अशोक मिश्र
शर्म और सियासत का आपस में कोई रिश्ता नहीं होता है। नेताओं, मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के साथ-साथ अफसरों से शर्म और नैतिकता की उम्मीद करना बेमानी है। अगर ऐसा नहीं है, तो बिलासपुर के पेंडारी और गौरेला नसबंदी शिविर जैसे हादसों के आरोपी अपने निलंबन पर मुस्कुराते हुए यह नहीं कहते कि चलो..अब सांस में सांस आई। तीन दिन से चैन की नींद सोया नहीं हूं, अब चैन से सोऊं
गा। यह गैरजिम्मेदार ब्यूरोक्रेसी और सरकारी तंत्र का शर्मनाक चेहरा है। अगर ऐसा नहीं होता, तो ऐसे हादसों के लिए जिम्मेदार अधिकारियों और कर्मचारियों को कठोर सजा जरूर मिलती। अफसोस..जिस तरह रमन सरकार ने नसबंदी हादसे के बाद जिम्मेदार अधिकारियों और कर्मचारियों को बचाने की कोशिश की है, वह शर्मनाक है। मुख्यमंत्री रमन सिंह ने तो मरने वाली महिलाओं के परिजनों को चार-चार लाख रुपये और अस्पतालों में भर्ती महिलाओं को दवाओं के खर्च के अलावा पचास-पचास हजार रुपये देने की घोषणा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। सियासत व्यक्तियों को किस तरह संवेदनहीन बना देती है, इसका बेहतरीन उदाहरण छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार है। रमन सिंह और उनके साथी मंत्रियों में अगर थोड़ी सी भी नैतिकता और संवेदनशीलता होती, तो जिम्मेदार लोगों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने का प्रयास करते और सारी जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे देते और एक उदाहरण देश के सामने पेश करते। जैसा लालबहादुर शास्त्री ने किया था। उन्होंने एक मामूली से रेल हादसे की जिम्मेदारी लेते हुए रेलमंत्री पद से त्यागपत्र दे देकर एक मिसाल पेश की थी कि अगर आप अपने नागरिकों की सेवा ठीक से नहीं कर सकते हैं, तो आपको सत्ता में रहने का कतई अधिकार नहीं है।
आज बिलासपुर के विभिन्न गांवों में मौत का सन्नाटा पसरा हुआ है। नसबंदी शिविरों में मरने वाली औरतें वैसे तो समाज के हित में नसबंदी कराने गई थीं, ताकि देश की बढ़ती आबादी रोकने में उनकी भी भागीदारी रहे। इस शिविर में नसबंदी कराने के बाद लापरवाही के चलते मौत के मुंह में समा जाने वाली कुछ औरतों के बच्चे तो इतने छोटे हैं कि उन बच्चों को अब संभालना, उनके परिवार वालों को मुश्किल हो रहा है। यही नहीं, बिलखते बच्चों और अपना पेट भरने के लिए उनके पास पैसे भी नहीं हैं। किसी तरह मजदूरी करके या वनोपज पर जिंदा रहने वाले लोग अपनी बहन, बेटी, बीवी की मौत का बोझ उठाए किसी तरह जीने को मजबूर हैं। उनके बच्चों का भविष्य अब क्या होगा, इसकी चिंता उन्हें खाए जा रही है।
बिलासपुर के पेंडारी और गौरेला नसबंदी शिविर ने छत्तीसगढ़ ही नहीं, अन्य राज्यों में चलने वाली स्वास्थ्य परियोजनाओं और सरकारी कार्यप्रणाली की कलई खोल दी है। पेंडारी में सरकारी डॉक्टरों की लापरवाही और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से ग्रामीण महिलाओं को जोडऩे वाली मितानिनों के लालच ने डेढ़ दर्जन महिलाओं का जीवन निगल लिया। कई दर्जन महिलाएं विभिन्न अस्पतालों में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रही हैं। नेम बाई सूर्यवंशी, जानकी बाई, रेखा बाई, चंद्रकली पिरैया, पुष्पा बाई ध्रुव और दुलौरीन बाई जैसी महिलाओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिन मितानिनों को अपनी सखी-सहेली की तरह विश्वसनीय मान उनके बहकावे में आकर वे नसबंदी कराने जा रही हैं, वे उन्हें मौत की नींद सुलाने जा रही हैं। कई महिलाएं तो अपने पति, सास-ससुर को बिना बताए ही शिविर में चली आई थीं, अपनी नसबंदी कराने। इन्हें थोड़े से पैसों का लालच भी रहा होगा। लालच तो उन मितानिनों को भी था, जिनको एक नसबंदी कराने के डेढ़ सौ रुपये मिलते थे। अधिक से अधिक महिलाओं की नसबंदी कराने और अपना सालाना लक्ष्य पूरा करने का दबाव उनसे वह करा गया, जिसकी जितनी सजा दी जाए, कम है। कहा तो यह भी जा रहा है कि ये मितानिनें नसबंदी कराने वाली महिलाओं को मिलने वाली रकम में से भी थोड़े बहुत रुपये ऐंठ लेती थीं। इन मितानिनों का अपराध शायद उतना गंभीर नहीं है जितना आपरेशन को अंजाम देने और पूरी व्यवस्था देखने वाले अधिकारियों और डॉक्टरों का है। यह सुनकर बड़ा कोफ्त होता है कि इस इक्कीसवीं सदी में डॉक्टर इतने गैरजिम्मेदार हो सकते हैं कि आपरेशन कराने वाली महिलाओं को चूहे मारने वाली दवा खिला देते हैं। जब उनकी धड़ाधड़ मौत होने लगती है, तो वे दवा सप्लाई करने वाली कंपनियों को इतना मौका प्रदान करते हैं, ताकि वे वहां से कुछ दवाइयों को हटा सकें।
यह वही छत्तीसगढ़ है, जहां पिछले तीन बार से विधानसभा चुनाव जीतकर प्रदेश की सत्ता पर रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार काबिज हुई है। पूरे प्रदेश में रमन सिंह अपनी उपलब्धियों का बखान करते हुए कहते हैं कि छत्तीसगढिय़ा, सबसे बढिय़ा। कोई कैसे भूल सकता है कि यह भाजपा सरकार की ही उपलब्धियां हैं कि यहां दो साल पहले बीमे की रकम और स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर फर्जी बिल उगाहने के चक्कर में ३३४४ महिलाओं के गर्भाशय ही निकाल लिए गए थे। पूरे प्रदेश में जिला स्वास्थ्य केंद्रों में ड़ॉक्टरों, नर्सों और मितानिनों के फैले जाल ने कुंवारी लड़कियों के भी गर्भाशय यह कहते हुए निकाल दिए थे कि अगर जल्दी ही तुम्हारा गर्भाशय नहीं निकाला गया, तो कैंसर विकराल रूप धारण कर सकता है। बाद में जो खुलासा हुआ, वह चकित कर देने वाला था। गर्भाशय कांड की शिकार गरीब आदिवासी और संरक्षित जनजाति बैगा की महिलाएं, लड़कियां हुई थीं। इस कथित गर्भाशय आपरेशन के नाम पर महिलाओं के परिजनों से तो वसूली की ही गई थी, विभिन्न स्वास्थ्य सेवा योजनाओं के मद में आपरेशन दिखाकर सरकारी पैसे की भी बंदरबांट की गई थी। यही हाल मोतियाबिंद के आपरेशन में भी हुआ। छत्तीसगढ़ में सौ से अधिक लोगों को सरकारी अस्पतालों में मोतियाबिंद का आपरेशन कराने का खामियाजा अपनी आंख गंवाकर चुकाना पड़ा।
पेंडारी और गौरेला नसबंदी कांड में बरती गई लापरवाही अफसोसजनक ही नहीं, क्षुब्ध कर देने वाली भी है। सरकार से लेकर स्वास्थ्य विभाग के निचले स्तर के अधिकारियों का रवैया देखकर कतई नहीं लगता था कि उन्हें इन महिलाओं की मौत का कोई अफसोस भी है। हादसे के बाद बिलासपुर के स्वास्थ्य विभाग से जुड़े अधिकारियों ने निचले स्तर के कर्मचारियों से यह लिखवाने की कोशिश की कि मरने और बीमार पडऩे वाली औरतों की ही सारी जिम्मेदारी है क्योंकि उनके लापरवाही बरतने के चलते ही यह हादसा हुआ है। सच तो यह है कि नसबंदी शिविर उस अस्पताल में लगाया गया जो काफी दिनों से बंद था। नसबंदी आपरेशन करने के दौरान सावधानी भी नहीं बरती गई। महिलाओं को जो दवाइयां दी गईं, उनमें चूहे मारने का केमिकल था।
एक तथ्य और उभर कर सामने आया है कि नसबंदी शिविर में दो बैगा महिलाओं मंगली बाई और चैती बाई की भी नसबंदी की गई। इनकी मौत हो जाने पर जब गांववालों और परिजनों ने चैतीबाई काअंतिम संस्कार करने से मना कर दिया, तो प्रशासन के लोग दो लाख रुपये का चेक लेकर मनाने पहुंचे, ताकि किसी तरह मामले को शांत किया जा सके। दुखद तो यह है कि नसबंदी शिविर के आयोजकों ने यह जानने-बूझने की जरूरत ही नहीं समझी कि बैगा जनजाति को केंद्र सरकार ने संरक्षित घोषित कर रखा है, दमन-द्वीप में पाई जाने वाली जारवा जनजाति की तरह। बैगा और जारवा जनजाति के लोग विलुप्त के कगार पर हैं। हर साल सैकड़ों करोड़ों रुपये इनके संरक्षण पर केंद्र और रा'य सरकारें खर्च करती हैं। इनकी जनसंख्या बढ़ाने और उन्हें जीवन के अनुकूल संसाधन मुहैया कराने की कोशिश की जाती है। ऐसे में बैगा जनजाति की महिलाओं की नसबंदी करने जैसा अपराध तो और भी निंदनीय हो जाता है।
शर्म और सियासत का आपस में कोई रिश्ता नहीं होता है। नेताओं, मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के साथ-साथ अफसरों से शर्म और नैतिकता की उम्मीद करना बेमानी है। अगर ऐसा नहीं है, तो बिलासपुर के पेंडारी और गौरेला नसबंदी शिविर जैसे हादसों के आरोपी अपने निलंबन पर मुस्कुराते हुए यह नहीं कहते कि चलो..अब सांस में सांस आई। तीन दिन से चैन की नींद सोया नहीं हूं, अब चैन से सोऊं
गा। यह गैरजिम्मेदार ब्यूरोक्रेसी और सरकारी तंत्र का शर्मनाक चेहरा है। अगर ऐसा नहीं होता, तो ऐसे हादसों के लिए जिम्मेदार अधिकारियों और कर्मचारियों को कठोर सजा जरूर मिलती। अफसोस..जिस तरह रमन सरकार ने नसबंदी हादसे के बाद जिम्मेदार अधिकारियों और कर्मचारियों को बचाने की कोशिश की है, वह शर्मनाक है। मुख्यमंत्री रमन सिंह ने तो मरने वाली महिलाओं के परिजनों को चार-चार लाख रुपये और अस्पतालों में भर्ती महिलाओं को दवाओं के खर्च के अलावा पचास-पचास हजार रुपये देने की घोषणा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। सियासत व्यक्तियों को किस तरह संवेदनहीन बना देती है, इसका बेहतरीन उदाहरण छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार है। रमन सिंह और उनके साथी मंत्रियों में अगर थोड़ी सी भी नैतिकता और संवेदनशीलता होती, तो जिम्मेदार लोगों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने का प्रयास करते और सारी जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे देते और एक उदाहरण देश के सामने पेश करते। जैसा लालबहादुर शास्त्री ने किया था। उन्होंने एक मामूली से रेल हादसे की जिम्मेदारी लेते हुए रेलमंत्री पद से त्यागपत्र दे देकर एक मिसाल पेश की थी कि अगर आप अपने नागरिकों की सेवा ठीक से नहीं कर सकते हैं, तो आपको सत्ता में रहने का कतई अधिकार नहीं है।
आज बिलासपुर के विभिन्न गांवों में मौत का सन्नाटा पसरा हुआ है। नसबंदी शिविरों में मरने वाली औरतें वैसे तो समाज के हित में नसबंदी कराने गई थीं, ताकि देश की बढ़ती आबादी रोकने में उनकी भी भागीदारी रहे। इस शिविर में नसबंदी कराने के बाद लापरवाही के चलते मौत के मुंह में समा जाने वाली कुछ औरतों के बच्चे तो इतने छोटे हैं कि उन बच्चों को अब संभालना, उनके परिवार वालों को मुश्किल हो रहा है। यही नहीं, बिलखते बच्चों और अपना पेट भरने के लिए उनके पास पैसे भी नहीं हैं। किसी तरह मजदूरी करके या वनोपज पर जिंदा रहने वाले लोग अपनी बहन, बेटी, बीवी की मौत का बोझ उठाए किसी तरह जीने को मजबूर हैं। उनके बच्चों का भविष्य अब क्या होगा, इसकी चिंता उन्हें खाए जा रही है।
बिलासपुर के पेंडारी और गौरेला नसबंदी शिविर ने छत्तीसगढ़ ही नहीं, अन्य राज्यों में चलने वाली स्वास्थ्य परियोजनाओं और सरकारी कार्यप्रणाली की कलई खोल दी है। पेंडारी में सरकारी डॉक्टरों की लापरवाही और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से ग्रामीण महिलाओं को जोडऩे वाली मितानिनों के लालच ने डेढ़ दर्जन महिलाओं का जीवन निगल लिया। कई दर्जन महिलाएं विभिन्न अस्पतालों में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रही हैं। नेम बाई सूर्यवंशी, जानकी बाई, रेखा बाई, चंद्रकली पिरैया, पुष्पा बाई ध्रुव और दुलौरीन बाई जैसी महिलाओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिन मितानिनों को अपनी सखी-सहेली की तरह विश्वसनीय मान उनके बहकावे में आकर वे नसबंदी कराने जा रही हैं, वे उन्हें मौत की नींद सुलाने जा रही हैं। कई महिलाएं तो अपने पति, सास-ससुर को बिना बताए ही शिविर में चली आई थीं, अपनी नसबंदी कराने। इन्हें थोड़े से पैसों का लालच भी रहा होगा। लालच तो उन मितानिनों को भी था, जिनको एक नसबंदी कराने के डेढ़ सौ रुपये मिलते थे। अधिक से अधिक महिलाओं की नसबंदी कराने और अपना सालाना लक्ष्य पूरा करने का दबाव उनसे वह करा गया, जिसकी जितनी सजा दी जाए, कम है। कहा तो यह भी जा रहा है कि ये मितानिनें नसबंदी कराने वाली महिलाओं को मिलने वाली रकम में से भी थोड़े बहुत रुपये ऐंठ लेती थीं। इन मितानिनों का अपराध शायद उतना गंभीर नहीं है जितना आपरेशन को अंजाम देने और पूरी व्यवस्था देखने वाले अधिकारियों और डॉक्टरों का है। यह सुनकर बड़ा कोफ्त होता है कि इस इक्कीसवीं सदी में डॉक्टर इतने गैरजिम्मेदार हो सकते हैं कि आपरेशन कराने वाली महिलाओं को चूहे मारने वाली दवा खिला देते हैं। जब उनकी धड़ाधड़ मौत होने लगती है, तो वे दवा सप्लाई करने वाली कंपनियों को इतना मौका प्रदान करते हैं, ताकि वे वहां से कुछ दवाइयों को हटा सकें।
यह वही छत्तीसगढ़ है, जहां पिछले तीन बार से विधानसभा चुनाव जीतकर प्रदेश की सत्ता पर रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार काबिज हुई है। पूरे प्रदेश में रमन सिंह अपनी उपलब्धियों का बखान करते हुए कहते हैं कि छत्तीसगढिय़ा, सबसे बढिय़ा। कोई कैसे भूल सकता है कि यह भाजपा सरकार की ही उपलब्धियां हैं कि यहां दो साल पहले बीमे की रकम और स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर फर्जी बिल उगाहने के चक्कर में ३३४४ महिलाओं के गर्भाशय ही निकाल लिए गए थे। पूरे प्रदेश में जिला स्वास्थ्य केंद्रों में ड़ॉक्टरों, नर्सों और मितानिनों के फैले जाल ने कुंवारी लड़कियों के भी गर्भाशय यह कहते हुए निकाल दिए थे कि अगर जल्दी ही तुम्हारा गर्भाशय नहीं निकाला गया, तो कैंसर विकराल रूप धारण कर सकता है। बाद में जो खुलासा हुआ, वह चकित कर देने वाला था। गर्भाशय कांड की शिकार गरीब आदिवासी और संरक्षित जनजाति बैगा की महिलाएं, लड़कियां हुई थीं। इस कथित गर्भाशय आपरेशन के नाम पर महिलाओं के परिजनों से तो वसूली की ही गई थी, विभिन्न स्वास्थ्य सेवा योजनाओं के मद में आपरेशन दिखाकर सरकारी पैसे की भी बंदरबांट की गई थी। यही हाल मोतियाबिंद के आपरेशन में भी हुआ। छत्तीसगढ़ में सौ से अधिक लोगों को सरकारी अस्पतालों में मोतियाबिंद का आपरेशन कराने का खामियाजा अपनी आंख गंवाकर चुकाना पड़ा।
पेंडारी और गौरेला नसबंदी कांड में बरती गई लापरवाही अफसोसजनक ही नहीं, क्षुब्ध कर देने वाली भी है। सरकार से लेकर स्वास्थ्य विभाग के निचले स्तर के अधिकारियों का रवैया देखकर कतई नहीं लगता था कि उन्हें इन महिलाओं की मौत का कोई अफसोस भी है। हादसे के बाद बिलासपुर के स्वास्थ्य विभाग से जुड़े अधिकारियों ने निचले स्तर के कर्मचारियों से यह लिखवाने की कोशिश की कि मरने और बीमार पडऩे वाली औरतों की ही सारी जिम्मेदारी है क्योंकि उनके लापरवाही बरतने के चलते ही यह हादसा हुआ है। सच तो यह है कि नसबंदी शिविर उस अस्पताल में लगाया गया जो काफी दिनों से बंद था। नसबंदी आपरेशन करने के दौरान सावधानी भी नहीं बरती गई। महिलाओं को जो दवाइयां दी गईं, उनमें चूहे मारने का केमिकल था।
एक तथ्य और उभर कर सामने आया है कि नसबंदी शिविर में दो बैगा महिलाओं मंगली बाई और चैती बाई की भी नसबंदी की गई। इनकी मौत हो जाने पर जब गांववालों और परिजनों ने चैतीबाई काअंतिम संस्कार करने से मना कर दिया, तो प्रशासन के लोग दो लाख रुपये का चेक लेकर मनाने पहुंचे, ताकि किसी तरह मामले को शांत किया जा सके। दुखद तो यह है कि नसबंदी शिविर के आयोजकों ने यह जानने-बूझने की जरूरत ही नहीं समझी कि बैगा जनजाति को केंद्र सरकार ने संरक्षित घोषित कर रखा है, दमन-द्वीप में पाई जाने वाली जारवा जनजाति की तरह। बैगा और जारवा जनजाति के लोग विलुप्त के कगार पर हैं। हर साल सैकड़ों करोड़ों रुपये इनके संरक्षण पर केंद्र और रा'य सरकारें खर्च करती हैं। इनकी जनसंख्या बढ़ाने और उन्हें जीवन के अनुकूल संसाधन मुहैया कराने की कोशिश की जाती है। ऐसे में बैगा जनजाति की महिलाओं की नसबंदी करने जैसा अपराध तो और भी निंदनीय हो जाता है।
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