Thursday, August 21, 2025

ग़ांधी जी और माओ के बीच समानताएं

 आनंद प्रकाश मिश्र  

गांधी जी ने समाज के वर्गों में विभाजित होने और वर्ग संघर्ष की मार्क्सवादी व्याख्या को अस्वीकार करते हुए राज्य के ट्रस्टीशिप का फार्मूला पेश किया था, जिसमें पूंजीपति राज्य रूपी घर के मुखिया की भूमिका में होता है और यह परिवार के सदस्यों मजदूरों-किसानों आदि की भलाई और पालन-पोषण करता है। राज्य ट्रस्टी की भूमिका निभाता है। माओ वर्ग और वर्ग-संघर्ष की बात तो करते हैं, किंतु व्यवहार में गांधी जी के बेहद करीब खड़े होते हैं। उनके  न्यू पीपुल्स रिपब्लिक में चार वर्गों-राष्ट्रीय पूंजीपति, देशभक्त बुद्धिजीवी, किसान और श्रमजीवी की संयुक्त सत्ता होती है! उनके श्रमजीवी का अर्थ औद्योगिक सर्वहारा नहीं, खेतिहर मजदूर है। 

20, सितम्बर 1954 को लागू किए गए संविधान में चार वर्गों की इस संयुक्त सत्ता के माध्यम से शान्तिपूर्ण ढंग से (सर्वहारा क्रांति की अनिवार्यता से इंकार) समाजवाद लाने की गारंटी दी गई है अर्थात् वर्ग संघर्ष की जगह वर्ग सहयोग से समाजवाद !  यह मार्क्सवाद -लेनिनवाद के प्रतिकूल और गांधी जी के ट्रस्टीशिप के नजदीक है। मार्क्स-लेनिन के अनुसार राज्य एक वर्ग का दूसरे वर्ग के दमन का अस्त्र होता है। बहुवर्गीय राज्य की बात सत्य पर पर्दा डालने जैसा है। आगे चलकर इसी क्रम में 1957 में माओ ने '"सभी फूल एक साथ खिलने दो " का नारा दिया जो गांधीवाद  की मूल आत्मा- 'सब का उदय' का ही दूसरा रूप है।

गांधी जी व्यक्तिगत स्वामित्व को पवित्रतम वस्तु मानते थे और उसकी सुरक्षा में पूरी तरह कटिबद्ध रहे। माओ ने भी व्यक्तिगत सम्पत्ति को सुरक्षित बनाए रखने का ही प्रयास किया। इसीलिए 1954 के चीनी संविधान के अनुच्छेद 8 से 12 तक में व्यक्तिगत सम्पत्ति को वैधानिक सुरक्षा दी गई, जबकि मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में ही लिख दिया था कि  कम्युनिस्टों (सच्चे साम्यवादियों) के लक्ष्य को एक वाक्य में कहा जाए तो वह है -व्यक्तिगत स्वामित्व का उन्मूलन ! गांधी जी को श्रेय है कि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यशाही की औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त कर भारतीय पूंजीवाद का स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करने में राजनीतिक सफलता प्राप्त की। 

यह सफलता उन्होंने राष्ट्रीय जन-क्रांति की पीठ में छूरा भोंक कर प्राप्त की। वहीं माओ  ने भी 1911 में  डॉ. सन्यात सेन के नेतृत्व में हुई राष्ट्रीय जनतांत्रिक क्रांति के बाद चीनी पूंजीवाद के विकास हेतु अवशेष सामंती अवरोधों, जापानी और ब्रिटिश साम्राज्यवादी पूँजी  के विरुद्ध कथित नवजनवादी क्रांति सम्पन्न की और समाजवादी क्रांति की पीठ में छूरा भोंक कर चीनी राष्ट्रीय पूंजीवाद का मार्ग प्रशस्त किया। जो काम गांधी ने सत्य-अहिंसा और राम राज्य की चादर  ओढ़ कर की, वही काम माओ ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद और समाजवाद का बैनर टांग कर किया। 

इस तरह गांधी जी और माओ दोनों समान रूप से अपने पूंजीवादी मध्यमवर्गीय वर्ग सहयोगवादी सिद्धांतों के सहारे मरणासन्न विश्व पूंजीवाद के प्रबल सुरक्षा गार्ड बने। पूंजीवादी मध्यम वर्गीय वर्ग सहयोगवादी स्तालिनवाद--ट्राटस्कीवाद के साथ गांधीवाद-माओवाद भी मरणासन्न विश्व पूंजीवाद का प्रथम रक्षा कवच बना और आज भी बना हुआ है।

जहांं तक माओ के कथित सांस्कृतिक क्रांति की बात है, वह किसी भी प्रकार की कोई क्रांति थी ही नहीं, बल्कि पार्टी व शासन में अपने प्रभुत्व व नियंत्रण को बनाए रखने के लिए विरोधियों के विरुद्ध की गई दमनात्मक कार्रवाई मात्र थी। उसका आर्थिक ढॉंचेे सेे कोई संबंध न था।

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