-अशोक मिश्र
हास्य और व्यंग्य
के साथ-साथ
विभिन्न विधाओं
में लिखने वाले
साहित्यकार सूर्य कुमार पांडेय
जितने विख्यात हैं,
उतने ही सरल
स्वभाव से भी
हैं। उनकी कविताएं
भी उतनी ही
सरल किंतु गहरी
भावभूमि की हैं।
सरल शब्दों में
चुटकी लेकर अंतरमन
की वीणा को
झंकृत कर देने
का सामर्थ्य उनमें
है। वे कविताओं
में हमेशा नए
प्रयोगों के आग्रही
रहे हैं। हास्य-व्यंग्य कविता मंच
को चुटकुलेबाजी के
प्रदूषण से मुक्त
रखने में कवि
पांडेय जी की
भूमिका को नकारा
नहीं जा सकता
है। देश-विदेश
के कवि-सम्मेलनों
में बराबर भाग
लेने वाले पांडेयजी 10 अक्टूबर को
आगरा आए, तो उनसे विभिन्न मुद्दों पर
बातचीत हुई। पेश
हैं उनसे हुई
बातचीत के प्रमुख
अंश:
-क्या कविता किसी कवि
का पेट भर
सकती है? यहां
तक कि कहानी,
उपन्यास, व्यंग्य लिखने वाले
भी लेखन को
पूर्णकालिक पेशे के
रूप में स्वीकार
कर पाने की
स्थिति में नहीं
हैं। (अंग्रेजी वालों
को छोड़कर) ऐसा
क्यों?
नहीं..कविता किसी को
रोटी नहीं खिला
सकती है। इसे
जीविका या पूर्णकालिक
पेशे का आधार
नहीं बनाया जा
सकता है। मंचीय
या सम्मेलनी कवियों
की बात मैं
नहीं कर रहा
हूं। वे कमा-खा रहे
हैं, ठीक-ठाक
कमा रहे हैं।
बाकी दूसरे कवियों
की स्थिति इससे
इतर है, बदतर
है। उन्हें कविता
को पार्ट टाइम
जॉब की तरह
लेना पड़ता है।
यही विडंबना है।
प्रकाशकों का एक
गठजोड़, एक नेटववर्क,
एक कॉकस काम
करता है। पिछले
पचास वर्षों में
इन प्रकाशकों ने
प्रेमचंद और राजेंद्र
यादव के बाद
किसी बड़े साहित्यकार
को पनपने दिया
हो, तो बताइए।
सरकारी विभागों और पुस्तकालयों
की खरीद तक
ही सीमित कर
दिया है साहित्यकारों
को। कुछ कवि
तो स्वयं अपनी
कविता छपवाने के
लिए प्रकाशकों को
पैसा तक देते
हैं। जब कविता
की किताब छपवाना
इतना मुश्किल हो,
तो कोई इसे
पेट भरने का
जरिया कैसे बना
सकता है। अंग्रेजी
के साहित्यकारों की
किताबों का प्रचार
करते हैं प्रकाशक।
अंग्रेजी के दोयम
दर्जे का
लेखक भी बेस्ट
सेलर हो जाता
है। हिंदी में
पहले भी और
इन दिनों भी
अंग्रेजी के मुकाबले
ज्यादा अच्छा लिखा जा
रहा है। लेकिन
इन्हीं प्रकाशकों का गठजोड़
था कि मुंशी
प्रेमचंद को हंस
जैसी पत्रिका निकालने
पर मजबूर होना
पड़ा। सब डिस्ट्रीब्यूशन,
नेटववर्क, प्रोपोगंडा का कमाल
है।
-तो क्या प्रकाशक
कुछ नहीं करते?
नहीं ..करते क्यों
नहीं..। लेकिन
भइया जब साहित्यकारों
की पहुंच बाजार
तक होगी ही
नहीं, तो फिर
उसे लोग जानेंगे
कैसे? फिल्म बनाने
वाला कितनी ब्रांडिंग
करता है अपनी
फिल्म की। कॉमेडी
कलाकारों को बुलाकर
आयोजन करवाता है,
उसी बीच फिल्म
का प्रमोशन भी
करता है। हिंदी
के प्रकाशक क्या
करते हैं? पुस्तक
मेला लगा देने
से कुछ नहीं
होने वाला है।
गीता प्रेस ने
अच्छा काम किया
है। अगर आज
रामायाण, महाभारत, पुराण आदि
धार्मिक पुस्तकें घर-घर
में हैं, तो
गीता प्रेस की
वजह से। प्रकाशकों
के लिए लेखक
सबसे नीचे की
चीज है। खुद
तो व्यावसायिक बना
रहता है, वह
प्रिंटर को पैसा
देगा, बाइंडिंग वाले
को पैसा देगा,
यहां तक कि
कंपोजिंग वाले को
भी पैसा देगा।
लेकिन जहां लेखक
की बात आई,
वह अव्यावसायिक हो
जाता है। इसके
लिए साहित्यकार भी
जिम्मेदार हैं। कुछ
विशेष समूह, वैचारिक
समूह से जुड़े
साहित्यकारों को लाभ
जरूर मिल जाता
है।
-तो फिर झगड़ा
क्या है साहित्यकार
और प्रकाशक के
बीच? इन दोनों
के झगड़े में
अच्छी पुस्तकों से
वंचित तो आम
पाठक ही रह
रहा है।
(हंसते हुए) यह
झगड़ा तो कुछ
वैसे ही है,
जैसे पहले अंडा हुआ
या मुर्गी। एक
तरफ हिंदुस्तान है,
तो दूसरी तरफ
पाकिस्तान। इन दोनों
के पचड़े में
पिसना तो जनता
को ही है।
वैसे सच कहूं,
तो इन सारी
स्थितियों के लिए
प्रकाशक ही जिम्मेदार
हैं। ज्यादातर प्रकाशक
एक विचारधारा विशेष
के लोगों के
प्रभाव में हैं।
उन्हीं की पुस्तकें
छपती हैं। ज्यादातर
कवि तो अपनी
कविता की पुस्तक
छपवाते हैं, उसे
भी जनता को
नहीं पढ़वा पाते
हैं। नेटवर्क नहीं
है उनके पास।
-पढ़ने का चलन
खत्म हो रहा
है या हम
ऐसा नहीं लिख
पा रहे हैं
कि लोग उसे
पढ़ने को मजबूर
हों?
(मुस्कुराते
हुए)..जी नहीं,
पढ़ने का चलन
खत्म नहीं होगा।
आप देखिए, सैकड़ों
चैनलों पर दिन
भर खबरें देखने
के बाद भी
लोग सुबह उठते
ही समाचार पत्र
को झपट कर
उठाते हैं। दिन
भर टीवी पर
क्रिकेट मैच देखने
के बाद सुबह
अखबार में पढ़कर
वे तस्दीक करते
हैं कि क्या
स्कोर रहा। देखिए,
हर युग में
अच्छा और बुरा
दोनों लिखा जाता
रहा है। मुंशी
प्रेमचंद जैसे लिखने
वाले रहे हैं,
तो बेस्ट सेलर
उपन्यासकार गुलशन नंदा भी
रहे हैं। जिस
युग में केशव
दास लिखते रहे,
उसी युग से
थोड़ा आगे-पीछे
तुलसीदास भी हुए
हैं। केशव कठिन
लिखते रहे, तो
तुलसीदास ने सरल
भाषा में लिखकर
राम कथा को
जन-जन में
पहुंचा दिया। दोनों का
अपना-अपना महत्व
है। लोग पढ़ना
चाहते हैं। उन
तक पुस्तकें पहुंच
नहीं रही हैं।
अच्छी किताबों के
लिए पाठक तरस
रहे हैं। लेखक
अपनी पुस्तक उन
तक पहुंचा नहीं
पा रहा है।
हां, किसी को
पढ़ने के लिए
मजबूर नहीं किया
जा सकता है।
-तो फिर, कविता
के सामने सबसे
बड़ा संकट क्या
है? खास तौर
पर हास्य कविता
के सामने?
कविता के सामने
सबसे बड़ा संकट
उसका प्रयोगवाद है।
हमने इतने प्रयोग
किए कि कोई
एक निश्चित ढर्रा
तय नहीं कर
पाए। ठहराव नहीं
आया कविता में।
उर्दू में,
हालत इससे उलट
रही। गजल आज
भी अपने पारंपरिक
बहरों में लिखी
जा रही है।
एक ही बहर
पर एक ही
भाव भूमि की
काफी गजलें लिखी
गई हैं। गीत
और छंद हमारी
धरोहर हैं। हमने
इनसे मुख मोड़ा,
इन्होंने हमसे मुंह
मोड़ लिया। गीत
की जगह आज
फिल्मी गीतों ने ले
ली। रीतिकालीन कवियों
ने छंद और
गेयता को बरकरार
रखा। उनकी लिखी
रचनाएं आज भी
मोहित करती हैं।
तो क्या छंद
मुक्त कविताएं ही
इसके लिए जिम्मेदार
मानी जाएंगी?
अशोक..जिन छंद
मुक्त कविताओं के
नाम पर यह
सारा प्रपंच रचा
जा रहा है,
उसको समझने की
जरूरत है। निराला
ने कविता की
अंतर लय तो
नहीं तोड़ा, छंद
को तोड़ा था।
उनकी सारी कविताएं
(भले ही छंद
मुक्त हों) गेय
हैं। उनकी गेयता
बरकरार है। नई
कविता ने उस
अंतर लय को
खारिज कर दिया।
वह अपना मुहावरा
नहीं गढ़ पाई।
वह भाव प्रधान
है, बौद्धिक है,
लेकिन बोझिल है।
सुदामा पांडे धूमिल की
कविताएं कितने लोगों को
याद होंगी? नागार्जुन
की गेय कविताएं
लोगों को जरूर
याद होंगी।
-तो क्या आम
पाठकों की रुचि
पढ़ने में घटी
है? अंग्रेजी वाले
तो खूब पढ़े
जा रहे हैं।
अभी कुछ दिन
पहले चेतन भगत
की ‘हॉफ गर्लफ्रेंड’
आई है, उसकी
बड़ी चर्चा है।
हिंदी वालों की
इतनी चर्चा नहीं
होती।
हिंदी के पाठक
कभी कम नहीं
होंगे। हिंदी का स्थान
कोई दूसरी भाषा
नहीं ले सकती
है। हां, एक
समय था, जब
लोग अपने ड्राइंग
रूम में अंग्रेजी
का अखबार रखते
थे, लेकिन आज
सब कुछ बदल
गया है। हिंदी
पत्र-पत्रिकाओं की
प्रसार संख्या देख लीजिए।
हिंदी ने अपनी
संप्रेषणीयता, ग्राह्यता और स्वीकार्यता
में बढ़ोत्तरी की
है। प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी संयुक्त राष्टÑ
में हिंदी में
भाषण दे आए।
दूसरे देशों में
भी हिंदी बोली
जा रही है।
फ्रांस के एयरपोर्ट
पर मैंने हिंदी
में लिखा देखा
है, ‘आपका स्वागत
है।’ लिपि के
आधार पर न
देखें, तो बोली
और ग्राह्यता के
चलते हिंदी स्वीकार
की जा रही
है। जिस चेतन
भगत की बात
आप कर रहे
हैं, उसके पाठकों
की संख्या कितनी
है? इलीट क्लास
में भले ही
पढ़ा जा रहा
हो, लेकिन आम
पाठक को तो
आज भी प्रेमचंद
याद आते हैं,
धरमवीर भारती, राजेंद्र यादव,
ममता कालिया, मैत्रेयी
पुष्पा याद आते
हैं।
-कभी शहर में
साहित्यकारों के अड्डे
हुआ करते थे।
अब ये अड्डे
नहीं रहे। इनका
साहित्य पर कोई
फर्क पड़ा?
बिल्कुल पड़ा..मैं
तो कहता हूं
कि इसका पूरे
साहित्य पर नकारात्मक
प्रभाव पड़ा। अड्डेबाजी
साहित्य और समाज
के हित में
थी। साहित्यिक अड्डों
पर सभी तरह
के साहित्यकार जुटते
थे, उनमें आपस
में विचार-विनिमय
होता था। इसे
इस तरह भी
कह सकते हैं
कि एक दूसरे
से बात-चीत
करके वे रीचार्ज
हो जाते थे।
साहित्यकारों को यह
पता चल जाता
था कि कौन
क्या लिख रहा
है। वरिष्ठ साहित्यकारों
का मार्गदर्शन मिलता
था कनिष्ठ साहित्यकारों
को। कुछ गलत
लिख जाता था,
तो इन्हीं अड्डों
पर वरिष्ठ साहित्यकार
बड़े अपनेपन से
डांट लगा देते
थे। कोई बुरा
भी नहीं मानता
था। सही गलत
की तमीज इन्हीं
अड्डों से मिलती
थी। अब वह
बात नहीं रही।
एक कवि जो
वीररस की कविता
लिखता है, उसे
भारत की विदेश
के बारे में
पता ही नहीं
है। बस..मार
देंगे, काट देंगे..आंव-बांव
लिखे जा रहा
है। इस बात
को अच्छी तरह
से समझने की
जरूरत है कि
कवि सम्मेलनों में
रात के अंधेरे
में तालियां बजाने
वाले लोग दूसरे
दिन जुलूस का
हिस्सा नहीं बनते।
लोग किसानों से
कभी मिले नहीं,
मजदूरों का दुख-दर्द देखा-समझा नहीं,
लेकिन मजदूरों-किसानों
का दर्द उलीचे
जा रहे हैं
कविता में।
-आज व्यंग्य और हास्य
के नाम पर
सिर्फ या तो
नारे लिखे जा
रहे हैं, या
चुटकुले।
अशोक जी, एक
बात सबको अच्छी
तरह से मन
में बिठा लेनी
चाहिए कि चुटकुले
लिखे नहीं जाते।
चुटकुले लिखने के चक्कर
में आजकल हास्य-व्यंग्य के कवि
और लेखकर चुटकुला
होते जा रहे
हैं। प्रतिष्ठित साहित्यकार
चुटकुला नहीं लिख
सकता है। दूरसंचार
के माध्यम बढ़
गए हैं। फेसबुक
से लेकर ट्विटर
तक न जाने
क्या-क्या आ
गए हैं। सब
कुछ उपलब्ध है
इंटरनेट पर। गजब
यह है कि
ये चुटकुले भी
मौलिक नहीं होते,
जो कवि सम्मेलनों
में सुनाए जा
रहे हैं। जहां
तक नारों की
बात है, काव्य
में नारे नहीं
चलते। आप किसी
पंथ विशेष के
समर्थक हो सकते
हैं, लेकिन नारों
के लिए काव्य
में कोई स्थान
नहीं है।
हास्य या व्यंग्य
को वैसा रुतबा
क्यों नहीं मिला,
जो कहानीकारों को
मिलता है, उपन्यासकारों
को मिलता है
या दूसरी विधाओं
में लिखने वालों
को मिलता है?
हास्य-व्यंग्य को मान्यता
बहुत पहले ही
मिल गई थी।
जहां तक रुतबे
की बात है,
व्यंग्य या हास्य
विधा को समर्पित
समीक्षक नहीं मिला।
अगर आचार्य रामचंद्र
शुक्ल जैसा जुझारू
और समर्पित समीक्षक
सूरदास, तुलसीदास और मलिक
मोहम्मद जायसी को नहीं
मिला होता, तो
हो सकता है
कि आज उनकी
इतनी चर्चा नहीं
होती। नामवर सिंह
जैसा समीक्षक नई
कविता को मिला,
तभी तो आज
सबके सिर चढ़कर
बोल रही है
नई कविता। नहीं
तो नई कविता
आज कहां होती,
कौन कह सकता
है इसके बारे
में। हास्य-व्यंग्य
को हरिशंकर पारसाई,
श्रीलाल शुक्ल, गोपाल प्रसाद
व्यास जैसे वरिष्ठ
साहित्यकार मिले।
-आपने हास्य-व्यंग्य, नाटक
और बाल कविताएं
लिखीं हैं। सबसे
ज्यादा मन किसमें
रमा और क्यों?
मैंने अपनी वय
के अनुसार रचनाएं
लिखीं। किशोर वय में
था, तो बाल
गीत लिखा करता
था। बच्चों के
लिए कविताएं लिखीं।
किशोरवय के बाद
शृंगार गीत रचे,
समस्यापरक कविताएं लिखीं। गरीबी,
बेकारी जैसी समस्याओं
पर लिखा, भरपूर लिखा।
दूरदर्शन के लिए
कई नाटक लिखे,
युवा होने पर
जब 1975 में
आपातकाल लगा, तो
व्यवस्था के विरोध
में व्यंग्य लिखना
शुरू किया। मुझे
लगा कि व्यंग्य
को इस समय
मेरी जरूरत है।
तानाशाही के खिलाफ
लिखने के लिए
छटपटा उठा, तो
व्यंग्य लिखा, हास्य के
माध्यम से विरोध
जताया। बाद में
तो कवि सम्मेलनों
में भी जाने
लगा। अखबारों में
गद्य व्यंग्य लिखा।
हास्य कविता में
कुछ नए प्रयोग
किए। हास्य को
नई शैली, नए
प्रतीक, नए बिंब
दिए। आज लंबी
कविता का दौर
खत्म हो चुका
है, छोटी-छोटी
कविताएं पढ़ी और
सुनी जा रही
हैं। सबसे सुखद
यह है कि
छंद की वापसी
हो रही है।
आज की सबसे
बड़ी जरूरत यह
है कि सरल
लिखा जाए। सरल
लिखना, काव्य की सबसे
बड़ी चुनौती है।
इस पर आजकल
चर्चा नहीं होती,
विचार-विमर्श नहीं
होता। कविताएं मंचों
के माध्यम से
लोगों के बीच
पहुंच रही हैं,
लेकिन पुस्तकों के
रूप में पाठक
से दूर हैं।
इस दिशा में
अभियान चलाने
की जरूरत है।
आज महत्व शिल्प का नहीं, कथ्य का है, सवाल यह नहीं कि आपने किस तरह कहा है, सवाल यह है कि आपने क्या कहा है....
ReplyDeleteकविता भाषा में
आदमी होने की
तमीज है..... #Dhoomil