अशोक मिश्र
पिछले महीने 11 जुलाई को हिसार के करतार मेमोरियल सीनियर सेकेंडरी स्कूल के प्रिंसिपल जगबीर सिंह की उनके ही चार नाबालिग छात्रों ने चाकू मारकर हत्या कर दी। प्रिंसिपल का अपराध इतना था कि उन्होंने इन छात्रों से बेढंगे तरीके से रखे गए बालों को कटवाने और स्कूल में अनुशासन में रहने को कहा था। यह बात इन चारों नाबालिग छात्रों को बहुत नागवार गुजरी थी। नागवार गुजरना ही था। अगर छात्रों की शरारत पर अध्यापक उन्हें डांट दे, तो माता-पिता को बहुत बुरा लगता है कि उनके लाडले को डांटने की हिम्मत कैसे की टीचर ने। इतनी मोटी-मोटी फीस क्या अपने बच्चों को डांटने के लिए देते हैं। स्कूल में बच्चों को पीटने पर तो अब रोक ही लगा दी गई है।
जब मैं यह सुनता हूं कि स्कूल में बच्चा चाहे जितनी शरारत करे, न खुद पढ़े और न दूसरों को पढ़ने दे, तो भी टीचर बच्चों को शारीरिक दंड नहीं दे सकते हैं, तो मुझे अपना बचपन याद आ जाता है। जब जरा सी खुराफात करने पर हम बच्चे पिट जाया करते थे। हमारी क्लास टीचर सुरेंद्र कौर तो हाथ में लकड़ी की बड़ी सी स्केल लेकर चलती थीं। कोई भी क्लास से बाहर घूमता या खेलता दिखा, तो पिटाई निश्चित थी। मैं तो अपनी शरारत के चलते लगभग रोज पीटा जाता था। घर पर शिकायत पहुंचने पर भइया भी अच्छी तरह से खातिरदारी करते थे। इसका यह मतलब नहीं था कि हमारे दौर के टीचर क्रूर थे। उन्हें बच्चों से प्रेम नहीं था। भइया हमें जानबूझकर पीटते थे। ऐसा कुछ भी नहीं था। यह वह पीढ़ी थी जो मानती थी कि अनुशासन जीवन संवारता है। अनुशासन का अभ्यास अगर बचपन से ही कराया जाए, तो बच्चा आगे चलकर अहंकारी, अनुशासनहीन और असामाजिक नहीं बनेगा। इसके लिए अगर थोड़ी सी सजा भी देनी पड़े, तो कोई अपराध नहीं है। यदि आज कोई टीचर किसी बच्चे को थोड़ा सा भी पीट दे, तो उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज हो जाता है। ऐसी स्थिति में ज्यादातर शिक्षक यही सोचकर कुछ नहीं कहते हैं कि कौन मुसीबत मोल ले। बच्चे को कुछ बनना है, तो बने, बिगड़ना है, बिगड़े, उनकी बला से।
रामचंद्र भी यही मानते थे कि भय बिनु होई न प्रीत। यदि बच्चों को अनुशासन में रखना है, उनका ध्यान पढ़ाई की ओर लगाना है, तो उनके चारों ओर एक बाउंड्री खड़ी करनी होगी। और वह बाउंड्री है भय की। यह भय उन्हें डराता नहीं है, रात को सोते समय चौंकाता नहीं है। लेकिन उन्हें हर गलत काम करते समय यह एहसास जरूर कराता है कि टीचर को पता चल गया, पीठ पर एक थपकी, गाल पर एक चांटा या हाथ पर एक छड़ी जरूर पड़ेगी। यह भय, यह अनुशासन उन्हें गलत करने से रोकता था। किसी बच्चे के गाल पर पड़ा एक चांटा, पीठ पर थपकी या हाथ पर लगी छड़ी उसके मन के अहम पर चोट करती थी। जब वह दूसरों को भी पिटते हुए देखता था, तो वह अपने साथियों में एक साम्यता महसूस करता था।
ऐसी स्थिति में उसका ‘अहं’ उभरने नहीं पाता था। कबीरदास बहुत पहले कह गए हैं कि गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट। अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहे चोट। कुछ विकृति मनोवृत्ति वाले अध्यापकों को छोड़कर किसी को अपने शिष्यों को पीटने या सजा देने में मजा नहीं आता है। वह तो अपने शिष्य की भलाई के लिए ही दंडित करता है। उसमें उसका क्या स्वार्थ है?
लेकिन आज हालात बदल गए हैं। मानवाधिकार और बच्चों के मां-पिता की मांग पर स्कूलों में किसी बच्चे को दंडित करने पर रोक लगा दी गई है। शरारत करने पर आप मौखिक रूप से डांट सकते हैं, लेकिन उसे छू नहीं सकते हैं। आप कल्पना कीजिए, कोई शरारती बच्चा पूरी क्लास को डिस्टर्ब कर रहा है, टीचर बार-बार उस बच्चे से अनुशासन में रहने को कह रहा है, लेकिन बच्चा मान नहीं रहा है। ऐसी स्थिति में टीचर क्या करेगा? उसे गुस्सा तो आएगा ही। पूरी क्लास के बच्चों की पढ़ाई का मामला है, लेकिन वह अपने भविष्य की सोचकर चुप रह जाएगा। कुछ नहीं बोलेगा, क्योंकि उसे नौकरी जो बचानी है।
No comments:
Post a Comment