अशोक मिश्र
बौद्ध भिक्षु बोधिधर्म (या बोधिधर्मन) पांचवीं शताब्दी में चीन गए थे। बोधिधर्म के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि वह दक्षिण भारत के पल्लव वंश के किसी राजा की संतान थे। राजा बौद्ध धर्मानुयायी था। उसने अपने बेटे को बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए चीन भेजा था। यह भी कहा जाता है कि बीस-बाइस साल के बोधिधर्म अपने शिष्य के साथ जब चीन पहुंचे थे, तो वहां पर वू नाम का राजा शासन करता था।
उसकी इच्छा थी कि चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार हो। एक दिन राजा वू बोधिधर्म के पास पहुंचा और उनसे कहा कि मेरा मन बहुत अशांत रहता है। मन कैसे शांत होगा, इसका कोई उपाय बताएं। बोधिधर्म ने कहा कि अगली बार आना, तो अपने मन को भी साथ ले आना। राजा अचंभित रह गया कि मन क्या कोई वस्तु है, जो अगली बार आएं, तो लेते आएं। खैर, राजा चला गया।
कुछ दिन बाद वह फिर बोधिधर्म के पास पहुंचा और बोला, महात्मन! मन तो शरीर के भीतर ही रहता है, उसे कोई बाहर से कैसे ला सकता है। इस पर बोधिधर्म ने कहा कि आप मानते हैं कि मन जैसी कोई वस्तु नहीं होती है। तो आप एक जगह शांत होकर बैठ जाएं और अपने भीतर मन को तलाशिए। राजा वू ने अपनी भीतर झांकना शुरू किया, तो उसे पता चला कि उसकी बेचैनी दूर होने लगी है।
वह अपनी भीतर गहराई में उतरता चला गया। जब उसका ध्यान टूटा, तो उसने कहा कि मैं समझ गया कि बेचैनी को कैसे दूर किया जा सकता है। गौतम बुद्ध ने ध्यान सिखाया था। सैकड़ों सालों के बाद बोधिधर्म ने जब ध्यान को चीन पहुंचाया, तो स्थानीय प्रभाव के कारण यह चान के रूप में जाना गया। यही चान जब आगे इंडोनेशिया, जापान और दूसरे पूर्वी एशियाई देशों तक पहुंचा, तो इसका नाम फिर बदला और जेन बन गया।
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