अशोक मिश्र
इन दिनों पूरा देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लय और ताल पर झूम रहा है। उनके करिश्माई व्यक्तित्व, जोशीले अंदाज में दिए गए भाषणों और साफ-सुथरी छवि पर आम जनता से लेकर मीडिया तक मुग्ध है। होना भी चाहिए। वैश्विक और राष्ट्रीय परिदृश्य में पिछले कई दशकों से व्याप्त नीरसता, जड़ता को तोडऩे में उन्होंने सफलता जो प्राप्त कर ली है। पिछले महीने जब वे दस दिन की विदेश यात्रा से लौटकर वापस आए थे, तो देश की पूरी जनता ही नहीं, प्रधानमंत्री खुद भी आत्ममुग्ध जैसे दिखे थे। वे झारखंड और जम्मू-कश्मीर में होने वाले चुनावी रैलियों में विदेश यात्रा के किस्से सुनाने से भी नहीं चूके। उन्होंने अपनी विदेश यात्राओं का इस अंदाज में जिक्र किया, मानो बस कुछ ही दिनों में विदेशी पूंजी निवेश की बाढ़ आने वाली है और उस बाढ़ में देश का प्रत्येक व्यक्ति डूबेगा-उतराएगा। देश में इतने उद्योग-धंधे लगेंगे, इतना पैसा होगा कि सबकी समस्याएं बस छूमंतर हो जाएंगी। बेरोजगारी तो यों छूमंतर हो जाएगी। मेक इन इंडिया के भी कसीदे खूब काढ़े गए। इसे मोदी मैजिक ही कहा जाएगा कि उनकी बातों पर लोगों ने विश्वास किया।
आगामी गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रस्तावित भारत दौरे को भी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी को यह बात कतई नहीं भूलनी चाहिए कि अभी हाल ही में अमेरिका ने एशिया में पुनर्संतुलन की समर नीति घोषित की है जिसको लेकर एशियाई देश काफी चौकन्ने हो गए हैं। बराक ओबामा की यह प्रस्तावित यात्रा उस सामरिक नीतियों का परिणाम है जिसको प्रधानमंत्री अपनी उपलब्धि बताते नहीं थक रहे हैं। बराक ओबामा भारत आकर चीन पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना चाहते हैं, ताकि वह एशिया में अमेरिकी हस्तक्षेप को लेकर विरोध न करे।
जिन लोगों को चुनाव के दौरान मोदी द्वारा दिए गए भाषणों के थोड़े से भी अंश याद होंगे, उन्हें मालूम होगा कि वे पूरे देश में घूम-घूमकर अच्छे दिन लाने का वायदा कर रहे थे। उनकी पार्टी ने मीडिया में इस बात का प्रचार भी खूब किया था। क्या हुआ उस वायदे का? किसके अच्छे दिन आए? सिर्फ मुकेश-अनिल अंबानी तथा गौतम अडानी के? पिछले महीने की जिस विदेश यात्रा पर मोदी इतना इतरा रहे हैं, उस यात्रा के दौरान आस्ट्रेलिया में अदानी ने एक बड़ा समझौता किया है। इस समझौते में है कि अदानी ग्रुप अब ऑस्ट्रेलिया के क्लेरमांट शहर में कारमाइकल कोयला खान से कोयला निकालेगा। ऑस्ट्रेलिया में कोयला खनन परियोजना के लिए अदानी को एक बड़े कर्ज लगभग एक अरब डॉलर (छह हजार करोड़ रुपये) की जरूरत थी। यह कर्ज दिया देश के सबसे बड़े सार्वजनिक बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने, जबकि दुनिया के छह बड़े बैंक अदानी समूह को लोन देने से मना कर चुके थे। सच बात तो यह है कि सितम्बर, 2014 के अंत तक अदानी ग्रुप पर कुल 72,000 करोड़ रुपये की देनदारी थी। यह देनदारी ज्यादातर राष्ट्रीयकृत बैंकों की है। इसके बावजूद भारतीय स्टेट बैंक ने अडानी समूह को कर्ज क्यों दिया, यह सवाल विचारणीय है। अगर हम थोड़ी देर के लिए मान लें कि इससे देश में कोयला आएगा, तो फिर केंद्रीय बिजली मंत्री पीयूष गोयल के उस बयान का क्या होगा जिसमें उन्होंने कहा है कि देश में कोयले की कोई कमी नहीं है। भारत अगले दो साल में कोयले का आयात बंद कर देगा। जिन दिनों नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, उन दिनों गुजरात की जमीनों को अदानी को सस्ते में देने के आरोप भी मोदी पर लगे थे, लेकिन उन आरोपों का क्या हुआ, आज तक किसी को नहीं मालूम है।
जिस कालेधन की आंधी चलाकर यूपीए की सत्ता को उखाड़कर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, वही काली आंधी एक दिन उन्हें भी निगल लेगी, इस बात को भाजपा को अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए। भ्रष्टाचार और बोफोर्स तोप सौदे में हुए घोटाले के आरोपों के रथ पर सवार होकर एकदम मसीहाई छवि के साथ 2 दिसंबर 1989 को प्रधानमंत्री बनने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह को जनता ने कुछ ही दिनों बाद अस्वीकार कर दिया था। उन्होंने बड़े जोर-शोर से राजीव गांधी के भ्रष्टाचार की कलई खोलने का वायदा जनता से लोकसभा चुनाव के दौरान किया था, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद जब वे बहाने बनाने लगे, तो वे साल भर के अंदर ही जनता की निगाह से उतर गए थे। प्रधानमंत्री मोदी भी अब उसी राह पर चल निकले हैं। चुनाव के दौरान सौ दिन में कालाधन देश में लाने का वायदा करने वाले प्रधानमंत्री अब इस मुद्दे पर किंतु-परंतु करते नजर आ रहे हैं। अब तो वे इस वायदे से मुकर रहे हैं कि उन्होंने ऐसा कोई वायदा किया भी था। अभी तो नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने चुनावी वायदों से मुकरना शुरू किया है। स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस की मौत से जुड़े 39 दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की बात से मोदी सरकार मुकर चुकी है। विपक्ष में रहते इसी मुद्दे पर वह बवाल काट चुकी है। तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपनी कटक यात्रा के समय नेताजी की 117वीं जयंती के मौके पर मांग की थी कि यूपीए सरकार उनसे जुड़े रेकॉर्ड को सार्वजनिक करे। लेकिन मोदी सरकार का पीएमओ अब इस बात से सहमत नहीं दिखाई देता जो कि उसके जवाब से झलकता है। पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे के दौरान मोदी ने बांग्लादेश के साथ जमीनों की अदला-बदली की बात कही है, भाजपा नेता इससे पहले इसका विरोध करते रहे हैं। यूपीए के इस फैसले को राष्ट्रविरोधी तक करार दिया गया था। रेल किराया, इंश्योंरेंस सेक्टर में एफडीआई 26 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी करने, पूरे देश में समान वस्तु और सेवा कर लाने, भूमि अधिग्रहण और फूड सिक्यॉरिटी कानून जैसे मुद्दों पर मोदी सरकार का वही रवैया है, जो इससे पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह का था। भाजपा इन्हीं मुद्दों का विरोध करने के दम पर ही तो सरकार में आने में कामयाब हुई है। लेकिन भाजपा नेता और मोदी सरकार में शामिल मंत्री इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किससे छल रहे हैं? जनता से, अपने आप से या फिर अन्य राजनीतिक दलों से? यह छल एक न एक दिन उन्हें भारी पड़ेगा। जनता की याददाश्त इतनी भी कमजोर नहीं होती कि वह मोदी के चुनावी वायदों को भूल जाएगी।
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