नथईपुरवा गांव में मेरे एक पट्टीदार थे। पुराने जमाने में किसी तरह अर्थशास्त्र से एमए पास हो गए थे। प्राचीन नगरी श्रावस्ती (स्थानीय बोलचाल में सहेट-महेट) के पास स्थित एक इंटर कालेज में पढ़ाते थे। वैसे तो पट्टीदारी के नाते बाबा लगते थे। लेकिन उनसे एक रिश्ता और था। उनको मेरी बड़ी चाची की बहन ब्याही थीं। तो हम सभी उनको बाबा बोलते थे और उनकी पत्नी को मौसी। भइया ने तीस-बत्तीस साल पहले उनके बारे में एक बड़ा मजेदार बात बताई थी। भइया बोले तो आनंद प्रकाश मिश्र (महामंत्री,आरएसपीआई (एमएल), क्रांतियुग साप्ताहिक के प्रधान संपादक)। भइया ने बताया कि एक बार वे लखनऊ से गांव गए, तो रास्ते में बाबा मिल गए। उनके साथ जय शंकर प्रसाद मिश्र उर्फ करुणेश भैया (एकता मांटेसरी स्कूल, पुरैनिया तालाब के प्रिंसिपल और शायद संस्थापक कभी) भी थे।
पैलगी-वैलगी होने के बाद बातचीत होने लगी। बातचीत पता नहीं कैसे मार्क्सवाद की ओर घूम गई। बाबा ने कहा कि बड़कू (गांव जंवार के पुरनिया आज भी भइया को इसी नाम से पुकारते हैं)…मार्क्सवाद मैंने भी पढ़ा है। यह जो मार्क्सवाद है यही पूंजीवाद है। भइया हंस पड़े। अब आप कहेंगे कि भला…आज इतने साल बाद इस किस्से की क्या जरूरत आ पड़ी है। तो बात यह है कि जब से चीन और भारत के बीच गलवान और अन्य क्षेत्रों में सीमा विवाद को लेकर तनाव बढ़ा है, एक बार फिर भारत की कम्युनिष्ट पार्टियां की भूमिका चर्चा में है।
दक्षिणपंथी पार्टियां कम्युनिष्टों को कोस रही हैं और वे चुप हैं। दरअसल, दक्षिणपंथियों की नजर में सब धान बाइस पसेरी है। मार्क्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद, स्टालिनवाद, ट्रास्टस्कीवाद, लोहिया का समाजवाद, ख्रुश्चेववाद, नक्सलवाद में दक्षिणपंथियों की नजर में कोई फर्क नहीं है। दरअसल, इसमें इनका दोष बस इतना है कि कम्युनिष्टों के प्रति घृणा इनमें चरम सीमा तक है। इसलिए कम्युनिष्ट साहित्य पढ़ना तो दूर देखना भी इनके लिए पाप है।
वहीं भारत की तमाम कम्युनिष्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद के नाम पर इतनी गंद मचाई है कि लोग इनसे दूर होते गए। अधकचरा ज्ञान इन्हें ले डूबा। मार्क्सवाद-लेनिनवाद का रामनामी दुपट्टा ओढ़कर इन कम्युनिष्ट पार्टियों के नेता आजीवन स्टालिनवाद, ट्रास्टस्कीवाद, लोहिया का समाजवाद, ख्रुश्चेववाद, नक्सलवाद और माओवाद को पालते पोसते रहे। इन्हें खुद नहीं मालूम कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओवाद, स्टालिनवाद, ट्रास्टस्कीवाद, लोहिया का समाजवाद, ख्रुश्चेववाद, नक्सलवाद में क्या फर्क है। मार्क्सवाद-लेनिनवाद ही नहीं, इन तमाम वादों का अधकचरा ज्ञान इन्हें ले डूबा। जबकि सच तो यह है कि जिन कम्युनिष्ट पार्टियों ने अपने नाम के साथ मार्क्सवाद या लेनिनवाद जोड़ रखा है, वह दुनिया को बेवकूफ बनाने के लिए भर है।
मार्क्सवाद या लेनिनवाद से उतना ही नाता है जितना दक्षिण पंथियों का मार्क्सवाद और लेनिनवाद से। दरअसल, अगर दुनिया के सभी दार्शनिक विचारकों को ठीक से पढ़े, तो मार्क्सवादी दर्शन दुनिया का सबसे मानववादी दर्शन है। दुनिया के सभी विचारकों ने अपने दर्शन में दुख क्या है इसकी व्याख्या की। मार्क्स पहले विचारक थे जिन्होंने दुख क्यों है? इसकी व्याख्या की। दुनिया भर के दार्शनिक जो सिर के बल दुनिया को देख रहे थे, उन्हें कार्ल मार्क्स ने पैरों के बल खड़ा कर दिया। लेनिन ने सिर्फ इतना किया कि मार्क्सवाद को आत्मसात कर उसके उपयोग की कला विकसित की। मार्क्सवाद दर्शन को वैज्ञानिक तरीके से समाज पर लागू करने की कला लेनिनवाद है। लेनिनवाद के बिना मार्क्सवाद अधूरा है, तो मार्क्सवाद के बिना लेनिनवाद का कोई मतलब नहीं है।
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