अशोक मिश्र
गालियों का क्या बुरा मानना! गालियां बुरी होतीं, तो इनका इतना विस्तार क्यों होता। गालियों का तो भगवान श्रीराम ने भी बुरा नहीं माना था। जब धनुष भंग के बाद अयोध्यापति महाराज दशरथ अपने चारों पुत्रों की बारात लेकर जनकपुरी पहुंचे, तो शादी के बाद अगले दिन कलेवा के समय राम और उनके सभी भाइयों को सीता और उनकी बहनों की सहेलियों ने ऐसी-ऐसी गालियों से नवाजा था जिसे सुनकर उनके दांत जरूर खट्टे हो गए होंगे। लेकिन मजाल है कि उन्होंने किसी गाली का बुरा माना हो। अगर माना भी हो, तो इसकी कोई चर्चा न तो आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने किया है और न ही महाकवि तुलसीदास ने। हां, महाकवि तुलसीदास ने 'रामलला नहछूÓ में नहछू (नहखुर) और कलेवा रस्म के समय गाई जाने वाली गालियों का जिक्र जरूर किया।
अवध क्षेत्र में होने वाली शादियों में कलेवा खाने की रस्म के दौरान गाई जाने वाली गालियों को सुनने पर ऐसा लगता है कि कोई पिघला सीसा कानों में उड़ेल रहा है, लेकिन आज तक ऐसा कोई बाराती समाज के सामने नहीं आया होगा, जिसने इन गालियों को लेकर कोई शिकायत थाने में दर्ज कराई हो, शादी में इन गालियों को लेकर मारपीट-गाली-गलौज हुई हो। होता तो यह है कि दूल्हे के साथ जाने वाले छोकरों की मां-बहन, मामी-काकी, मौसी के नितांत निजी क्षणों का जोर-शोर से उल्लेख करती दूल्हन की सहेलियां, बहनें और भाभियां गालियों के साथ तान-तानकर नयन वाण चलाती हैं। इन नयन वाण से घायल होकर कोई अस्पताल पहुंचा हो, ऐसी कोई खबर आज तक पढऩे-सुनने में नहीं आई। गाली (गारी) गाते समय ये निपट निरक्षर महिलाएं ऐसे-ऐसे बिंब, प्रतिबिंब, प्रतिमान, उपमान गढ़ लेती हैं, जो किसी सिद्धहस्त कवि के लिए भी असंभव प्रतीत होता है। आप इनकी कल्पना और प्रौढ़ भाषा पर मुग्ध तो हो सकते हैं, लेकिन बुरा नहीं मान सकते हैं। इन गालियों ने समाज का बहुत भला किया है, इस बात से देश की विभिन्न भाषाओं की गालियों पर शोध करने वाले छात्र-छात्राएं जरूर सहमत होंगे। गुस्सा चढऩे पर मन तो यही होता कि अमुक व्यक्ति की हत्या कर दूं, लेकिन जब उसके मुंह से गालियों का अजस्र प्रवाह होने लगता है, तो वह हत्या की बात भूल जाता है। अगर गालियों का आविष्कार मनुष्य ने न किया होता, तो शायद अब तक हर परिवार का दो-चार सदस्य हत्या के अपराध में जेल में होता। इन गालियों ने ही हर घर को उजडऩे और बरबाद होने से बचाया है। ऐसी गालियों से बुरा मानने की क्या जरूरत है, भले ही यह गाली किसी संत ने दी हो, किसी साध्वी ने दी हो। आखिर ये संत और साध्वी भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं। ये भी इंसान ही हैं। इंसानों से गलती हो ही जाती है। अगर इंसान गलती न करता, तो इन गालियों का आविष्कार ही क्यों होता।
गालियों का क्या बुरा मानना! गालियां बुरी होतीं, तो इनका इतना विस्तार क्यों होता। गालियों का तो भगवान श्रीराम ने भी बुरा नहीं माना था। जब धनुष भंग के बाद अयोध्यापति महाराज दशरथ अपने चारों पुत्रों की बारात लेकर जनकपुरी पहुंचे, तो शादी के बाद अगले दिन कलेवा के समय राम और उनके सभी भाइयों को सीता और उनकी बहनों की सहेलियों ने ऐसी-ऐसी गालियों से नवाजा था जिसे सुनकर उनके दांत जरूर खट्टे हो गए होंगे। लेकिन मजाल है कि उन्होंने किसी गाली का बुरा माना हो। अगर माना भी हो, तो इसकी कोई चर्चा न तो आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने किया है और न ही महाकवि तुलसीदास ने। हां, महाकवि तुलसीदास ने 'रामलला नहछूÓ में नहछू (नहखुर) और कलेवा रस्म के समय गाई जाने वाली गालियों का जिक्र जरूर किया।
अवध क्षेत्र में होने वाली शादियों में कलेवा खाने की रस्म के दौरान गाई जाने वाली गालियों को सुनने पर ऐसा लगता है कि कोई पिघला सीसा कानों में उड़ेल रहा है, लेकिन आज तक ऐसा कोई बाराती समाज के सामने नहीं आया होगा, जिसने इन गालियों को लेकर कोई शिकायत थाने में दर्ज कराई हो, शादी में इन गालियों को लेकर मारपीट-गाली-गलौज हुई हो। होता तो यह है कि दूल्हे के साथ जाने वाले छोकरों की मां-बहन, मामी-काकी, मौसी के नितांत निजी क्षणों का जोर-शोर से उल्लेख करती दूल्हन की सहेलियां, बहनें और भाभियां गालियों के साथ तान-तानकर नयन वाण चलाती हैं। इन नयन वाण से घायल होकर कोई अस्पताल पहुंचा हो, ऐसी कोई खबर आज तक पढऩे-सुनने में नहीं आई। गाली (गारी) गाते समय ये निपट निरक्षर महिलाएं ऐसे-ऐसे बिंब, प्रतिबिंब, प्रतिमान, उपमान गढ़ लेती हैं, जो किसी सिद्धहस्त कवि के लिए भी असंभव प्रतीत होता है। आप इनकी कल्पना और प्रौढ़ भाषा पर मुग्ध तो हो सकते हैं, लेकिन बुरा नहीं मान सकते हैं। इन गालियों ने समाज का बहुत भला किया है, इस बात से देश की विभिन्न भाषाओं की गालियों पर शोध करने वाले छात्र-छात्राएं जरूर सहमत होंगे। गुस्सा चढऩे पर मन तो यही होता कि अमुक व्यक्ति की हत्या कर दूं, लेकिन जब उसके मुंह से गालियों का अजस्र प्रवाह होने लगता है, तो वह हत्या की बात भूल जाता है। अगर गालियों का आविष्कार मनुष्य ने न किया होता, तो शायद अब तक हर परिवार का दो-चार सदस्य हत्या के अपराध में जेल में होता। इन गालियों ने ही हर घर को उजडऩे और बरबाद होने से बचाया है। ऐसी गालियों से बुरा मानने की क्या जरूरत है, भले ही यह गाली किसी संत ने दी हो, किसी साध्वी ने दी हो। आखिर ये संत और साध्वी भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं। ये भी इंसान ही हैं। इंसानों से गलती हो ही जाती है। अगर इंसान गलती न करता, तो इन गालियों का आविष्कार ही क्यों होता।
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