-अशोक मिश्र
नथईपुरवा गांव में कुछ ठेलुए किस्म के लोग कुएं की जगत पर बैठे टाइम पास कर रहे थे। बहुत दिनों बाद मैं भी गांव गया था, तो मैं भी उस जमात में शामिल हो गया। छबीले काका ने अचानक मुझसे लिया, 'ये पत्रकार क्या होता है, बेटा! कोई तोप-वोप होता है क्या? बड़ा बखान सुनते हैं पत्रकारों का।Ó उनका सवाल सुनकर मैं सकपका गया। मैंने इस बेतुके सवाल का तल्ख लहजे में जवाब दिया, 'ऊल्लू की दुम होता है पत्रकार। डाकू गब्बर सिंह होता है। बहुत बड़ी तोप होता है। आपको कोई तकलीफ?Ó मेरे तल्ख स्वर को सुनकर अब सकपकाने की बारी छबीले काका की थी। उन्होंने शर्मिंदगी भरे लहजे में कहा, 'बेटा..आज रतिभान के घर में टीवी पर प्रधानमंत्री मोदी जी को पत्रकारों के साथ खूब गलबहियां डालकर हंसते-बतियाते देखा, तो मुझे भी पत्रकारों के बारे में जानने की उत्सुकता हुई। वैसे तुम न बताना चाहो, तो कोई बात नहीं। अब उम्र के आखिरी दौर में पत्रकारों के बारे में जान भी लूंगा, तो उससे क्या फर्क पड़ेगा? अब तो बस चला-चली की बेला है, जब टिकट कट जाए, तो 'लाद चलेगा बंजाराÓ की तरह सारा ज्ञान-ध्यान यहीं छोड़कर चल दूंगा। तब न किसी का मोह रहेगा, न ज्ञान की गठरी का बोझ।Ó मेरे तल्ख स्वर से छबीले काका आहत हुए थे या कोई और बात थी? उनके इस तरह अचानक आध्यात्मिक हो जाने से मैं भीतर ही भीतर पसीज उठा।
अब शर्माने की बारी मेरी थी। मैंने कोमल लहजे में कहा, 'काका! अब आपको क्या बताएं कि पत्रकार क्या होता है? कहने को तो उसकी भूमिका जनता के अधिकारों की रक्षा करने वाले सजग प्रहरी की होती है। लेकिन अब यह बात सिर्फ किताबों तक ही सिमट गई है। अब वह मंत्री, विधायक, सांसद, नेता और उद्योगपतियों के हितों की रक्षा पहले करता है, अपने बारे में बाद में सोचता है। दरअसल, पत्रकार या तो नेताओं, अफसरों, पूंजीपतियों और अपने अखबार के मालिक की चंपी करता है या फिर वसूली। वसूलने की कला में प्रवीण पत्रकार तो कई सौ करोड़ रुपये की गाडिय़ों पर चलते हैं, तो कई अपनी बीवी की फटी साड़ी में पैबंद लगाने के फेर में ही जीवन गुजार देते हैं। काका! पत्रकारों की कई केटेगरियां होती हैं। चलताऊ पत्रकार, बिकाऊ पत्रकार, सेल्फी पत्रकार, डग्गाबाज पत्रकार, दबंग पत्रकार, हड़बंग पत्रकार, कुंठित पत्रकार, अकुंठित पत्रकार। हां, आपका पाला किस तरह के पत्रकार से पड़ा है, यह अलग बात है।Ó
'गरीबन कै मददगार भी तो होत हैं पत्रकार..एक बार बप्पा का थानेदार बहुत तंग कर रहा था, तो वहां मौजूद एक पत्रकार ने बप्पा की तरफ से कुछ बोल दिया। फिर क्या था, थानेदार ने न केवल बप्पा की लल्लो-चप्पो की, बल्कि बिना कुछ छीने-झपटे घर भी जाने दिया।Ó कंधई मौर्य ने बीच में अपनी टांग अड़ाई। मैंने एक बार घूमकर कंधई को देखा और कहा, 'बाद में तुम्हारे बप्पा ने तीन दिन तक बिना कुछ लिए-दिए उसके घर की रंगाई-पुताई की थी। घर से तीन किलो सत्तू, पांच किलो अरहर की दाल लेकर गए थे, वह अलग। बात करते हैं गरीबों के हिमायती होने के। पत्रकार भी इस समाज का हिस्सा है। दया, ममता, क्रोध, हिंसा, लालच, भ्रष्टाचार जैसी प्रवृत्तियां उसमें भी पाई जाती हैं। वह जब अपनी पर उतर आता है, तो बड़े-बड़े पानी मांगते हैं। चापलूसी में भी वह अव्वल ही रहता है। जितनी ज्यादा चापलूसी, जिंदगी में उतनी ही ज्यादा तरक्की। रुपया-पैसा, गाड़ी-घोड़ा से लेकर देश-विदेश की यात्रा तक कर आते हैं पत्रकार, इसी चरणवंदना के सहारे। पत्रकारिता का अब सीधा से फंडा है, अखबारों, चैनलों पर भले ही तुर्रम खां बनो, लेकिन मंत्री, अधिकारी और नेता को साधे रहो। वह सामने हो, तो चरणों में लोट जाओ। पीठ पीछे जितना गरिया सकते हो, गरियाओ। आलोचना करो, उसकी कमियों को अपने फायदे के लिए जिनता खोज सकते हो, खोजो। उसे भुनाओ।Ó मेरी बात सुनकर छबीले काका धीरे से उठे और चलते बने। नोट : मेरे इस व्यंग्य में चारण-भाट शब्द के उपयोग पर राजस्थान के कुछ साथियों ने आपत्ति व्यक्त किया है, मैंने इस शब्द का उपयोग पत्रकारों की चाटुकारिता की प्रवृत्ति को दर्शाने के लिए किया गया था। मेरा उद्देश्य किसी जाति, धर्म या संप्रदाय अथवा व्यक्ति को ठेस पहुंचाने का नहीं था। आज दिनांक ११ दिसंबर २०१४ को शाम लगभग ५ से ६ बजे के बीच मेरे पास राजस्थान के कई व्यक्तियों (डॉ. नरेंद्र सिंह देवल, धर्मेंद्र सिंह चारण, हरेंद्र सिंह, जोगी दान गडवी) के फोन आए जिन्होंने चारण-भाट शब्द के उपयोग पर आपत्ति जताई है। इस शब्द के उपयोग से यदि किसी को ठेस पहुंची हो, तो मैं खेद व्यक्त करता हूं। मैं फिर कहता हूं कि मेरा उद्देश्य किसी को ठेस पहुंचाना नहीं था।
नथईपुरवा गांव में कुछ ठेलुए किस्म के लोग कुएं की जगत पर बैठे टाइम पास कर रहे थे। बहुत दिनों बाद मैं भी गांव गया था, तो मैं भी उस जमात में शामिल हो गया। छबीले काका ने अचानक मुझसे लिया, 'ये पत्रकार क्या होता है, बेटा! कोई तोप-वोप होता है क्या? बड़ा बखान सुनते हैं पत्रकारों का।Ó उनका सवाल सुनकर मैं सकपका गया। मैंने इस बेतुके सवाल का तल्ख लहजे में जवाब दिया, 'ऊल्लू की दुम होता है पत्रकार। डाकू गब्बर सिंह होता है। बहुत बड़ी तोप होता है। आपको कोई तकलीफ?Ó मेरे तल्ख स्वर को सुनकर अब सकपकाने की बारी छबीले काका की थी। उन्होंने शर्मिंदगी भरे लहजे में कहा, 'बेटा..आज रतिभान के घर में टीवी पर प्रधानमंत्री मोदी जी को पत्रकारों के साथ खूब गलबहियां डालकर हंसते-बतियाते देखा, तो मुझे भी पत्रकारों के बारे में जानने की उत्सुकता हुई। वैसे तुम न बताना चाहो, तो कोई बात नहीं। अब उम्र के आखिरी दौर में पत्रकारों के बारे में जान भी लूंगा, तो उससे क्या फर्क पड़ेगा? अब तो बस चला-चली की बेला है, जब टिकट कट जाए, तो 'लाद चलेगा बंजाराÓ की तरह सारा ज्ञान-ध्यान यहीं छोड़कर चल दूंगा। तब न किसी का मोह रहेगा, न ज्ञान की गठरी का बोझ।Ó मेरे तल्ख स्वर से छबीले काका आहत हुए थे या कोई और बात थी? उनके इस तरह अचानक आध्यात्मिक हो जाने से मैं भीतर ही भीतर पसीज उठा।
अब शर्माने की बारी मेरी थी। मैंने कोमल लहजे में कहा, 'काका! अब आपको क्या बताएं कि पत्रकार क्या होता है? कहने को तो उसकी भूमिका जनता के अधिकारों की रक्षा करने वाले सजग प्रहरी की होती है। लेकिन अब यह बात सिर्फ किताबों तक ही सिमट गई है। अब वह मंत्री, विधायक, सांसद, नेता और उद्योगपतियों के हितों की रक्षा पहले करता है, अपने बारे में बाद में सोचता है। दरअसल, पत्रकार या तो नेताओं, अफसरों, पूंजीपतियों और अपने अखबार के मालिक की चंपी करता है या फिर वसूली। वसूलने की कला में प्रवीण पत्रकार तो कई सौ करोड़ रुपये की गाडिय़ों पर चलते हैं, तो कई अपनी बीवी की फटी साड़ी में पैबंद लगाने के फेर में ही जीवन गुजार देते हैं। काका! पत्रकारों की कई केटेगरियां होती हैं। चलताऊ पत्रकार, बिकाऊ पत्रकार, सेल्फी पत्रकार, डग्गाबाज पत्रकार, दबंग पत्रकार, हड़बंग पत्रकार, कुंठित पत्रकार, अकुंठित पत्रकार। हां, आपका पाला किस तरह के पत्रकार से पड़ा है, यह अलग बात है।Ó
'गरीबन कै मददगार भी तो होत हैं पत्रकार..एक बार बप्पा का थानेदार बहुत तंग कर रहा था, तो वहां मौजूद एक पत्रकार ने बप्पा की तरफ से कुछ बोल दिया। फिर क्या था, थानेदार ने न केवल बप्पा की लल्लो-चप्पो की, बल्कि बिना कुछ छीने-झपटे घर भी जाने दिया।Ó कंधई मौर्य ने बीच में अपनी टांग अड़ाई। मैंने एक बार घूमकर कंधई को देखा और कहा, 'बाद में तुम्हारे बप्पा ने तीन दिन तक बिना कुछ लिए-दिए उसके घर की रंगाई-पुताई की थी। घर से तीन किलो सत्तू, पांच किलो अरहर की दाल लेकर गए थे, वह अलग। बात करते हैं गरीबों के हिमायती होने के। पत्रकार भी इस समाज का हिस्सा है। दया, ममता, क्रोध, हिंसा, लालच, भ्रष्टाचार जैसी प्रवृत्तियां उसमें भी पाई जाती हैं। वह जब अपनी पर उतर आता है, तो बड़े-बड़े पानी मांगते हैं। चापलूसी में भी वह अव्वल ही रहता है। जितनी ज्यादा चापलूसी, जिंदगी में उतनी ही ज्यादा तरक्की। रुपया-पैसा, गाड़ी-घोड़ा से लेकर देश-विदेश की यात्रा तक कर आते हैं पत्रकार, इसी चरणवंदना के सहारे। पत्रकारिता का अब सीधा से फंडा है, अखबारों, चैनलों पर भले ही तुर्रम खां बनो, लेकिन मंत्री, अधिकारी और नेता को साधे रहो। वह सामने हो, तो चरणों में लोट जाओ। पीठ पीछे जितना गरिया सकते हो, गरियाओ। आलोचना करो, उसकी कमियों को अपने फायदे के लिए जिनता खोज सकते हो, खोजो। उसे भुनाओ।Ó मेरी बात सुनकर छबीले काका धीरे से उठे और चलते बने। नोट : मेरे इस व्यंग्य में चारण-भाट शब्द के उपयोग पर राजस्थान के कुछ साथियों ने आपत्ति व्यक्त किया है, मैंने इस शब्द का उपयोग पत्रकारों की चाटुकारिता की प्रवृत्ति को दर्शाने के लिए किया गया था। मेरा उद्देश्य किसी जाति, धर्म या संप्रदाय अथवा व्यक्ति को ठेस पहुंचाने का नहीं था। आज दिनांक ११ दिसंबर २०१४ को शाम लगभग ५ से ६ बजे के बीच मेरे पास राजस्थान के कई व्यक्तियों (डॉ. नरेंद्र सिंह देवल, धर्मेंद्र सिंह चारण, हरेंद्र सिंह, जोगी दान गडवी) के फोन आए जिन्होंने चारण-भाट शब्द के उपयोग पर आपत्ति जताई है। इस शब्द के उपयोग से यदि किसी को ठेस पहुंची हो, तो मैं खेद व्यक्त करता हूं। मैं फिर कहता हूं कि मेरा उद्देश्य किसी को ठेस पहुंचाना नहीं था।
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