Monday, March 31, 2025

रक्त और पानी अमूल्य, बहाना उचित नहीं

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

तथागत का जन्म 563 ईसा पूर्व शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था। इनकी मां का नाम महामाया था जिनकी मृत्यु बुद्ध के जन्म के सात दिन बाद हो गई थी। बचपन में इनका नाम सिद्धार्थ रखा गया था। 29 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने नवजात पुत्र राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर लोगों को जरा, मरण और दुखों को दूर करने का मार्ग तलाशने के लिए घर से निकल गए थे। 

कई साल की तपस्या के बाद महात्मा बुद्ध को बिहार के बोध गया नामक स्थान पर उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसके बाद महात्मा बुद्ध जीवन भर भ्रमण करते रहे। कहा जाता है कि वह भ्रमण करते हुए एक गांव में पहुंचे जहां लोग नदी के पानी के बंटवारे को लेकर आपस में लड़ने जा रहे थे। किस्सा यह है कि उस गांव के बाहर एक नदी बहती थी। नदी के दोनों ओर गांव बसे थे। 

दोनों गांवों के लोग पीने और खेतों की सिंचाई के लिए इसी नदी के पानी का उपयोग करते थे। यह क्रम कई वर्षों से चला आ रहा था। दोनों गांवों के लोग आपस में मिलजुलकर रहते थे। एक साल ऐसा हुआ कि खूब गर्मी पड़ी। नतीजा यह हुआ कि नदी का पानी बहुत कम हो गया। दोनों गांवों की जरूरतें इतने पानी में पूरी नहीं हो पा रही थीं। तब एक गांव के लोगों ने सोचा कि नदी से नहर निकालकर पानी का उपयोग किया जाए। 

इस बात की खबर जब दूसरे गांव के लोगों को मिली तो उन्होंने इसका विरोध किया। मरने-मारने को उतारू हो गए। तभी उस गांव में महात्मा बुद्ध पहुंच गए। उन्होंने मामले को समझते हुए गांववालों से पूछा कि अच्छा, पानी की क्या कीमत होगी? लोगों ने कहा कि पानी तो अमूल्य है। प्रकृति प्रदत्त है। तब बुद्ध ने पूछा कि रक्त का क्या मूल्य होगा? गांववालों ने जवाब दिया कि रक्त भी अमूल्य है। 

बुद्ध के इन सवालों को सुनकर गांववाले समझ गए कि वे पानी के लिए रक्त न बहाने को कह रहे हैं। उन्होंने इसके बाद लड़ना छोड़ दिया। वह आपस में समन्वय बनाकर पानी का उपयोग करने लगे।





Sunday, March 30, 2025

वैद्य को भारी पड़ गया लालच करना

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

लालच से किसी का भला नहीं होता है। लालची व्यक्ति सदैव इसी उधेड़बुन में लगा रहता है कि कैसे किसी को ठगा जाए, बेवकूफ बनाकर उसकी चीज को हड़प लिया जाए। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी लालच को बुरी बला बताया गया है, लेकिन कुछ लोग अपने स्वभाव को बदल नहीं पाते हैं जिसकी वजह से उन्हें जीवन में कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। 

लालच को लेकर एक पुरानी कथा है। कहते हैं कि किसी गांव में एक वैद्य रहता था। वह लालची बहुत था। उसका स्वभाव भी अच्छा नहीं था। इस वजह से बहुत मजबूरी में ही लोग उसके पास इलाज कराने आते थे। उसके पास जो भी इलाज कराने आता, वह उसको थोड़ी बहुत राहत दिलाकर रोग का पूरी तरह उपचार नहीं करता था ताकि लोग दोबारा उसके पास आने को मजबूर हो जाएं। 

इसका नतीजा यह हुआ कि लोगों ने उसके पास आना ही छोड़ दिया। एक समय ऐसा भी आया, जब काफी दिनों तक उसके पास कोई मरीज नहीं आया। वह परेशान हो गया। एक दिन वह एक बाग से होकर गुजर रहा था तो उसने देखा कि एक पुराने वृक्ष के तने के कोटर (तने का खोखला हिस्सा) में एक सांप बैठा हुआ है। 

उसने सोचा कि यदि किसी को यह सांप काट ले, तो वह आदमी उसके पास इलाज के लिए जरूर आएगा। बाग में एक लड़का खेल रहा था। उसने लड़के से कहा कि इस कोटर में एक सुंदर गौरेया है। तुम इसे निकाल सकते हो। लड़का बोला कि मैं जरूर सुंदर गौरेया को पकडूंगा और पालूंगा। 

बच्चे ने कोटर में हाथ डालकर बाहर निकाला तो वह सांप को हाथ में देखकर डर गया। उसने सांप को फेंका तो वह सांप वैद्य के गले में लिपट गया। सांप ने वैद्य को काट भी लिया, लेकिन वह जहरीला नहीं था। वैद्य के चिल्लाने पर कुछ लोगों ने आकर उसका इलाज किया और उसे पानी पिलाया। उस दिन के बाद वैद्य का व्यवहार बदल गया।



Saturday, March 29, 2025

 हमास के खिलाफ सड़कों पर उतरी युद्ध से थकी हारी फिलिस्तानी जनता

अशोक मिश्र
गाजा में तीन जगहों पर मंगलवार को हमास के खिलाफ प्रदर्शन हुए। हजारों लोगों ने प्रदर्शन में भाग लिया। इस प्रदर्शन में भाग लेने वालों के चेहरे पर गुस्सा था, दुख था, युद्ध के दौरान अपनों के मारे जाने का दर्द साफ बयां हो रहा था। आंखें अपने परिजनों को खोज रही थीं। गाजा में पिछले लगभग डेढ़ साल से चल रहे युद्ध से लोग अब थक चुके हैं। उनमें अब इतना भी साहस नहीं बचा है कि वह और अपने किसी को खोने का दुख बर्दाश्त कर सकें। यही वजह है कि मंगलवाल यानी 25 मार्च को उनके सब्र का बांध टूट पड़ा और वे सड़कों पर उतर आए। अब उन्हें हमास आतंकवादी संगठन लगने लगा है। 7 अक्टूबर 2023 को जब हमास ने इजरायल पर हमला किया था, तब यही वह लोग थे जिन्होंने हमास के हमले का खुलकर विरोध नहीं किया था। यदि उन्होंने तब यह साहस दिखाया होता, तो शायद यह नौबत नहीं आती।
पिछले डेढ़ साल में गाजा में अरबों डॉलर की संपत्ति नष्ट हो चुकी है। संकट इतना गहरा गया है कि पूरे इलाके में न तो ढंग का कोई अस्पताल बचा है, न खाने को अन्न मिल रहा है, न पीने को पानी। ऊपर से सिर पर पता नहीं कब मिसाइल आकर दग जाने का खतरा मंडराया करता है। वैसे इजरायल को भी कम नुकसान नहीं हुआ है। लेकिन उसे अमेरिका सहित यूरोपीय देशों की हर तरह से मदद मिल रही है। आर्थिक मदद के साथ हथियार और खाद्यान्न उपलब्ध हो रहा है। गाजा में जो सहायता संयुक्त राष्ट्र की ओर से भेजी जा रही है, वह भी कई बार बाधित हो जाती है जिसकी वजह से गाजा में भुखमरी जैसे हालात हैं। दवाएं, खाद्यान्न और रहने के लिए टेंट आदि की सुविधाएं लोगों को हासिल नहीं हैं। अब तक हुए युद्ध 46 हजार से ज्यादा फिलिस्तीन मारे जा चुके है। एक अनुमान के मुताबिक 96 हजार से अधिक लोग घायल हुए हैं। बीस लाख लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा है। कई लाख लोग पड़ोसी देशों में शरण लिए हुए हैं जहां उनकी जिंदगी नरक से भी बदतर है।
सात अक्टूबर 2023 को हमास ने जब इजरायल के खिलाफ युद्ध शुरू किया था, तब फतह मूवमेंट से जुड़े लोगों ने इसका विरोध किया था, लेकिन हमास ने उनके विरोध पर कोई ध्यान नहीं दिया था। तब फिलिस्तीनी जनता ने भी मूवमेंट के साथ खड़ा होना उचित नहीं समझा था। लेकिन जैसे-जैसे गाजा के हालात बेकाबू होते गए, फतह मूवमेंट की बात लोगों की समझ में आने लगी। 25 मार्च को फतह मूवमेंट द्वारा आयोजित ‘हमास आउट’ विरोध प्रदर्शन में भाग लिया, उससे यह उम्मीद अब पैदा होने लगी है कि अपने ही नागरिकों के बढ़ते विरोध को देखकर शायद हमास मजबूर स्थायी युद्ध विराम करने को मजबूर हो जाए। युद्ध किसी भी समस्या का स्थायी हल नहीं होत है, यह बात अब फिलिस्तीनी जनता समझ चुकी है। तभी तो 25 मार्च को उत्तरी गजा के बेत लोहिया में हुए प्रदर्शन में शामिल लोग कह रहे थे कि हम युद्ध से तंग आ चुके हैं।
इन दिनों फिलिस्तीन कहे जाने वाले क्षेत्र में सत्ता के दो केंद्र हैं। सन 2006 में जब फिलिस्तीन में संसदीय चुनाव हुए थे, तब हमास को प्रचंड बहुमत हासिल हुआ था। हमास ने कभी फिलिस्तीनियों का दुनिया में प्रतिनिधित्व करने वाले फिलिस्तीनी एथारिटी (पीए) के वफादारों को या तो चुप बैठने पर मजबूर कर दिया था या फिर गजा क्षेत्र से बाहर कर दिया था। कहा जा रहा है कि पिछले मंगलवार को बेत लोहिया में जो हजारों लोग जमा हुए थे, इसके पीछे फतह मूवमेंट चलाने वाली फिलिस्तीनी एथारिटी का हाथ था। फतह मूवमेंट के पीछे इसी पीए का हाथ है। इसी ने सोशल मीडिया पर ‘हमास आउट’ का मैसेज देकर लोगों को इकट्ठा किया था। वहीं दूसरी ओर ज्यादातर लोग मानते है ं कि यह स्वत:स्फूर्त विरोध प्रदर्शन था। इसके कर्ताधर्ताओं में वे युवा हैं जो अभी किसी राजनीतिक गुट नहीं जुड़े हैं। यह फिलहाल हमास को हटाकर अपने देश को युद्ध में बरबाद होने से रोकना चाहते हैं।भविष्य में गजा में वे कैसा शासन चाहते हैं, इसकी कोई रूपरेखा तय नहीं है।

खंभे से चौपड़ हार गए महादेव गोविंद रानाडे

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय न्यायधीशों में सबसे ज्यादा न्यायप्रिय महादेव गोविंद रानाडे को माना जाता है। अंग्रेजों ने उन्हें राय बहादुर के खिताब से नवाजा था। वह बाम्बे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होने के साथ-साथ लेखक और समाज सुधारक भी थे। उनका जन्म 18 जनवरी 1842 को महाराष्ट्र के नासिक जिले में हुआ था। 

महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए महादेव गोविंद रानाडे ने अपनी प्राथमिक शिक्षा कोल्हापुर के एक मराठी स्कूल में हासिल की थी। उसके बाद वह अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने के लिए भेजे गए थे। 1864 में उन्होंने इतिहास से एमए पास किया था और 1866 में एलएलबी की डिग्री हासिल की थी। उनके बचपन का एक किस्सा बहुत मशहूर है। 

कहते हैं कि तब गोविंद रानाडे की उम्र आठ साल थी। उन्हें चौपड़ खेलने का बहुत शौक था। एक दिन जब उन्हें खेलने के लिए दूसरा कोई साथी नहीं मिला, तो वह बरामदे में बने खंभे (पिलर) को अपना दूसरा साथी मानते हुए दायें हाथ से उसका पासा फेंकने लगे और बाएं हाथ से अपना पासा फेंकते थे। खेल शुरू हुआ। इस बीच एक बच्चे को अकेला चौपड़ खेलते देखकर लोग दूर खड़े होकर तमाशा देखने लगे। 

रानाडे ने दायें हाथ से खंभे का पासा फेंका। उसके बाद अपने बायें हाथ से अपने हिस्से का। खेल काफी रोचक हो गया था, लेकिन कुछ देर बाद वह उस खेल में हार गए। दूर खड़े एक व्यक्ति ने उनसे कहा कि तुम तो खंभे से हार गए। उन्होंने कहा कि हां, बायें हाथ से पासा फेंकने में दिक्कत होती थी। 

तब लोगों ने कहा कि तुमने अपना पासा दायें हाथ से क्यों नहीं फेंका। रानाडे ने जवाब दिया कि तब मैं बेइमान कहा जाता। यह सुनकर लोग आश्चर्यचकित रह गए कि इतना छोटा होने के बावजूद न्याय की बात करता है।



Friday, March 28, 2025

संकट में एक आदमी को दूसरे के काम आना चाहिए

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

जॉर्ज वाशिंगटन अमेरिका के पहले राष्ट्रपति थे। उनका जन्म 22 फरवरी 1732 को वर्जीनिया में हुआ था। वह आस्टाइन और मैरी बॉल वाशिंगटन के छह में से पहले बच्चे थे। पिता की मृत्यु के बाद 11 वर्षीय जॉर्ज वाशिंगटन का पालन-पोषण उनके सौतेले भाई लॉरेंस ने किया। लॉरेंस एक भला और अपने सौतेले भाई वाशिंगटन को प्यार करने वाला व्यक्ति था। 

उसने उनका लालन-पालन बहुत अच्छे तरीके से किया। एक बार की बात है। वर्जीनिया के जंगलों की पैमाइश चल रही थी। पैमाइश करने वाली टीम में जॉर्ज वाशिंगटन भी थे। वर्जीनिया के जंगल में जब यह टीम पैमाइश कर रही थी तो उन्होंने एक महिला के बहुत जोर-जोर से चीखने की आवाज सुनी। सारे लोग भागकर उस महिला की ओर गए। उत्सुकतावश उस स्थान पर वाशिंगटन भी पहुंचे। 

उन्होंने देखा कि कुछ लोग एक महिला को पकड़कर नदी से दूर कर रहे हैं और वह महिला ‘बचाओ, बचाओ’ चिल्ला रही है। पहले तो वाशिंगटन की समझ में मामला नहीं आया। फिर उन्होंने एक आदमी से पूछा कि क्या मामला है? उस आदमी ने बताया कि इस महिला का बेटा नदी में गिर गया है। हालांकि बच्चा अभी जिंदा है और बाहर आने का प्रयास कर रहा है। 

यह महिला भी नदी में कूदकर अपने बच्चे को बचाने की जिद कर रही है। यह सुनते ही वाशिंगटन उस स्थान पर पहुंचे जहां बच्चा निकलने का प्रयास कर रहा था। वह अपने कपड़े उतारे बिना नदी में कूद पड़े और काफी मशक्कत के बाद उस बच्चे को बचाकर नदी के किनारे लाने में सफल हो गए। 

यह देखकर सर्वे कर रही टीम के एक आदमी ने कहा कि जब तुम तैरना नहीं जानते थे, तो नदी में क्यों कूद गए। वाशिंगटन ने जवाब दिया कि एक आदमी को संकट में दूसरे के काम आना चाहिए।



Thursday, March 27, 2025

‘पीस आफ माइंड’ पुस्तक ने दिलाई ख्याति

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

अमेरिका के ओहियो प्रांत में सन 1907 में पैदा हुए जोशुआ लोथ लिबमैन को बेस्ट सेलर पुस्तक ‘पीस आफ माइंड’ के लिए जाना जाता है। सन 1946 में लिबमैन की यह पुस्तक न्यूयार्क टाइम्स की नान फिक्शन बुक श्रेणी में एक साल से अधिक समय तक सेलिंग के मामले में नंबर वन रही। लिबमैन ने 19 साल की उम्र में ही सिनसिनाटी विश्वविद्यालय से स्नातक कर लिया था। वह एक सुधारवादी रब्बी यानी यहूदी धर्म के आध्यात्मिक शिक्षक भी थे। लिबमैन की पुस्तक ‘पीस आफ माइंड’लिखे जाने के संदर्भ में एक प्रसंग बहुत चर्चित है। 

कहते हैं कि जब उन्होंने स्नातक की डिग्री हासिल की तो यह सोचने लगे कि उन्हें सुख से जीवन गुजारने के लिए क्या-क्या चाहिए। उन्होंने कई दिनों की मेहनत करके एक सूची बनाई जिसमें धन, संपत्ति, यश, उत्तम स्वास्थ्य, शक्ति आदि को शामिल किया। इसके बाद वे अपनी सूची के मुताबिक अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जुट गए। कुछ साल बाद उनकी समझ में आया कि इन सब को हासिल करने में तो पूरा जीवन बीत जाएगा। वह इनका सुख कब उठाएंगे? 

इससे परेशान लिबमैन एक दिन अपनी सूची को लेकर एक बुजुर्ग के पास पहुंचे और अपनी समस्या बताई। सूची को देखकर बुजुर्ग मुस्कुराए और बोले, तुमने यह जो सूची बनाई है, वह बहुत अच्छी है। लेकिन इसमें तीन शब्द वाले एक चीज की कमी है। उस बुजुर्ग ने पेन्सिल उठाई और सूची में सबसे नीचे लिखा-मन की शांति। बुजुर्ग ने कहा कि जब तक मन में शांति नहीं होगी, तब तक इन उपलब्धियों का आनंद नहीं मिलेगा।

बस फिर क्या था? उन्होंने अथक परिश्रम करके ‘पीस आफ माइंड’ पुस्तक लिखा जो दुनिया भर में खूब बिकी। लेकिन हार्ट अटैक से 9 जून 1948 को 41 साल की उम्र में लिबमैन की मृत्यु हो गई।



Wednesday, March 26, 2025

सोए हुए राजा के खिलाफ पुनर्विचार की मांग

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

वैसे तो यूरोप और मध्य एशिया में फिलिप नाम के कई राजा हुए हैं।  फ्रांस के राजा फिलिप चतुर्थ, स्पेन के राजा फिलिप द्वितीय और मेटाकोमेट के राजा फिलिप आदि प्रमुख हैं। मकदूनिया के राजा और सिकंदर के पिता फिलिप द्वितीय भी काफी प्रसिद्ध राजा हुए हैं। 

जब भी बिना किसी संदर्भ के बात किसी फिलिप राजा की चलती है, तो यह तय करना बहुत मुश्किल हो जाता है। यह कथा शायद सिकंदर के पिता और मकदूनिया के राजा फिलिप की है। कहा जाता है कि फिलिप अपने दरबार में बैठे एक मुकदमे की सुनवाई कर रहे थे। इसी दौरान उन्हें झपकी आ गई। एक पक्ष अपनी बात रख रहा था। उस समय पक्षकार ने अपने समर्थन में क्या तर्क दिया, यह वह सुन नहीं पाए। 

जब वह जागे, तो दूसरे पक्ष को अपनी बात रखने की बारी आ गई। दूसरे पक्ष ने बहुत जोरदार ढंग से अपनी बात राजा फिलिप के समक्ष रखी। उसकी बात सुनकर राजा फिलिप बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने दूसरे पक्ष के पक्ष में फैसला सुना दिया और पहले पक्ष को सजा सुना दी। यह सुनकर पहले पक्ष के व्यक्ति ने राजा से कहा कि महाराज! मैं आपके सामने पुनर्विचार की मांग करता हूं। 

राजा ने कहा कि तुम्हें मेरे फैसले पर विश्वास नहीं है। तब उस व्यक्ति ने कहा कि महाराज! मैं सोए हुए राजा के खिलाफ जागे हुए राजा के समक्ष पुनर्विचार की मांग रख रहा हूं। यह सुनकर लोग दंग रह गए। लोगों ने सोचा कि राजा फिलिप उसे कड़ी सजा देंगे, लेकिन राजा ने उसकी बात स्वीकार कर ली। 

उस व्यक्ति ने अपना पक्ष रखा, तो वह समझ गए कि दूसरा पक्ष दोषी है। उन्होंने पहले पक्ष को बरी करते हुए दूसरे पक्ष को सजा सुनाई। राजा फिलिप ने पुनर्विचार की मांग करने वाले व्यक्ति की खूब प्रशंसा की जिसने गलत फैसला देने से उन्हें बचा लिया था।



Tuesday, March 25, 2025

करतार सिंह सराभा थे भगत सिंह के आदर्श

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

शहीद भगत सिंह का जन्म पश्चिमी पंजाब के बंगा गांव में 27 सितंबर 1907 में हुआ था। कुछ लोग भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर को हुआ मानते हैं। पश्चिमी पंजाब अब पाकिस्तान में है। उनके पिता सरदार किशन सिंह एक किसान थे। भगत सिंह गदर पार्टी के संस्थापक करतार सिंह सराभा को अपना आदर्श मानते थे। 

अमृतसर के जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को अंग्रेजी हुकूमत ने बैसाखी के दिन हजारों निर्दोष लोगों की गोलियों से भूनकर हत्या कर दी थी, तब बारह वर्षीय भगत सिंह बहुत व्यथित हुए थे। हत्याकांड की खबर सुनकर भगत सिंह इतने बेचैन हुए कि अगले दिन वह स्कूल जाने की जगह लाहौर रेलवे स्टेशन पहुंचे और वहां से पहली रेलगाड़ी से अमृतसर आए। 

अमृतसर में वह बारह मील पैदल चलकर जलियांवाला बाग पहुंचे थे। कहते हैं कि उस समय उनके हाथ में एक बोतल थी जिसमें वह निर्दोष भारतीयों का खून भरकर ले जाना चाहते थे। लेकिन बालक भगत सिंह को यह नहीं मालूम था कि खून सूख चुका है। उन्होंने वहां की मिट्टी को बोतल में भरी और अपने साथ लेकर गए। इस घटना का उन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। 

वह क्रांतिकारी साहित्य पढ़ने की ओर प्रवृत्त हुए। चौरी-चौरा कांड के बाद जब महात्मा गांधी ने किसानों का साथ देने से इनकार करते हुए असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, तो उनका कांग्रेस और महात्मा गांधी से मोह भंग हो गया। उन्होंने देश के क्रांतिकारियों का मार्ग अपनाया। 

सन 1928 में साइमन कमीशन के विरोध के दौरान लाला लाजपत राय की मौत ने उन्हें इतना उद्वेलित कर दिया कि उन्होंने एएसपी सांडर्स को मारकर लाला जी की मौत का बदला ले लिया। अंतत: 23 मार्च 1931 को भगत सिंह देश की खातिर शहीद हो गए।




Monday, March 24, 2025

स्वामी सहजानंद सरस्वती ने कहा-मेरा डंडा जिंदाबाद

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

स्वामी सहजानंद सरस्वती को भारत में किसान आंदोलन का जन्मदाता माना जाता है। उनका एक सर्वप्रिय नारा था-मेरा डंडा जिंदाबाद। सन 1909 को उन्होंने काशी के दशाश्वमेघ घाट पर दंडी संन्यासी के रूप में दंडी स्वामी अद्वैतानंद से दीक्षा ली और उनका नाम पड़ा स्वामी सहजानंद सरस्वती। 

वैसे उनके बचपन का नाम नौरंग राय था। स्वामी सहजानंद ने बिहार और उत्तर प्रदेश में घूम-घूमकर किसानों को अंग्रेजों के खिलाफ संगठित किया। वह पढ़ाई में बहुत तेज थे। उन्होंने छह साल की पढ़ाई को तीन साल में पूरा किया और हमेशा अव्वल रहे। 

बाद में उन्हें छात्रवृत्ति मिली और गाजीपुर के जर्मन मिशन हाईस्कूल में पढ़ने गए। वहां बाइबिल पढ़ना अनिवार्य था। बाइबिल पढ़ाने का काम पादरी करते थे। उनकी कक्षा में जब पादरी बाइबिल पढ़ाने आता, तो वह हिंदू धर्म की बुराई करता रहता था। 

एक दिन नौरंग राय यानी स्वामी सहजानंद को हिंदू धर्म की बुराई सहन नहीं हुई। वह गरजते हुए बोले, आप बाइबिल पढ़ाएं, इससे मुझे कोई ऐतराज नहीं है, लेकिन दूसरे धर्म की बुराई न करें। दूसरे धर्म की बुराई करके आप अपने धर्म को श्रेष्ठ नहीं बता सकते है। यह सुनकर पादरी बहुत नाराज हुआ। उसने उन्हें अनुशासनहीन और उद्दंड कहकर कक्षा में बैठने को मजबूर कर दिया। 

नौरंग राय बैठ तो गए, लेकिन इससे पादरी को ईसाई धर्म के श्रेष्ठ होने का भ्रम टूट गया। उस दिन के बाद उसने कभी किसी दूसरे धर्म की बुराई नहीं की। बाद में स्वामी सहजानंद ने किसानों और क्रांतिकारियों को संगठित करने का भी काम किया। वह सक्रिय रूप से तो किसानों के पक्ष में नहीं आए, लेकिन कांग्रेस में रहते हुए भी उनका समर्थन क्रांतिकारियों को हासिल था। स्वामी सहजानंद ने किसानों को संगठित किया।



न्यायप्रिय महारानी अहिल्याबाई होल्कर

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

31 मई 1725 को अहमदनगर के चौंडी गांव में पैदा हुई अहिल्याबाई एक साधारण किसान की पुत्री थीं। उनका विवाह दस-बारह वर्ष की आयु में खांडेराव होल्कर से हुआ था। पति स्वभाव से उग्र और चंचल था। वह अहिल्याबाई के प्रति अनुदार था। वैवाहिक जीवन में उन्होंने कई तरह के संकट झेले थे। जब वह 29 वर्ष की हुईं, तब उनके पति खांडेराव होल्कर की मौत हो गई। 

अहिल्याबाई ने अपने राज्य के अलावा दूसरे राज्यों में भी लोगों के लिए मंदिर, धर्मशालाएं बनवाईं। लोग उन्हें देवी के रूप में पूजते थे। एक बार की बात है। उनके पुत्र मालेराव होल्कर रथ पर सवार होकर कहीं जा रहे थे। मार्ग में एक बछड़ा खड़ा था जिसकी रथ से टक्कर लगने से मौत हो गई। 

बछड़े की मौत होने पर गाय वहीं आकर खड़ी हो गई। कुछ देर बाद जब उस रास्ते से अहिल्याबाई गुजरीं तो उन्होंने बछड़े के शव के पास गाय को खड़े देखा। उन्होंने मामले का पता लगाया और क्रोध से तमतमाती हुई राजमहल पहुंची। उन्होंने मालेराव की पत्नी से पूछा कि यदि कोई व्यक्ति मां के सामने पुत्र की हत्या कर दे, तो मारने वाले को क्या सजा मिलनी चाहिए। 

उनकी पत्नी ने कहा कि मृत्युदंड मिलना चाहिए। बस, अहिल्याबाई ने अपने पुत्र मालेराव को रथ से कुचलकर मृत्युदंड देने की घोषणा कर दी। इस काम के लिए कोई तैयार नहीं हुआ, तो वह खुद रथ लेकर अपने पुत्र को कुचलने निकली। कहा जाता है कि जब-जब वह मालेराव के पास पहुंचने वाली होती, वह गाय आकर रास्ते में खड़ी हो जाती। 

ऐसा कई बार हुआ, तो लोगों ने अहिल्याबाई को समझाया कि यह गाय भी नहीं  चाहती है कि किसी और मां के बेटे के साथ ऐसा हो। मालेराव को छोड़ दिया गया। कुछ  साल बाद मालेराव की मौत हो गई।



Sunday, March 23, 2025

अभी अधूरे हैं शहीदों की शहादत के लक्ष्य

अशोक मिश्र

आज शहीद दिवस है। आज ही के दिन ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ नामक पुस्तिका लिखकर अपनी नास्तिकता का सगर्व उद्घोष करने वाले शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह, उनके अनन्य साथी शिवराम राजगुरु और सुखदेव थापर को 23 मार्च 1931 को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गई थी। दुनिया के सबसे लंबे समय तक चलने वाले भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान कितने लोगों ने अपनी जान की पूर्णाहुति दी, इसकी गणना अब शायद संभव नहीं है। लेकिन स्वाधीनता संग्राम में अपने प्राण न्यौछावर करने वाले असंख्य वीरों केशहादत दिवसों पर उनकी प्रतिमाओं और तस्वीरों पर फूल माला चढ़ाकर हाथ जोड़ लेने से ही हमारे कर्तव्य की पूर्ति नहीं हो जाती है।

आज जब भगत सिंह, चंद्र शेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां वारसी, ठाकुर रोशन सिंह, राजगुरु और सुखदेव थापर जैसे न जाने कितने शहीदों की शहादत दिवसों पर सरकारी और गैर सरकारी आयोजनों में उनका महिमांडन करके देवपुरुष साबित करने का प्रयास तो किया जाता है, लेकिन यह सवाल कोई नहीं उठाता है कि क्या इन क्रांतिकारियों की शहादत का लक्ष्य पूरा हुआ? क्या सैकड़ों क्रांतिकारियों ने आज के भारत के लिए अपने प्राण न्यौछावर किए थे?

शायद नहीं। याद करें, अपनी फांसी से मात्र तीन दिन पहले यानी 20 मार्च 1931 को पंजाब के तत्कालीन गवर्नर सर जेफ्री फिट्जहर्वे डी मोंटमोरेंसी को लिखे पत्र में उन्होंने साफतौर पर लिखा था कि हम पर युद्ध अपराधी होने का आरोप ब्रिटिश हुकूमत ने लगाया है। हम मानते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक इंसान इंसान का गुलाम रहेगा। आज  शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है। चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता।

उनके इस पत्र से साफ जाहिर है कि वह एक ऐसे समाज की रचना करना चाहते थे जिसमें मानव द्वारा मानव का रक्त शोषण संभव न हो। 24 मार्च 1902 को बैरिस्टर प्रमथ नाथ मित्र के नेतृत्व में गठित अनुशीलन समिति ने अपने गठन के कुछ साल के बाद अपना लक्ष्य घोषित किया था-मनुष्य में मनुष्यत्व विकसित करना। चूंकि गुलामी में ऐसा करना संभव नहीं था। इसलिए अनुशीलन समिति ने अपना तात्कालिक लक्ष्य ब्रिटिश दासता से मुक्ति घोषित किया था। 

अनुशीलन समिति की एक शाखा के रूप में पूरे उत्तर भारत में सक्रिय हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (बाद में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी) के नेता चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, योगेश चंद्र चटर्जी, राम प्रसाद बिस्मिल आदि ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में द रिवोल्यूशनरी नाम से अपना घोषणा पत्र जारी करके कहा कि क्रांतिकारियों का तात्कालिक लक्ष्य ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति है। लेकिन उनका अंतिम लक्ष्य ऐसे समाज की रचना करना है जिसमें कोई किसी का गुलाम न रहे। 

समाज में शोषण, दोहन, गुलामी आदि की कोई गुंजाइश ही न रहे। किंतु इसे इतिहास की विडंबना ही कही जाएगी कि ‘गरीबों को मिले रोटी, तो मेरी जान सस्ती है’ का उद्घोष करने वाले अमर क्रांतिकारी चंद्र शेखर आजाद की 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में शहादत हुई और उसके अगले ही महीने विप्लवी दर्शन से लैस सरदार भगत सिंह और उनके दो साथियों राजगुरु और सुखदेव थापर को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गई। इसके बाद जो कुछ हुआ उस इतिहास से सारा देश परिचित है। 






Saturday, March 22, 2025

लेनिन पुरस्कार पाने वाला फिल्म निर्माता आंद्रेई तारकोवस्की

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

आंद्रेई तारकोवस्की का जन्म 4 अप्रैल 1932 को रूस के कादिस्की जिले में हुआ था। वह अपने स्कूली जीवन में काफी उपद्रवी छात्र के रूप में जाने जाते थे। इसके बावजूद किसी तरह वह स्नातक करने में सफल हो गए थे। गरीबी और माता-पिता की वजह से काफी अस्थिर जीवन बिताने वाले तारकोवस्की ने जीवन भर संघर्ष किया। 

सन 1954 में उन्होंने स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ सिनेमेटोग्राफी (वीजीआईके) में पढ़ाई पूरी की और फिल्म निर्माता बन गए। कहा जाता है कि उनकी फिल्में काफी धीमी और आध्यात्मिक हुआ करती थीं। टारकोवस्की को अपने करियर के दौरान कई पुरस्कार मिले जिसमें फिररेस्की पुरस्कार, इक्वेनिकल जूरी पुरस्कार और कान फिल्म समारोह में ग्रैंड प्रिक्स स्पेशल डु जूरी पुरस्कार के अलावा वेनिस फिल्म समारोह में उनकी पहली फिल्म इवान्स चाइल्डहुड के लिए गोल्डन लायन और द सैक्रिफाइस के लिए बाफ्टा फिल्म पुरस्कार शामिल हैं। 

1990 में उन्हें मरणोपरांत सोवियत संघ के प्रतिष्ठित लेनिन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनकी तीन फिल्में आंद्रेई रुबलेव , मिरर और स्टॉकर- साइट एंड साउंड सभी समय की 100 महानतम फिल्मों के सर्वेक्षण में शामिल थीं। सन 1966 में वह भारत आकर बाबा आमटे से मिले।

 बाबा आमटे द्वारा दिव्यांगों के लिए संचालित आनंदवन में आकर उन्हें काफी अच्छा लगा। उन्होंने भी दिव्यांगों के लिए कुछ करना चाहा, लेकिन उनके पास पैसे नहीं थे। आमटे की सलाह पर उन्होंने आनंदवन के निकट ही संधि निकेतन की नींव डाली और कुछ ही समय में पूरा किया। 

लोगों ने उनकी काफी मदद की। दिव्यांग होते हुए भी उन्होंने संधि निकेतन के निर्माण में मजदूर की तरह काम किया। 29 दिसंबर 1986 को उनकी पेरिस में कैंसर से मौत हो गई।



नीतीश कुमार के बेटे पर टिकी भाजपा, राजद की निगाहें

 अशोक मिश्र

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शायद इन दिनों सबसे ज्यादा दुविधाग्रस्त हैं। उन्हें आगामी विधानसभा चुनाव के बाद उभरने वाले राजनीतिक परिदृश्य को लेकर चिंता तो है ही, वह अपने बेटे निशांत कुमार के भविष्य को लेकर भी कहीं न कहीं चिंतित हैं। बढ़ती उम्र भी उनके लिए एक समस्या बनी हुई है जिसका मुद्दा बार-बार उभारकर आरजेडी नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव बिहार की राजनीति में उनके अप्रासंगिक होने का संकेत देते रहते हैं। जब भी बात नीतीश कुमार के बेटे निशांत की आती है, तो वह उनके राजनीति में आने का स्वागत करते हैं। सच तो यह प्रतीत होता है कि आरजेडी ही नहीं, बिहार की सक्रिय राजनीति में निशांत कुमार के आने का इंतजार भाजपा भी कर रही है। यदि ऐसा होता है, तो चुनाव बाद यदि भाजपा बिहार की 243 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में 122 सीटों पर जीत हासिल नहीं कर पाती है, तो वह अपना मुख्यमंत्री बनाकर डिप्टी सीएम का पद निशांत को देकर सरकार बना सकती है। भाजपा   को पूर्ण बहुमत उसी दशा में मिल सकता है, जब जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल का प्रदर्शन आगामी विधानसभा चुनावों के दौरान खराब रहे।

जनता दल यूनाइटेड के सामने समस्या यह है कि नीतीश कुमार अपनी उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच चुके हैं, जहां पहले की तरह सक्रिय रह पाना शारीरिक रूप से संभव नहीं दिखाई पड़ रहा है। हालांकि जदयू ने यह नारा जरूर दिया है कि नव वर्ष 2025, 2025 से 2030 फिर से नीतीश, लेकिन इस मुद्दे पर भाजपा सहमत होगी, यह अभी नहीं कहा जा सकता है। हालांकि नए नारे से जदयू ने यह संकेत दे दिया है कि उसे नीतीश के अलावा दूसरा मुख्यमंत्री स्वीकार नहीं है। एनडीए गठबंधन में मुख्यमंत्री पद मिलने को लेकर जदयू भी पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। उसके सामने महाराष्ट्र का उदाहरण मौजूद है। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के बाद भाजपा ने अपना सीएम बनाया और शिंदे को डिप्टी सीएम बनने को मजबूर कर दिया।

ऐसी स्थिति में पिछले बीस-बाइस साल से मुख्यमंत्री पद पर काबिज नीतीश कुमार डिप्टी सीएम पद पर मान जाएंगे, ऐसा कतई नहीं लगता है। हां, यदि नीतीश कुमार के पुत्र निशांत कुमार राजनीति में सक्रिय होते हैं, तो उन्हें आगे करके डिप्टी सीएम पद पर समझौता किया जा सकता है। वैसे जनता दल यूनाइटेड में भी यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि यदि चुनाव से पहले निशांत कुमार राजनीति में सक्रिय नहीं होते हैं, तो पार्टी में बिखराव तय है। इस संभावित बिखराव को सिर्फ निशांत की सक्रियता ही रोक सकती है। निशांत के सक्रिय न होने से जदयू में जो भगदड़ मचेगी, उसे रोक पाना किसी के वश की बात नहीं होगी।

राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू प्रसाद यादव और उनके बेटे तेजस्वी यादव बार-बार नीतीश कुमार और निशांत कुमार पर डोरे उसी समीकरण को ध्यान में रखकर डाल रहे हैं जिस समीकरण के सहारे भाजपा अपने कील-कांटे दुरुस्त कर रही है। यदि इंडिया गठबंधन को पूर्ण बहुमत से कम सीटें मिलीं, तो नीतीश कुमार को अपने पाले में लाकर निशांत को डिप्टी सीएम पद सौंपा जा सकता है।

बहरहाल, बिहार की पूरी राजनीति में एक अजीब सी आपाधापी मची हुई है। एनडीए में भाजपा और जदयू एक दूसरे को परखने के लिए तैयार दिखाई देते हैं, तो वहीं इंडिया गठबंधन में कांग्रेस बिहार में अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश करके राजद के सामने चुनौती बनकर खड़ी होने की कोशिश कर रही है। जिस प्रकार कन्हैया कुमार के नेतृत्व में ‘पलायन रोको नौकरी दो’ पदयात्रा निकाली जा रही है, उससे राजद में बेचैनी है। भले ही राजद ने इस बारे में कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है, लेकिन अंदर ही अंदर कांग्रेस की यह पहल उसे बेचैन किए हुए है। यदि यह मान लें कि पदयात्रा से कांग्रेस का जनाधार बढ़ता है, तो वह किसके वोट बैंक में सेंध लगाएगी? यह समझा जा सकता है।



Friday, March 21, 2025

किताबों के तस्कर थे जुर्गिस बिलिनिस

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

जुर्गिस बिलिनिस को किताबों का तस्कर कहा जाता है। उनका जन्म 16 मार्च 1846 को लिथुआनिया के सर्फ परिवार में हुआ था। उन दिनों लिथुआनिया रूसी साम्राज्य का हिस्सा था। रूसी शासक जार ने उन दिनों लिथुआनिया में लिथुआनियाई भाषा की पुस्तकों को पढ़ने-लिखने पर प्रतिबंध लगा रखी थी। जो भी पढ़ाई लिखाई होती थी, वह रूसी भाषा में ही होती थी। 

लेकिन लिथुआनिया के लोग अपनी भाषा में पुस्तकें पढ़ना चाहते थे। बाइस साल की उम्र तक बिलिनिस अनपढ़ रहे। सन 1860 में उनके पिता की मृत्यु हो गई, तो उन्हें अपने भाई-बहनों की जिम्मेदारी उठाने पर मजबूर होना पड़ा। इतना ही नहीं, उनके पिता जिस जमीन पर खेती करते थे, वह भी छोड़नी पड़ी। 22 साल की उम्र में उनमें पढ़ने की ललक पैदा हुई, तो वह गांव से शहर आए।

 रास्ते में लुटेरों ने उनकी जमा-पूंजी लूट ली। अब बिलिनिस के सामने कोई चारा नहीं बचा। तब एक राहगीर ने उन्हें सुझाव दिया कि यदि वह पढ़ना चाहते हैं, तो वे एक काम कर सकते हैं जिससे उन्हें अच्छी आमदनी होगी और वह अपनी पढ़ाई कर सकते हैं। बस फिर क्या था? उन्होंने लिथुआनियाई भाषा की पुस्तकों को रूस से लाकर लिथुआनिया में बेचना शुरू कर दिया। 

हालांकि इसमें उन्हें खतरा भी बहुत था। यदि लिथुआनियाई भाषा की पुस्तकों को बेचते या पढ़ते पाए जाते, तो जारशाही उन्हें कठोर दंड देती। उन्होंने 32 साल तक पुस्तकों की तस्करी की यानी लिथुआनियाई भाषा की पुस्तकों को लाकर बेचा। वह इस काम को किसी भी तरह गलत नहीं मानते थे। लिथुआनिया के लोग इस बात से अच्छी तरह वाकिफ थे कि पढ़ने-लिखने से ही वह अपने देश को रूस से आजाद करा सकते हैं।



Thursday, March 20, 2025

तुम्हारी सिद्धि की औकात दो पैसे भी नहीं

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

सभी धर्मों की एकता पर बल देने वाले रामकृष्ण परमहंस भारत के महान संत, आध्यात्मिक गुरु और दार्शनिक थे। वह मानवीय मूल्यों के प्रबल समर्थक थे। उनका जन्म 18 फरवरी 1836 को बंगाल के कामारपुर गांव में हुआ था। बचपन में इनका नाम गदाधर था। इनके जन्म के बारे में कई प्रकार कहानियां कही जाती हैं। 

आध्यात्मिक संत होने के बाद भी इन्हें तनिक भी अहंकार नहीं था। परमहंस के सबसे प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानंद थे। एक बार विवेकानंद ने हिमालय पर जाकर तपस्या करने की अनुमति मांगी, तो उन्होंने कहा कि देश में इतने सारे लोग भूख से पीड़ित हैं, उनकी सहायता करने की जगह तपस्या करके कौन सी सिद्धि पाना चाहते हो। परमहंस के बारे में एक बड़ी रोचक कथा कही जाती है। 

जब स्वामी रामकृष्ण परमहंस दक्षिणेश्वर मंदिर के पुजारी थे, तो लोग उनकी लोकप्रियता देखकर ईर्ष्या करने लगे। एक दिन एक संन्यासी उनके पास आया और बोला कि यदि तुम सचमुच परमहंस हो तो चमत्कार दिखाओ। परमहंस ने बड़ी विनम्रता से कहा कि मैं तो एक साधारण आदमी हूं। चमत्कार कैसे दिखा सकता हूं। उस संन्यासी ने गर्व से कहा कि मैंने 18 साल तक हिमालय पर कठोर तपस्या की है। इस तपस्या के परिणाम स्वरूप मैं गंगा नदी के पानी पर चल सकता हूं। तुमने तो कोई भी सिद्धि हासिल नहीं की। 

तब रामकृष्ण ने विनीत भाव से कहा कि मुझे तो जब भी नदी के उस पार जाना चाहता हूं, नाविक को आवाज देता हूं। वह दो पैसे में मुझे उस पार उतार देता है। तुम्हारी सिद्धि की औकात तो दो पैसे भी नहीं है। तुमने 18 साल इसे हासिल करने में लगा दिए। यदि इन वर्षों का उपयोग लोगों की भलाई में करते, तो जीवन सफल हो गया होता। यह सुनकर संन्यासी चला गया।



यूक्रेन-रूस युद्ध रोक पाने में विफल रहे ट्रंप

अशोक मिश्र

हैदर अली आतिश की गजल का एक शे’र है-बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का/जो चीरा तो इक कतरा-ए-खूँ न निकला। यह शे’र कल रात टेलीफोन पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच लगभग नब्बे मिनट हुई बातचीत पर काफी सटीक बैठता है।  दुनियाभर में बड़ा हल्ला था पुतिन और ट्रंप के बीच होने वाली टेलीफोनिक बातचीत का। पूरी दुनिया में हवा ऐसी बनाई गई मानो इधर पुतिन और ट्रंप के बीच बातचीत हुई और उधर यूक्रेन-रूस युद्ध का खात्मा ही समझो। पुतिन ने ट्रंप को बस यह कहने लायक छोड़ा है कि रूस इस बात को मान गया है कि वह आगामी तीस दिनों तक यूक्रेन के ऊर्जा केंद्रों पर हमला नहीं करेगा। 

लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि रूस यूक्रेन को लेकर किसी प्रकार की नर्मी बरतेगा। वह अपना कहर पिछले तीन साल की तरह ही जारी रखेगा। कल रात टेलीफोन पर ट्रंप से बातचीत करके रूस अब अग्रिम पंक्ति में आ खड़ा हुआ है। वह पिछले तीन साल से यूरोप और अमेरिका के विभिन्न प्रकार के प्रतिबंधों को झेल रहा है। लेकिन वार्ता से पहले ट्रंप को एक घंटे का इंतजार कराकर पुतिन ने यह साबित कर दिया है कि अब भी खेल के असली खिलाड़ी वही हैं। नियत समय पर बातचीत इसलिए नहीं हो सकी क्योंकि उस समय पर पुतिन उपलब्ध नहीं थे। वह मास्को में उद्योगपतियों और व्यापारियों को संबोधित कर रहे थे। उनका यह कार्यक्रम ट्रंप से बातचीत का फैसला होने के बाद तय हुआ था। इस दौरान मॉस्को में भाषण देते हुए पुतिन ने जी-7 का न केवल मजाक उड़ाया, बल्कि यह भी कहा कि पश्चिमी देश रूस पर 28 हजार से ज्यादा प्रतिबंध लगाकर भी रूसी अर्थव्यवस्था को नुकसान नहीं पहुंचा पाए।

बातचीत के दौरान पुतिन ने यह साफ कर दिया कि वह युद्ध विराम तब तक नहीं करेंगे, जब तक अमेरिका और यूरोपीय देश यूक्रेन को हथियार और सूचनाएं देना बंद नहीं करते हैं। रूस-यूक्रेन और इजरायल-हमास युद्ध रोकने की पहल करने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को इस बात की उम्मीद नहीं थी कि पुतिन उनकी युद्ध विराम वाली  बात नहीं मानेंगे। पिछले सप्ताह मंगलवार को जब जेद्दा में अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल की यूक्रेनी प्रतिनिधिमंडल से बातचीत हुई थी तो अमेरिका ने यूक्रेन पर दबाव डालकर इस बात के लिए राजी कर लिया था कि वह तीस दिन के लिए तत्काल युद्ध विराम करेगा। यूक्रेन रूसी क्षेत्र में हवा, जमीन और समुद्र पर हमले नहीं करेगा।

इसके बाद अमेरिकी  राष्ट्रपति ट्रंप को लगा कि वह यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की की ही तरह पुतिन पर दबाव डालने में सफल हो जाएंगे। लेकिन पुतिन बातचीत के दौरान सिर्फ ऊर्जा केंद्रों पर हमला न करने की बात पर राजी हुए और उन्होंने बाकी बातें मानने से इनकार कर दिया। हालांकि अमेरिका और रूस की वार्ता का क्रम अभी तक टूटा नहीं है। आगे भी बातचीत चलती रहेगी।रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध में अब तक पुतिन यूक्रेन के चार पूर्वी प्रांतों डोनेट्स्क, लुहांस्क, जापोरिज्जिया और खेरसॉन को रूस में शामिल कर चुके हैं। 

यूक्रेन ने रूस के कुर्स्कइलाके के छोटे से हिस्से पर कब्जा किया था, जिसे पिछले दिनों रूस ने वापस ले लिया है। इस स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि पुतिन इस युद्ध में विजेता की तरह हैं। कई दशकों तक एक प्रतिद्वंद्वी की तरह व्यवहार करने वाला अमेरिका अब रूस से सीधी बातचीत का इच्छुक है, यह पुतिन के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है। हाल ही में सऊदी अरब में यूक्रेनी अधिकारियों के साथ ट्रंप की टीम ने जो महीने भर के पूर्ण संघर्ष विराम की योजना तैयार की थी, उस पर हस्ताक्षर करने से पुतिन ने मना करके यह जता दिया है कि वह अमेरिका के किसी दबाव को मानने वाले नहीं हैं।




Tuesday, March 18, 2025

छोटी मुसीबत को किसान ने बड़ी समझा

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

जब तक किसी समस्या का सामना न किया जाए, तब तक वह बहुत बड़ी लगती है। सामना किया जाए, तो लगता है कि जिसको हम बहुत बड़ी समझ रहे थे, वह तो बहुत मामूली समस्या लगती है। दरअसल, होता यह है कि जब कल्पना में कोई भी समस्या हो, भयावह ही लगती है। 

वास्तविकता कुछ अलग ही होती है। इंसान को हमेशा किसी भी समस्या या मुसीबत का सामना करते समय घबराना नहीं चाहिए। समस्या का समाधान तुरंत करना चाहिए ताकि वह छोटी से बड़ी न होने पाए। कुछ लोग पहले से ही समस्या को बड़ी मान लेते हैं जिसकी वजह से बाद में उन्हें पछताना पड़ता है। इस संबंध में एक किसान की कथा कही जाती है। 

किसी गांव में एक किसान था। उसके खेत में एक पत्थर गड़ा हुआ था। खेत की जुताई-बोवाई करते समय वह पत्थर कई बार उसके पैर में लग चुका था। पत्थर को देखकर वह यही सोचा करता था कि पत्थर बड़ा है और काफी अंदर तक धंसा हुआ है। यही सोचकर उसने कभी उसे निकालने का प्रयास नहीं किया। एक बार उसके पैर में पत्थर की काफी गहरी चोट लगी। पैर से खून तक निकलने लगा। 

उसे बहुत गुस्सा आया। उसने सोचा कि कल गांव वालों की मदद से इस पत्थर को खेत से निकालकर ही दम लेगा। उसने अगले दिन काफी लोगों को खेत में जमा किया। लोगों को देखकर उसने पत्थर को खोदना शुरू किया। दो-तीन बार फावड़ा चलाने पर वह पत्थर बाहर निकल आया। 

सबने देखा कि वह पत्थर बहुत ही छोटा था। इतने छोटे पत्थर को देखकर लोगों ने कहा कि इस पत्थर को तुम पहले भी निकाल सकते थे। किसान ने कहा कि मैंने सोचा कि यह बड़ा पत्थर होगा, लेकिन यह तो बहुत छोटा निकला। यदि मैं ऐसा जानता तो पहले ही निकाल दिया होता। बार-बार इतनी चोट क्यों खाता?





नेताजी को मिली सिंगापुर में भारी मदद

 बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

आजाद हिंद फौज का गठन सन 1942 को जापान की राजधानी टोक्यो में हुई थी। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। जापान अधिकृत सिंगापुर में आजाद हिंद फौज के गठन का विचार सबसे पहले मोहन सिंह के मन में आया था। बस फिर क्या था? कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस और निरंजन सिंह गिल ने आजाद हिंद फौज का गठन किया।

फौज का गठन होने के बाद सबसे बड़ा संकट इतनी बड़ी फौज के नेतृत्व करने की थी। नतीजा यह हुआ कि आजाद हिंद फौज कुछ ही समय बाद निष्क्रिय हो गई। 4 जुलाई 1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस को इसका नेतृत्व रासबिहारी बोस ने सौंप दिया और उसके अगले दिन नेताजी ने दिल्ली चलो का नारा दिया।

उन दिनों जापान और अन्य देशों से आजाद हिंद फौज को भारी मात्रा में सहायता मिल रही थी। सिंगापुर में आजाद हिंद फौज के लिए मदद देने वालों की एक बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हुई थी। एक बुजुर्ग महिला नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पास पहुंची और उसने कहा कि यह हार ही मेरी सबसे बड़ी संपत्ति है। इसे आप ग्रहण करें। हार का मूल्य उन दिनों 25-30 रुपये ही था।

बुजुर्ग महिला का त्याग देखकर नेताजी भावविभोर हो गए। उन्होंने उस हार की नीलामी करवाई। पहली बोली एक हजार रुपये रखी गई। देखते ही देखते उस हार की बोली आठ लाख रुपये तक पहुंच गई। तभी एक व्यक्ति आगे आया और उसने कहा कि मैं अपने आप सहित अपनी पूरी संपत्ति इस हार के लिए देता हूं। इसके बाद वह आदमी आजाद हिंद फौज में शामिल हो गया। उसकी संपत्ति की कीमत आठ लाख रुपये से अधिक थी। 

इस तरह विदेश में रह रहे भारतीयों और विदेशी नागरिकों की मदद से आजाद हिंद फौज आगे बढ़ती हुई बर्मा के साथ कोहिमा और इंफाल तक पहुंच गई थी। इससे अंग्रेजी शासन की चूलें हिल गई थीं।



Tuesday, March 11, 2025

कोई अहंकार करके ऊपर नहीं उठ सकता

 बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती का वास्तविक नाम मुंशीराम विज था। उनका जन्म  22 फरवरी 1856 को जालंधर जिले के एक खत्री परिवार में हुआ था। अंग्रेजी शासन के दौरान उनके पिता नानक चंद विज संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में एक पुलिस अधिकारी थे। कहते हैं कि युवावस्था तक स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती ईश्वर पर विश्वास नहीं करते थे। पिता के बार-बार ट्रांसफर होने के चलते वह ज्यादा पढ़ाई तो नहीं कर पाए, लेकिन प्रतिभा के वह धनी थे। एक बार बरेली में अपने पिता के साथ स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रवचन सुनने गए, तो उनके तर्कों और बातों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह आर्य समाजी होकर संन्यासी हो गए। अंग्रेजी शिक्षा का बहिष्कार करने के लिए स्वामी श्रद्धानंद ने 1901 में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना की। स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती का एक शिष्य था सदानंद। स्वामी जी आर्य समाज का प्रचार प्रसार करने के लिए देश भर में भ्रमण करते रहते थे। वह जहां भी जाते, अछूतों का उद्धार करने का प्रयास करते। सदानंद को एक बार यह अहंकार हो गया कि वह सबसे गुणी है, ज्ञानी है। उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता है। यही सोचकर उसने अपने साथियों से दूर-दूर रहने लगा। उसने सबसे बातचीत करना भी कम कर दिया। यह बात स्वामी श्रद्धानंद समझ गए। एक दिन जब वह उसके सामने से जा रहे थे, तो उसने स्वामी जी को अभिवादन भी नहीं किया। स्वामी ने उससे कहा कि कल तुम मेरे साथ भ्रमण पर चलना। वह उसे लेकर एक झरने के पास गए और बोले, तुम्हें क्या दिख रहा है। सदानंद बोला-झरना। तब स्वामी जी ने कहा कि जिसे ऊपर जाना होता है, उसे इस झरने की तरह झुकना आना चाहिए। अहंकार से कोई ऊपर नहीं पहुंच सकता है। यह सुनकर सदानंद को अपनी गलती का एहसास हुआ और क्षमा स्वामी जी से मांगी।



राहुल गांधी को इंतजार किसका है, निकाल फेंके

अशोक मिश्र

कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का दो दिवसीय गुजरात दौरे के दौरान दिया गया बयान इन दिनों काफी चर्चा में है। अहमदाबाद में उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि कांग्रेस में आधे कार्यकर्ता और नेता ऐसे हैं जिनके मन में कांग्रेस है। बाकी आधे नेता और कार्यकर्ता ऐसे भी हैं जिनमें से आधे भाजपा से मिले हुए हैं। राहुल गांधी की यह बात सही है, लेकिन यह सिर्फ गुजरात के संदर्भ में ही नहीं, पूरे देश के मामले में भी सही हो सकती है। कांग्रेस में बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो कांग्रेस को ही उस समय बैकफुट पर लाकर खड़ा कर देते हैं, जब कांग्रेस कुछ अच्छा करने वाली होती है। गुजरात में पिछले तीस साल से कांग्रेस की सरकार नहीं है। इसके लिए कांग्रेस की कुछ नीतियां और भाजपा की रणनीति जिम्मेदार हो सकती हैं। लेकिन यह भी सही है कि गुजरात में कांग्रेस संगठन काफी हद तक धराशायी हो चुका है। कांग्रेस के ज्यादातर नेता या तो निष्क्रिय हो चुके हैं या फिर उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया है। सन 2022 में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान ही कांग्रेस के 37 नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया था। भाजपा ने इन कांग्रेस से आए नेताओं पर दांव लगाया जिसमें से 34 नेताओं ने विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की। यदि प्रदेश नेतृत्व ने इन बागी नेताओं को अपने साथ लेकर चलने का प्रयास किया होता तो 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 156 सीटें हासिल हुई थीं।

पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान ही राजनीतिक विश्लेषकों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि गुजरात कांग्रेस के नेताओं में वह उत्साह और पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता नहीं दिखाई दे रही है जिसकी पार्टी को जरूरत है। आधे-अधूरे मन से कांग्रेस नेताओं ने चुनाव लड़ा था। यदि कांग्रेस ने बागी 37 नेताओं को सहेजने में सफलता पाई होती, तो कांग्रेस कम से कम सम्मानजनक सीटें हासिल करने में सफल हो गई होती। उसे सिर्फ17 सीटों पर सिमटना नहीं पड़ता। हां, सन 2017 का जुनाव जरूर गुजरात कांग्रेस ने मन से लड़ा था। भाजपा को बहुत अच्छी टक्कर दी थी। एक बार तो लगने लगा था कि कांग्रेस इस बार गुजरात में अपनी सरकार बनाने में सफल हो जाएगी। लेकिन उसी दौरान प्रधानमंत्री आवास पर पाकिस्तानी अधिकारियों की बैठक को लेकर कांग्रेसी नेता मणि शंकर अय्यर ने एक ऐसा बयान दिया कि सारा माहौल ही पलट गया। मोदी नीच है कहकर उन्होंने कांग्रेस की जीती हुई बाजी हारने पर मजबूर कर दिया। उस दौरान चौथे चरण का मतदान होना बाकी था और मोदी जी ने इसी मुद्दे को गुजराती अस्मिता से जोड़कर हारती हुई भाजपा को जिता दिया था।

राहुल गांधी का यह कहना सही है कि कांग्रेस में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो गाहे-बगाहे अनर्गल बयान देकर भाजपा को बैठे बिठाए मुद्दा देते रहते हैं। ऐसे नेता सिर्फमणि शंकर अय्यर ही नहीं है, ढेर सारे हैं। जब तक इन नेताओं को पार्टी से बाहर नहीं किया जाता। नए और उत्साही कार्यकर्ताओं, नेताओं को गांव और ब्लाक स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक बागडोर नहीं दी जाती, तब तक किसी भी राज्य में कांग्रेस का भला नहीं हो सकता है। सबसे पहले तो कांग्रेस हाईकमान को प्रदेशों और केंद्रीय संगठन में चल रही गुटबाजी को खत्म करना होगा। संगठन में वरिष्ठ होने के नाते बड़े-बड़े पदों पर कब्जा जमाकर निष्क्रिय नेताओं को हाथ पकड़कर बाहर करना होगा। उसकी जगह युवाओं को यह जिम्मेदारी देनी होगी। जो भी पार्टी विरोधी काम करता मिले, उसके निकल जाने का इंतजार करने से बेहतर है कि उसे तुरंत कान पकड़कर बाहर कर दिया जाए। अनुशासनहीनता और पार्टी विरोधी काम करने वाले पार्टी को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। यदि शरीर में फोड़ा हो जाए, तो उससे मवाद निकलने का इंतजार करने से बेहतर है कि आपरेशन कर दिया जाए।



Sunday, March 9, 2025

संन्यासी होना आसान नहीं

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

हिंदू धर्म में ही नहीं, अन्य धर्मों में भी संन्यास की परंपरा रही है। संन्यासी बनने के लिए हर धर्म में अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं। कुछ बहुत कठिन हैं, तो कुछ कम कठिन। लेकिन संन्यासी बनने का बाद संन्यास का पालन करना, हर धर्म में व्यक्ति पर निर्भर करता है। संन्यास लेने के बाद संन्यासी बने रहना बहुत कठिन है। 

आपको बताएं, एक राजकुमारी थी। उसके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। जब वह विवाह के योग्य हुई, तो उसके पिता को उसके लायक कोई वर नहीं मिला, तो पिता चिंतित रहने लगे। उन्हें अपनी बेटी के वैराग्य भाव के बारे में पता था। 

एक दिन उन्होंने सोचा कि मैं अगर इसका विवाह किसी संन्यासी से करवा दूं, तो दोनों सुखी रहेंगे।

इसके बाद राजकुमारी का  विवाह एक योग्य संन्यासी से कर दिया गया। एक दिन की बात है। राजकुमारी कुटिया की सफाई कर रही थी, तो उसे मिट्टी के एक पात्र में उसे दो सूखी रोटियां रखी मिली। उसने पति से पूछा कि यह क्या है? 

इस पर संन्यासी ने कहा कि कल जब कुछ नहीं मिलेगा, तो एक रोटी तुम और एक रोटी मैं खा लूंगा। यह सुनकर राजकुमारी हंस पड़ी। 

उसने कहा कि आप संन्यासी होकर भी कल की चिंता करते हैं। चलिए मान लेते हैं कि कल कुछ नहीं मिला, तो भूखे रहकर भगवान का भजन करेंगे। हम उस दशा में भी मगन रहेंगे। 

यह सुनते ही संन्यासी बोला, सचमुच मैं संन्यासी होकर भी पूरी तरह संन्यासी नहीं बन पाया। तुम राजकुमारी होकर भी संन्यास को अच्छी तरह समझती हो। एक संन्यासी को कल की चिंता करने की जरूरत ही नहीं है। संन्यासी को तो वैसे भी कामना रहित होना चाहिए। इसके बाद दोनों साधना में लीन हो गए। 



बुजुर्ग का कर्ज चुकाया और चले गए

 बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

आजकल लोग अगर एक दर्जन केला भी किसी व्यक्ति को दान करते हैं, तो उसकी फोटो खींचकर सोशल मीडिया पर डालते हुए संकोच नहीं करते हैं। सोशल मीडिया पर बहुत सारी तस्वीरें और समाचार इस किस्म के देखने को मिल जाते हैं। लोग अस्पतालों में जाकर कुछ मरीजों को खाने का सामान देते हैं और उसका फिर प्रचार करते हैं। लेकिन हमारे देश में न जाने कितने ऐसे लोग भी पैदा हुए हैं जिन्होंने अपने जीवन भर की कमाई दूसरों की भलाई में लगा दी, लेकिन किसी को भनक तक नहीं लगने दिया। 

ऐसे ही थे ईश्वर चंद्र विद्यासागर। उन्होंने जीवन भर बाल विवाह जैसी कुप्रथा के विरोध में झंडा बुलंद किया। उन्होंने विधवा विवाह की वकालत की। एक बार की बात है। वह कहीं जा रहे थे। उन्होंने देखा कि एक बुजुर्ग सड़क के किनारे परेशान सा बैठा है। 

ईश्वरचंद्र विद्यासागर को उत्सुकता हुई। वह उस बुजुर्ग के पास जाकर बोले-बाबा! कुछ परेशान सा दिख रहे हो। क्या बात है? 

उस वृद्ध ने उन्हें टालने की कोशिश की, तो विद्यासागर ने कहा कि आप मुझे अपनी परेशानी बताइए। शायद मैं आपकी मदद कर सकूं। 

उस बुजुर्ग ने कहा कि मैंने एक सेठ से बेटी की शादी के लिए कर्ज लिया था। गरीब आदमी हूं। उसका कर्जा नहीं चुका पाया। अब उस आदमी ने मुकदमा कर दिया है। 

विद्यासागर ने उसके मुकदमे की तारीख, कर्ज की रकम आदि पूछी और चले गए। मुकदमे के दिन वह बुजुर्ग कचेहरी पहुंचा और एक किनारे बैठ गया। काफी देर बाद भी जब उसके नाम की गुहार नहीं लगी, तो उसने वहां के लोगों से पूछताछ की। पता चला कि उसके कर्ज की रकम चुका दी गई है और उसका मुकदमा खारिज हो गया है। यह सुनकर बुजुर्ग ने कर्ज चुकाने वाले के बारे में पता किया, तो मालूम हुआ कि यह वही युवक है जो उस दिन उससे सारी बातें पूछ रहा था।



Friday, March 7, 2025

वेब मिलर ने उजागर की अंग्रेजों की बर्बरता

 बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित वेब मिलर एक युद्ध संवाददाता थे। उन्होंने यूनाइटेड प्रेस में नौकरी की और कई युद्धों की सफल रिपोर्टिंग की थी। उनकी ख्याति पूरी दुनिया में थी। मिलर का जन्म अमेरिका के मिशिगन में 10 फरवरी 1891 में हुआ था। 

उन्होंने पंचो विला अभियान , प्रथम विश्व युद्ध , स्पेनिश गृहयुद्ध , इथियोपिया पर इतालवी आक्रमण , फोनी युद्ध और 1939 के रुसो-फिनिश युद्ध को कवर किया। वह भारत भी आए थे। उन दिनों भारत अंग्रेजों का एक उपनिवेश था। महात्मा गांधी ने जब सन 1930 में नमक सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत की, तो अंग्रेजों ने सत्याग्रहियों पर बर्बर अत्याचार किए। इस आंदोलन के चलते करीब 1300 सत्याग्रही बुरी तरह घायल हुए थे और कई लोगों की मौत हो गई थी। 

वेब मिलर ने इस घटना की अपनी संस्था यूनाइटेड प्रेस के लिए रिपोर्टिंग की थी। आंदोलन की सजीव और तथ्यपरक रिपोर्टिंग की वजह से दुनिया भर के लोगों को नमक सत्याग्रह आंदोलन में पता चला और अंग्रेजों की बर्बरता का भी। दुनिया भर के देशों ने अंग्रेजों की इस बर्बरता के लिए निंदा की। उन्हें इस सजीव रिपोर्टिंग के लिए कई तरह के पुरस्कार दिए गए। 

लेकिन अंग्रेजी शासन की आंख का कांटा वह हमेशा रहे। जब 1931 में गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए गांधी जी लंदन पहुंचे तो उन्होंने महात्मा गांधी से मुलाकात की। पत्रकार मिलर ने अपनी जेब से सिगरेट की एक डिब्बी निकाली और गांधी जी से उस पर आटोग्राफ देने का निवेदन किया। 

गांधी जी ने सिगरेट की डिब्बी को हाथ में लेकर उलट-पुलटकर देखा। उस पर कई प्रसिद्ध लोगों के हस्ताक्षर थे। गांधी जी ने कहा कि मैं हर प्रकार के नशे के खिलाफ हूं। अगर तुम इस डिब्बी में सिगरेट न रखने का वायदा करो, तो मैं हस्ताक्षर कर दूंगा। वेब मिलर गांधी जी की बात मान गए।





पक्षी प्रेम ने बना दिया बर्ड वूमन आफ इंडिया

 बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

बिहार में सन 1923 को जन्मी जमाल आरा को बर्ड वूमन आफ इंडिया कहा जाता है। भारत में वह शायद पहली महिला हैं जिन्होंने पक्षियों के बारे में गहराई से अध्ययन किया और उसके बारे में लिखा। जमाल आरा का जन्म बिहार के एक रूढ़ीवादी मुस्लिम परिवार में हुआ था। 

बड़ी होने पर उनकी शादी चचेरे भाई पत्रकार हम्दी बे के साथ हुआ था। इस शादी से उन्होंने एक बेटी मधुका को जन्म दिया। जमाल आरा का निकाह जिससे हुआ था, वह उनके लिए अच्छा साबित नहीं हुआ। कई तरह की परेशानियां को सहते-सहते आरा आजिज आ गई थीं। आखिरकार हम्दी बे ने उन्हें तलाक दे दिया और वह अपनी बेटी के साथ सड़क पर आ गईं। संकट के समय उनका सहारा बने एक दूसरे चचेरे भाई सामी अहमद जो इंडियन फॉरेस्ट सर्विस में थे। 

रांची में तैनात सामी अहमद के घर में रहने के दौरान आरा ने रांची के पलामू के जंगलों में घंटों बिताना शुरू किया। इस दौरान उनका परिचय वहां रह रही एक अंग्रेज अधिकारी पीडब्ल्यू आॅगियर की पत्नी से हुई। श्रीमती आॅगियर की प्रेरणा से आरा ने अपनी अंग्रेजी को सुधरना शुरू किया क्योंकि वह सिर्फ दसवीं पास थीं। 

एक बार उनकी रुचि पक्षियों में जगी, तो उन्होंने पक्षियों की गतिविधियों को देखना और नोट करना शुरू किया। पक्षियों को देखने, उनकी गतिविधियों को नोट करने की प्रेरणा भी अधिकारी की पत्नी ने दी थी। जैसे-जैसे वह अंग्रेजी में अच्छी गद्य लिखने लगी, अहमद और आॅगियर ने उसे अपने नोट्स को लेखों में बदलने के लिए प्रोत्साहित किया और ये प्रकाशित होने लगे।  

एक दिन वह भी आया जब एक प्रसिद्ध पर्यावरण पत्रिका में उनका लेख छपा। इसके बाद तो उनका 1949 से 1988 तक लगातार लिखना जारी रहा। लेकिन अफसोस कि जब वह इस दुनिया से गईं, तो किसी को पता नहीं चला।



चित्र साभार टाइम्स आफ इंडिया


निर्बल की जोरू होकर रह गया है गजा क्षेत्र


अशोक मिश्र

अवध क्षेत्र में एक कहावत कही जाती है-निबरेक जोय, सबकै सरहज। यानी निर्बल आदमी की पत्नी सबकी सलहज (साले की पत्नी) लगती है। आज गजा क्षेत्र की यही हालत हो गई है। जिसको देखो, सभी उनकी हालत सुधारने का दम भर रहे हैं। 7 अक्टूबर 2023 से हमास- इजरायल युद्ध में गजा क्षेत्र पूरी तरह तबाह हो चुका है। अब तक 48 हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। लाखों लोग अपनी धन संपत्ति छोड़कर दूसरे देशों में शरण लेने को मजबूर हो गए हैं। पूरी तरह ध्वस्त हो चुके गजा क्षेत्र पर अब अमेरिका और अरब लीग की निगाहें गड़ चुकी हैं। अमेरिका के दूसरी बार चुने गए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पहले ही कह चुके हैं कि गजा क्षेत्र अमेरिका को सौंप दिया जाए। वह उसे एक पर्यटन क्षेत्र जैसा बनाएंगे। गजा क्षेत्र में वह सब कुछ होगा, जो अमीरों की बस्ती में होना चाहिए। ऐसी स्थिति में गजा क्षेत्र में रहने वाले 24-25 लाख कहां जाएंगे? इसका भी जवाब है डोनाल्ड ट्रंप के पास। उनका सुझाव है कि गजा के लोगों को मिस्र जैसे पड़ोसी देशों में बसा दिया जाए। पड़ोसी देशों को गजा वालों की मदद करने के लिए आगे आना चाहिए।

अब गजा क्षेत्र के लिए अरब लीग ने भी एक योजना पेश की है। चार मार्च को मिस्र की राजधानी काहिरा में अरब लीग देशों की एक बैठक हुई थी जिसमें पूरी तरह ध्वस्त हो चुके गजा के पुनर्निर्माण के लिए 53 अरब डॉलर की एक योजना पेश की गई है। गजा के पुनर्निर्माण के लिए बुलाई गई समिट में जॉर्डन के किंग अब्दुल्लाह द्वितीय, बहरीन के किंग हमाद बिन इसा अल खलीफा, कतर के अमीर शेख तमीम बिन हमाद अल थानी, कुवैत के क्राउन प्रिंस शेख सबाह खालिद अल-हमाद अल-सबाह, सऊदी अरब के विदेश मंत्री प्रिंस फैसल बिन फरहान और यूएई के उपराष्ट्रपति शेख मंसूर बिन जायेद अल नाह्यान के साथ-साथ लेबनान, सीरिया, इराक, सूडान और लीबिया के राष्ट्रपति भी आए थे। इन सबने मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल फतेह अल-सीसी की योजना पर बड़ी गहराई से विचार विमर्श किया और अंतत: पांच साल की योजना को मंजूरी भी दे दी।

इस मामले में किसी ने भी गजा क्षेत्र के लोगों से यह पूछने की जुर्रत नहीं की कि उन्हें यह योजना मंजूर है कि नहीं। उनको अपना पुनर्निर्माण कराना है कि नहीं। अमेरिकन राष्ट्रपति ट्रंप और अरब लीग के देश जिस तरह गजा क्षेत्र में रुचि ले रहे हैं, उसे देखते हुए गजा  क्षेत्र की स्थिति किसी कालोनी में खाली प्लॉट की तरह प्रतीत हो रहा है जिस पर अड़ोस-पड़ोस के लोगों की निगाह रहती है। जो बराबर इस ताक में रहते हैं कि कहीं से भी मौका मिले और वह खाली प्लॉट पर अपना कब्जा जमाएं। मिस्र की जिस योजना पर अरब लीग ने मंजूरी दी है, वह अमेरिका और इजराइल की इच्छा और सहायता के बिना पूरा हो सकता है? अरब लीग में शामिल देश 53 अरब डॉलर खर्च कर पाने की हैसियत में हैं भी या नहीं।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि सऊदी अरब और यूनाइटेड स्टेट अमीरात के कर्ताधर्ता अमेरिका के ही इशारे पर नाचते हैं। अब अगर अमेरिका इजाजत न दे, तो क्या अमेरिका का विरोध करते हुए मिस्र की योजना में पूंजी निवेश करने की स्थिति में यह दोनों देश होंगे? सऊदी अरब और यूएई की सहायता के बिना अरब लीग द्वारा स्वीकृत यह योजना कतई पूरी होने वाली नहीं है। पूरी अरब लीग अमेरिका समर्थक है। कुछ देश इसके अपवाद हो सकते हैं। सच कहा जाए तो ट्रंप और अरब लीग फलस्तीनियों को लेकर गंभीर नहीं हैं। वह पुनर्निर्माण के नाम पर अपनी पूंजी निवेश कर मुनाफा कमाना चाहते हैं। गजा क्षेत्र का विकास कोई दानखाते से तो करेंगे नहीं। आज पैसा लगाएंगे, तो कल वसूलेंगे भी। गजा के प्रति इनका जो प्रेम उमड़ रहा है, उसके पीछे स्वार्थ है। महाकवि तुलसी दास बहुत पहले कह गए हैं कि सुर, नर, मुनि की याही रीति, स्वारथ पाय, सबै सब प्रीति।

Wednesday, March 5, 2025

सत्संगति दिखाती है जीवन की राह

बोधिवृक्ष 

अशोक मिश्र

नामदेव महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत थे। उनके गुरु बिनोबा खेचर उम्र में उनसे सिर्फ पांच साल बड़े थे। दक्षिण के प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर उनके समकालीन थे। नामदेव के समय में महाराष्ट्र में नाथ और महानुभाव पंथ का बोलबाला था। कहा जाता है कि संत नामदेव ने लगभग पंद्रह साल तक पंजाब में भगवान्नाम का प्रचार किया था। इनकी कुछ रचनाएं गुरु ग्रंथसाहिब में संग्रहीत की गई हैं।एक बार की बात है। 

इनके पास श्यामनाथ नाम का व्यक्ति अपने पुत्र तात्या को लेकर पहुंचा। श्यामनाथ ने संत नामदेव से कहा कि मेरा पुत्र तात्या न तो साधु-संतों की संगति में रहना पसंद करता है, न ही पूजा पाठ करता है। सारा दिन आवारागर्दी करता रहता है।

इसे कुछ भी काम करना भी नहीं सुहाता है। इसका क्या किया जाए, कुछ समझ में नहीं आता है। यह सुनकर संत नामदेव कुछ देर तक सोचते रहे। फिर पिता-पुत्र से बोले कि मेरे साथ आओ। 

वह उन दोनों को लेकर मंदिर के लंबे-चौड़े दालान में लेकर गए। पिता-पुत्र ने देखा कि एक जगह लालटेन जल रही थी।

उस समय अंधेरा हो चुका था।  वे उन दोनों को लेकर आगे बढ़ चले। कुछ दूर जाने पर संत नामदेव खड़े हो गए, तो तात्या  ने कहा कि आप हम लोगों को अंधेरे में लेकर क्यों आए हैं। इससे अच्छा था कि वहां खड़े होते जहां लालटेन जल रही है। 

इस पर नामदेव बोले कि यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहता हूं। साधु-संत और उनकी संगति लालटेन का काम करती है। तुम अंधेरे में जब हाथ पैर मार रहे होते हो, तो पूजा, प्रार्थना, भजन और साधु संगति की तुम्हें रास्ता दिखाते हैं। यही कुमार्ग से सत्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। अच्छा होगा कि तुम भी अभी से सन्मार्ग पर चलना सीख लो। 

यह सुनकर तात्या को अपने ऊपर बड़ा पछतावा हुआ और उस दिन से पिता के बताए मार्ग पर चलने लगा।




सनक की सीमा तक काम करते थे एडिसन

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

अमेरिका में 1093 आविष्कारों का पेटेंट कराने वाले थामस अल्वा एडिसन दुनिया के महान आविष्कारकों में माने जाते हैं। उनका जन्म 11 फरवरी 1847 में अमेरिका के ओहियो राज्य में हुआ था। एडिसन बचपन से ही जिज्ञासु, कुशाग्र बुद्धि और नित नई-नई खोज करने की प्रवृत्ति वाले थे। 

एडिसन जब छोटे थे, तभी से उनके मन में अजीब अजीब विचार आने लगे थे। चिड़िया को उड़ते देखकर वह भी उड़ने के बारे में सोचते थे। चिड़िया के कीड़े-मकोड़े खाते देखकर सोचा करते थे कि शायद इससे उसे उड़ने की शक्ति मिलती है। यह प्रयोग भी अपने एक साथी पर किया। उन्हें काम करने की सनक की हद तक आदत थी। विद्युत बल्ब, टेलीफोन जैसे न जाने कितने आविष्कार उनके नाम दर्ज हैं। 

उन्होंने अपने आविष्कारों से दुनिया की रंगत ही बदल दी थी। एक बार की बात है। वह अपनी प्रयोगशाला में कई दिन से लगे हुए थे। घर ही नहीं गए थे। कई दिनों बाद जब वह प्रयोगशाला से निकले तो उनकी पत्नी ने शिकायती लहजे में कहा कि कभी-कभार अपने काम से छुट्टी भी ले लिया करो। हमेशा काम में ही जुटे रहते हो।

उन्होंने पूछा कि छुट्टी लेने से क्या होगा? उनकी पत्नी ने कहा कि जहां तुम्हारा मन करे, घूमने जाओ। मौज मस्ती करो। उनकी पत्नी उनके अत्यधिक काम करने की प्रवृत्ति से चिढ़ी रहती थी। वह चाहती थी कि वह बाहरी दुनिया से भी ताल्लुक रखें। 

फिर एडिसन ने कहा कि ठीक है। मुझे जहां जाना अच्छा लगता है, मैं वहीं चला जाता हूं। यह कहकर वह प्रयोगशाला में घुस गए। तभी उन्हें पता चला कि उनके कारखाने में आग लग गई है और सब कुछ जलकर राख हो गया है। इस पर एडिसन ने कहा कि यह तबाही की भी बड़ी कीमत होती है। इसमें हमारी गलतियां भी छिप जाती हैं। इसके तीन महीने बाद ही एडिसन ने टेलीफोन का आविष्कार कर लिया।



Tuesday, March 4, 2025

महात्मा गांधी और टैगोर में मतभेद

 बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

हमारे देश के स्वाधीनता संग्राम बहुत सारे लोगों ने अपनी आहुति दी थी। इस दौरान कुछ राजनीतिक संगठन भी बने जिन्होंने आजादी की लड़ाई की अगुआई की। कांग्रेस इसमें प्रमुख थी। इसके सर्वमान्य नेता थे मोहनदास करमचंद गांधी। गांधी जी अहिंसा के समर्थक थे। वहीं रवींद्रनाथ टैगोर भी अपनी लेखनी के माध्यम से लोगों में जन जागृति कर रहे थे। लेकिन कहा जाता है कि महात्मा गांधी और रवींद्र नाथ टैगोर में वैचारिक मतभेद थे। कई मुद्दों पर टैगोर महात्मा गांधी से सहमत नहीं होते थे, तो वह खुलकर विरोध करते थे। वह गांधी जी के फैसलों को प्रभावित करने का प्रयास भी करते थे, लेकिन वह गांधी जी का अनादर नहीं करते थे। निजी और सार्वजनिक जीवन में वह गांधी की आलोचना करते हुए भी उनके मान सम्मान का पूरा ख्याल रखते थे। एक बार की बात है। गांधी जी शांति निकेतन आए, तो वहां पढ़ने वाली एक छात्रा ने गांधी जी से आटोग्राफ मांगा।

गांधी से उस छात्रा के अनुरोध को अस्वीकार नहीं कर सके। उन्होंने उसकी नोटबुक में लिखा कि जीवन में जब किसी व्यक्ति से कोई वायदा करो, तो उसे हर हालत में पूरा करने का प्रयास करो। अपने वायदे से मुकरना कतई उचित नहीं है। जब रवींद्र नाथ टैगोर को यह बात पता चली तो उन्होंने उस छात्रा से यह जानना चाहा कि गांधी जी ने क्या लिखा है। उस नोट बुक पर गांधी जी की लिखी बात से टैगोर चकित रह गए।


उन्होंने उस छात्रा की नोटबुक में अपनी ओर से कविता की दो पंक्तियां लिखीं। आखिरी लाइन उन्होंने अंग्रेजी में लिखी कि जब तुम्हें पता  लगे कि तुमने गलत वायदा किया है, तो उसे तोड़ दो। वैसे कुछ लोगों का यह भी कहना है कि गांधी जी और टैगोर में कई बार अबोला हो जाता था। यह बात कितनी सही है, यह नहीं कहा जा सकता है। कई बार छोटी-छोटी बातों को लोग बढ़ा-चढ़ाकर कहते हैं।







हेनरी फोर्ड ने जुनून के चलते पाई सफलता

 बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

अमेरिका के प्रसिद्ध उद्योगपति हेनरी फोर्ड को सस्ती कारों के निर्माण का श्रेय दिया जाता है। हेनरी फोर्ड का जन्म 30 जुलाई 1863 को मिशिगैन राज्य में हुआ था। स्वभाव से मेहनती और कुछ कर गुजरने की ललक की वजह से हेनरी फोर्ड ने 16 साल की उम्र में ही घर छोड़ दिया था और डिट्राइड में चले गए थे। हेनरी ने सिर्फ15 साल की उम्र तक ही स्कूली शिक्षा पाई थी। 

कम पढ़े होने के बावजूद उनमें यांत्रिकी में काफी रुचि थी। कई कारखानों में काम करके इन्होंने मशीनों का ज्ञान प्राप्त किया और फिर 1886 में अपने पिता के पास लौट आए। पिता की 80 एकड़ जमीन पर इन्होंने मशीनों की मरम्मत का कारखाना खोला। चार साल बाद एक बार फिर घर छोड़कर डिट्राइड चले गए और एक इलेक्ट्रिक कंपनी में काम करना शुरू किया। यहां इन्होंने एक कार बनाई। इसी तरह जीवन चलता रहा। 

सन 1903 में इन्होंने फोर्ड कंपनी की स्थापना की और कार उद्योग में अपने पैर जमाने शुरू कर दिए। कंपनी खोलने के पहले साल फोर्ड ने 1703 गाड़ियां बनाई जो काफी मुनाफे में बिकीं। अगले साल इन्होंने पांच हजार गाड़ियां बेचीं। फोर्ड का सपना था कि मजबूत, छोटी, सस्ती और तेज चलने वाली गाड़ियां बनाई जाए ताकि अधिक से अधिक लोग इन्हें खरीद सकें। उन दिनों इनकी एक गाड़ी की कीमत 825 डालर हुआ करती थी। 

फोर्ड ने अपने कर्मचारियों का वेतन दो गुना करते हुए सस्ती और अच्छी कार बनाने को प्रेरित किया। सन 1913 में इन्होंने असेंबली लाइन तकनीक से गाड़ी बनाने में सफलता प्राप्त कर ली। अधिक उत्पादन से गाड़ियों की लागत घटी और उसकी कीमत 260 डॉलर रह गई। बाद में फोर्ड कंपनी ने ट्रक और ट्रैक्टर भी बनाना शुरू किया और दुनिया की कार उद्योग को एक नया रूप प्रदान किया।



बेमानी है अब ट्रंप को अपना दोस्त समझना

अशोक मिश्र

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी घोषणाओं से, अपने रवैये से एक बात तो साफ कर दिया है कि वह भविष्य में संकट पड़ने पर किसी भी देश की बिना कुछ लिए दिए धेले भर की मदद करने वाले नहीं हैं। उनके लिए अमेरिका फर्स्ट है। इसके लिए वे वह सब कुछ करेंगे जिससे अमेरिका का भला हो। ठीक बात भी है। अगर किसी देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री अपने देश का भला चाहता है, तो इसमें बुरा क्या है? सबको अपने देश से प्यार होता है और अपना और अपने देश का हित सबसे पहले देखता है। ट्रंप की इस बात और रवैये से उन देशों को धक्का लग सकता है, जो अब तक अमेरिका से मदद, ऋण या युद्ध काल में हथियारों की मदद लेते रहे हैं। नाटो संधि की वजह से अपने दुश्मन को अमेरिका का दुश्मन मानते रहे हैं। ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद सब कुछ बदल गया है। दुनिया में अब एक नए सिरे से खेमे बंदी शुरू हो गई है। ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने से पहले जो अमेरिका रूस का प्रतिद्वंद्वी हुआ करता था, वह अब दोस्त होने जा रहा है। चीन के खिलाफ कसता शिकंजा अब बहुत हद तक ढीला हो चुका है। बाइडेन काल में जो अमेरिका चीन के खिलाफ ताइवान की हर संभव मदद करने को तैयार था, वहीं अब ट्रंप का आरोप है कि ताइवान की चिप इंडस्ट्री अमेरिका को नुकसान पहुंचा रही है। ताइवान के लिए अब चीन से टकराहट नहीं मोल लेने वाले हैं ट्रंप।

ट्रंप को अपना हितैषी, दोस्त या पक्षधर समझने वाले लोगों और देशों के लिए एक साफ संदेश है कि ट्रंप सिर्फअपने अलावा किसी के नहीं हैं। जेनेटिक आधार पर कहा जाता है कि अमेरिका और यूरोपवासियों का डीएनए एक है। यदि समाज शास्त्र की भाषा में कहा जाए तो ट्रंप के साथ-साथ अमेरिका के गोरे लोग यूरोप के गोरे लोगों के रक्त संबंधी हैं। लेकिन जब ट्रंप यूरोपीय देशों के नहीं हुए, तो क्या वह भारत, चीन, पाकिस्तान, रूस, जापान के हो पाएंगे? कतई नहीं। अपने दूसरे शासनकाल की शुरुआत में ही ट्रंप ने पूरी दुनिया का समीकरण ही बदल दिया है। नतीजा यह हो रहा है कि कल तक जो दुश्मन थे, आज वह दोस्त हो रहे हैं। दोस्त दुश्मन हो रहे हैं। कल तक ट्रंप को दोस्त कहने वाले पीएम मोदी भी शायद उतने मुक्त भाव से ट्रंप को अपना न कह पाएं। भारत ने वैसे तो अब तक बड़े संतुलित तरीके से वैश्विक मंच पर अपनी बात रखी है, लेकिन यह भारत के लिए भी एक संकेत है कि ट्रंप से पुरानी दोस्ती और साझेदारी भविष्य में काम आने वाली नहीं है। निस्संदेह मोदी और पुतिन के रिश्ते प्रगाढ़ हैं। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि अब ट्ंप और पुतिन एक ही पाले में खड़े नजर आ रहे हैं। ट्रंप चीन के प्रति नरम रवैया अपना रहे हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की जिस अंदाज में ट्रंप प्रशंसा कर रहे हैं, वह भारत के लिए खटकने वाला है। पाकिस्तान पर चीन का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है। साउथ पोल की ताकतवर देश माना जाने वाला ब्राजील और साउथ अफ्रीका की निकटता चीन के साथ काफी हद तक बढ़ चुकी है। रूस पहले ही चीन से मित्रता कर चुका है।

अगर ट्रंप और पुतिन के चरित्र को समझने की कोशिश की जाए तो दोनों में एक साम्यता जरूर नजर आती है और वह उन्नीसवीं सदी के साम्राज्यवादी शासकों की तरह सोच है। दोनों एक तरह से अधिनायक वादी हैं। पुतिन को अपना विरोध स्वीकार्य नहीं है। उन पर अपनी आलोचना करने वालों को प्रताड़ित करने और हत्या करवा देने के आरोप हैं, तो ट्रंप को भी अपनी किसी बात का विरोध पसंद नहीं है। ट्रंप इन दिनों सिर्फएलन मस्क की बात सुन रहे हैं बाकि उन्हें किसी की बात नहीं सुननी है। बिना किसी की सुने उन्होंने अमेरिका के लाखों लोगों को नौकरी से निकाल दिया। अब भी निकालते जा रहे हैं। दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ भी रूखा व्यवहार कर रहे हैं।




Monday, March 3, 2025

सुंदरता और यौवन नहीं होते चिरस्थायी


बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र

जीवन का कोई भरोसा नहीं है। कब क्या हो जाए, कोई नहीं कह सकता है। आज जो बच्चा है, कल वह जवान होगा। आज जो जवान है, कल वह अधेड़ और बूढ़ा होगा। अपनी युवावस्था पर इतराने वालों को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि सुंदरता और यौवन चिरस्थायी नहीं होते हैं। सुंदर से सुंदर व्यक्ति जब बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंचता है, तब उसका चेहरा और शरीर सुंदर नहीं रह जाता है। 

ऐसी स्थिति में अपनी सुंदरता और यौवन पर इतराने वालों को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि प्रकृति में कुछ भी स्थायी नहीं है। 

शहर के बाजार में एक भिखारी बैठकर भिक्षा मांगता था। वह इतना कमजोर हो चुका था कि उसके शरीर की एक-एक हड्डी साफ दिखाई देती थी। उसे देखकर उधर से गुजरने वाले एक युवक के मन में घृणा और दया के भाव एक साथ उभरते थे। 

एक दिन उस युवक ने उस भिखारी से कह ही दिया कि जब तुम इतने कमजोर हो, चल-फिर नहीं सकते हो, तो जीने की लालसा क्यों पालते हो? तुम और जीकर क्या करोगे? तुम्हें भीख भी मांगनी पड़ रही है। तुम भगवान से यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हें मृत्यु देकर इन कष्टों से मुक्ति दिला दें। 

उसकी बात सुनकर भिखारी ने कहा कि बेटा! तुम्हारी बात सही है। मुझे इस उम्र में यकीनन मर जाना चाहिए। मैं भी ईश्वर से प्रति दिन यही मांगता हूं कि मुझे इस शरीर से मुक्ति दे दें, लेकिन शायद भगवान मुझे और जिंदा रखना चाहते हैं ताकि जो लोग मेरे इस शरीर को देखकर घृणा करते हैं, वे इस बात समझ सकें कि सुख और यौवन स्थायी नहीं होते हैं। बेटा! युवावस्था में मैं भी तुम्हारी तरह सुंदर और हष्ट-पुष्ट था। 

यह सुनकर युवक उस भिखारी की बात समझ गया। वह शर्मिंदा होकर चला गया।

मैंने भी आपकी मातृभाषा का आदर किया

अशोक मिश्र

नरेंद्र दत्त को भले ही कम लोग जानते हों, लेकिन स्वामी विवेकानंद को लगभग भारत में सभी लोग जानते होंगे। विस्तार से भले ही स्वामी विवेकानंद के बारे में कुछ न बता पाएं, लेकिन इतना तो जरूरत जानते हैं कि वह हमारे देश के संत थे और उन्होंने समाज सुधार की दिशा में बहुत काम किया था। 

यही
स्वामी विवेकानंद की लोकप्रियता का उदाहरण है। नरेंद्र दत्त यानी स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 में कोलकाता में हुआ था। स्वामी जी के जन्म के एक साल बाद इनके पिता विश्वनाथ दत्त का निधन हो गया था। इसके चलते परिवार को आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद स्वामी विवेकानंद ने देश और समाज की उन्नति के लिए प्रयास करना नहीं छोड़ा। 

जब वह 1893 में शिकागो में हो रही धर्म संसद में भाग लेने के लिए अमेरिका गए तो वहां लोगों ने इनका बहुत स्वागत किया। कुछ लोगों ने इनसे अंग्रेजी में सवाल पूछा, तो स्वामी विवेकानंद ने हिंदी में जवाब दिया। अमेरिका में ज्यादातर लोग अंग्रेजी में बातचीत करते हैं। उनकी मातृभाषा भी अंग्रेजी है। 

जब स्वामी विवेकानंद ने अंग्रेजी में पूछे गए सवालों का जवाब हिंदी में दिया, तो लोगों ने समझा कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती है। ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति ने उनसे हिंदी में पूछा कि आप कैसे हैं? 

स्वामी जी ने कहा कि आई एम फाइन एंड थैंक्यू। 

यह सुनकर सब चकित रह गए। लोगों ने कहा कि आपने अंग्रेजी में पूछे गए सवालों का हिंदी में जवाब दिया। हिंदी में सवाल किया, तो अंग्रेजी में जवाब दिया। ऐसा क्यों? 

स्वामी जी ने कहा कि आपने अपनी मातृभाषा में बात की, तो मैंने भी अपनी मातृभाषा में जवाब दिया। आपने हमारी भाषा का आदर करते हुए हिंदी में पूछा, तो मैंने भी आपकी भाषा का आदर करते हुए अंग्रेजी में जवाब दिया। स्वामी जी का यह जवाब सुनकर लोग बहुत प्रसन्न हए।

मनुष्य की इच्छा शक्ति से बढ़कर कोई नहीं

 बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

बुद्ध को गौतम इसलिए कहा जाता है क्योंकि उनका पालन पोषण उनकी मौसी महा प्रजापति गौतमी ने किया था। बुद्ध यानी सिद्धार्थ के जन्म के साथ दिन बाद उनकी मां महामाया की मृत्यु हो गई थी। महाप्रजापति गौतमी वह पहली महिला थीं जिसने बौद्ध धर्म में भिक्षुणी बनने का सौभाग्य प्राप्त किया था। 

महात्मा बुद्ध ने 29 वर्ष की आयु में नवजात पुत्र राहुल और पत्नी यशोधरा को छोड़ दिया था और सत्य की खोज में घर से निकल पड़े थे। तथागत दूसरों को तमाम विपदाओं में घिरा देखकर उनकी समस्याओं को दूर करना चाहते थे। एक बार की बात है। महात्मा बुद्ध श्रावस्ती में प्रवचन दे रहे थे। 

उनके एक शिष्य ने जिज्ञासावश पूछ लिया कि भंते! कोई इस निर्जीव पत्थर पर शासन कर सकता है क्या? 

यह सुनकर बुद्ध मुुस्कुराए और बोले, क्यों? लोहे की हथौड़ी-छेनी से पत्थर को टूटते नहीं देखा है क्या? 

तब शिष्य ने कहा कि तब तो लोहा इस दुनिया में सबसे शक्तिशाली है। 

बुद्ध बोले, लोहे को तो आग जलाकर द्रव्य बना देती है। लोहा सबसे शक्तिशाली कैसे हुआ?

उस शिष्य ने फिर कहा-फिर तो आग से बढ़कर कोई नहीं हो सकता है। 

अब बुद्ध मुस्कुराए और बोले, आग पर पानी पड़ते ही आग तो तुरंत बुझ जाती है। 

शिष्य अब भी अपनी बात आगे बढ़ाने पर तुला हुआ था, तब पानी निश्चित रूप से सर्वशक्तिमान है।

बुद्ध फिर बोले, पानी को तो हवा सोख लेती है। उसे अपने साथ बहा ले जाती है। 

शिष्य बोला, फिर तो हवा ही सबसे शक्तिशाली है। 

बुद्ध ने कहा कि इनसान अपनी इच्छा शक्ति से उद्यम करके हवा की दिशा बदल देता है। इस संसार में मनुष्य की इच्छा शक्ति से बढ़कर कोई दूसरी शक्ति नहीं है। मनुष्य अपनी इच्छा शक्ति के बल पर कुछ भी कर सकता है। यह सुनकर उस शिष्य की सारी जिज्ञासाएं शांत हो गई और वह दूसरे काम में लग गया।



Saturday, March 1, 2025

गुलामी से मुक्त हुए हकीम लुकमान


बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र

हकीम लुकमान का जन्म अरब में हुआ था। वह देश कौन सा था, इसके बारे में इतिहासकारों में मतभेद है। नूबिया, सूडान या इथोपिया में से किसी एक देश में पैदा हुए थे हकीम लुकमान, ऐसा भी मानने वाले इतिहासकार हैं। बहरहाल, यूनानी चिकित्सा में लुकमान का काफी नाम था। लुकमान का जिक्र कुरान में भी किया गया है। 

एक कथा के अनुसार, बचपन में वह किसी उमराव के वह गुलाम थे। उन दिनों अरब में गुलाम रखने की प्रथा थी। बाद में उमराव ने लुकमान को गुलामी से मुक्त कर दिया था। इसके बारे में भी एक कहानी कही जाती है। कहते हैं कि एक दिन उमराव ककड़ी खा रहा था जो काफी कड़वी थी। उसने आधी ककड़ी लुकमान को खाने को दी, तो उन्होंने खा ली। उमराव ने पूछा कि तुमने बताया नहीं कि ककड़ी कड़वी थी। 

लुकमान ने कहा कि जब आप रोज स्वादिष्ट भोजन खाने को देते हैं, तो क्या एक दिन में कड़वी ककड़ी नहीं खा सकता? यह सुनकर उमराव प्रसन्न हुआ और उसने लुकमान को गुलामी से मुक्त कर दिया। कहते हैं कि इसके बाद उन्होंने चिकित्सा विज्ञान की खूब मन लगाकर पढ़ाई की और उन्होंने सभी तरह के रोगों का उपचार खोज लिया। 

यह भी कहा जाता है कि वह भारतीय आयुर्वेद के जनक चरक के समकालीन थे। लुकमान ने अपने एक दूत को चरक के पास संदेश भेजते हुए कहा कि रास्ते में तुम इमली के पेड़ के नीचे ही रात्रि विश्राम करना। जब वह दूत चरक के पास पहुंचा, तो उसके शरीर पर फफोले पड़े हुए थे।

 चरक ने संदेश का कागज देखा, उस पर कुछ नहीं लिखा हुआ था। चरक ने भी एक कागज देते हुए कहा कि तुम रात में नीम के नीचे रुकना। जब दूत लुकमान के पास पहुंचा, तो उसके फफोले ठीक हो गए थे। चरक ने जो कागज भेजा था, वह भी सादा था।