अलविदा शांति दूत
अशोक मिश्रदक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार की जगह एक लोकतांत्रिक बहुनस्लीय सरकार बनाने के लिए लंबा संघर्ष और इसके लिए 27 वर्ष तक जेल काटने वाले नेल्सन मंडेला नहीं रहे। देश के पहले अश्वेत राष्ट्रपति का पद संभालते हुए उन्होंने कई अन्य संघर्षों में भी शांति बहाल करवाने में अग्रणी भूमिका निभाई थी।
गांधी और मंडेला में बुनियादी फर्क
दक्षिण अफ्रीका ही नहीं, पूरी दुनिया में रंगभेद और असमानता के विरुद्ध चल रहे किसी भी तरह आंदोलन के स्तंभ पुरुष कहे जा सकते हैं नेल्सन मंडेला। उपनिवेशवाद और ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीतियों के साथ-साथ रंगभेद और नस्लभेद विरोधी नीतियों के खिलाफ अहिंसा को हथियार बनाकर उठ खड़े होने वाले नेल्सन मंडेला ने गांधीवाद को ‘एज इट इज’ स्वीकार नहीं किया। गांधीवादी अहिंसा और असहयोग में कुछ मूलभूत सुधार भी किए। उनकी अहिंसक नीति गांधी की अहिंसा नीति के बजाय बुद्ध की नीति के कहीं समीप प्रतीत होती है। गांधी के प्रेरणास्रोत लियो टॉलस्टाय का मानना था कि यदि शासक हिंसा करे, तो करे, लेकिन प्रजा को हिंसा नहीं करनी चाहिए। वहीं बुद्ध की अहिंसा नीति कहती है कि यदि शासक हिंसा न करे, तो प्रजा कभी हिंसा नहीं करती।यही वजह है कि महात्मा बुद्ध अपनी अहिंसा का प्रचार करने के लिए राजाओं के साथ-साथ प्रजा के बीच गए। उन्होंने तत्कालीन राजाओं और महाराजाओं को अहिंसक बनाने का प्रयत्न किया। हालांकि, बाद में बुद्ध की अहिंसा नीति में उनके परिवर्तियों ने कुछ ऐसे संशोधन, परिवर्तन किए कि उसका मूल स्वरूप ही कुछ और हो गया। आप अगर पूरे गांधीवादी चरित्र को समझने का प्रयास करें, तो यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जाती है। गांधीवादी अहिंसा के स्वरूप को समझने का सबसे बेहतरीन उदाहरण दक्षिण अफ्रीका में ही सन् 1897 से 1899 तक चला बोअर युद्ध है। बोअर युद्ध को समझने के लिए दक्षिण अफ्रीका की तत्कालीन परिस्थितियों को समझना बहुत जरूरी है।
यह तो सभी जानते हैं कि सत्रहवीं शताब्दी में हीरे और सोने की खानों के लालच में हॉलैंड के डच और ब्रिटेन से अंग्रेज दक्षिण अफ्रीका गए थे। उन दिनों यह मशहूर था कि अफ्रीका में सोने और हीरे की खानें बहुतायत में पाई जाती हैं। हीरों और सोने की खानों पर कब्जे की नीयत से पहुंचे डच और अंग्रेजों ने वहां पहुंचकर उपनिवेश स्थापित करने शुरू किए। उपनिवेशों के विस्तार को लेकर डचों और अंग्रेजों में युद्ध होने लगे। हालांकि, डचों ने एक समय सीमा के बाद अफ्रीकी मूल के निवासियों के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया और वहीं रहने लगे। कालांतर में इन्हीं डच मूल के अफ्रीकी निवासियों को बोअर कहा जाने लगा। अंग्रेजों के लगातार बढ़ते उपनिवेश, शोषण, दोहन और उत्पीड़न से परेशान होकर बोअर लोगों ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर गुरिल्ला युद्ध शुरू किया।
यह संघर्ष लगातार तीव्र से तीव्रतर होता गया। डचों के नेतृत्व में अफ्रीकी मूल के निवासी सन् 1887 से 1899 के बीच निर्णयाक स्थिति में पहुंचने वाले ही थे कि दक्षिण अफ्रीका की राजनीति में मोहनदास करमचंद गांधी का पदार्पण हुआ। इसके बाद डचों और वहां के मूल निवासियों के पक्ष में पैदा होती परिस्थितियां एकाएक बदल गईं। ‘एक्सपेरिमेंट विद ट्रूथ’ (सत्य के प्रयोग) में महात्मा गांधी खुद लिखते हैं, ‘जब दक्षिण अफ्रीका में बोअर युद्ध चल रहा था, तब मेरी सहानुभूति केवल बेअरों की ओर थी। पर मैं यह मानता था कि ऐसे मामलों में व्यक्तिगत विचारों के अनुसार काम करने का अधिकार मुझे अभी नहीं प्राप्त हुआ है। इस संबंध में मंथन, चिंतन का सूक्ष्म निरीक्षण मैंने ‘दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास’ में किया है, इसलिए यहां नहीं करना चाहता। जिज्ञासुओं को मेरी सलाह है कि वे उस इतिहास को पढ़ें। यहां तो इतना कहना काफी होगा कि ब्रिटिश राज के प्रति मेरी वफादारी मुझे युद्ध में सम्मिलित होने के लिए जबरदस्ती घसीट ले गई। मैंने अनुभव किया कि जब मैं ब्रिटिश प्रजाजन के नाते अधिकार मांग रहा हूं, तो उसी नाते ब्रिटिश राज की रक्षा में हाथ बंटाना भी मेरा धर्म है। उस समय मेरी यह राय थी कि हिंदुस्तान की सम्पूर्ण उन्नति ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर रहकर हो सकती है।’ इतना ही नहीं, दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीय युवाओं से अंग्रेजी फौज में भर्ती होने का आह्वान किया और खुद एंबुलेंस कोर में शामिल हो गए। बोअर युद्ध के बाद ग्यारह सौ सदस्यों वाली एंबुलेंस कोर के 39 मुखियों को प्रसन्न होकर अंग्रेजों ने युद्ध पदक देकर सम्मानित किया। सन् 1903 में दक्षिण अफ्रीका प्रवास के विषय में गांधी ने इंडियन ओपीनियन में एक लेख लिखा। इसमें उन्होंने लिखा, ‘मैं मानता हूं कि जितना वे (दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार) अपनी जाति की शुद्धता पर विश्वास करते हैं, उतना हम भी...हम मानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में जो गोरी जाति है, उसे ही श्रेष्ठ जाति होनी चाहिए।’ यही क्यों, जब द्वितीय विश्व महायुद्ध चल रहा था, तो भारत में भी महात्मा गांधी ने भारतीय युवाओं से अनुरोध किया कि इन दिनों अंग्रेज संकट में हैं। हमारा धर्म है कि हम संकट के समय में अंग्रेजों की मदद करें, इसलिए इस संकट की घड़ी में ज्यादा से ज्यादा भारतीय युवाओं को ब्रिटिश फौज में भर्ती हो जाना चाहिए।
बचपन से गांधी का प्रभाव
बचपन से ही रंग और नस्लभेदी नीतियों के चलते अपमान और तिरस्कार झेलने वाले नेल्सन मंडेला पर गांधी का प्रभाव तो था, लेकिन उन्होंने हिंसक आंदोलन की भूमिका और महत्ता को कभी अस्वीकार नहीं किया। विद्यार्थी जीवन में भोगे गए अपमान ने उन्हें विद्रोही बना दिया। दक्षिण अफ्रीकी श्वेतों की सरकार वहां के मूल निवासियों को बार-बार यह अहसास दिलाती थी कि उनका रंग काला है। उन्हें शासन-प्रशासन में कोई सम्मानजनक पद और हैसियत नहीं हासिल हो सकती है। कालों को तो सड़क पर सीना तानकर चलने का भी अधिकार नहीं है। यदि वे ऐसा करते पाए जाएंगे, तो उन्हें जेल में ठूंस दिया जाएगा। ऐसी स्थितियों ने नेल्सन मंडेला के दिल और दिमाग को क्रांतिकारी बना दिया। अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों और राजनीतिक विचारों के चलते काले लोगों के बीच लोकप्रियता हासिल कर रहे मंडेला को अश्वेतों के लिए बनाए गए एक विशेष कॉलेज हेल्डटाउन से निष्कासित कर दिया गया। कॉलेज परिसर में उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कॉलेज से निकाले जाने के बाद मंडेला अपने माता-पिता के पास ट्रांस्की लौट आए। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों को देखकर वैवाहिक बंधन में बांधने की तैयारी में जुटे परिवार को झटका तब लगा, जब वे एक दिन घर से भाग खड़े हुए और जोहांसबर्ग की एक सोने की खदान में चौकीदार की नौकरी करने लगे। जोहांसबर्ग की एक बस्ती अलेक्जेंडरा उनका ठिकाना बनी। जोहांसबर्ग में उनकी मुलाकात ह्यवाल्टर सिसुलूह्ण और ह्यवाल्टर एल्बरटाइनह्ण से हुई जिनका प्रभाव पूरी जिंदगी मंडेला पर बना रहा। बाद में खदान की चौकीदारी छोड़कर मंडेला ने एक कानूनी फर्म में लिपिक की नौकरी कर ली। 1944 में मंडेला ह्यअफ्रीकन नेशनल कांग्रेसह्ण में शामिल हो गए। जल्दी ही उन्होंने टाम्बो, सिसुलू और अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस यूथ लीग का निर्माण किया। 1947 में मंडेला को इस संस्था का सचिव और ट्रांसवाल एएनसी का अधिकारी नियुक्त किया गया।इसी बीच नेल्सन मंडेला ने कानून की पढ़ाई शुरू कर दी, लेकिन व्यस्तता के कारण वे एलएलबी की परीक्षा पास नहीं कर सके। तब उन्होंने अटॉर्नी के तौर पर काम करने को पात्रता परीक्षा पास करने का फैसला किया। इसी बीच ह्यअफ्रीकन नेशनल कांग्रेसह्ण को चुनावों में करारी पराजय का सामना करना पड़ा। 1951 में नेल्सन को यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। नेल्सन ने दक्षिण अफ्रीकियों की कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए 1952 में एक कानूनी फर्म की स्थापना की। कुछ ही समय में उनकी फर्म अश्वेतों द्वारा चलाई जा रही देश की पहली फर्म हो गई। गोरी सरकार को नेल्सन की बढ़ती हुई लोकप्रियता फूटी आंख नहीं सुहा रही थी। उसने मंडेला के राजनीतिक सभाओं में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया और कई तरह के झूठे आरोप लगाकर उन्हें जोहांसबर्ग से बाहर भेज दिया गया। सरकार के दमनचक्र से बचने के लिए नेल्सन और आॅलिवर टाम्ब ने एम (मंडेला) प्लान बनाया। तय हुआ कि कांग्रेस को टुकड़ों में तोड़कर काम किया जाए। जरूरत पड़े तो भूमिगत रहकर काम किया जाए। इसी बीच अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) ने स्वतंत्रता का चार्टर क्या स्वीकार किया, गोरी सरकार का दमन चक्र शुरू हो गया। देश में गिरफ्तारियां शुरू हो गईं। एएनसी के अध्यक्ष और नेल्सन के साथ एक सौ छप्पन नेता गिरफ्तार किए गए। आंदोलन नेतृत्व विहीन हो गया। नेल्सन और उनके साथियों पर देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने और देशद्रोह का आरोप लगाया गया। इस अपराध की सजा मृत्युदण्ड थी। 1961 में नेल्सन और 29 साथी निर्दोष साबित हुए।
सरकारी दमन बढ़ने से अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस और नेल्सन का जनाधार बढ़ाता जा रहा था। लोगों के संगठन से जुड़ने पर आंदोलन दिनोंदिन मजबूत होता जा रहा था। रंगभेदी सरकार ने इसी बीच कुछ ऐसे कानून पास किए गए, जो अश्वेतों की गरिमा के खिलाफ थे। मंडेला ने इन कानूनों का विरोध करने के लिए प्रदर्शन किया। प्रदर्शन में दक्षिण अफ्रीकी पुलिस ने शार्पविले शहर में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं। 180 लोग मारे गए, 69 लोग घायल हुए। बस इसी घटना ने नेल्सन मंडेला का अहिंसा पर से विश्वास उठा दिया। उन्होंने समझ लिया कि दक्षिण अफ्रीका में रंग और नस्लभेद का खात्मा अहिंसा से नहीं हो सकता है।
बिना हथियार उठाए दक्षिण अफ्रीका के मूल निवासियों को उनका हक मिलने वाला नहीं है। रंगभेदी सरकार के अत्याचार, शोषण और दोहन सभी सीमाएं तोड़ते जा रहे थे। अपने मानवीय अधिकारों की प्राप्ति के लिए पिछले कई दशकों से संघर्षरत अश्वेतों के खून से दक्षिण अफ्रीका की धरती लाल हो रही थी। एएनसी और दूसरे प्रमुख दलों ने सशस्त्र युद्ध का फैसला किया। मुक्तिकामी दलों ने अपने-अपने जुझारू दल बनाकर गोरी सरकार के नुमाइंदों पर हमला शुरू कर दिया। हालांकि पिछले कई दशक से अहिंसक आंदोलन चला रहे नेल्सन मंडेला के सिद्धांत और प्रवृत्ति के ये हिंसक कार्रवाइयां खिलाफ थीं, लेकिन दक्षिण अफ्रीका की औपनिवेशिक और बर्बर सरकार को नेस्तनाबूत करने के लिए आवश्यक थी। एएनसी ने अपने जुझारू दल का नाम रखा, ह्यस्पीयर आॅफ दी नेशनह्ण। नेल्सन मंडेसा नए गुट के अध्यक्ष बनाए गए। दबी-कुचली, शोषित-पीड़ित दक्षिण अफ्रीकी जनता के लिए मंडेला को यह रास्ता मंजूर था। दक्षिण अफ्रीकी जनता को न्याय और सम्मान दिलाने जैसा पवित्र उद्देश्य और लक्ष्य उनके सामने था। गुप्त लड़ाका दल बनते ही जैसे रंगभेदी सरकार और क्रूर हो उठी। उसने मूल निवासियों के साथ-साथ क्रांतिकारी संगठनों को बर्बरतापूर्वक दबाना शुरू किया। दक्षिण अफ्रीका की जेलें मुक्तिकामी संगठनों के नेताओं, कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और नागरिकों से भरे जाने लगे। जिस पर भी रंगभेदी सरकार को थोड़ा-सा भी शक हुआ, वह जेल में ठूंस दिया गया, उस पर बेइंतहा जुल्म ढाए गए। दुनिया भर की लोकतांत्रिक सरकारों ने नस्लभेदी दक्षिण अफ्रीकी सरकार की आलोचना की, कई तरह के प्रतिबंध लगाए गए, खेलों में उसके खिलाड़ियों का बहिष्कार किया गया, लेकिन अफ्रीकी सरकार अपनी क्रूरता से पीछे नहीं हटी।
मंडेला के खात्मे पर ध्यान
सरकार का पूरा ध्यान नेल्सन मंडेला को गिरफ्तार कर पूरे संगठन को खत्म करने पर था। इस त्रासदी से बचने के लिए उन्हें चोरी से देश के बाहर भेजा गया, ताकि वे स्वतंत्र रहकर दक्षिण अफ्रीकी जनता का नेतृत्व कर सकें। देश से बाहर आते ही उन्होंने सबसे पहले अदीस अबाबा में अफ्रीकी नेशनलिस्ट लीडर्स कान्फ्रेंस को संबोधित किया। वहां से वे अल्जीरिया चले गए और लड़ने की गुरिल्ला तकनीक का गहन प्रशिक्षण लिया। इसके बाद उन्होंने लंदन में ओलिवर टाम्बो को साथ लेकर विपक्षी दलों के साथ नेताओं से मुलाकात की और अपनी बात समझाने की कोशिश की। इसके बाद वे एक बार फिर दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। वहां पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। राष्ट्रद्रोह और सशस्त्र संघर्ष छेड़ने के अपराध में उन्हें पांच साल की सजा सुनाई गई। उन्हें आम जनता से दूर रखने के लिए रोबन द्वीप पर भेज दिया गया, जहां वे सत्ताइस साल तक नजरबंदी की हैसियत में रहे। अंतत: जब 1989 में नस्ल और रंगभेद विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था, तभी दक्षिण अफ्रीका में हुए चुनाव में सत्ता की बागडोर उदारवादी एफ डब्ल्यू क्लार्क के हाथों में आई। सत्ता संभालते ही क्लार्क ने देश में सुधारवादी रवैया अपनाते हुए सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने के साथ-साथ सभी राजनीतिक संगठनों से प्रतिबंध खत्म कर दिया। अश्वेतों को भी श्वेत नागरिकों के समान अधिकार दिए गए। उन्हें भी इंसान माना गया। नेल्सन मंडेला का संघर्ष रंग लाया और जब 1994 में जब दक्षिण अफ्रीका में चुनाव हुए, तो 10 मई 1994 को इतिहास रचते हुए नेल्सन मंडेला ने पहले अश्वेत राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण की।दक्षिण अफ्रीका की वर्तमान दशा
दक्षिण अफ्रीका का राष्ट्रपति बनने के बाद नेल्सन मंडेला ने कई तरह के सुधारवादी कार्य किए। श्वेत और अश्वेत में सदियों से किया जा रहा भेदभाव ही खत्म नहीं हुआ, बल्कि गरीबी, बेकारी, भुखमरी आदि के खिलाफ भी सरकारी योजानाएं बननी शुरू हुईं। इसके बावजूद दक्षिण अफ्रीका की ही नहीं, अफ्रीकी देशों में रहने वाली करोड़ों जनता का जीवन स्तर संतोषजनक नहीं है। पिछले साल के अंतिम दिनों जर्मनी में आयोजित ‘इफेक्टिव को-आपरेशन फॉर एक ग्रीन अफ्रीका’ के पहले अधिवेशन में ओबांग मेथो की पेश की गई रिपोर्ट पर विचार करें, तो दक्षिण अफ्रीका के साथ-साथ अन्य अफ्रीकी देशों में भारत, चीन, सउदी अरब, अमेरिका आदि देशों की सरकारों और कारपोरेट कंपनियों में वहां की जमीन पर कब्जे की एक होड़ शुरू हो चुकी है। अफ्रीका के अनेक देशों की जनविरोधी सरकारें पैसे की लालच अपने ही देश की जनता के खिलाफ काम कर रही हैं। अपार प्राकृतिक संपदा से भरपूर उपजाऊ जमीनों को विकसित और विकासशील देशों को बेचती जा रही हैं। विदेशी कॉरपोरेट कंपनियों के खिलाफ जनता का प्रतिरोध बढ़ने से उन्हें दमन का सामना करना पड़ रहा है।
इथोपिया के एक अनजान जनजातीय समूह अनुवाक से आए ओबांग मेथो के मुताबिक, अफ्रीका की लूूटपाट का यह दूसरा दौर शुरू हो गया है। वे बताते हैं कि अफ्रीकी देशों के सामने आज सबसे बड़ा खतरा वहां की आबादी को अपने जमीन से वंचित होने का है। अनेक देशों में जमीन हड़पने वालों ने न तो उस जमीन पर बसने वालों को कोई मुआवजा दिया और न उनके जीने का कोई उपाय उपलब्ध कराया है। विदेशी निवेशकों ने इन देशों की भ्रष्ट सरकारों के साथ जो गुप्त समझौते किए उसकी जानकारी भी यहां के बाशिंदों को नहीं मिल सकी। 1985 में बर्लिन सम्मेलन के दौरान साम्राज्यवादी देशों ने पूरे अफ्रीका को आपस में बांट लिया था। अफ्रीका की यह पहली लूट थी। 2008 से आज तक तकरीबन 20 करोड़ 40 लाख एकड़ जमीन सारी दुनिया में लीज पर दी गई है। इसका अधिकांश हिस्सा अफ्रीकी देशों में आता है। दक्षिण अफ्रीका में आज हालात यह है कि वहां की जमीनों पर तेजी से कब्जा होता जा रहा है। स्थानीय लोगों को जबरन उनकी जमीन से हटाकर सरकार द्वारा बनायी गई बस्तियों में रखा जा रहा है।
अफ्रीका की स्वतंत्रता का इतिहास
अफ्रीका महाद्वीप के नाम के पीछे कई कहानियां एवं धारणाएं हैं। 1981 में प्रकाशित एक शोध के अनुसार अफ्रीका शब्द की उत्पत्ति बरबर भाषा के शब्द इफ्री या इफ्रान से हुई है, जिसका अर्थ गुफा होता है जो गुफा में रहने वाली जातियों के लिए प्रयोग किया जाता था। एक और धारणा के अनुसार अफ्री उन लोगों को कहा जाता था, जो उत्तरी अफ्रीका में प्राचीन नगर कार्थेज के निकट रहा करते थे। कार्थेज में प्रचलित फोनेसियन भाषा के अनुसार अफ्री शब्द का अर्थ है धूल। कालांतर में कार्थेज रोमन साम्राज्य के अधीन हो गया और लोकप्रिय रोमन प्रत्यय -का (जो किसी नगर या देश को जताने के लिए उपयोग में किया जाता है) को अफ्री के साथ जोड़ कर अफ्रीका शब्द की उत्पत्ति हुई।
अफ्रीका के इतिहास को मानव विकास का इतिहास भी कहा जा सकता है। अफ्रीका में 17 लाख 50 हजार वर्ष पहले पाए जाने वाले आदि मानव का नामकरण होमो इरेक्टस अर्थात उर्ध्व मेरूदण्डी मानव हुआ है। होमो सेपियेंस या प्रथम आधुनिक मानव का आविर्भाव लगभग 30 से 40 हजार वर्ष पहले हुआ था। लिखित इतिहास में सबसे पहले वर्णन मिस्र की सभ्यता का मिलता ह,ै जो नील नदी की घाटी में ईसा से 4000 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई। इस सभ्यता के बाद विभिन्न सभ्यताएं नील नदी की घाटी के निकट आरम्भ हुई और सभी दिशाओं में फैली। आरम्भिक काल से ही इन सभ्यताओं ने उत्तर एवं पूर्व की यूरोपीय एवं एशियाई सभ्यताओं एवं जातियों से परस्पर सम्बन्ध बनाने आरम्भ किए जिसके फलस्वरूप महाद्वीप नई संस्कृति और धर्म से अवगत हुआ। ईसा से एक शताब्दी पूर्व तक रोमन साम्राज्य ने उत्तरी अफ्रीका में अपने उपनिवेश बना लिए थे। ईसाई धर्म बाद में इसी रास्ते से होकर अफ्रीका पहुंचा। ईसा से 7 शताब्दी पश्चात इस्लाम धर्म ने अफ्रीका में व्यापक रूप से फैलना शुरू किया और नई संस्कृतियों जैसे पूर्वी अफ्रीका की स्वाहिली और उप-सहारा क्षेत्र के सोंघाई साम्राज्य को जन्म दिया। इस्लाम और ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार से दक्षिणी अफ्रीका के कुछ साम्राज्य जैसे घाना, ओयो और बेनिन अछूते रहे। उन्होंने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। इस्लाम के प्रचार के साथ ही ह्यअरब दास व्यापारह्ण की भी शुरुआत हुई जिसने यूरोपीय देशों को अफ्रीका की तरफ आकर्षित किया। अफ्रीका को एक यूरोपीय उपनिवेश बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। 19 वीं शताब्दी से शुरू हुआ यह औपनिवेशिक काल 1951 में लीबिया के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ख़त्म होने लगा और 1993 तक अधिकतर अफ्रीकी देश उपनिवेशवाद से मुक्त हो गए।
संक्षिप्त परिचय
पूरा नाम : नेल्सन रोहिल्हाला मंडेलाजन्म : 18 जुलाई, 1918 ई.
मृत्यु : ०5 दिसंबर 2013
जन्मभूमि : मबासा नदी के किनारे मवेजों गांव, ट्रांस्की
माता-पिता : गेडला हेनरी (पिता), नेक्यूफी नोसकेनी (माता)
जीवन संगिनी : इवलिन मेस (प्रथम पत्नी), नोमजामो विनी मेडीकिजाला (द्वितीय पत्नी) तथा ग्रेस मेकल (तीसरी पत्नी)
नागरिकता : दक्षिण अफीका
प्रसिद्धि : रंगभेद विरोधी नेता के रूप में ख्याति प्राप्त
पार्टी : अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस यूथ लीग
पद : पूर्व राष्ट्रपति दक्षिण अफ्रीका
शिक्षा : मेथडिस्ट मिशनरी स्कूल, क्लाकर्बेरी मिशनरी स्कूल और हेल्डटाउन कॉलेज [स्नातक]
पुरस्कार-उपाधि : भारत रत्न (1990 ई.), नोबेल पुरस्कार
(1993 ई.)
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