अशोक मिश्र
आपने ढोल देखा है! अरे वही जिसे औरतें शादी-ब्याह, मूडऩ, छेदन या तीज-त्योहारों पर बड़ी उमंग और उत्साह के साथ बजाती थीं। अब तो औरतों को ठीक से ढोल बजाना ही नहीं आता। शादी-ब्याह में भी अब तो सिर्फ रस्म अदायगी होती है, वह भी गांव-देहातों में। शहरों में तो ढोल का अब कोई काम ही नहीं रहा। जी हां, मैं वही ढोल हूं। बात दरअसल यह है कि शादी-ब्याह, तीज-त्योहारों पर ढोल की जैसे-जैसे उपयोगिता घटती गई, राजनीति में इसकी उपयोगिता वैसे-वैसे बढ़ती गई। अब आप कहेंगे कि मैं क्या ऊटपटांग बक रहा हंू? तो साहब..बात यह है कि जिस दिन आजादी मिली, नेहरू जी ने अपनी पीठ पर एक ढोल बांध लिया और लगे पीटने, 'मुझे इस देश में समाजवाद लाना है। मुझे इस देश को स्वर्ग बनना है।' जब तक वे जिंदा रहे, यह समाजवाद का ढोल बजता ही रहा। मजाल है कि कोई उनके इस ढोल को छू भी ले। जब वे जनता के दुख से दुखी हो, तो बड़ी जोर-जोर से समाजवादी ढोल पीटने लगते, जनता समझ जाती कि जिल्ले सुबहानी उनके दुख से आज दुखी हैं। उसके बाद तो यह परंपरा हो गई। जो भी प्रधानमंत्री बनता, अपनी पीठ पर एक ढोल बांध लेता, वह ढोल बजाता, उसके लगुए-भगुओं में से कोई बीन बजाता, तो कोई ढफली। नतीजा, यह होता कि इस कौवा रोर में जनता यह नहीं जान पाती थी कि उसे ध्यान किस पर देना है, ढोल पर, बीन पर या ढफली पर। वह बेवकूफों की तरह मुंह बाए नेताओं और मंत्रियों का यह करिश्मा देखती रहती थी।
अपने देश में एक प्रधानमंत्री तो ऐसी हुई हैं, जिन्होंने 'कांग्रेस लाओ, गरीबी मिटाओ' का ढोल इतनी बार बजाया कि जनता ही बहरी हो गई। उसके बाद तो किसिम-किसिम के ढोल ईजाद कर लिए गए। जैसे-जैसे राजनीति में भ्रष्टाचार, अनाचार, भाई-भतीजावाद, प्रांतवाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता बढ़ती गई, ढोल का आकार-प्रकार बदलता गया।
अभी जो जिल्ले सुबहानी दिल्ली में हैं, वे विकास का ढोल तब से पीट रहे हैं, जब वे किसी राज्य के जिल्ले सुबहानी थे। उन्होंने अपनी पीठ पर 'जन धन योजना', 'मेक इन इंडिया', 'स्टैंड अप इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया', 'स्किल इंडिया' जैसे न जाने कितने अंग्रेजी नाम वाले ढोल बांध रखा है। जब मर्जी होती है, तो वे कोई एक ढोल बजाने लगते हैं, जब मर्जी होती है, तो सारे ढोल एक साथ पीटने लगते हैं। सवा साल-डेढ़ साल पहले उन्होंने 'न खाऊंगा, न खाने दूंगा' का ढोल पीटा था, लेकिन उनके साथियों ने खाया भी और दूसरो को खिलाया भी। उनका एक ढोल था कि आन नहीं मिटने देंगे। लेकिन यह ढोल कुछ ऐसे बजा कि आज रोज आन मिट रही है, वे टुकुर-टुकुर निहार रहे हैं। वे जब ढोल बजाने से ऊब जाते हैं, तो मन की बात करने लगते हैं। इससे भी मन भर जाता है, तो वे फिर विकास का ढोल पीटने लगते हैं। वे यह भी नहीं देखते हैं कि ढोल की डोरियां कब की ढीली हो चुकी हैं। उन्हें कसने की जरूरत है। भला आप लोग ही बताइए, ऐसी हालत में मैं भला ढोल कब तक बजता? जब बर्दाश्त नहीं हुआ, तो मैं फूट गया। तब से जिल्ले सुबहानी परेशान हैं। एक-एक कर सारे ढोल फूट गए, तो जिल्ले सुबहानी की खुल गई पोल।
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