अशोक मिश्र
चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग की भारत यात्रा कई मायने में महत्वपूर्ण रही। भारत और चीन के बीच 12 समझौते हुए हैं। इन समझौतों के बाद यह माना जा रहा है कि दोनों देशों के बीच पिछले कई दशकों से जमी बर्फ पिघलेगी और दोनों एक दूसरे के विकास में सकारात्मक भूमिका निभाएंगे। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की जितनी गर्मजोशी के साथ भारत ने पहले गुजरात में और फिर दिल्ली में स्वागत किया है, उससे तो यही लगता है कि दोनों देश अपने रिश्तों में सकारात्मक बदलाव लाने की दिशा में बहुत गंभीरता से विचार कर रहे हैं। वैश्विक राजनीति के मद्देनजर यह जरूरी भी है। चीन मानसरोवर की यात्रा के लिए सिक्किम के नाथू ला दर्रे से रास्ता देने को तैयार हो गया है। भारत में चलने वाली कुछ रेलगाड़ियों की स्पीड बढ़ाने और उनमें मूलभूत सुधार में भी सहयोग देने को चीन राजी है। उसका सबसे ज्यादा जोर भी रेल क्षेत्र में सहयोग देने का है। इतना ही नहीं, चीन ने आगामी पांच साल में 20 अरब डॉलर निवेश का आश्वासन दिया है, जिसको चीन के राष्ट्रपति की भारत यात्रा की उपलब्धि बताई जा रही है। इसके बावजूद कुछ बातें ऐसी हैं जिनको लेकर पहले भी शंकाएं थीं और ये शंकाएं तब भी बरकरार हैं, जब चीन के राष्ट्रपति अपने देश जा चुके हैं। सीमा विवाद को हल करने की दिशा में अब तक कोई सार्थक कदम नहीं उठाया जा सका है। यह महज संयोग नहीं हो सकता है कि चीनी राष्ट्रपति के भारत आने से दो हफ्ते पहले चीनी सेना भारत के अभिन्न भूभाग लद्दाख के देमचोक क्षेत्र में खानाबदोशों को घुसा दे और ये खानाबदोश भारत की जमीन पर जारी सिंचाई परियोजना का विरोध करें। भारतीय सैनिकों के विरोध करने पर भी चीनी सैनिक वह भूभाग खाली करने से इंकार कर दें। पिछले साल मई के महीने में जब चीन के प्रधानमंत्री ली केकियांग भारत आने वाले थे, तो उन्हीं दिनों चीनी सेना भारतीय सीमा में घुस आई थी और भारत के कड़ा विरोध जताने के बाद ही चीनी सैनिक वापस जाने को तैयार हुए थे। चीन ने यही हरकत फिर दोहराई है। इस मामले में चीन के राष्ट्रपति की मंशा पर भी प्रश्न चिह्न खड़ा होता है, जब भारतीय प्रधानमंत्री ने सीमा विवाद का मुद्दा उठाया, तो उन्होंने इसे हलके में लेते हुए कहा कि सीमा पर लकीरें खिंची नहीं हैं, इसलिए ऐसी घटनाएं हो सकती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सख्त लहजे में सीमा विवाद का मुद्दा उठाए जाने पर लद्दाख के ही चुमार क्षेत्र से चीनी सैनिकों की वापस हुई, लेकिन देमचोक में यह स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई थी। अगर हम भारत और चीन के संबंधों का इतिहास खंगालें, तो पता चलता है कि 28 जून 1954 को भारत आने वाले चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई का तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने ऐसी ही गर्मजोशी के साथ स्वागत किया था और बदले में चीन ने सन् 1962 की सर्दियों में हमारे देश के खिलाफ युद्ध का आगाज कर दिया था। इसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय जनमानस को अपने पड़ोसी राष्ट्र चीन पर विश्वास नहीं रह गया। भारतीय जनमानस का यह अविश्वास आज भी कम नहीं हुआ है। पंचशील के सिद्धांतों पर विश्वास रखने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाए थे।
भारत और चीन के बीच आज जिस तरह जरूरतों को ध्यान में रखते हुए समझौते हो रहे हैं, उनका स्वागत किया जाना चाहिए। हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर चीन की तरफ दोस्ती का हाथ जरूर बढ़ाना चाहिए, लेकिन अतीत में हुई भूलों से सबक सीखते हुए चीन से सतर्क भी रहना चाहिए। यह सही है कि वैश्विक परिदृश्य के मद्देनजर भारत का चीन से सहयोगात्मक संबंध समय की मांग है, लेकिन हमें अपने देश की सीमाओं की रक्षा का दायित्व भी याद रखना होगा।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग की भारत यात्रा कई मायने में महत्वपूर्ण रही। भारत और चीन के बीच 12 समझौते हुए हैं। इन समझौतों के बाद यह माना जा रहा है कि दोनों देशों के बीच पिछले कई दशकों से जमी बर्फ पिघलेगी और दोनों एक दूसरे के विकास में सकारात्मक भूमिका निभाएंगे। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की जितनी गर्मजोशी के साथ भारत ने पहले गुजरात में और फिर दिल्ली में स्वागत किया है, उससे तो यही लगता है कि दोनों देश अपने रिश्तों में सकारात्मक बदलाव लाने की दिशा में बहुत गंभीरता से विचार कर रहे हैं। वैश्विक राजनीति के मद्देनजर यह जरूरी भी है। चीन मानसरोवर की यात्रा के लिए सिक्किम के नाथू ला दर्रे से रास्ता देने को तैयार हो गया है। भारत में चलने वाली कुछ रेलगाड़ियों की स्पीड बढ़ाने और उनमें मूलभूत सुधार में भी सहयोग देने को चीन राजी है। उसका सबसे ज्यादा जोर भी रेल क्षेत्र में सहयोग देने का है। इतना ही नहीं, चीन ने आगामी पांच साल में 20 अरब डॉलर निवेश का आश्वासन दिया है, जिसको चीन के राष्ट्रपति की भारत यात्रा की उपलब्धि बताई जा रही है। इसके बावजूद कुछ बातें ऐसी हैं जिनको लेकर पहले भी शंकाएं थीं और ये शंकाएं तब भी बरकरार हैं, जब चीन के राष्ट्रपति अपने देश जा चुके हैं। सीमा विवाद को हल करने की दिशा में अब तक कोई सार्थक कदम नहीं उठाया जा सका है। यह महज संयोग नहीं हो सकता है कि चीनी राष्ट्रपति के भारत आने से दो हफ्ते पहले चीनी सेना भारत के अभिन्न भूभाग लद्दाख के देमचोक क्षेत्र में खानाबदोशों को घुसा दे और ये खानाबदोश भारत की जमीन पर जारी सिंचाई परियोजना का विरोध करें। भारतीय सैनिकों के विरोध करने पर भी चीनी सैनिक वह भूभाग खाली करने से इंकार कर दें। पिछले साल मई के महीने में जब चीन के प्रधानमंत्री ली केकियांग भारत आने वाले थे, तो उन्हीं दिनों चीनी सेना भारतीय सीमा में घुस आई थी और भारत के कड़ा विरोध जताने के बाद ही चीनी सैनिक वापस जाने को तैयार हुए थे। चीन ने यही हरकत फिर दोहराई है। इस मामले में चीन के राष्ट्रपति की मंशा पर भी प्रश्न चिह्न खड़ा होता है, जब भारतीय प्रधानमंत्री ने सीमा विवाद का मुद्दा उठाया, तो उन्होंने इसे हलके में लेते हुए कहा कि सीमा पर लकीरें खिंची नहीं हैं, इसलिए ऐसी घटनाएं हो सकती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सख्त लहजे में सीमा विवाद का मुद्दा उठाए जाने पर लद्दाख के ही चुमार क्षेत्र से चीनी सैनिकों की वापस हुई, लेकिन देमचोक में यह स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई थी। अगर हम भारत और चीन के संबंधों का इतिहास खंगालें, तो पता चलता है कि 28 जून 1954 को भारत आने वाले चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई का तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने ऐसी ही गर्मजोशी के साथ स्वागत किया था और बदले में चीन ने सन् 1962 की सर्दियों में हमारे देश के खिलाफ युद्ध का आगाज कर दिया था। इसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय जनमानस को अपने पड़ोसी राष्ट्र चीन पर विश्वास नहीं रह गया। भारतीय जनमानस का यह अविश्वास आज भी कम नहीं हुआ है। पंचशील के सिद्धांतों पर विश्वास रखने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाए थे।
भारत और चीन के बीच आज जिस तरह जरूरतों को ध्यान में रखते हुए समझौते हो रहे हैं, उनका स्वागत किया जाना चाहिए। हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर चीन की तरफ दोस्ती का हाथ जरूर बढ़ाना चाहिए, लेकिन अतीत में हुई भूलों से सबक सीखते हुए चीन से सतर्क भी रहना चाहिए। यह सही है कि वैश्विक परिदृश्य के मद्देनजर भारत का चीन से सहयोगात्मक संबंध समय की मांग है, लेकिन हमें अपने देश की सीमाओं की रक्षा का दायित्व भी याद रखना होगा।
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