-अशोक मिश्र
नथईपुरवा गांव में रामभूल काका ने अपनी दस वर्षीय बेटी सुतंतरता (स्वतंत्रता) की पीठ पर एक धौल जमाते हुए कहा, ‘तू मेरी जान मत खा, अपनी अम्मा के पास जाकर मर।’ मैंने बुक्का फाड़कर रोती सुतंतरता को पलभर निहारा। उसकी आंख, नाक और मुंह से गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी बहकर ठुड्ढ़ी पर संगम जैसा कोलाज रच रही थी। मैंने रामभूल काका से उलाहने के स्वर में कहा,‘क्या काका! आप भी इस छोटी-सी बिटिया पर अपना क्रोध उतार रहे हैं। यह क्यों रो रही है?’
काका ने अंगोछे से अपना पसीना पोंछते हुए कहा, ‘क्या बताएं बेटा! श्यामता बाबू का बेटा गॉटर अभी थोड़ी देर पहले एक चमकीली पन्नी में लिए कुछ खा रहा था। अच्छा-सा उसका नाम है..खाते समय जो ‘कुर्र..कुर्र’ की आवाज करता है।’ मैंने कहा, ‘कुरकुरे...।’ काका रामभूल ने कहा, ‘हां बेटा! वही...अब ई अंगरेजी नाम तुमही लोग जानो। तो गॉटर को कुरकुरे खाते देख सुतंतरता ने जिद पकड़ ली कि मुझे भी कुरकुरे चाहिए। मैंने इस सुतंतरिया से कहा कि अपनी अम्मा से दो रुपये लेकर माता बदल पंसारी की दुकान से कंपट या टाफी ले लो, लेकिन इसे भवानी उठा ले जाए, यह अइलहवा मोड़ पर खुली ऊ चमक-दमक वाली दुकान से ‘कुर्रकुर्रे’ लेने की जिद सुबह से पकड़े हुए है।’ रामभूल काका की बात में गुस्सा, बेबसी और बेटी को पीटने का अपराधबोध एक साथ झलक रहा था। वे बोले, ‘बेटा! दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत के बाद कहीं जाकर सौ-सवा सौ रुपये मजदूरी मिलती है। अब अगर रोज-रोज सुतंतरता दस-बीस रुपये की यह आलतू-फालतू चीजें खरीदने की जिद करेगी, तो गुस्सा आएगा ही। गांव में यह अच्छी बला खोल दी है नासपीटों ने। जब से यह अंगरेजी दुकान खुली है, गांव के लड़के-लड़कियां बिगाड़ रही हैं।’
रामभूल काका की बात सुनते ही मुझे याद आया कि अइलहवा मोड़ पर किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी ने अपना शॉपिंग मॉल अभी दो महीने पहले ही खोला है। छह महीने पहले जब मैं गांव आया था, तब यह शॉपिंग मॉल बन रहा था। उस समय शॉपिंग मॉल की बन रही इमारत को देखकर गांव के ही एक स्नातक बेरोजगार से मैंने पूछा था, ‘रंगनाथ भाई! यहां कोई सिनेमा हॉल बन रहा है क्या?’ गहरी सांस लेते हुए रंगनाथ ने कहा था, ‘नहीं भइया! यहां एक शॉपिंग मॉल खोला जाएगा।’ रंगनाथ की बात सुनकर मैं अवाक रह गया। रंगनाथ अपनी रौ में बोले जा रहा था, ‘भइया! आप तो जानते ही हैं, नथईपुरवा में पिछली चार पीढ़ियों से माता बदल पंसारी की दुकान चल रही है। गांव के लोग हल्दी, धनिया, गुड़, साबुन जैसी चीजों पीढ़ियों से माता बदल की दुकान से ही खरीदते आ रहे हैं। पैसा हुआ तो भी, नहीं हुआ तो भी। सुख हो, दुख हो, माता बदल पंसारी ने कभी उधार देने से किसी को मना नहीं किया। लोग सामान उधार लेते रहते हैं और जब अनाज पैदा होता है, तो चुकता कर देते हैं। लेकिन अब लगता है कि माता बदल पंसारी के बुरे दिन आ गए। सुना है, इस मॉल में सुई-धागे से लेकर हवाई जहाज, नमक-मिर्च से लेकर विदेशी कपड़े तक बिका करेंगे। सदियों से गांव में अपनी दुकान चला रहे माता बदल पंसारी की भट्ठी बुझाने और लोगों को लुभाने के लिए इस शॉपिंग मॉल का नाम जानते हो क्या रखा गया है...मदरचेंज शॉपिंग मॉल।’
रंगनाथ को उदास देखकर मैंन ढांढस बंधाते हुए कहा था, ‘रंगनाथ भाई! ये कंपनियां चाहे जो कुछ बेचें, लेकिन ये कंपनियां माता बदल पंसारी की तरह सौदा खरीदने गए बच्चों को ‘घातू’ (सौदा खरीदने गए बच्चों को दुकानदार की तरफ से दिया जाने वाला एक कंपट, भेली का एक टुकड़ा या एक बिस्कुट) तो नहीं देंगी न! तुम देखना, गांव के बच्चे घातू की लालच में इन कंपनियों की बड़ी-बड़ी दुकानों की ओर मुंह नहीं करेंगी। उन्हें घातू खाने की आदत जो पड़ गई है।’ लेकिन आज सुतंतरता को पिटने के बाद भी कुरकुरे खाने की जिद पर अड़ा देखकर मुझे लगा कि शायद मैं गलत सोच रहा था। मैंने रोती सुतंतरता को दस रुपये का नोट पकड़ाया और आगे बढ़ गया।
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