अशोक मिश्र
आपने कभी मेढक को तुलते देखा है। एक तो बड़ी मशक्कत के बाद पकड़ में आता है। चलो, किसी तरह पकड़ में भी आ गया, तो उस पर काबू रखना तो और भी कठिन। इतना चिकना कि जरा सा हाथ ढीला पड़ा, तो फिसल जाता है। फिर उसे तौलने के लिए तराजू पर रखा और दूसरे को उठाकर रखने चले नहीं कि पहला 'धप्प' से पलड़े के बाहर। दूसरे को पकड़कर तराजू पर रखने के बाद पहले को पकडऩे चले, तो दूसरा भी धप्प से बाहर। मतलब यह कि इस दुनिया में सबसे कठिन काम है तराजू पर जिंदा मेढक तौलना। अब कोई महारथी हो और वह बिना हाथ-पांव बांधे, ऐसा करने में सफल हो जाए, तो निस्संदेह वह मेढक तौलने का नोबेल पुरस्कार पाने का हकदार है।
कुछ ऐसा ही हो रहा है बिहार में। बिहार का हर राजनीतिक दल गठबंधन रूपी तराजू पर तुलने को तैयार है, लेकिन होड़ इस बात की है कि उसका ही पलड़ा भारी रहे। अब देखिए न! कुछ महीने पहले चार-पांच दलों को मिलाकर एक महागठबंधन बना था। वैसे तो इस महागठबंधन का हर दल 'मुंडे-मुंडे मर्तिभिन्न:' वाली कहावत चरितार्थ कर रहा था। लेकिन इस महागठबंधन में शामिल दलों ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी दलों के विजय के भय को रस्सी बनाकर अपने पांवों में बांध ली और चुनावी तराजू पर तुलने के लिए बैठ गए। पांवों में बंधी रस्सी ढीली थी या पांवों में जानबूझकर रस्सी ढीली बांधी गई थी, दो दल मेढकों की तरह कूद ही गए, धप्प। एक दल के मुखिया ने तो समधियाने का भी ख्याल नहीं रखा। सारा रायता ही बिखेर दिया।
अब बात करते हैं दूसरे गठबंधन की। इस गठबंधन के सबसे बड़ा दल अपने को बड़ा भाई कहता है। सभी अपनी हैसियत के हिसाब से मंझले, संझले और छोटे भाई बने हुए हैं। अभी हाल ही में बड़े भाई ने अपने से छोटे दलों की मीटिंग बुलाई और कहा, 'देखो भइया..मैं बड़ा हूं। मेरे पास राष्ट्रीय जनाधार है, एक से बढ़कर एक शानदार, जानदार और लोकलुभावन जुमले हैं, केंद्र में सत्ता है, तो मेरा सबसे बड़ा हिस्सा बनता है कि नहीं।' छोटे दलों ने हुंकारा भरा, 'बनता है..बिल्कुल बनता है।' तो बड़े दल ने कहा, 'तो भइया 243 सीटों में से 160 मैं अपने पास रख लेता हूं। बाकी 40 मंझले भइया को दे देता हूं, 23 संझले भइया के और बाकी 20 छोटे भइया के। बोलो मंजूर है?' यह सुनते ही मंझले भइया तो खुश हो गए, लेकिन संझले और छोटे का मुंह बन गया। संझले और छोटे ने खड़े होते हुए कहा, 'सारा हिस्सा तुम्हीं दोनों रख लो, मैं तो चला।'
यह सुनते ही बड़े भइया ने दोनों का हाथ पकड़कर बिठा लिया, 'अरे सुनो तो! अगर कोई बात है, तो हम से कहो। मैं बैठा हू न! चलो अच्छा..मंझले को 30 सीटें दे देते हैं, मंझले को 28 और छोटे को 25 देने की घोषणा करता हूं। अब तो खुश?' इतना कहना था कि मंझले भाई ने गुर्राते हुए कहा, 'खबरदार..जो मेरी सीटों में कमी की..। मेरे पास क्या नहीं है, दाता हैं, मतदाता हैं..। अब तक कई बार बिहार की बैंड बजाने के बाद केंद्र में भी कई बार बैंड बजा चुका हूं। तुम्हारी यह जुर्रत..मेरी सीटें कम करने चले हो।' तब छोटे भाई ने बड़े से कहा, 'आप बड़े हैं, तो अपनी सीटों में से कुछ दीजिए न! हम लोगों की सीटों में से ही कतरब्योंत करके हमें बेवकूफ बनाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं।' इतना सुनते ही बड़े भाई ने कहा, 'देखो! मेरी तो 160 सीटों में से आधी सीट भी कम नहीं होगी। गठबंधन में रहना है, तो रहो..नहीं तो अपना रास्ता नापो।' बड़े भाई के उखड़ते ही संझले और छोटे ने बात संभालने की कोशिश की। इसके बाद कई दौर की बैठक हुई, कई फार्मूले ईजाद किए गए, लेकिन बात नहीं बननी थी, तो नहीं बनी। हर बार मीटिंग इस निर्देश के साथ बर्खास्त होती रही कि हम भले ही भीतर-भीतर लड़ते रहें, लेकिन बाहर वालों के सामने दांत निपोरना नहीं छोड़ेंगे। सुना है कि कल उनकी एक बार फिर मीटिंग होने वाली है।
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