बस यों ही बैठे ठाले---14-------रचनाकाल 18 जुलाई 2020
अशोक मिश्र
हां, बात हो रही थी ग्लालियर की रानी या महारानी बायजा बाई साहब मथुरा में सर्वतोमुख यज्ञ करवाना चाहती थीं और उसमें विद्वानों, पंड़ितों और पुरोहितों के बीच सात-आठ लाख रुपये बांटने वाली थीं। तो भइया, यही बात माझा प्रवास के लिखे जाने का कारण बनी। विष्णुभट्ट गोडसे ने सोचा कि यदि किसी तरह इस यज्ञ में भाग लेने का मौका मिल जाए, तो सौ-पचास रुपये दान-दक्षिणा में मिल ही जाएंगे। लेकिन वह यह बात अपने पिता बालकृष्ण पंत या अपनी पत्नी से कैसे बताते। इसके लिए उन्होंने एक युक्ति निकाली। उन्होंने ग्वालियर में दानशाला के अध्यक्ष बाल कृष्ण भट्ट वैशम्पायन को अपने पिता बालकृष्ण पंत की तरफ से पत्र लिखा और यज्ञ में आने की इच्छा जाहिर की। संयोग से कुछ ही दिन बाद वैशम्पायन का जवाबी पत्र भी आ गया।
अब यह बात विष्णुभट्ट अपने पिता को कैसे बताएं, इसके लिए कुछ दिन तक माथा पच्ची करते रहे। ग्वालियर के दानाध्यक्ष बालकृष्ण भट्ट वैशम्पायन एक तो गोड्से परिवार के संबंधी थे और उनकी कन्या का विवाह पेशवों के कुल गुरु और वरसई के इनामदार कर्वे के यहां हुआ था। वैशम्पायन ने इनामदार कर्वे को भी सपरिवार आने का न्यौता भेजा था। न्यौते में उन्होंने यह बात भी लिखी कि आते समय बालकृष्ण पंत के चिरंजीव को भी साथ लेते आएं, उससे मेल मुलाकात हो जाएगी।
कर्वे ने यह पत्र विष्णुभट्ट के पिता को भी दिखाया, लेकिन वे उसे हिंदुस्तान भेजने को तैयार नहीं हुए। विष्णुभट्ट यह सुनकर बहुत मायूस हुए। उन्होंने अपने छोटे भाई हरिपंत को पेण से बुलाया और उससे सारी बात बताई। यह बात जब विष्णुभट्ट के काका राम भट्ट के कानों तक पहुंची, तो एक दिन वे अपने बड़े भाई के घर आए और बोले कि भइया, मेरा अब बुढ़ापा आ गया है। लड़का इस काबिल अभी है नहीं कि वह कुछ कमाए खाएगा। मेरे ऊपर कुछ कर्ज हो गया है और मैं यह कर्ज अपने जीते जी उतार देना चाहता हूं। इसके लिए मैं सर्वतोमुख यज्ञ में जाने की अनुमति चाहता हूं।
हालांकि जिस समय की यह घटना है, उससे बहुत पहले दोनों भाइयों में संपत्ति का बंटवारा हो चुका था। दोनों के परिवार अलग-अलग रहते थे, लेकिन उनमें आपसी मन मुटाव या वैरभाव नहीं था। वह महत्वपूर्ण कार्यों में अपने बड़े भाई की सलाह जरूर लेते थे और बड़े भाई का फैसला ही उनके लिए मान्य होता था। तो रामभट्ट के बड़े भाई बालकृष्ण पंत ने अपनी दुश्चिंता जाहिर की कि हिंदुस्तान बड़ी दूर है। (तब शायद महाराष्ट्र के लोग अपने प्रांत को छोड़कर बाकी सारे प्रांतों को हिंदुस्तान ही कहते थे।) जाने का रास्ता बड़ा औघड़ और दंगे-धोखे का है। वहां के लोग भांग पीते हैं और स्त्रियां बड़ी मायाविनी होती हैं। इन सब कारणों से मेरी यह इच्छा नहीं होती कि तू हिंदुस्तान जाए।
विष्णुभट्ट ने अपने पिता को समझाया कि मैं स्त्रियों के लिए हिंदुस्तान तो जा नहीं रहा हूं। मैं शपथपूर्वक कहता हूं कि मैं भांग नहीं पियूंगा। और फिर काका भी तो साथ चल रहे हैं। मैं उनकी और अपनी सेहत का ख्याल रखूंगा। इतना पैसा परदेश गए बिना मिलना मुश्किल है। और फिर ग्वालियर से आए पत्र में यज्ञ में भाग लेने का न्यौता भी दिया गया है, इसलिए मेरा वहां जाना सर्वथा उचित है।
तो आप लोगों की समझ में यह बात आ गई होगी कि विष्णुभट्ट ने अपने परिवार के कर्जे चुकाने के लिए महाराष्ट्र के वरसई गांव से ग्वालियर तक की यात्रा की। उनके साथ उनके काका राम भट्ट और छोटा भाई हरिपंत था। वे वरसई गांव के इनामदार कर्वे की गाड़ी का एक हिस्सा किराये पर ले लिया और निकल पड़े। निकलने से पहले उन्हें अपनी माता और पत्नी को समझाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी।
जब वे वरसई गांव से निकल थे तब गर्मी के दिन (मई या जून) थे और उन्होंने अपने परिवार से वायदा किया था कि अगहन-पूस तक लौट आऊंगा। इसके बाद जैसे ही वे महाराष्ट्र की सीमा से बाहर आए, तो उनको अट्ठारह सौ सत्तावन के गदर की झलकियां मिलनी शुरू हो गई। इस पूरी यात्रा के दौरान उन्होंने ग्वालियर, कानपुर, लखनऊ, झांसी, कालपी और मध्य हिंदुस्तान में चलने वाली सैनिक विद्रोह की घटनाओं को अपनी आंखों से देखा। कई बार वे जब विद्रोहियों और अंग्रेजों के बीच फंस गए तो उन्होंने किस तरह चिरौरी-मिनती करके अपनी जान बचाई।
इसका भी उल्लेख माझा प्रवास में हैं। उनकी किताब में जिस-जिस घटना से वे रूबरू हुए, उसका विशद वर्णन किया है। विष्णुभट्ट गोड्से की किताब माझा प्रवास की सबसे बड़ी खासियत यह है कि उन्होंने जो कुछ भी देखा, सुना, समझा, उसको ज्यों का त्यों अपनी पुस्तक में उतार दिया। वे निरपेक्ष भाव से सब कुछ लिखते चले गए। कई जगहों पर अपनी दीनता को भी बड़ी बेबाकी से उकेरा है। ऐसा लगता है कि सैनिक विद्रोह के दौरान अपने देखे-भोगे गए को ज्यों का त्यों उतारने के लिए उन्होंने पुस्तक लिखी है।
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