अशोक मिश्र
अपने एक मित्र हैं बगलोल चंद। मेरे गांव नथईपुरवा में रहते हैं। वे न केवल नाम से बगलोल हैं, काम और बुद्धि से भी बगलोल हैं। कहो आम, तो समझते इमली हैं। एक दिन फोन आया और बात घूम-फिर कर देसी घी तक पहुंच गई। मैंने उन्हें बताया कि शहर में देसी घी खाने क्या आंख में लगाने को नहीं मिलता है। उन्होंने आश्वस्त किया कि वे मेरी इस समस्या को जल्दी हल कर देंगे। मैंने समझा, वे हर महीने किलो-दो किलो देसी घी भिजवा दिया करेंगे। एक दिन सुबह पत्नी ने उठाया, 'उठिए...बगलोल भाई साहब आए हैं।' मैंने झल्लाते हुए कहा, 'तो कौन सी आफत आ गई। उन्हें चाय-पानी पिला, मैं थोड़ी देर बाद उनसे मिलता हूं।'
पत्नी ने परेशान स्वर में कहा, 'आफत भी उनके साथ आई है। देखिए तो सही। बगलोल भाई साहब दरवाजे पर खड़े हैं।' मैं बाहर निकला, तो देखा कि वे एक भैंस के साथ खड़े हैं। मैंने पूछा, 'यह क्या तमाशा है? भैंस यहां क्यों ले आए हो?' बगलोल चंद ने मासूमियत से जवाब दिया, 'भइया! आप ने ही तो कहा था, शहर में दूध-दही की किल्लत है, तो हम 'राम प्यारी' को आपकी खातिर यहां ले आए। अब देसी घी आंख में लगाइए और जीभर कर खाइए।' उनका जवाब सुनकर मैंने माथा पीट लिया। तो ऐसे हैं अपने बगलोल चंद।
बगलोल चंद पिछले कुछ दिनों से एक ही बात की रट लगाए हुए हैं, 'भइया! बस एक बार किसी स्मार्ट सिटी में घुमवा दो। जीवन सफल हो जाए। बड़ी तमन्ना है स्मार्ट सिटी घूमने की।'
बार-बार के निवेदन से आजिज आकर मैंने एक रविवार को उन्हें बुला ही लिया। शाम को सबसे नजदीक वाले स्मार्ट सिटी में लेकर जा पहुंचा। स्मार्ट सिटी में बने एक पार्क के किनारे हम दोनों खड़े होकर आसपास का नजारा देखने लगे। पार्क की दशा देखकर बगलोल चंद वैसे ही विह्वल हो गए, जैसे किसी अभिनेता-अभिनेत्री को सामने पाकर उसके प्रशंसक भाव विभोर हो जाते हैं। वे चारों तरफ देखते हुए बोले, 'भइया...हमारे वेद-पुराण में स्वर्ग के बारे में जैसा लिखा गया है, ठीक वैसा ही यहां सब कुछ दिखाई दे रहा है। वेद-पुराण में लिखा है कि स्वर्ग में लाखों-करोड़ों सूर्य की रश्मियां हर ओर जगमग-जगमग करती रहती हैं। वहां न किसी को प्यास लगती है, न भूख। बस, मन हमेशा मनोरंजन में ही लगा रहता है। तभी तो वहां मेनका, उर्वशी, रंभा जैसी लाखों-करोड़ों अप्सराओं की व्यवस्था है। तभी तो हर कोई स्वर्ग जाना चाहता है।'
पार्क में हर आयु वर्ग के जोड़े मिलकर सचमुच स्वर्ग का एक सुंदर और अलौकिक कोलाज रच रहे थे। एक जोड़े की ओर इशारा करते हुए बगलोल चंद ने कहा, 'भइया..वो जो लोग मनोरंजन में लगे हुए हैं। उसमें पुरुष जरूर कोई पुण्यात्मा होगी। और वह लड़की कोई अप्सरा।'
मैंने हंसते हुए कहा, 'ये कोई अप्सरा-वप्सरा नहीं है। यह स्मार्ट सिटी है। यहां सब कोई स्मार्ट है। पहनावे में, आचरण में, विचार में, लूट-खसोट में, ठगी-बेईमानी में। सब में लोग स्मार्ट हैं। यहां जरा सी निगाह चूकी नहीं कि आंख से काजल क्या पूरी आंख ही गायब हो जाती है।' जब मैं यह कह रहा था, तभी बगलोल चंद ने अपनी जेब से चूना-तंबाकू निकाला और हथेली पर दोनों को मिलाकर दस-बारह बार रगडऩे के बाद ठोंका-पीटा, फिर हथेली से उठाकर होंठों के नीचे दबा लिया। होंठों के बीच तंबाकू दबाने के बाद उन्होंने मुझसे कहा, 'तुम यहीं खड़े रहो, मैं थोड़ा निबटकर आता हूं।'
मैं कुछ कहता कि वे तत्काल आगे बढ़ गए। काफी देर बीतने के बाद जब बगलोल चंद नहीं लौटे, तो मैंने उन्हें खोजना शुरू किया। काफी खोजने पर भी वे नहीं मिले। मैं घबरा रहा था। चार-पांच घंटे बाद मैंने उनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने का फैसला कर पूछते-पाछते पुलिस थाने पहुंचा, तो देखा, एक कोने में बगलोल चंद बैठे बिसूर रहे हैं। मैंने उनको डपटते हुए कहा, 'तुम कहां गायब हो गए? यहां क्यों बैठे हो, घर नहीं चलना है?' तभी एक सब इंस्पेक्टर ने गुर्राते हुए कहा, 'दस हजार जुर्माना अदा कर दो, इस बगलोल को ले जाओ।' मैंने पूछा, 'क्या मतलब? किस बात के दस हजार रुपये? कैसा जुर्माना?' इंस्पेक्टर ने कहा, 'पब्लिक प्लेस में लघुशंका करने का।' बहुत हाय-हाय, खींच-तान के बावजूद इंस्पेक्टर एक भी रुपया कम करने को तैयार नहीं हुआ। तो मजबूरन एटीएम से पैसा निकालकर जमा करना पड़ा। मैंने निकलते समय इंस्पेक्टर से पूछा, यहां कोई टॉयलेट-वायलेट है कि नहीं? इंस्पेक्टर ने बताया कि स्मार्ट सिटीज में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती है। मैं बगलोल चंद के साथ जल्दी से थाने से यह सोचते हुए बाहर आ गया कि स्मार्ट सिटी के लोगों को शायद लघु या दीर्घ शंका की जरूरत नहीं पड़ती होगी, तभी न इसकी व्यवस्था नहीं की गई है।
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