Saturday, August 16, 2025

विशाल भारत के अंग-भंग ने ली थी लाखों लोगों की बलि

 अशोक मिश्र

अगर 14 अगस्त को भारत के संदर्भ में अंग-भंग दिवस के रूप में याद किया जाए, तो शायद गलत नहीं होगा। आज के ही दिन 14 अगस्त 1947 को विशाल भारत को काटकर दो हिस्सों में तब्दील कर दिया गया था। इसका परिणाम भी दोनों हिस्सों के लिए दुखद ही रहा था। भारत विभाजन यानी भारत के अंग-भंग होने के बाद लाखों लोग सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ गए थे। मनुष्य के रूप में दानव हिंसा, हैवानियत और सांप्रदायिकता का नंगा कर रहे थे। इधर भी और उधर भी। कोई पाक साफ नहीं था। लेकिन यह भी सच है कि इंसान के रूप में दानव चंद मुट्ठी भर लोग ही बने थे, लेकिन इन लोगों ने असहाय, निरीह और निर्दोष जनता को ऐसे-ऐसे घाव दिए थे कि इंसानियत कांप उठी थी। मानवता त्राहि-त्राहि कर उठी थी।

 भारत और पाकिस्तान में कौन किससे बिछड़ा, किसका घर तबाह हुआ, किसके साथ बलात्कार हुआ, कितने लोगों ने बलात्कार किया, किसके स्तन काटे गए, किसका बेटा मारा गया, किसका पति लौट कर नहीं आया, इन सब बातों का कोई हिसाब न तब था और न अब उनहत्तर सालों बाद हो सकता है। बीसवीं सदी का ही नहीं, शायद मानव समाज के इतिहास का सबसे बड़ा पलायन हुआ था भारत-पाक बंटवारे के समय। विशाल भारत के अंग भंग दिवस के बाद। उन दिनों को आधार बनाकर रचे गए साहित्य इसकी विभीषिका को दर्शाते हैं। वैसे तो भीष्म साहनी का तमस, यशपाल का झूठा सच, अमृता प्रीतम का पिंजर, खुशवंत सिंह का ट्रेन टू पाकिस्तान और कमलेश्वर का कितने पाकिस्तान जैसे न जाने कितने साहित्य उस विभीषिका को लेकर रचे गए। इन सबमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली और मार्मिक चित्रण सहादत हसन मंटों ने अपने साहित्य में किया है। टोबा टेक सिंह और खोल दो जैसी कहानियां पढ़कर आज भी हिंसा, कामुकता और सांप्रदायिक सोच के प्रति घृणा पैदा होती है।

वैसे तो 14-15 अगस्त 1947 से  काफी पहले ही भारत में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी थी, लेकिन भारत का अंग-भंग होने के बाद तो जैसे हिंसा का तांडव खुलेआम होने लगा था। महात्मा गांधी की अपील भी बेअसर साबित हो रही थी। दोनों तरफ लगी हिंसा की आग को बुझाने दोनों ओर के नेता लगे हुए थे, लेकिन यह आग थी कि और भड़कती जा रही थी। हिंसा, प्रतिहिंसा और कामुकता की आग को दोनों ओर के नए-नए शासक बने नेता इसलिए भी नहीं रोक पा रहे थे क्योंकि इन्हीं लोगों की राजनीतिक इच्छाओं की बलिवेदी पर विशाल भारत चढ़ गया था। स्वतंत्रता के बाद सत्ता पर काबिज होने की अदमनीय लालसा की भेंट दोनों ओर की करोड़ों जनता चढ़ गई थी।

द्विराष्ट्र की थ्योरी को जन्म देने वाले लोग आजादी के नाम पर जश्न मना रहे थे। शांति का पाठ पढ़ा रहे थे। लोगों को गरीबी, बेकारी, भुखमरी से निजात मिलने के सपने दिखा रहे थे। भारत और पाकिस्तान में नित नई घोषणाएं की जा रही थीं, लेकिन जनमानस में ही छिपे चंद भेड़िये अपना शिकार करने में लगे हुए थे। भारत विभाजन जैसी आपदा में भी वे अवसर खोजने से बाज नहीं आ रहे थे। शरणार्थी शिविरों में खुलेआम बलात्कार हो रहे थे, लोग दवा, पानी और भोजन के अभाव में मर रहे थे, लेकिन सत्ताधीश आजादी के नारे लगा रहे थे। मानवता लहूलुहान पड़ी कराह रही थी।

कहा जाता है कि भारत विभाजन से पहले और उसके काफी बाद दोनों ओर से लाखों लोग मारे गए थे। करोड़ों लोगों को अपनी जमीन जायदाद, घर-दुकान छोड़कर इधर से उधर और उधर से इधर आना पड़ा था। मानव समाज के इतिहास के सबसे बड़े इस विस्थापन की पीड़ा कई दशकों तक लोगों के दिलोदिमाग को सर्पदंश की तरह पीड़ित करती रही। अपने घर से उजड़े लोग बाद में स्थिर नहीं हो पाए। वह आजीवन चैन की नींद नहीं सो पाए। उनकी बाद की पीढ़ी ने भी अपने पूर्वजों की उस विभीषिका को शायद भुला दिया।

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