3 december 2014 ko dainik jansandesh times mein chhapa |
-अशोक मिश्र
कल मुझसे उस्ताद गुनाहगार पूछ रहे थे, ‘दिल्ली में यदि चुनाव होते हैं, तो किसके जीतने के आसार लग रहे हैं?’ मैंने निर्विकार भाव से पूछ लिया, ‘किसके जीतने की कामना आप कर रहे हैं? भाजपा, कांग्रेस या फिर आप? या फिर कभी आप के खिलाफ बनने वाली ‘बाप’ (भारतीय आम आदमी पार्टी) के जीतने पर सट्टा लगा रखा है?’ मेरे सवालों पर उस्ताद गुनाहगार के चेहरे पर एक उदासीन मुस्कान किस्म की बिखर गई, बोले, ‘मुझे तो ये सभी पार्टियां एक जैसी ही लगती हैं। बस, चेहरों, झंडों और नारों का फर्क है। कोई जीते, हमें उससे क्या फर्क पड़ता है? हां, चूंकि चुनाव के आसार बन गए हैं, तो एक उत्सुकता रहती है मन में। सो, तुमसे पूछ लिया।’ मैंने कहा, ‘उस्ताद! आप अपनी साठ-बासठ साल की उम्र में भी लोकतंत्र की नब्ज नहीं पकड़ पाए। दिल्ली के विधानसभा चुनाव हों या लोकसभा के। अब तक जीतता वही आया है, जो सबसे ज्यादा प्रामाणिक तरीसे से झूठ बोल सकता है, जनता को अपने झूठ का विश्वास दिला सकता है। जिसके झुनझुने में लय होगी, तान होगी, दिल्ली की सत्ता सुंदरी उसी का वरण करेगी। समाजवादी हों, विकासवादी हों, भाववादी हों, कुभाववादी हों, दक्षिणपंथी हों, वामपंथी हों, सभी आज तक चुनावों के दौरान अपने-अपने डमरू लेकर बंदरिया नचाने मैदान में आ जाते हैं। जिसकी बंदरिया ज्यादा ठुमके लगाती है, ज्यादा नखरे दिखाती है, मतदाताओं को रिझाती है, वही जीत जाता है। इसमें ऐसा नया क्या है, जो आप जानना चाहते हैं।’ इतना कहकर सांस लेने के लिए रुका। उस्ताद गुनाहगार दूर कहीं क्षितिज में ताकते से दिखे। मैंने कहा, ‘उस्ताद जी! यह भारतीय लोकतंत्र है न! साठ-पैंसठ साल में ही बुढ़ा गई है। इसमें कोई झस नहीं बचा है। इसके झुर्रीदार चेहरे को अगर गौर से आप देखें, तो सिर्फ उदासी, घुटन और कुंठा के कुछ नहीं पाइएगा। मुझे तो ऐसा लगता है कि यह बुढिय़ा लोकतंत्र बिलबिला रही है, नेताओं की कथनी और करनी से। ठीक वैसे ही जैसे हम-आप अपनी गरीबी, बेकारी, भुखमरी को लेकर बिलबिला रहे हैं। चालीस-पैंतालिस साल की उम्र में ही मुझे अपना चेहरा बुढिय़ा लोकतंत्र जैसा लगने लगा है।’ गुनाहगार गहरी सांस लेकर बोले, ‘तो क्या कोई विकल्प नहीं है?’ मैंने कहा, ‘है न! बस खोजने की जरूरत है।’ इतना कहकर हम दोनों चुपचाप क्षितिज को निहारने लगे।
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ReplyDeleteवाह!....
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