट शहरों की चमक-दमक के पीछे कितना सघन अंधकार छिपा हुआ है, यह कौन देखेगा? माना कि विकास हुआ है, लेकिन किसके लिए? झोपड़पट्टी से लेकर गांव-कस्बों में रहने वाले लोगों की भलाई के लिए? देश के मंत्री, सांसद और विधायक से लेकर गांव-गली का छुटभैया नेता, छोटे से लेकर बड़े नौकरशाह और पूंजीपति इस देश की शोषित, पीडि़त जनता को दिखाते हुए यह कहते नहीं थकते कि देखो...यह सड़क जो किसी नवयौवना के गाल से भी ज्यादा चिकनी है, तुम्हारे लिए बनवाई है। यह सारा विकास सिर्फ तुम्हारे लिए है। लेकिन क्या सच यही है? गणतंत्र में आम जनता के हितों के नाम पर चलने वाली परियोजनाओं और होने वाले विकास के पीछे सत्ता और पूंजी का निर्मम खेल किसी की समझ में नहीं आता है।
उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, मध्य प्रदेश सहित अन्य राज्यों में रहने वाले दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की हालत क्या है, इसको जानने के लिए बहुत ज्यादा शोध करने की जररूत नहीं है। अभी हाल ही में वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की मीटिंग में ऑक्सफैम चैरिटी संस्था के कार्यकारी निदेशक विन्नी बयनिमा ने कहा है कि पूरी दुनिया में जितनी दौलत 99 फीसदी लोगों के पास है, उससे भी कहीं ज्यादा दौलत सिर्फ एक फीसदी लोगों के पास है। यह फासला समय बीतने के साथ-साथ बढ़ता जाएगा। यह उस विकास की एक तस्वीर भर है, जो दुनिया में आम जनता के हितों के नाम पर किया जा रहा है। भ्रष्ट और निकम्मी पूंजीवादी व्यवस्था में विकास की अनिवार्यता इसलिए भी है कि फैक्ट्रियों में उत्पादित माल आसानी के साथ दूरदराज इलाकों तक सुगमता से पहुंच सके और पूंजीपतियों को अकूत मुनाफा हो सके। गणतंत्रवादी विकास की असलियत यही है।
भारत में इस विकास की आधारशिला रखने वाली थी बुर्जुआ कांग्रेस। कांग्रेस की ही आमजन विरोधी नीतियों में थोड़ा बहुत फेरबदल करके बड़े गाजे-बाजे के साथ आगे बढ़ा रहे हैं दक्षिणपंथी भाजपा के नरेंद्र मोदी। देश के विभिन्न राज्यों में पूंजीपतियों के रक्षक-पोषक की भूमिका में हैं विभिन्न झंडे और नारों वाले सभी वामपंथी दल और बसपा, सपा, राजद, टीएमसी, द्रुमुक, अन्नाद्रुमुक जैसी छोटी-बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां। इनकी आपस में प्रतिद्वंद्विता सिर्फ इस बात के लिए है कि हर पांच साल बाद इस भ्रष्ट और निकम्मी पूंजीवादी व्यवस्था का संचालक कौन बने?
शोषण पर आधारित बिकाऊ माल की अर्थव्यवस्था का संचालक बनने की होड़ में ये पार्टियां एक दूसरे पर लांछन लगाती हैं, एक दूसरे की टांग खींचती हैं, लेकिन जहां भी आम जन की पीठ पर लाठियां बरसाने की बात आती है, पूंजीपतियों के हित साधने होते हैं, सब एक हो जाती हैं। यही इनका वर्गीय चरित्र है। विभिन्न किस्म के झंडों और नारों की बदौलत देश के वास्तविक 'गणÓ को 'तंत्रÓ का भय दिखाकर उन्हें बरगालाती हैं।
इस मामले में मजेदार बात तो यह है कि पिछले 66 सालों से हर बार इस गणतंत्र के औचित्य पर सवाल खड़ा होता है कि यह सब आयोजन आखिर किसके लिए हो रहा है? उस 'गणÓ के लिए, जिसकी पीठ पर पडऩे वाला 'तंत्रÓ का चाबुक रोज कहीं न कहीं उसकी खाल उधेड़ रहा है? या फिर उन पूंजीपतियों के लिए जो इस पूरी व्यवस्था के संचालक और पोषक हैं। अगर हम पूरी पूंजीवादी व्यवस्था पर गौर करें, तो पाते हैं कि इसी गणतंत्र दिवस की आड़ में भ्रष्ट और आम अवाम विरोधी व्यवस्था के नुमाइंदे मंत्री, सांसद, विधायक और नेता, व्यवस्था के संचालक नौकरशाह और पूंजीपति वर्ग की आपसी गठजोड़ से मौज करते हैं, अवाम का निर्मम रक्त शोषण करते हैं और बेचारा गण अपनी लहूलुहान पीठ लिए इसी व्यवस्था की सेवा में दिन-रात लगा रहता है। उफ तक नहीं करता। पिछले 66 सालों से पूरे तामझाम के साथ गणतंत्र दिवस समारोह आयोजित किए जा रहे हैं। कई सौ करोड़ रुपये हर साल इन समारोहों पर खर्च होते हैं। इन आयोजनों में देश की आम जनता की कितनी भागीदारी है? वह तो दिल्ली और देश के अन्य प्रदेशों की राजधानियों और जिलों में होने वाली परेड, झांकी को सिर्फ मूक दर्शक की तरह देखने को मजबूर है। देश का विकास नहीं हुआ है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। देश में फैला सड़कों का संजाल, ऊंची-ऊंची इमारतें, विकसित होते मेट्रो और स्मार्ट शहर, आवागमन की बढ़ती सुविधाएं, गांवों और दूरदराज के कस्बों तक पहुंचती बिजली, पानी और स्वास्थ्य की सुविधाएं, हवाई जहाज से लेकर दुपहिया वाहनों की दिनोंदिन बढ़ती तादाद विकास का एक दूसरा ही रूप सामने पेश करते हैं। ये सुविधाएं किस कीमत पर हैं?
यह भी देखने की कोशिश कभी शासकों ने की है? स्मार्ट शहरों की चमक-दमक के पीछे कितना सघन अंधकार छिपा हुआ है, यह कौन देखेगा? माना कि विकास हुआ है, लेकिन किसके लिए? झोपड़पट्टी से लेकर गांव-कस्बों में रहने वाले लोगों की भलाई के लिए? देश के मंत्री, सांसद और विधायक से लेकर गांव-गली का छुटभैया नेता, छोटे से लेकर बड़े नौकरशाह और पूंजीपति इस देश की शोषित, पीडि़त जनता को दिखाते हुए यह कहते नहीं थकते कि देखो...यह सड़क जो किसी नवयौवना के गाल से भी ज्यादा चिकनी है, तुम्हारे लिए बनवाई है। यह सारा विकास सिर्फ तुम्हारे लिए है। लेकिन क्या सच यही है? गणतंत्र में आम जनता के हितों के नाम पर चलने वाली परियोजनाओं और होने वाले विकास के पीछे सत्ता और पूंजी का निर्मम खेल किसी की समझ में नहीं आता है।
उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, मध्य प्रदेश सहित अन्य राज्यों में रहने वाले दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की हालत क्या है, इसको जानने के लिए बहुत ज्यादा शोध करने की जररूत नहीं है। अभी हाल ही में वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की मीटिंग में ऑक्सफैम चैरिटी संस्था के कार्यकारी निदेशक विन्नी बयनिमा ने कहा है कि पूरी दुनिया में जितनी दौलत 99 फीसदी लोगों के पास है, उससे भी कहीं ज्यादा दौलत सिर्फ एक फीसदी लोगों के पास है। यह फासला समय बीतने के साथ-साथ बढ़ता जाएगा। यह उस विकास की एक तस्वीर भर है, जो दुनिया में आम जनता के हितों के नाम पर किया जा रहा है। भ्रष्ट और निकम्मी पूंजीवादी व्यवस्था में विकास की अनिवार्यता इसलिए भी है कि फैक्ट्रियों में उत्पादित माल आसानी के साथ दूरदराज इलाकों तक सुगमता से पहुंच सके और पूंजीपतियों को अकूत मुनाफा हो सके। गणतंत्रवादी विकास की असलियत यही है।
भारत में इस विकास की आधारशिला रखने वाली थी बुर्जुआ कांग्रेस। कांग्रेस की ही आमजन विरोधी नीतियों में थोड़ा बहुत फेरबदल करके बड़े गाजे-बाजे के साथ आगे बढ़ा रहे हैं दक्षिणपंथी भाजपा के नरेंद्र मोदी। देश के विभिन्न राज्यों में पूंजीपतियों के रक्षक-पोषक की भूमिका में हैं विभिन्न झंडे और नारों वाले सभी वामपंथी दल और बसपा, सपा, राजद, टीएमसी, द्रुमुक, अन्नाद्रुमुक जैसी छोटी-बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां। इनकी आपस में प्रतिद्वंद्विता सिर्फ इस बात के लिए है कि हर पांच साल बाद इस भ्रष्ट और निकम्मी पूंजीवादी व्यवस्था का संचालक कौन बने?
शोषण पर आधारित बिकाऊ माल की अर्थव्यवस्था का संचालक बनने की होड़ में ये पार्टियां एक दूसरे पर लांछन लगाती हैं, एक दूसरे की टांग खींचती हैं, लेकिन जहां भी आम जन की पीठ पर लाठियां बरसाने की बात आती है, पूंजीपतियों के हित साधने होते हैं, सब एक हो जाती हैं। यही इनका वर्गीय चरित्र है। विभिन्न किस्म के झंडों और नारों की बदौलत देश के वास्तविक 'गणÓ को 'तंत्रÓ का भय दिखाकर उन्हें बरगालाती हैं।
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