Wednesday, March 25, 2015

कभी नहीं गाऊंगा 'गोरकी पतरकी रे...'

अशोक मिश्र
पता नहीं, मेरी किस्मत खराब है या मेरे अच्छे ग्रह-नक्षत्रों ने नासपीटे राहु-केतु से कोई राजनीतिक गठबंधन कर लिया है, इन दिनों मेरा हर काम बिगड़ जा रहा है। बस..मन की एक तरंग, एक मौज ने मेरी हालत खराब कर दी है। कल तक जिन बातों पर मेरी सालियां, सलहजें हंस-हंस कर लोट-पोट हो जाया करती थीं, खिखियाती-इठलाती हुई कहती थीं, 'जाओ जीजा! आप बड़े 'वोÓ हैं।Ó और जिस अंदाज में वे 'वोÓ कहती थीं, तो मैं निहाल हो जाता था। लेकि समय का फेर देखिए, वही सालियां, सलहजें और मेरी एकमात्र घरैतिन मेरे खिलाफ ससुराल में ही धरना-प्रदर्शन कर रही हैं, मेरे खिलाफ कैंडिल मार्च निकाल रही हैं। हालत यहां तक खराब हैं कि अब घरैतिन से ही हाथ धो बैठने की नौबत आ गई है। अब आपको क्या बताऊं। बात दरअसल यह है कि मैं अपनी ससुराल..हां..हां वही ससुराल जिसकी महिमा संस्कृत साहित्य में 'असारे खलु संसारे सारम स्वसुर मंदिरमÓ कहकर की गई है। तो किस्सा कोताह यह कि मैं अपनी ससुराल में बैठा थोड़ी दूर काम कर रही छोटकी साली को निहार रहा था। पता नहीं, कौन-सी तरंग मन में उठी कि मैं बड़ी जोर से गा उठा, 'गोरकी पतरकी रे होऽ ऽ...छँवड़ी पतरकी रे...मारे गुलेलवा जियरा उडि़ उडि़ जाय।Ó यह गाने के बाद उम्मीद थी कि हर बार की तरह मेरी छोटकी साली इठलाते हुए जवाब देगी, 'संइया संवरका रे, हो हो ऐ हो...संइया संवरका रे, तोरी नजरिया जिया में गडि़ गडि़ जाय।Ó लेकिन यह क्या? छोटकी साली तमतमा कर उठी और वहां जाकर खड़ी हो गई जहां मेरी घरैतिन किसी ब्लाक स्तर की नेता की झुंड बनाए बैठी अपनी बहनों और भाभियों के साथ गप्प लड़ा रही थीं।
थोड़ी देर बाद घरैतिन, छोटी-बड़ी सालियां, सलहजें छत्ते में से निकली बर्रैया की तरह मुझे घेरकर खड़ी हो गईं। घरैतिन ने गुर्राते हुए कहा, 'आजकल बड़े रसिक हो रहे हैं..अभी थोड़ी देर पहले क्या गा रहे थे...हां..?Ó घरैतिन और बाकी औरतें जिस तरह मुझे घेर कर खड़ी थीं, उससे मैं सकपका गया, 'क्या गा रहा था...और गा रहा था, तो कौन सा गुनाहकर दिया...अपनी साली को देखकर ही तो गाया था, किसी के कलेजे में बांस क्यों घुसा जा रहा है?Ó बड़ी सलहज ने हाथ नचाते हुए कहा, 'अच्छा जीजा जी...आप लोग घर से लेकर संसद तक हम औरतों को जो मुंह में आएगा, कहते रहेंगे। मैं पूछती हूं, आपने हमारी छोटी ननद को गोरकी क्यों कहा, जबकि वह सांवली है? मोटी है, तो पतरकी क्यों कहा? इसका मतलब है कि आपके मन में हमारी दीदी की जगह कोई गोरकी पतरकी भी बसी हुई है..?Ó मैंने लाख समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है, लेकिन वे नहीं मानी, तो नहीं मानी। अब तो हालत यह खाना मांगो, पानी मांगो या बात करने की कोशिश करो, तो तख्तियां दिखाती हैं जिस पर लिखे रहते हैं, औरतों का सम्मान करना सीखो। औरतें आपकी गुलाम नहीं। औरतों से ही दुनिया कायम है..आदि..आदि। मेरे सास-ससुर और साले दूसरे पक्ष पर समझौते के लिए दबाव डाल रहे हैं। देखिए, आगे क्या होता है?

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