अशोक मिश्र
हां तो कल बात स्वाधीनता संग्राम में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अनुशीलन समिति तक आ पहुंची थी। मैंने कल ही बताया था कि बंगाल से बाहर अनुशीलन समिति ने किसी भी क्रांतिकारी गतिविधि को अपने मंच या अपने नाम से अंजाम नहीं दिया था। अनुशीलन समिति ने अपने अनुषांगिक संगठन जरूर बंगाल से बाहर खड़े किए थे और उनमें अनुशीलन समिति के संस्थापक, उसके प्रमुख सदस्यों ने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं। हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के गठन से पहले उसकी भौतिक वस्तु परिस्थितियों के बारे में विचार कर लिया जाए, तो बेहतर होगा। आप याद करें, सन 1920 तक आते-आते अंग्रेजों से सुधार की आकांक्षी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में मोहनदास करमचंद गांधी का प्रभाव काफी हद तक बढ़ चुका था।
कांग्रेस के चवन्निहा मेंबर न होते हुए भी कांग्रेस पर गांधी का पूरा प्रभाव कायम हो चुका था। उन्होंने सन 1920 आते-आते पूरे देश में अहिंसा आंदोलन छेड़ रखा था। भारतीय जनता गांधी के अहिंसा आंदोलन और असहयोग आंदोलन के मोहपाश में बंध चुकी थी। गांधी ने भारतीय राजनीति में प्रवेश करने के साथ ही एक नई किस्म की धारा प्रवाहित कर दी थी। क्रांतिकारी सशस्त्र संघर्ष करके अपने देश को आजाद कराना चाहते थे। संगठन खड़ा करने के लिए जरूरत पड़ने पर अंग्रेजों, अंग्रेज भक्त जमींदारों और सरकारी खजाने को भी लूटने और नितांत आवश्यकता होने पर अंग्रेजों की हत्या करने तक से परहेज नहीं करते थे या कहिए कि उन्हें इससे इनकार भी नहीं था। गांधी की नई नीति अहिंसा और असहयोग ने क्रांतिकारियों की राह में रोड़े अटकाने शुरू कर दिए।
गांधी क्रांतिकारियों को नहीं पसंद करते थे और क्रांतिकारी गांधीवादी नीतियों को देश हित में नहीं समझते थे। अब आप समझते होंगे कि गांधी की अहिंसा और महात्मा बुद्ध की अहिंसा में कोई फर्क नहीं है, तो मैं अपनी समझ के अनुसार कहना चाहता हूं कि गांधी और महात्मा बुद्ध की अहिंसा में जमीन आसमान का अंतर था। आप याद करें कि सत्य के प्रयोग में खुद मोहनदास करमचंद गांधी और भारतीय इतिहासकारों ने गांधी की अहिंसा के बारे में क्या लिखा है।
मोहनदास करमचंद गांधी अपने प्रवचन और कार्यक्रमों में अक्सर कहा करते थे कि हम अंग्रेजों के खिलाफ हिंसा नहीं करेंगे। अगर वे हमें कोड़े मारते हैं, लात मारते हैं या मारते-मारते हत्या कर देते हैं, तो भी हम न हाथ उठाएंगे और न पीछे हटेंगे। हमारे त्याग और बलिदान से कभी न कभी तो अंग्रेजों का दिल पिघलेगा। वे हमारे खिलाफ हिंसा करने से बाज आएंगे। गांधी की अहिंसा जहां तक मैं समझता हूं कि लियो टालस्टाय की प्रसिद्ध रचना ‘वार एंड पीस’ से ली गई थी। करीब तीस-बत्तीस साल पहले वार एंड पीस का हिंदी संस्करण लखनऊ में पढ़ा था। अब तो कथा भी पूरी तरह से याद नहीं है। यह पुस्तक भइया लाए थे या बाबू जी, कह नहीं सकता।
मक्सिम गोर्की की विश्व प्रसिद्ध रचना मां के दोनों खंड भी तभी पढ़े थे। हां, उसके कुछ सालों बाद जान रीड की ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ भी पढ़ने को मिली। तो बात हो रही थी महात्मा गांधी के अहिंसा की। गांधी की अहिंसा ईसा मसीह की उस प्रसिद्ध उक्ति से कितनी मिलती-जुलती है, इस पर थोड़ा मंथन करने से ही समझ में आ जाती है। ईसा मसीह ने कहा था कि यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे, तो दूसरा गाल आगे कर दो। आप गांधी के राजनीतिक आचरण, उनके कार्यक्रम और विचारों को पढ़ें और उसके बाद ईसा मसीह की इस प्रसिद्ध उक्ति से मिलान करें, तो सब कुछ साफ हो जाता है।
हंसराज रहबर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गांधी बेनकाब’ में एक जगह लिखा है कि बैरिस्टरी पढ़ने के दौरान गांधी ने अंग्रेजी सभ्यता और संस्कृति में पारंगत होने के लिए बाकायदा अंग्रेजी नृत्य सीखा, भाषा सीखी, अंग्रेजों का रहन-सहन अपनाया और अंग्रेजों की तरह रिदम में ‘गॉड सेव द क्वीन’ राष्ट्रगान सीखने के लिए क्लास भी अटेंड किया था। हंसराज रहबर लिखते हैं कि बैरिस्टरी पढ़ने के दौरान मोहनदास करमचंद गांधी ने ईसाई धर्म अपना लिया होता, लेकिन एक विचार या कहिए कि भारतीय दर्शन का एक हिस्सा आड़े आ गया।
ईसाई दर्शन मानता है कि केवल इंसानों में आत्मा होती है और भारतीय दर्शन से प्रभावित मोहनदास करमचंद गांधी मानते थे कि सभी जीवों में आत्मा होती है। गांधी के पूरे व्यक्तित्व और कृतित्व पर सामंती समाज की प्रतिछाया हावी रही। वह अपने एक अत्यंत गरीब पट्टीदार का अपने लेखन में उल्लेख तक नहीं करते, लेकिन उन्होंने अपने एक बाबा या बाबा के भाई, जो गुजरात के एक रियासत में दीवान थे, इसका उल्लेख कई जगह बड़े गर्व से किया है। गांधी की अहिंसा यह थी कि अगर शासक हिंसा करता है, तो करे, लेकिन हम हिंसा नहीं करेंगे।
वहीं महात्मा बुद्ध की अहिंसा, वह अतुलनीय थी। वह मानते थे कि अगर शासक हिंसा न करे, तो जनता कभी हिंसा नहीं करती है। आम जनता जो भी हिंसा करती हुई दिखती है या करती है, उसका मूल कारण शासकीय हिंसा ही होती है। यही वजह है कि वह राजाओं को अहिंसक बनाने गए। खुद लिच्छवी गणराज्य के प्रभावशाली शासक के पुत्र होने के बावजूद राजपाट छोड़कर दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाने निकल पड़े थे। महात्मा बुद्ध की अहिंसा के पासांग भी नहीं ठहरती है गांधी की अहिंसा।
No comments:
Post a Comment