अशोक मिश्र
अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन के बाद क्रांतिकारियों (मुख्यत: अनुशीलन समिति के क्रांतिकारियों) को पहले लगा कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का उपयोग क्रांतिकारी नवयुवकों को राष्ट्रीय जनतांत्रिक क्रांति के पक्ष में संगठित करने में किया जा सकेगा। कालांतर में उनकी यह योजना ध्वस्त हो गई क्योंकि यह संगठन भी कांग्रेस का ही उप संगठन यानि गांधीवादी कांग्रेसियों की दूसरी पंक्ति ही साबित हुई। इन्हीं दिनों कांग्रेस में विप्लवी राष्ट्रवादी नेताजी सुभाष चंद्र बोस का प्रभाव बढ़ रहा था।
विप्लवी राष्ट्रवादी नेता जी सुभाष चंद्र बोस का मानना था कि स्वाधीनता राष्ट्रीय जनतांत्रिक क्रांति द्वारा ही हासिल की जा सकती है। यह तभी संभव है, जब देश की जनता इसके लिए संगठित और तैयार हो। यही वजह है कि कांग्रेस में और कांग्रेस से बाहर सक्रिय अनुशीलन समिति के शीर्ष नेताओं का पूर्ण समर्थन और सहयोग नेताजी को प्राप्त था। वे नेताजी को आगे करके अपने कार्यों को अंजाम दे रहे थे। अपनी कार्यनीतियों को लागू करने का प्रयास कर रहे थे। वर्ष 1938 में हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में जब सुभाष बाबू अध्यक्ष चुने गए, तो अनुशीलन समिति ने सुभाष बाबू को आगे करके मजदूरों, किसानों, छात्रों और युवाओं का संगठन खड़ा करके उन्हें मार्क्सवाद और लेनिनवाद के दर्शन और सिद्धांतों से लैस करने में जुट गए।
हरिपुरा कांग्रेस में सुभाष बाबू के अध्यक्ष चुने जाने के बाद महात्मा गांधी समझ गए कि यदि सुभाष बाबू के बढ़ते प्रभाव को रोका नहीं गया, तो कांग्रेस क्रांतिकारियों के हाथ में चला जाएगा या फिर उनका प्रभाव कम हो जाएगा। सुभाष बाबू की कार्यशैली उन्हें पसंद नहीं आ रही थी। उन्हीं दिनों अनुशीलन समिति के शीर्ष नेताओं में से एक केशव प्रसाद शर्मा के क्रांतिकारी प्रयासों से बाराबंकी के हड़हा और लखनऊ के कान्य कुब्ज कालेज में एक-एक महीने के प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए गए। हड़हा (बाराबंकी) शिविर का उद्घाटन कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने किया। यह देखकर महात्मा गांधी, गांधी भक्त कांग्रेसी नेताओं के हाथों के तोते उड़ गए।
वे समझ गए कि यदि कुछ किया नहीं गया, तो कांग्रेस से उन्हें हाथ धोना पड़ेगा। यही वजह है कि अगले वर्ष 1939 में त्रिपुरा अधिवेशन में जब सुभाष बाबू ने चुनाव लड़ने का फैसला किया, तो महात्मा गांधी खुलकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सामने आ खड़े हुए और उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार घोषित किया। हालांकि अधिवेशन के समय सुभाष बाबू बहुत बीमार थे। उन्हें स्ट्रेचर पर लादकर अधिवेशन में लाया गया। गांधी भक्त कांग्रेसी नेताओं को लगता था कि महात्मा गांधी के विरोध के बाद सुभाष बाबू चुनाव हार जाएंगे। लेकिन जब चुनाव परिणाम आया, तो पता चला कि महात्मा गांधी के लाख विरोध के बावजूद सुभाष बाबू को 1580 मत मिले थे। महात्मा गांधी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैय्या को 1377 मत हासिल हुए थे। 203 मतों से सुभाष बाबू कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव जीत गए थे। तब इस पर महात्मा गांधी ने बयान देते हुए कहा था, यह सीता रमैय्या की हार नहीं मेरी हार है।
इसके बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ महात्मा गांधी ने एक और चाल चली। उन्होंने कांग्रेस कार्यकारिणी सदस्यों से कहा कि जो नेताजी के कार्य करने के तौर तरीकों से सहमत नहीं हैं, वे कांग्रेस से हट सकते हैं। नतीजा यह हुआ कि चौदह सदस्यीय कार्यकारिणी में से बारह सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। जवाहर लाल नेहरू तटस्थ रहे। केवल नेताजी के बड़े भाई शरद कुमार बोस (शरद बाबू) उनके साथ रहे। इतना ही नहीं, गांधी भक्त गोविंद बल्लभ पंत ने सम्मेलन में एक प्रस्ताव रखा कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस कार्यकारिणी का चुनाव गांधी जी की सहमति के बिना न करें। (मालूम हो कि उस समय महात्मा गांधी कांग्रेस के साधारण सदस्य तक नहीं थे।)
यह सीधा सीधा नेताजी सुभाष चंद्र बोस और कांग्रेस के संविधान के खिलाफ था। इतिहास में इस प्रस्ताव को पंत प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है। उन दिनों स्टालिन पंथी कम्युनिष्ट सुभाष बाबू और क्रांतिकारियों के खिलाफ थे। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के जय प्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे कथित समाजवादियों ने महात्मा गांधी का ही साथ दिया और वे पंत प्रस्ताव मामले में तटस्थ बने रहे। नतीजा यह हुआ कि जयप्रकाश और लोहिया के विश्वासघात के कारण नेता जी सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ लाया गया पंत प्रस्ताव पारित हो गया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफे के कुछ ही महीने के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस और स्वामी सहजानंद सरस्वती कांग्रेस से निष्कासित कर दिए गए और कांग्रेसियों के मजदूरों, किसानों और छात्रों के संगठनों और आंदोलन में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
इसके अगले वर्ष जब कांग्रेस का रामगढ़ बिहार (अब झारखंड में) में अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में गांधी और उनके भक्त भारतीय पूंजीपतियों के व्यावसायिक हितों की पूर्ति के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अधिक से अधिक सुविधाएं हासिल करने के लिए ब्रिटिश हुकूमत पर समझौते के लिए दबाव डालने लगे थे। तब अनुशीलन समिति के शीर्ष नेताओं ने कांग्रेस के अधिवेशन स्थल के ठीक सामने समझौता विरोधी अधिवेशन आयोजित किया। यह समझौता विरोधी सम्मेलन नेताजी सुभाष चंद्र बोस और स्वामी सहजानंद सरस्वती के संयोजकत्व में आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में अनुशीलन समिति और एचएसआरए के शीर्ष नेताओं ने भाग लिया। योगेश चंद्र चटर्जी, केशव प्रसाद शर्मा जैसे क्रांतिकारियों ने भाग लिया।
स्वामी सहजानंद सरस्वती और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के समर्थक भी इसमें भाग लेने आए थे। इसी सम्मेलन में 19 मार्च 1940 को आरएसपीआई का गठन किया। प्रख्यात क्रांतिकारी योगेश चंद्र चटर्जी इसके महामंत्री बनाए गए। मालूम हो कि 19 मार्च 1940 से पहले ही अनुशीलन समिति और एचएसआरए के शीर्ष नेताओं को ब्रिटिश हुकूमत गिरफ्तार कर चुकी थी। जो नेता बचे थे, उन्हें रामगढ़ समझौता विरोधी सम्मेलन के बाद लौटते समय या कुछ दिनों बाद गिरफ्तार कर लिया गया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, स्वामी सहजानंद सरस्वती, योगेश चंद्र चटर्जी और केशव प्रसाद शर्मा आदि क्रांतिकारी विभिन्न जगहों और विभिन्न तिथियों में पकड़कर जेल में डाल दिए गए। एक बात और कहना चाहता हूं कि जब रामगढ़ में आरएसपीआई गठन किया गया, तो सुभाष बाबू ने फारवर्ड ब्लाक का आरएसपीआई में विलय का प्रस्ताव रखा था, लेकिन अनुशीलन समिति के अधिकांश सदस्यों ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। इसका कारण यह था कि फारवर्ड ब्लाक के लक्ष्य स्पष्ट नहीं थे। वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक क्रांति द्वारा देश को स्वाधीन करना चाहते थे, लेकिन आजादी के बाद क्या होगा? इस संबंध में नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनके फारवर्ड ब्लाक के साथी बहुत स्पष्ट नहीं थे।
(समाप्त)
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