Thursday, August 7, 2025

स्त्रियों के लिए हिंदुस्तान तो जा नहीं रहा हूं मैं: विष्णुभट्ट गोडसे


 बस यों ही बैठे ठाले---14-------रचनाकाल 18 जुलाई 2020

अशोक मिश्र

हां, बात हो रही थी ग्लालियर की रानी या महारानी बायजा बाई साहब मथुरा में सर्वतोमुख यज्ञ करवाना चाहती थीं और उसमें विद्वानों, पंड़ितों और पुरोहितों के बीच सात-आठ लाख रुपये बांटने वाली थीं। तो भइया, यही बात माझा प्रवास के लिखे जाने का कारण बनी। विष्णुभट्ट गोडसे ने सोचा कि यदि किसी तरह इस यज्ञ में भाग लेने का मौका मिल जाए, तो सौ-पचास रुपये दान-दक्षिणा में मिल ही जाएंगे। लेकिन वह यह बात अपने पिता बालकृष्ण पंत या अपनी पत्नी से कैसे बताते। इसके लिए उन्होंने एक युक्ति निकाली। उन्होंने ग्वालियर में दानशाला के अध्यक्ष बाल कृष्ण भट्ट वैशम्पायन को अपने पिता बालकृष्ण पंत की तरफ से पत्र लिखा और यज्ञ में आने की इच्छा जाहिर की। संयोग से कुछ ही दिन बाद वैशम्पायन का जवाबी पत्र भी आ गया।
अब यह बात विष्णुभट्ट अपने पिता को कैसे बताएं, इसके लिए कुछ दिन तक माथा पच्ची करते रहे। ग्वालियर के दानाध्यक्ष बालकृष्ण भट्ट वैशम्पायन एक तो गोड्से परिवार के संबंधी थे और उनकी कन्या का विवाह पेशवों के कुल गुरु और वरसई के इनामदार कर्वे के यहां हुआ था। वैशम्पायन ने इनामदार कर्वे को भी सपरिवार आने का न्यौता भेजा था। न्यौते में उन्होंने यह बात भी लिखी कि आते समय बालकृष्ण पंत के चिरंजीव को भी साथ लेते आएं, उससे मेल मुलाकात हो जाएगी।
कर्वे ने यह पत्र विष्णुभट्ट के पिता को भी दिखाया, लेकिन वे उसे हिंदुस्तान भेजने को तैयार नहीं हुए। विष्णुभट्ट यह सुनकर बहुत मायूस हुए। उन्होंने अपने छोटे भाई हरिपंत को पेण से बुलाया और उससे सारी बात बताई। यह बात जब विष्णुभट्ट के काका राम भट्ट के कानों तक पहुंची, तो एक दिन वे अपने बड़े भाई के घर आए और बोले कि भइया, मेरा अब बुढ़ापा आ गया है। लड़का इस काबिल अभी है नहीं कि वह कुछ कमाए खाएगा। मेरे ऊपर कुछ कर्ज हो गया है और मैं यह कर्ज अपने जीते जी उतार देना चाहता हूं। इसके लिए मैं सर्वतोमुख यज्ञ में जाने की अनुमति चाहता हूं।
हालांकि जिस समय की यह घटना है, उससे बहुत पहले दोनों भाइयों में संपत्ति का बंटवारा हो चुका था। दोनों के परिवार अलग-अलग रहते थे, लेकिन उनमें आपसी मन मुटाव या वैरभाव नहीं था। वह महत्वपूर्ण कार्यों में अपने बड़े भाई की सलाह जरूर लेते थे और बड़े भाई का फैसला ही उनके लिए मान्य होता था। तो रामभट्ट के बड़े भाई बालकृष्ण पंत ने अपनी दुश्चिंता जाहिर की कि हिंदुस्तान बड़ी दूर है। (तब शायद महाराष्ट्र के लोग अपने प्रांत को छोड़कर बाकी सारे प्रांतों को हिंदुस्तान ही कहते थे।) जाने का रास्ता बड़ा औघड़ और दंगे-धोखे का है। वहां के लोग भांग पीते हैं और स्त्रियां बड़ी मायाविनी होती हैं। इन सब कारणों से मेरी यह इच्छा नहीं होती कि तू हिंदुस्तान जाए।
विष्णुभट्ट ने अपने पिता को समझाया कि मैं स्त्रियों के लिए हिंदुस्तान तो जा नहीं रहा हूं। मैं शपथपूर्वक कहता हूं कि मैं भांग नहीं पियूंगा। और फिर काका भी तो साथ चल रहे हैं। मैं उनकी और अपनी सेहत का ख्याल रखूंगा। इतना पैसा परदेश गए बिना मिलना मुश्किल है। और फिर ग्वालियर से आए पत्र में यज्ञ में भाग लेने का न्यौता भी दिया गया है, इसलिए मेरा वहां जाना सर्वथा उचित है।
तो आप लोगों की समझ में यह बात आ गई होगी कि विष्णुभट्ट ने अपने परिवार के कर्जे चुकाने के लिए महाराष्ट्र के वरसई गांव से ग्वालियर तक की यात्रा की। उनके साथ उनके काका राम भट्ट और छोटा भाई हरिपंत था। वे वरसई गांव के इनामदार कर्वे की गाड़ी का एक हिस्सा किराये पर ले लिया और निकल पड़े। निकलने से पहले उन्हें अपनी माता और पत्नी को समझाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी।
जब वे वरसई गांव से निकल थे तब गर्मी के दिन (मई या जून) थे और उन्होंने अपने परिवार से वायदा किया था कि अगहन-पूस तक लौट आऊंगा। इसके बाद जैसे ही वे महाराष्ट्र की सीमा से बाहर आए, तो उनको अट्ठारह सौ सत्तावन के गदर की झलकियां मिलनी शुरू हो गई। इस पूरी यात्रा के दौरान उन्होंने ग्वालियर, कानपुर, लखनऊ, झांसी, कालपी और मध्य हिंदुस्तान में चलने वाली सैनिक विद्रोह की घटनाओं को अपनी आंखों से देखा। कई बार वे जब विद्रोहियों और अंग्रेजों के बीच फंस गए तो उन्होंने किस तरह चिरौरी-मिनती करके अपनी जान बचाई।
इसका भी उल्लेख माझा प्रवास में हैं। उनकी किताब में जिस-जिस घटना से वे रूबरू हुए, उसका विशद वर्णन किया है। विष्णुभट्ट गोड्से की किताब माझा प्रवास की सबसे बड़ी खासियत यह है कि उन्होंने जो कुछ भी देखा, सुना, समझा, उसको ज्यों का त्यों अपनी पुस्तक में उतार दिया। वे निरपेक्ष भाव से सब कुछ लिखते चले गए। कई जगहों पर अपनी दीनता को भी बड़ी बेबाकी से उकेरा है। ऐसा लगता है कि सैनिक विद्रोह के दौरान अपने देखे-भोगे गए को ज्यों का त्यों उतारने के लिए उन्होंने पुस्तक लिखी है।

शुभ-अशुभ मन का वहम है देवि!

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

स्वामी विवेकानंद का वैसे तो वास्तविक नाम नरेंद्र नाथ दत्त था, लेकिन वह पूरी दुनिया में विवेकानंद के नाम से ही मशहूर हुए। स्वामी विवेकानंद वेदांत दर्शन के विख्यात आध्यात्मिक गुरु थे। उन्होंने सनातन धर्म के प्रचार प्रसार का हर संभव प्रयास किया, लेकिन उन्होंने पाखंड को कभी मान्यता नहीं दी। 

उनका मानना था कि पाखंड से धर्म में विकृति आती है। वे दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य सहित विषयों की पुस्तकों का बड़े उत्साह के साथ अध्ययन करते थे। वह नारी का बहुत सम्मान करते थे। हर स्त्री में उन्हें अपनी मां दिखाई देती थी। एक बार की बात है। 

स्वामी विवेकानंद के पास एक स्त्री आई और उसने कहा कि स्वामी जी! पता नहीं क्यों कल से ही मेरी दायीं आंख फड़क रही है। मेरे साथ कुछ अशुभ होने वाला है। आप मुझे कुछ ऐसा उपाय बताएं जिससे मेरे साथ होने वाला अशुभ न हो। स्वामी जी ने बड़े आदर के साथ उस महिला से कहा कि मेरी नजर में शुभ-अशुभ जैसी कोई बात नहीं होती है। यह सब मन का वहम है। दुनिया में हर समय कुछ न कुछ अच्छी-बुरी घटनाएं होती हैं जिन्हें लोग शुभ अशुभ मान लेते हैं। उस महिला ने कहा कि नहीं, ऐसा नहीं है। पिछले काफी दिनों से मेरे साथ अशुभ हो रहा है, जबकि मेरे पड़ोसी के यहां शुभ ही शुभ हो रहा है। 

यह सुनकर स्वामी विवेकानंद ने कहा कि यह आपका नजरिया है। यदि कोई घटना किसी के लिए शुभ है, तो दूसरे के लिए अशुभ हो सकती है। अब जैसे किसी कुम्हार ने कच्चे बर्तन बनाकर धूप में सूखने के लिए रख दिए। वह चाहता है कि धूप निकली रहे। वहीं किसान चाहता है कि खूब बारिश हो, ताकि उसकी खेती लहलहा उठे। अब धूप का निकलना कुम्हार के लिए शुभ और किसान के लिए अशुभ हो गया। यह सुनकर महिला ने कहा कि मैं समझ गई आपकी बात।

हरियाणा में लिंगानुपात सुधारने को ‘आपकी बेटी हमारी बेटी’ योजना

अशोक मिश्र

हरियाणा की सैनी सरकार ने एक नायाब फैसला लिया है। लड़कियों की जन्म दर बढ़ाने के लिए अब किन्नर समुदाय का सहयोग लिया जाएगा। इस योजना को यदि सफलतापूर्वक लागू कर दिया गया, तो उम्मीद है कि प्रदेश के लिंगानुपात में अवश्य सुधार होगा। किन्नर समुदाय भी इस मामले में अपनी भूमिका अदा करके समाज सुधार की दिशा में अपना सहयोग देने में गर्व महूसस करेगा। अभी तक लड़का पैदा होने पर किन्नर समुदाय के लोग घर में जाकर पारंपरिक रूप से नाच-गाकर बच्चे को आशीर्वाद देते थे और उस घर से अपना शगुन लेकर चले जाते थे। लेकिन अब किन्नर समुदाय के लोग अपने-अपने इलाके में बेटी पैदा होने वाले घर में जाएंगे, उस बेटी के नाम पर जीवन बीमा निगम की ओर से ‘आपकी बेटी हमारी बेटी’ योजना के तहत इक्कीस हजार रुपये का प्रमाणपत्र देंगे और पारंपरिक तरीके से नाच-गाकर बेटी को भी आशीर्वाद देंगे। 

इसके एवज में प्रदेश सरकार उन्हें ग्यारह सौ रुपये प्रदान करेगी। यदि बेटी का पिता या परिजन अपनी इच्छा से मिठाई आदि देना चाहें तो वह इसके लिए स्वतंत्र होंगे। वैसे तो प्रदेश सरकार लिंगानुपात सुधारने का हरसंभव प्रयास कर रही है। इसके लिए काफी श्रम और धन व्यय कर रही है, लेकिन कुछ जिलों में अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं। इसमें सबसे बड़ी बाधा तो लोगों की लड़की को लेकर पैदा होने वाली सोच है। लोग लड़की को बोझ समझते हैं। वह बेटी की पढ़ाई और उसके बाद विवाह पर होने वाले खर्च की बात सोचकर अपने घर में बेटी का जन्म नहीं चाहते हैं। ऊपर से वंश बेटा ही बढ़ाता है, जैसी मानसिकता ने कन्याभ्रूण हत्या को बढ़ावा दिया है। 

समाज की इस पिछड़ी सोच का फायदा हर जिले में अवैध रूप से खुले अस्पताल, क्लीनिक और भ्रूण की जांच करके लिंग बताने वाले समाज विरोधी डॉक्टर और उनके दलाल उठाते हैं। वह लिंग जांच करके कन्या भ्रूण हत्या जैसा पाप चंद पैसों की लालच में करते हैं। स्वास्थ्य विभाग, सीएम फ्लाइंग स्क्वाड और पुलिस के सहयोग से ऐसे तत्वों के खिलाफ अभियान चलते रहते हैं, लेकिन इसके बावजूद प्रदेश में कन्याभ्रूण हत्याएं हो रही हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। 

कन्याभ्रूण हत्या को रोकने के लिए प्रदेश सरकार ने सभी गर्भवती महिलाओं का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया है। इसके लाभ भी अब सामने आने लगे हैं। बिना पंजीकरण वाली गर्भवती महिलाओं को सरकारी और ज्यादातर निजी अस्पतालों में चिकित्सा सुविधा नहीं मिल रही है। हर गर्भवती महिला की देखरेख की जिम्मेदारी आशा कार्यकर्ता, एएनएम और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को देकर लिंगानुपात सुधारने की दिशा में नई पहल की गई है। लाडो सखी योजना से लिंगानुपात सुधरेगा, ऐसी आशा है।

Wednesday, August 6, 2025

कर्ज चुकाने के चक्कर में ग्वालियर आए थे विष्णुभट्ट गोडसे वरसाईकर

बस यों ही बैठे ठाले------13-------17 जुलाई 2020 

अशोक मिश्र

हां, तो बात माझा प्रवास पुस्तक के लेखक विष्णुभट्ट गोडसे वरसाईकर के बारे में हो रही थी। कल मैंने बताया था कि उन्होंने ब्रह्मयज्ञ यानी कि पुरोहिताई में निपुणता हासिल कर ली थी। वे तीन भाई थी। हरिपंत गोड्से, धोंड़ भट्ट गोड्से उनके छोटे भाई थे। वे अपनी पुस्तक माझा प्रवास (आंखों देखा गदर-अनुवाद अमृत लाल नागर) में लिखते हैं कि गरीबी उनके आगे मटके फोड़ते चलती थी। हरिपंत की स्नान, सन्ध्या, वैश्वदेव, श्रावणी, रुद्र, पवमान, सौर इत्यादि ब्रह्मकर्म सिखाकर लिखने का अभ्यास कराया गया। उसके अक्षर बड़े सुंदर होते थे और वह जमा खर्च, हिसाबी कामों में भी निपुण था। ठाणे में दो-तीन बार परीक्षा देने पर वह सफल नहीं हुआ, तो उसने पेण में एक साहूकार की नौकरी कर ली। साहूकार उसे बहुत मानता था। सबसे छोटा घोंड़ भट्ट बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि का था। उसने अपने गुरु से संहिता के ग्यारह अध्याय पढ़कर और कंठाग्र करके सबको दिखा दिया।

अपने बुद्धि बल से वह संहिंता के पद, क्रम आदि सब कहकर ज्योतिष में पारंगत हो गया। वह छोटी उम्र में ही कविता करने लगा। उसकी कीर्ति चारों ओर फैल गई। उन दिनों सस्ती की जमाना था। तो बिना कोई कर्ज लिए गृहस्थी चलती जा रही थी। धीरे-धीरे जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ने लगी, तीनों भाइयों के ब्याह के लिए रिश्ते आने लगे थे। उन दिनों उत्तर भारत से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम भारत में लड़की के पिता कुल-गोत्र पर शायद ज्यादा ध्यान देते थे। आर्थिक दशा पर उनका उतना दबाव नहीं होता था। वे अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि हमारा घराना सभ्य होने के कारण कुलीन घरानों से भी रिश्ते आने लगे थे।

हमारे पिता इसके लिए तैयार नहीं होते थे। जब हम लोग थोड़े पैसे कमाने लगे, तो हमारे ब्याह भी हो गए। हम भाइयों में गरीबी होने के बावजूद काफी प्रेम था। हम भाइयों की पत्नियां भी आपस में बड़े प्रेम से रहती थीं। कहते हैं कि भाई-भाई में झगड़ा और घर के बंटवारे में स्त्रियां का बहुत बड़ा हाथ होता है, लेकिन यहां ऐसा कुछ भी नहीं था। हम भाइयों के विवाह के कारण पिता जी को कुछ ऋण लेना पड़ा। फिर हमारी बहन कृष्णा बाई का विवाह हुआ, तो यह कर्ज तीनगुना-चार गुना हो गया। मेहमानों ने घर आकर दिवाला निकाल दिया। हमारी आमदनी पहले से ही कम थी, उस पर कर्ज और ब्याज की अदायगी ने और कमर तोड़ दी।

विष्णुभट्ट गोड्से लिखते हैं कि शके 1778 माघ शिवरात्रि के करीब (यह किस महीने और किस सन की बात है, यह मुझे नहीं मालूम, आप में से कोई यह बता सके, तो बहुत आभारी रहूंगा-अशोक) मैं कुछ यजमान कृत्य के लिए पुणे गया। वहां सुना कि बायजा बाई साहब (शिंदे) मुथरा में सर्वतोमुख यज्ञ कराने वाली हैं। इस यज्ञ में एकमुश्त सात-आठ लाख रुपये धर्मादाय में खर्च होंगे। इस आशय के पत्र नासिक, पुणे आदि की विद्वान मंडली के पास आए थे।
कर्ज ने गोड्से परिवार को पहले से ही दबा रखा था। सो, विष्णुभट्ट ने सोचा कि यदि किसी तरह बायजा बाई साहब (शिंदे) के यहां जाने को मिल जाए, तो दान-दक्षिणा में इतना द्रव्य जरूर मिल जाएगा कि उससे कर्ज चुकाने के बाद जिंदगी आराम से कट जाएगी। विष्णुभट्ट अपने को विद्वान तो नहीं मानते थे, लेकिन उनका मानना था कि धर्मशास्त्र और याज्ञिकी में उन्होंने अपने जमाने के उत्तम गुरुओं से शिक्षा पाई है। वरसई गांव के ही विनायक शास्त्री जोशी से उन्होंने वेद शास्त्र और ज्योतिष की शिक्षा पाई थी। जोशी जी की विद्वता की कीर्ति मराठा राज्य में चारों ओर थी। वे अति विद्वान भी थे। विष्णुभट्ट ने उन्हें याज्ञिकी में सूर्य के समान बताया है।
बायजा बाई साहब (यह ग्वालियर के किसी राजा की महारानी थीं और उनका मायका शायद महाराष्ट्र में था, इसलिए मराठा राज्य से आने वालों के प्रति उनका प्रेम स्वाभाविक था। हमारे अवधी भाषी क्षेत्र में कहावत है कि औरतों को मायके का कुत्ता भी बहुत प्यारा होता है। और यह बात काफी हद तक सही भी है। यह कहावत जिन दिनों चलन में आई थी, उन दिनों आवागमन के साधन बहुत कम थे।
आज की तरह ह्वाट्सएप और मोबाइल फोन तो थे नहीं। इसलिए मायके की तरफ का कोई भी आदमी आ जाता था, तो वह उससे पूरे गांव का हालचाल पूछती थीं। उन्हें इतनी खुशी होती थी कि क्या बताऊं। गांव या जंवार कोई भी किसी तरफ जाता था, तो वह गांव जवार की बहू-बेटियों के मायके या ससुराल जरूर जाता था। इसका कारण दोनों तरफ का हालचाल, खोज-खबर लेना-देना होता था। यह बात मैंने अपने बचपन में महसूस की है, जब अपनी बुआओं के यहां साल-दो साल में एकाध बार जाता था, तो वे नथई पुरवा ही नहीं, सर्रैयां, घूघुलपुर आदि के लोगों का भी हाल-चाल पूछती थीं। हालांकि मैं अपने ही गांव के बारे में ज्यादा नहीं जानता था क्योंकि उन दिनों लखनऊ में रहता था और गर्मी की छुट्टियों में गांव जाता था।)

युवकों ने महात्मा गांधी से मांगी क्षमा

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

मोहन दास करमचंद गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 में गुजरात के पोरबंदर  में हुआ था। महात्मा गांधी ने 22 साल की उम्र में बैरिस्टर की परीक्षा पास कर ली थी। दो साल तक वकालत के क्षेत्र में गांधी को सफलता नहीं मिली। संयोग से उन्हीं दिनों उनके पास एक कंपनी का मुकदमा आया जिसमें उन्हें दक्षिण अफ्रीका में जाकर लड़ना था। गांधी ने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और दक्षिण अफ्रीका चले गए। 

21 साल  तक उन्होंने अफ्रीका में रहकर लोगों को शांति, अहिंसा, स्वच्छता का पाठ पढ़ाया। सन 1915 में वह भारत लौटे और भारत में उन्होंने अस्पृश्यता, गरीबी, जातिगत भेदभाव जैसे सामाजिक आंदोलनों में भाग लेना शुरू किया। सन 1921 में वह कांग्रेस से जुड़ गए। वह रामकृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। बात उन दिनों की है, जब गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे। 

वहां उन्होंने फिनिक्स आश्रम बना रखा था जिसमें रहकर वह समाज सुधार के कार्य किया करते थे। उनके कार्यक्रमों से प्रभावित होकर कुछ अफ्रीकी युवक गांधी के पास पहुंचे और उन्होंने उनके नेतृत्व में समाज सुधार के काम करने की इच्छा प्रकट की। गांधी ने अनुमति दे दी। उन युवकों ने प्रतिज्ञा की कि वह नमक का सेवन नहीं करेंगे। युवकों की यह प्रतिज्ञा तो कुछ दिनों तक सचमुच चलती रही, लेकिन बाद में उन्हें भोजन का स्वाद फीका लगने लगा। उनका मन चटपटी चीजों को खाने का होने लगा। 

एक दिन उनसे नहीं रहा गया। उन्होंने बाजार से चटपटी चीजें मंगाई और खा ली। लेकिन उनमें से एक युवक को लगा कि उसने गलत किया है। उसने यह बात गांधी को बता दी। गांधी ने उन युवकों से पूछा, तो उल्टा सच कहने वाले युवक पर ही आरोप लगा दिया। इस पर गांधी बोले कि ऐसा लगता है कि मुझ में ही सत्य के गुण ठीक से नहीं आए हैं। इसलिए मैं प्रायश्चित करूंगा। यह सुनकर युवकों ने अपनी गलती मान ली और भविष्य में ऐसा न करने को कहा।

पांच हजार गरीब परिवारों का पूरा हो गया अपना घर होने का सपना

अशोक मिश्र

हर व्यक्ति का एक सपना होता है। छोटा या बड़ा, एक घर हो जिसमें वह सुकून से अपनी जिंदगी गुजार सके। देश और प्रदेश के करोड़ों लोगों का यह सपना एक सपना ही बनकर रह जाता है। वह जीवन भर परिश्रम करने के बाद भी अपने सपने को पूरा नहीं कर पाते हैं। ऐसी स्थिति में अगर सरकार आगे बढ़कर उनके इस सपने को साकार कर दे, तो फिर जो खुशी मिलती है, वह शब्दों में बयां नहीं की जा सकती है। 

हरियाणा के 5028 गरीब लोगों के जीवन में यह खुशी सोमवार को सीएम नायब सिंह सैनी ने प्रदान की। उन्होंने 3884 परिवारों को प्लाटों के आवंटन पत्र देकर उनके सपने को पूरा कर दिया। यही नहीं, सीएम सैनी ने 1144 लोगों को अंतरिम मलकियत प्रमाण पत्र भी प्रदान किए। सोमवार को पंचकूला में आयोजित एक कार्यक्रम में सीएम सैनी ने प्रदेश के गरीब लोगों को प्लाट देकर न केवल उनके सपनों को साकार किया, बल्कि उन्होंने गरीबों को आवास मुहैया कराने के वायदे को भी पूरा किया। 

प्रदेश की एक बड़ी आबादी गांवों में निवास करती है। गांवों में रोजगार के साधन सिर्फ कृषि और उससे जुड़े उद्योग ही हैं। थोड़े से ही रोजगार के अवसर इससे इतर हैं। इसके चलते गांवों में रहने वाले लोगों की अपेक्षा आर्थिक दशा उतनी सुदृढ़ नहीं होती है। हालांकि गांवों के लिए भी प्रदेश सरकार ने कई कल्याणकारी योजनाएं चला रखी हैं। इन योजनाओं के माध्यम से सैनी सरकार किसानों और अन्य ग्रामीणों की दशा और दिशा बदलने का प्रयास कर रही है। इसके बावजूद गांव स्तर पर अभी बहुत बदलाव की गुंजाइश है। 

सोमवार को गांवों की दशा को बदलने का एक प्रयास सीएम ने मुख्यमंत्री ग्रामीण आवास योजना 2.0 के माध्यम से प्लाटों का वितरण करके किया है। यही नहीं, मुख्यमंत्री ग्रामीण आवास योजना के दूसरे चरण के तरह 561 गांवों में रहने वाले एक लाख 56 हजार आवेदकों को भी प्लाट आवंटित करने की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है। जैसे ही यह सारी प्रक्रिया पूरी हो जाएगी, डेढ़ लाख से अधिक गरीब परिवारों को अपना सिर छिपाने के लिए एक छत की व्यवस्था हो जाएगी। 

सीएम ने इस नई पहल को एक नई सुबह, एक नई शुरुआत का प्रतीक बताते हुए गरीबों को आश्वस्त किया है कि उनकी समस्याओं को हल करने की दिशा में बहुत तेजी से काम हो रहा है। सीएम के मुताबिक, गांवों में भी प्लाट और सब्सिडी की व्यवस्था की गई है। प्रदेश के गांवों में प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण  के तहत 69150 घरों का निर्माण किया जा चुका है। शहरों में भी प्रधानमंत्री आवास योजना शहरी के तहत 77900 घरों का निर्माण करवाया गया है। इस तरह शहर और ग्रामीण को मिलाकर लगभग डेढ़ लाख लोगों को निकट भविष्य में आवास मिल जाएगा।

Tuesday, August 5, 2025

द फर्स्ट इंडियन वार आफ इंडिपेंडेंस 1857-59

 बस यों ही बैठे ठाले-12---रचनाकाल---16 जुलाई 2020

अशोक मिश्र
हां, तो बात स्वाधीनता संग्राम में बंगाल के किसान विद्रोह से आगे बढ़कर ईस्ट इंडिया कंपनी (‘द यूनाइटेड कंपनी आफ मर्चेंट्स आफ इंग्लैंड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज’) तक आ पहुंची थी। सन 1821 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भड़की विद्रोह की चिंगारी धीरे-धीरे सुलगती रही और 1657 में सैनिक विद्रोह के रूप में प्रस्फुटित हुई। 1857 का सैनिक विद्रोह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था या गदर, इस पर इतिहासकारों में मतवैभिन्य है। जहां तक मेरी जानकारी है, ज्यादातर इतिहासकार सन 1857 के विद्रोह को सैनिक विद्रोह ही मानते हैं। राजे-रजवाड़ों का विद्रोह। 
लेकिन सबसे पहले सन 1857 के विद्रोह को अगर किसी ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम माना, तो वह थे कार्ल मार्क्स और फेडरिक एंगेल्स। जिन दिनों अट्ठारह सौ सत्ता
वन का विद्रोह भारत में चल रहा था, उन्हीं दिनों लंदन में निर्वासित जीवन बिता रहे कार्ल मार्क्स और उनके सहयोगी फेडरिक एंगेल्स ने न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में भारत और उसके सिपाही विद्रोह को प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बारे में बताते हुए सिलसिलेवार लेख लिखा था। बाद में ये सभी लेख ‘द फर्स्ट इंडियन वार आफ इंडिपेंडेंस 1857-59’ (भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857-59) के नाम से पुस्तकीय रूप में प्रकाशित हुए। उन दिनों लंदन में निर्वासित जीवन बिता रहे कार्ल मार्क्स न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून से एक पत्रकार के रूप में (फ्रीलांस जर्नलिस्ट) जुड़े हुए थे। 
अपनी पुस्तक में कार्ल मार्क्स ने मेरठ का सैनिक विद्रोह, लखनऊ और कानपुर के सैनिक विद्रोह सहित भारत में होने वाले तमाम विद्रोहों के बारे में लेख लिख हैं। भारत में कुछ लोग मानते हैं कि सन 1857 के सैनिक विद्रोह को सबसे पहले सावरकर ने स्वाधीनता संग्राम कहा था, उन लोगों को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि पूरी दुनिया में सबसे पहले भारतीय सैनिक विद्रोह को स्वाधीनता संग्राम कहने वाले कार्ल मार्क्स और फेडरिक एंगेल्स थे, सावरकर नहीं। सावरकर की किताब सन 1908 में पूरी हुई थी। नाम था 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर। एक बात और। कार्ल मार्क्स और फेडरिक एंगेल्स भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान जीवित रहे थे और दामोदर विनायक सावरकर का जन्म ही 28 मई 1883 में हुआ था। 
यदि हमें अट्ठारह सौ सत्तावन के सैनिक गदर को अच्छी तरह से समझना हो, तो हमारी दो पुस्तकें बहुत अधिक मदद कर सकती हैं। पहली पुस्तक तो है द फर्स्ट इंडियन वार आफ इंडिपेंडेंस 1857-59 और दूसरी पुस्तक है विष्णुभट्ट गोड्से वरसाईकर की मराठी में लिखी माझा प्रवास। इस पुस्तक का प्रख्यात साहित्यकार अमृतलाल नागर ने आंखों देखा गदर के नाम से अनुवाद किया है। ये दोनों पुस्तकें भारत के प्रथम सैनिक विद्रोह के दौरान या उसके एकाध साल के बाद लिखी गई थीं। वैसे यह भी सही है कि कार्ल मार्क्स और फेडरिक एंगेल्स कभी भारत नहीं आए थे, लेकिन भारत के इतिहास, यहां से सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक ताने-बाने का गहन अध्ययन उन्होंने 1850 से 1860 के बीच ही करना शुरू कर दिया था। 
उनका मानना था कि भारत में स्वतंत्रता संग्राम की चिन्गारी यदि प्रस्फुटित होती है, तो उसका प्रभाव यूरोप, अमेरिका और एशिया के उन तमाम देशों पर पड़ेगा जो अपनी आजादी के लिए भीतर ही भीतर तैयारी कर रहे हैं या फिर उन देशों में स्वाधीनता संग्राम अभी भीतर ही भीतर हिलोरें ले रहा है। अपनी पुस्तक इ फर्स्ट इंडियन वार आफ इंडिपेंडेंस में संग्रहीत एक लेख में न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून के 15 जुलाई, 1857 के अंक में स्पष्ट तौर पर मेरठ में हुई घटना का कार्ल मार्क्स ने पूरा विवरण दिया है। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि जब 10 मई को मेरठ छावनी में क्रांति फूटी और भारतीय सिपाही विद्रोह कर अंग्रेजी फौज को चुनौती देते हुए दिल्ली कूच कर गए, तो रुड़की से नेटिव सैपर्स एंड माइनर्स (गोला दागने वाले, पुल आदि बनाने वाली रेजीमेंट) को 15 मई को मेरठ छावनी बुला लिया गया। 
इनकी अस्थायी बसावट ब्रितानी फौजियों के साथ की गई। अचानक अगले ही दिन 16 मई को इस रेजीमेंट के एक हिंदुस्तानी सिपाही ने अपने अफसर मेजर फ्रेजर का कत्ल कर दिया। इसके बाद सभी भारतीय सिपाहियों ने छावनी के पीछे (मौजूदा समय में डिफेंस कालोनी से होते हुए) काली नदी की तरफ भागे। घोड़े पर सवार ब्रितानी अफसर और सिपाहियों ने पीछा किया। इनमें से 50-60 को वहीं मौत के घाट उतार दिया। जो सिपाही बचे थे, वे दिल्ली पहुंच गए और दूसरे क्रांतिकारियों से मिल गए।

मुझे कायर और कातर बनाने की चेष्टा न करो : मणीन्द्र नाथ बनर्जी

अशोक मिश्र

क्रान्तिकारिणी माता और परिवार के प्रेरणा से क्रांतिकारी बनने वालों में से थे मणीन्द्र नाथ बनर्जी जिनकी शहादत का लक्ष्य अभी अधूरा है। विप्लवी पथ पर उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन(H.R.A) के इंकलाबी मानववादी लक्ष्य- मानव द्वारा मानव के शोषण व गुलामी से मुक्त शोषण-विहीन, वर्ग-विहीन समाज की स्थापना को अपना जीवन लक्ष्य बनाया था। जिसकी पूर्ति हेतु अपनी अंतिम सांस तक वे दृढ़ प्रतीज्ञ व क्रियाशील रहे।

दिसंबर 1927 में काकोरी षड्यंत्र केस में एच. आर. ए. के योद्धाओं पंडित राम प्रसाद बिस्मिल,अशफाक उल्ला खान,राजेंद्र नाथ लहरी व ठाकुर रोशन सिंह को साम्राज्यवादी दरिंदों द्वारा फांसी पर चढ़ा देने का उनके मस्तिष्क पर गहरा आघात लगा था। वे इन शहादतों का बदला लेने के लिए आकुल हो उठे थे। अन्ततः उन्होंने अपने भाई प्रभाषचंद्र बनर्जी के सहयोग व अपनी महान क्रांतिकारी माता के आशीर्वाद से 13 जनवरी 1928 को एच.आर.ए. के महान योद्धाओं को फांसी पर लटकाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले साम्राज्यवादी शासकों के पालतू कुत्ते गुप्तचर विभाग के डी.एस.पी. जितेंद्र नाथ बनर्जी को वाराणसी में गोली मारकर अपना जन्म दिवस मनाया। जिसके अपराध में उन्हें 10 वर्ष के उम्र कैद की सजा हुई और वे फतेहगढ़ सेंट्रल जेल भेज दिया गये।

 यहीं पर राजनीतिक बंदियों को दी जाने वाली यातनाओं के खिलाफ लड़ते हुए वे भूख हड़ताल के दौरान 20 जून 1934 को शहीद हो गए। उनकी क्रांतिकारी दृढ़ता व समझदारी का आलम यह था कि जब वे मृत्यु शैय्या पर पड़े हुए मर्मान्तक पीड़ा से तड़प रहे थे तो उनके पास बैठे काकोरी केस के बंदी श्री मन्मथनाथ गुप्त उनकी पीड़ा को कम करने हेतु भगवान की प्रार्थना करने लगे। इस पर बिगडकर उन्हें फटकारते हुए शहीद मणीन्द्र बनर्जी ने कहा था-  मेरी अंतिम घड़ियों में मेरा मस्तिष्क धुंधला मत करो। मुझे कायर और कातर बनाने की चेष्टा न करो। मुझे शांतिपूर्वक मरने दो। 

यह थी शहीद मणीन्द्र की अपने लक्ष्य व अपनी सैद्धांतिक राजनीतिक समझ के प्रति विप्लवी दृढ़ता। अमर शहीद मणीन्द्रनाथ बनर्जी को शहीद हुए 88 वर्ष पूरे हो रहे हैं। परंतु अफसोस। जिन लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को लेकर सशस्त्र राष्ट्रीय जनतांत्रिक क्रांति की बलिवेदी पर उन्होंने अपनी आहुति दी थी वे आज भी अधूरे हैं। शोषण- विहीन, वर्ग-विहीन समाज की रचना ही उनका मुख्य उद्देश्य था।

उपन्यास मदर लिखकर अमर हो गए मक्सिम गोर्की

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

रूस में 18 मार्च 1868 में जन्मे मक्सिम गोर्की का वास्तविक नाम अलेक्सी मैक्सिमोविच पेशकोव था। उनके साहित्य में मार्क्सवाद और समाजवाद वैचारिक रूप से मौजूद दिखाई देता है। वह कुछ दिनों तक लेनिन के नेतृत्व में जारशाही से संघर्ष करने वाली वोल्शेविक पार्टी में भी रहे, लेकिन वस्तुत: वह स्टालिनवादी ही रहे। उनका विश्व प्रसिद्ध उपन्यास मदर (मां) आज भी दुनिया में काफी पढ़ा जाता है। 

रूस और कई देशों से निष्कासित मक्सिम गोर्की 1921 में रूस छोड़कर चले गए, लेकिन 1929 में स्टालिन के अनुरोध पर वह रूस लौट आए और  मृत्यु होने तक यानी 18 जून 1936 तक रूस में ही रहे। कहते हैं कि ग्यारह वर्ष की आयु में वह काम पर लग गए थे। उनका पालन पोषण उनकी नानी ने किया था। उनके पिता अत्यंत क्रोधी स्वभाव के थे। वह शिक्षा पर एक भी पैसा खर्च करना व्यर्थ मानते थे। 

गोर्की अपने पिता से बहुत डरते थे। यही वजह है कि वह बचपन में बहुत ज्यादा नहीं पढ़ सके। उन्होंने जो कुछ भी सीखा, स्वाध्याय से ही सीखा। छोटी ही उम्र में उनके पिता ने काम पर लगा दिया, लेकिन पढ़ने लिखने की ललक ने उन्हें अंतत: एक ऐसी जगह काम करने पर विवश कर दिया, जहां कबाड़ में काफी पुस्तकें आती थीं। वह खाली समय में कबाड़ में आई पुस्तकों को पढ़ते। 

इससे पहले उन्होंने अक्षर ज्ञान प्राप्त किया। जब कोई शब्द उनकी समझ में नहीं आता, तो वह दुकान के मालिक या दुकान पर आने वाले ग्राहकों से पूछ लिया करते थे। इस तरह पढ़ते-लिखते गोर्की ने धीरे-धीरे खुद भी लिखना शुरू किया। एक बार अपने विचारों को एक अखबार के संपादक को भेज दिया, तो वहां से शाबाशी भरा जवाब आया। इससे उनका साहस बढ़ गया और फिर उन्होंने रूसी भाषा में महान साहित्य की रचना की। उनका उपन्यास मदर और आत्मकथा मेरा बचपन, मेरा विश्वविद्यालय आज भी बहुत पढ़ा जाता है।

भ्रूण की लिंग जांच कराने वाले लिंगानुपात सुधारने में बाधक


अशोक मिश्र

फरीदाबाद के बल्लभगढ़ में एक ऐसे गिरोह का पर्दाफाश हुआ है, जो गर्भवती महिलाओं के भ्रूण के लिंग की जांच कराता था। इस मामले में तीन आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है। इस मामले में एक डॉक्टर की भूमिका भी संदिग्ध बताई जा रही है। हालांकि अभी तक उस डॉक्टर के नाम का खुलासा नहीं हो पाया है। सीएम फ्लाइंग स्क्वाड और स्वास्थ्य विभाग को काफी पहले से भ्रूण के लिंग की जांच करने वाले गिरोह के बारे में सूचना मिल रही थी। सीएम फ्लाइंग स्क्वाड और स्वास्थ्य विभाग ने गिरोह को पकड़ने के लिए एक कार्य योजना तैयार की और एक डमी दंपति को इसके लिए तैयार किया गया। इसमें सीएमओ पलवल की भी सहायता ली गई। 

डमी दंपति ने मनीष से संपर्क किया। पैसे को लेकर बातचीत हुई और मनीष 35 हजार रुपये में भ्रूण के लिंग की जांच कराने को तैयार हो गया। इसके बाद सीएम फ्लाइंग स्क्वाड और स्वास्थ्य विभाग ने जाल बिछाकर तीन आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। प्रदेश में न जाने कितने ऐसे गिरोह चल रहे हैं जो सरकार के लिंगानुपात सुधारने के मंसूबे पर पानी फेर रहे हैं। 

प्रदेश की सैनी सरकार काफी प्रयास कर रही है कि किसी भी तरह लड़के-लड़कियों के जन्म का अनुपात लगभग बराबर हो जाए ताकि समाज में पैदा होने वाले असंतुलन को ठीक किया जाए। इसके लिए प्रदेश सरकार हर गर्भवती महिला पर नजर रखने का प्रयास कर रही है ताकि उसका सुरक्षित प्रसव हो जाए और वह कन्याभू्रण हत्या भी न करवा सके। इसके लिए उसने सरकारी और निजी अस्पतालों में इलाज कराने के लिए हर गर्भवती महिला का आईडी बनना अनिवार्य कर दिया है। सैनी सरकार ने आशा कार्यकर्ता, एएनएम और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को यह जिम्मेदारी दी है कि वह गर्भवती महिलाओं की एक सखी की तरह देखभाल करें और सुरक्षित प्रसव के बाद उन्हें एक हजार रुपये पुरस्कार स्वरूप प्रदान किए जाएंगे। 

आशा कार्यकर्ता, एएनएम और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को लाडो सखी नाम दिया गया है। इतने प्रयास के बाद भी न प्रदेश में भ्रूण लिंग जांच रुक रही है और न ही कन्या भ्रूण हत्या। इसके लिए प्रदेश के हर जिले में नाजायज तौर पर खुले निजी अस्पताल, क्लीनिक और चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े कंपाउंडर और रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर जिम्मेदार हैं। ऐसे लोग शहर के किसी भी इलाके में क्लीनिक खोलकर लोगों का इलाज करने की आड़ में अवैध रूप से गर्भपात कराने का काम करते हैं।

इससे सरकार को अपना लक्ष्य पूरा करने में काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। जब तक गांव और मोहल्ला स्तर तक अभियान चलाकर ऐसे लोगों का सफाया नहीं किया जाता है, तब तक सरकार को अपना लक्ष्य प्राप्त करने में परेशानी होगी।

Monday, August 4, 2025

ईस्ट इंडिया कंपनी शुरू से ही विस्तारवादी रही

 बस यों ही बैठे ठाले-10---रचनाकाल--13 जुलाई 2020

अशोक मिश्र

हां, तो बात हो रही थी भारतीय स्वाधीनता संग्राम की पहली बगावत को लेकर। संन्यासी विद्रोह का जिस वर्ष (सन 1820) पूरी तरह दमन हो गया, उसके एक साल बाद तित्तू मियां के नेतृत्व में बंगाल के पांच हजार किसानों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ परचम लहरा दिया। कुछ ही दिनों में बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के नेतृत्व में ब्रिटिश फौजों ने किसान बगावत को बुरी तरह कुचल दिया।
अधिसंख्य किसान पकड़कर फांसी पर लटा दिए गए। कुछ को अंग्रेज भक्त जमींदारों ने पकड़कर राजभक्ति दिखाने के लिए बुरी तरह प्रताड़ित किया, उन्हें मार दिया। इस विद्रोह में जिन-जिन गांवों के लोग शामिल थे, वे गांव के गांव अंग्रेज भक्त जमींदारों ने तबाह कर दिए। गांव के गांव जला दिए गए। पुरुषों और बच्चों को पकड़कर लाठियों, डंडों और कोड़ों से सरेआम पीटा गया, उनकी चमड़ी उधेड़ दी गई। ताकि भविष्य में कोई भी जालिम जमींदारों और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत करने की हिम्मत न जुटा सके।
महिलाओं के साथ बलात्कार किए गए। उनके शरीर को चाकुओं, तलवारों और नुकीले बल्लम से गोदा गया। खूबसूरत और कम उम्र लड़कियों को अंग्रेज अफसरों और जमींदारों की हवेलियों और महलों में पहुंचा दिया गया। इस लूट खसोट का लाभ सबने उठाया, चाहे वह हिंदू जमींदार रहा हो, अफसर रहा हो या मुस्लिम जमींदार और अफसर रहा हो। इसमें जाति, धर्म का कोई भेद नहीं थी। और इस लूट खसोट को अंजाम दिया उन भारतीयों ने, जो रुपये दो रुपये की नौकरी जमींदारों के यहां करते थे। ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी करते थे या कहो कि ईस्ट इंडिया कंपनी की करते थे। मेरा मानना है कि (पाठकों को मेरे इस मत से असहमत होने का पूरा अधिकार है) अपने स्थापना काल से ही ईस्ट इंडिया कंपनी भले ही लंदन के व्यापारियों की कंपनी रही हो, लेकिन उसके विस्तारवादी, उत्पीड़न, शोषण और दोहन की नीतियों के प्रति इंग्लैंड के शासकों की सहमति अवश्य थी।
दरअसल, शाही अधिकार पत्र लेकर वर्ष 1608 में पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी का पहला पोत व्यापार करने सूरत (भारत) आया था। इसका पुर्तगालियों ने जबरदस्त विरोध किया। ईस्ट इंडिया कंपनी लंदन के व्यापारियों की एक निजी कंपनी थी जिसे वर्ष 1600 की एक घोषणा के आधार पर महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रतिद्वंद्वी कंपनी न्यू कंपनी का विलय वर्ष 1708 में भारत में प्रवेश के ठीक सौ साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी में हो गया था।
ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार की देखभाल के लिए ‘गवर्नर इन काउंसिल’ की स्थापना हुई और ईस्ट इंडिया कंपनी का नाम रखा गया ‘द यूनाइटेड कंपनी आफ मर्चेंट्स आफ इंग्लैंड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज’। चूंकि कंपनी के व्यापार में गवर्नर इन काउंसिल का पूरा दखल रहता था, इसलिए भारत में होने वाले अत्याचार, शोषण, दोहन, उत्पीड़न आदि के लिए ब्रिटिश हुकूमत को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है और ईस्ट इंडिया कंपनी की जगह पर ब्रिटिश हुकूमत कहा जा सकता है। यह भी सही है कि सन अट्ठारह सौ सत्तावन के गदर (स्वाधीनता संग्राम) की शुरुआत के एक साल बाद वर्ष 1858 में ब्रिटिश हुकूमत ने ईस्ट इंडिया के सारे अधिकार रद्द करते हुए कंपनी की बागडोर खुद संभाल ली।

आखिर जंग जीत गया सात बार हारने वाला राजा

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

हमारे देश के धर्मग्रंथों और विभिन्न भाषाओं में रचे गए साहित्य में एक बात जरूर कही गई है कि मन के हारे हार है। यदि आदमी मन मान गया कि वह हार जाएगा, तो निश्चित रूप से उसका हारना तय है। जब मनुष्य के दिलोदिमाग में यह बात घर कर जाती है कि वह किसी भी हालत में जंग या संकट से वह नहीं जीत सकता है, तो वह जीतती हुई बाजी भी हार जाता है। लेकिन जो व्यक्ति हारने के बाद भी हार नहीं मानता है, वह अपने अथक प्रयास से जंग हो या जीवन की समस्या उसको हरा सकता है।

 एक राजा की ऐसी ही कहानी है। राजा के राज्य के एक हिस्से पर पड़ोसी राजा ने हमला करके अपने अधिकार में ले लिया। राजा ने अपनी हारी हुई जमीन जीतने के लिए पड़ोसी राजा पर छह बार हमला किया, लेकिन वह हर बार पराजित हुआ। सातवीं बार तो उसकी हिम्मत ही टूट गई। हारने के बाद राजा अपने सैनिकों से बिछड़ गया। वह थका-हारा एक वन में पहुंच गया। 

जंगल काफी घना था। वह एक पेड़ के तने से टेक लेकर बैठ गया और अपनी पराजय के बारे में सोचने लगा। उसे अब विश्वास हो चुका था कि वह अपने पड़ोसी राजा को हरा नहीं सकता है। यह सब सोचते-सोचते उसे नींद आ गई। सुबह जब वह जागा, तो उसने देखा कि एक मकड़ी तने के पास जाला बना रही थी। जैसे मकड़ी थोड़ा ऊपर पहुंचती धागा टूट जाता और वह गिर जाती। 

राजा मकड़ी का यह करतब गौर से देखने लगा। दस-पंद्रह बार कोशिश करने के बाद मकड़ी अपने प्रयास में सफल हो गई। यह सब कुछ थोड़ी दूर खड़ा एक साधु भी देख रहा था। उसने राजा से कहा कि तुम भी ऐसा प्रयास क्यों नहीं करते हो। राजा ने कहा कि मैं सात बार हार चुका हूं। तब साधु ने कहा कि जंग हार कोई बड़ी बात नहीं है, मन से हार जाना बड़ी बात है। अपने सैनिकों को इकट्ठा करो और फिर लड़ो। राजा ने वैसा ही किया और इस बार वह जंग जीत गया।

जंगल सफारी तैयार होने पर प्रदूषण को कम करने में मिलेगी सफलता

अशोक मिश्र

गुरुग्राम के छह हजार एकड़ और नूंह के चार हजार एकड़ में बनने वाले जंगल सफारी का डिजाइन तैयार कर लिया गया है। अनुमान लगाया जा रहा है कि निकट भविष्य में इस दिशा में बहुत तेजी से काम शुरू होगा। एशिया की सबसे बड़ी जंगल सफारी को लेकर प्रदेश में ही नहीं, देश और विदेश में भी काफी उत्सुकता है। जंगल सफारी बनकर तैयार होने के बाद हरियाणा के लिए एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल साबित होगी। इससे जहां हरियाणा के राजस्व में बढ़ोतरी होगी, वहीं अरावली पर्वत श्रंखला को भी सुरक्षित रखा जा सकेगा। लोगों के आवागमन और जंगल सफारी के लिए नियुक्त किए गए अधिकारियों और कर्मचारियों की वजह से अरावली क्षेत्र में होने वाले अवैध खनन पर भी लगाम लगेगी। 

अरावली की पहाड़ियों पर कई दशकों से अवैध खनन हो रहा है जिस पर लगाम लगा पाने में अधिकारी और कर्मचारी नाकाम साबित हो रहे हैं। कई मामलों में ग्रीन ट्रिब्यूनल से लेकर सुप्रीमकोर्ट तक अपनी नाराजगी जाहिर कर चुका है। लेकिन अब जब जंगल सफारी प्रोजेक्ट पर काम शुरू हो गया है, तो इस क्षेत्र में अवैध खनन रुकने की उम्मीद पैदा हो गई है। वन विभाग ने पहले चरण की योजना का डिजाइन तैयार कर लिया है। केंद्रीय ऊर्जा मंत्री मनोहर लाल, केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव और प्रदेश के वन, पर्यावरण और वन्य जीव मंत्री राव नरबीर ने शनिवार को पहले फेज की योजना का निरीक्षण भी कर लिया है। 

केंद्रीय मंत्री मनोहर लाल ने तो यह संभावना भी व्यक्त की है कि हरियाणा में बनने वाला जंगल सफारी पर्यटन का एक बड़ा केंद्र बनेगी। जंगल सफारी में प्रवेश के लिए चार गेट सोहना के पास, ताबडू-सोहना मार्ग, नौरंगपुर और सकटपुर गांव में बनाए जाएंगे। दरअसल, हरियाणा से शुरू होकर अहमदाबाद तक जाने वाली अरावली पर्वतमाला की प्राकृतिक सुंदरता, जैव विविधता और यहां पाए गए ऐतिहासिक विरासत की छटा देखते ही बनती है। ऐसी स्थिति में जब पहले चरण में ढाई हजार एकड़ में शाकाहारी जोन, बड़ी बिल्ली जोन, बड़ा स्वतंत्र पक्षी जोन, विदेशी जानवर जोन के साथ-साथ प्राकृतिक पगडंडियां बनकर तैयार होंगी, तब इसका अलौकिक सौंदर्य देखने लायक होगा। 

पहले चरण में बनकर तैयार होने वाली जंगल सफारी में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं देने की कोशिश की जाएगी। यहां स्थानीय प्रजाति के पौधों को लगाने पर विचार किया जा रहा है। इतना ही नहीं, इस परियोजना को चरणबद्ध तरीके से तैयार करने पर केंद्र और राज्य सरकारें बड़ी गंभीरता से विचार कर रही हैं। जंगल सफारी तैयार हो जाने पर प्रदेश में पर्यावरण प्रदूषण को भी कम करने में सफलता मिलेगी।

Sunday, August 3, 2025

बुद्ध ने कहा, अप्प दीपो भव

अशोक मिश्र

प्रकाश! क्या है प्रकाश? ऊर्जा का एक परिवर्तित रूप। एक विशेष किस्म की ऊर्जा ही प्रकाश है। और ऊर्जा किसमें? चेतन में, अचेतन (यानी जड़) में यानी समस्त पदार्थ में। इस संपूर्ण प्रकृति के प्रत्येक अंग, उपांग में ऊर्जा मौजूद है। इसका एक निहितार्थ यह हुआ कि संपूर्ण प्रकृति में जो कुछ भी है, वह ऊर्जावान है। इसी ऊर्जा के कारण के कारण प्रकृति में गति है। प्रकृति का निर्माण भी पदार्थ और गति से हुआ है। गतिमय पदार्थ और पदार्थ में गति।
और अंधकार क्या है?…प्रकाश का न होना अंधकार है। जब किसी पदार्थ में एक विशेष किस्म की ऊर्जा अनुपस्थित होती है, तब अंधकार होता है। अंधकार और प्रकाश पदार्थ के बिना नहीं हो सकते। अभौतिक नहीं हो सकते, अपदार्थिक नहीं हो सकते। प्रकृति विज्ञानी कहते हैं कि संपूर्ण प्रकृति की ऊर्जा का योग शून्य होता है। जब हमारे वैज्ञानिक कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, इसका एक मतलब यह भी है कि इस प्रकृति में कहीं न कहीं किसी जगह पर उतना ही तापमान घट रहा है क्योंकि इस संपूर्ण ब्रह्मांड में सभी तरह की ऊर्जाएं नियत हैं, निश्चित हैं। न उन्हें घटाया जा सकता है, न बढ़ाया जा सकता है।
यह हमारी पृथ्वी या ब्रह्मांड के किसी हिस्से में हो सकता है, पृथ्वी से बाहर भी हो सकता है। यही प्रकृति की द्वंद्वात्मकता है।अंधकार और प्रकाश एक दूसरे के पूरक हैं। इस प्रकृति में जितना महत्व प्रकाश का है, उतना ही महत्व अंधकार का भी है। अंधकार उतना भी बुरा नहीं होता है, जितना हम समझते हैं। अंधकार के बिना प्रकाश का कोई महत्व नहीं है। संख्या ‘एक’ का महत्व तभी तक है, जब तक संख्या ‘दो’ मौजूद है। इस दीप पर्व पर हम संपूर्ण जगत को प्रकाशित तो करें, लेकिन तिमिर के महत्व को भी न भूलें।
भारतीय दार्शनिक जगत में अवतारवाद के सबसे पहले विरोधी महात्मा बुद्ध ने ‘अप्प दीपो भव’ कहकर प्रकाश और तिमिर को पारिभाषित किया। उन्होंने कहा कि अपना प्रकाश खुद बनो। इसका एक तात्पर्य यह भी हुआ कि अपने भीतर प्रकाश पैदा करो। भीतर तम है, प्रकाश की आवश्यकता है। तम किसका है? अज्ञानता का है, रूढ़ियों का है, अंध विश्वासों का है, सामाजिक, राजनीतिक वर्जनाओं का है। पाबंदियों का है। इन्हें दूर करने के लिए महात्मा बुद्ध कहते हैं कि अप्प दीपो भव। इसका एक दूसरा तात्पर्य यह हुआ कि अपना आदर्श खुद बनो।

बंगाल में बहुत अधिक व्यापक था तित्तू मीर का विद्रोह

 बस यों ही बैठे ठाले-9-------------रचनाकाल 10 जुलाई 2020

अशोक मिश्र
हां, तो बात हो रही थी राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में राष्ट्रवादी विप्लवी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ पेश किए गए पंत प्रस्ताव के समर्थन में जय प्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया की भूमिका की। तो इस बात को अच्छी तरह समझने के लिए जरूरी है कि हम भारतीय स्वाधीनता संग्राम को सिलसिलेवार समझें। यह पंत प्रस्ताव क्यों, किन परिस्थितियों और किसके इशारे पर पेश किया गया था, इसे समझने से पहले स्वाधीनता संग्राम का संक्षिप्त इतिहास जान लें, तो बेहतर होगा। अगर हम भारतीय स्वाधीनता संग्राम पर दृष्टि डालें, तो पता चलता है कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सबसे पहली बगावत सन 1821 में तित्तू मियां (कुछ इतिहासकार तित्तू मीर के नाम से भी पुकारते हैं) के नेतृत्व में बंगाल में हुई थी। पांच हजार किसानों ने ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचार और शोषण के खिलाफ बगावत की।
ब्रिटिश हुकूमत और उसके नुमाइंदे जमीदार न केवल किसानों, मजदूरों का निर्मम शोषण करते थे, बल्कि यहां से कच्चा माल ब्रिटेन ले जाकर वहां बना सामान भारत में लाकर दोहरा मुनाफा कमाते थे। ब्रिटिश हुकूमत के नुमाइंदे जमींदार अपने मालिक के प्रति अपनी भक्ति दिखाने के लिए किसानों और मजदूरों का निर्मम शोषण करते थे। इस हालात से समझौता करने के सिवा उनके पास कोई दूसरा चारा भी नहीं था। लेकिन तित्तू मियां से यह बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने किसानों को संगठित करना शुरू कर दिया। पांच हजार किसानों ने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह कर दिया। अंग्रेजी फौज और पुलिस ने पूरे बंगाल में दमन चक्र चलाया। काफी संख्या में किसान मारे गए। बगावत विफल होने पर बहुतों को फांसी पर लटा दिया गया। कुछ जंगलों में जा छिपे और भूखों मारे गए।
यह भारतीय स्वाधीनता संग्राम की पहली चिन्गारी थी, जो भड़की जरूर लेकिन अपनी निहित विसंगतियों और अंतरविरोधों के चलते जल्दी ही बुझ गई। लेकिन इससे इस सशस्त्र बगावत का महत्व कम नहीं होता है। कुछ लोग तित्तू मियां के नेतृत्व से पहले हुए संन्यासी विद्रोह (1763 से लेकर 1820) को स्वाधीनता संग्राम का पहला विद्रोह मानते हैं। यदि दोनों विद्रोहों के उद्देश्य को लेकर बात करें, तो यह स्पष्ट होता है कि संन्यासी विद्रोह का आधार अंग्रेजों द्वारा तीर्थयात्रा पर लगाया गया प्रतिबंध था।
इन विद्रोही संन्यासियों का नारा ओम वंदेमातरम था। यह सही है कि ब्रिटिश हुकूमत की शोषण और दोहन की नीति के प्रति किसानों, मजदूरों, कुछ जमींदारों में असंतोष था। बंगाल और बिहार के नागा और गिरि संन्यासियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद इसलिए किया था क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत ने उनकी तीर्थयात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया था। संन्यासियों ने इस प्रतिबंध के खिलाफ आवाज बुलंद की और उनके साथ मुस्लिम फकीर, जमींदार और किसान आ मिले। और यह विद्रोह किसी न किसी रूप में 1820 तक चलता रहा।
संन्यासी विद्रोह अपने शुरुआती दौर (1763 और उसके कुछ वर्षों तक) में जितना प्रबल था, बाद में जैसे-जैसे समय बीतता गया कमजोर पड़ता गया। बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने 1820 में संन्यासी विद्रोह का पूरी तरह दमन कर दिया। प्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1882 में आनंदमठ की रचना की। आनंदमठ का मूल आधार यही संन्यासी विद्रोह है। इन संन्यासियों का उद्देश्य उतना व्यापक नहीं था जितना सैयद मीर निसार अली तित्तू मीर के विद्रोह का था। तित्तू मियां और उनके पांच हजार किसान साथी पूरे बंगाल में शोषण और दमन का खात्मा करने के लिए उठ खड़े हुए थे। वे पूरी ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने को प्रतिबद्ध थे।

चिंता व्यक्ति को खोखला कर देती है

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

चिंता को चिता के समान माना गया है। व्यक्ति चाहे जितना आत्मबल और सामर्थ्य रखने वाला हो, अगर उसे किसी प्रकार की चिंता ने जकड़ लिया, तो उसका क्षय निश्चित है। चिंता कई प्रकार की बीमारियों की जन्मदात्री भी मानी जाती है। चिंतित व्यक्ति धीरे-धीरे उसी प्रकार सूख जाता है जिस प्रकार कोई विशालकाय वृक्ष पानी न मिलने पर सूख जाता है। चिंता सचमुच बहुत घातक होती है। 

इस संदर्भ में एक बड़ा रोचक किस्सा है। किसी जगह पर दो वैज्ञानिक आपस में बात कर रहे थे। उनमें से एक वैज्ञानिक वृद्ध था और दूसरा युवा। बुजुर्ग वैज्ञानिक ने युवा से कहा कि विज्ञान ने बहुत ज्यादा प्रगति कर ली है। इसमें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है, लेकिन वह अभी तक किसी ऐसी मशीन का आविष्कार नहीं कर पाया है जिससे चिंता को समाप्त किया जा सके। 

यह सुनकर युवा वैज्ञानिक हंस पड़ा। उसने कहा कि इस मामूली सी बात के लिए किसी मशीन के आविष्कार की क्या जरूरत है। चिंता से छुटकारा पाने के लिए मशीन बनाने में समय बरबाद करने से कोई फायदा नहीं होने वाला है। यह सुनकर बूढ़े वैज्ञानिक ने कहा कि आओ, मैं तुम्हें समझाता हूं। बुजुर्ग उस युवा को एक जंगल में ले गया।

 उसने एक विशालकाय पीपल के पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा कि तुम जानते हो, यह पीपल का पेड़ चार सौ साल  पुराना है। अब तक इस पेड़ पर कई बार बिजलियां गिर चुकी हैं। कई बार भीषण आंधी आने पर भी इस पेड़ का बाल बांका नहीं हुआ। यह हमेशा खड़ा रहा, लेकिन अब लगता है कि यह पेड़ जल्दी ही नष्ट हो जाएगा क्योंकि इसकी जड़ में दीमक लग गए हैं। चिंता भी दीमक की तरह होती है जो व्यक्ति को खोखला कर देती है। चिंता किसी व्यक्ति की सुख-समृद्धि तक को चट कर जाती है। यह सुनकर युवा वैज्ञानिक उस बूढ़े वैज्ञानिक की बात से सहमत हो गया।

हरियाणा में धीरे-धीरे एनीमिया के रोगियों का बढ़ना चिंताजनक

अशोक मिश्र

आधुनिक जीवन शैली और खान-पान की वजह से लोगों में एनीमिया के मामले बढ़ रहे हैं। कुछ दशक पहले तक यह आम धारणा थी कि गरीब और बेरोजगार परिवारों में उचित खानपान न मिलने से लोगों में खून की कमी हो जाती है। लेकिन आज के हालात इसके बिल्कुल उलट हैं। गरीब परिवार के सदस्यों में खून की कमी तो पाई ही जा रही है, लेकिन खाते-पीते परिवारों की महिलाओं, बच्चों और पुरुषों में भी रक्त की कमी पाई जा रही है। दो दिन पहले ही गुरुग्राम शहर में स्वास्थ्य विभाग ने एक सर्वे करवाया था। 

स्वास्थ्य विभाग के चिकित्सकों और अन्य कर्मचारियों ने पूरे मिलेनियम सिटी में रहने वाले 76 हजार लोगों के खून की जांच की थी। जांच रिपोर्ट में पाया गया कि 32 हजार लोगों में खून की कमी है। यह कुल जांच किए जाने वाले लोगों की संख्या का 42 प्रतिशत है। जब मिलेनियम सिटी के नाम से मशहूर गुरुग्राम की यह हालत है, तो हरियाणा के अन्य शहरों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। गुरुग्राम के डिप्टी सिविल सर्जन डॉ. जेपी राजलीवाल इसका कारण आधुनिक जीवन शैली मानते हैं। उनका कहना बिल्कुल सही प्रतीत होता है क्योंकि आजकल लोगों के पास अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए समय ही नहीं है। 

सुबह उठते ही काम पर जाने की जल्दबाजी में नाश्ता गायब हो जाता है। लंच में जो कुछ मिल गया, खा लिया। यह नहीं देखते हैं कि वह पौष्टिक है भी या नहीं। चाऊमिन, बर्गर, पेस्ट्री या इसी तरह की चीजें बाजार से मंगाकर लंच कर लिया। घर से अगर लंच लेकर आए हैं, तो भी उसमें पौष्टिकता का अभाव मिलेगा। सुबह जल्दी-जल्दी कुछ बनाकर खुद, पति और बच्चों के लिए लंच पैक करने वाली महिला सेहत का ख्याल नहीं रख पाती है। रात को भी कुछ ऐसा ग्रहण नहीं किया जाता जिससे स्वास्थ्य ठीक रहे, एनीमिया जैसी बीमारी न होने पाए, इसका भी ख्याल नहीं रखा जाता है। 

नतीजा यह होता है कि परिवार के दो तिहाई लोग रक्त की कमी जैसी समस्या से जूझते हैं। नेशनल परिवार हेल्थ सर्वे में चौकाने वाले आंकड़े सामने आएं है। सर्वेे रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि प्रदेश में 61 फीसदी महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं। खान-पान के लिए प्रसिद्ध हरियाणा प्रदेश की 61 फीसदी महिलाएं एनीमिया पीड़ित पाई जाएं, तो डॉक्टरों के लिए यह चिंता का विषय हो सकता है। यही नहीं, एनीमिया में प्रदेश ग्यारहवें स्थान पर है। इस मामले में पिछले साल का एक आंकड़ा बताता है कि हर पांचवीं गर्भवती महिला एनीमिया की शिकार है। यह स्थिति वाकई चिंताजनक है क्योंकि गर्भवती महिला के एनीमिया का शिकार होने पर उसके बच्चे के विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

Saturday, August 2, 2025

क्रांतिकारी अवनि मुखर्जी की रूस में लेनिन से मुलाकात

अशोक मिश्र 

बैठे ठाले बस यों ही-------------9 रचनाकाल 5 जुलाई 2020

हां, तो कल बात हो रही थी मार्क्सवाद और लेनिनवाद की अन्योनाश्रिता पर। अगर आप इस बात को इस तरह से समझें तो शायद आसानी होगी। अगर मार्क्सवाद एक तलवार है, तो लेनिनवाद उस तलवार को उपयोग करने की कला है। तलवार तब तक बेकार है, जब तक उस तलवार को चलाने की कला में पारंगत तलवार बाज न हो। विल्यादिमीर इल्यीच लेनिन ने यही करके दिखाया। उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धांत को आत्मसात करके पहले जनतांत्रिक क्रांति करवाई और उसके बाद नौ-दस महीने बाद समाजवादी क्रांति।
मार्क्सवाद और लेनिनवाद का कुल निचोड़ यही है कि जब तक शोषण पर आधारित बिकाऊमाल की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का सशस्त्र सर्वहारा समाजवादी क्रांति के जरिये ध्वंस और उन्मूलन नहीं होता, तब तक मानवीय मानव समाज की स्थापना नहीं हो सकती है। अब सशस्त्र सर्वहारा समाजवादी क्रांति को पढ़कर आप यह न समझें कि माओवादियों और नक्सलवादियों की तरह बम, कट्टा, पिस्तौल, आरडीएक्स या दूसरे घातक हथियार लेकर पूंजीवादी राजसत्ता के खिलाफ युद्ध छेड़ना है या पुलिस, फौज और सरकारी कर्मचारियों की हत्या करनी है।…नहीं…माओवादी, स्टालिनवादी, नक्सलवादी जैसे तमाम वादी और मार्क्सवादी-लेनिनवादी होने में यही फर्क है। दरअसल, यहां सशस्त्र का मतलब मार्क्सवादी-लेनिनवादी दर्शन और सिद्धांत को इस तरह आत्मसात और उसका उपयोग करना है कि वह दर्शन और सिद्धांत ही हथियार बन जाए। भौतिक हथियारों की जरूरत ही नहीं है। हां, जब क्रांति का दौर शुरू होगा, तब क्रांतिकारियों का लक्ष्य न्यूनतम रक्तपात होना चाहिए। बिना रक्तपात के कोई व्यवस्था परिवर्तन नहीं होता है।
आप याद करें। प्रख्यात क्रांतिकारी शहीद राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने फांसी चढ़ने से कुछ दिन पूर्व तत्कालीन गुलाम भारत के नौजवानों को क्या संदेश दिया था। उन्होंने कहा था कि अब हिंदुस्तान के नौजवानों को ब्रिटिश राज सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए बम-पिस्तौल लेकर उनसे लड़ने की जरूरत नहीं है। बस, मार्क्सवाद और लेनिनवाद का गहन अध्ययन और उसको आत्मसात करके ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लेने की जरूरत है। आप याद करें, शहीदे आजम भगत सिंह के मार्क्सवादी-लेनिनवादी साहित्य का अध्ययन करने के बाद हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्यों ने ब्रिटिश और हिंदुस्तानी नौकरशाहों पर व्यक्तिगत हमले बंद कर दिए थे।
संसद में भी भगत सिंह और उनके साथियों ने जब बम फेंका था, वह पहली बात घातक नहीं था और दूसरा उनका उद्देश्य किसी को क्षति पहुंचाना नहीं था। ब्रिटिश हुकूमत के बहरे कानों को खोलने के लिए संसद में धमाका किया गया था। आप याद करें कि रूस में सात नवंबर उन्नीस सौ सत्रह (रूसी कैलेंडर के मुताबिक 25 अक्टूबर) की समाजवादी क्रांति के बाद लेनिन ने यह कोशिश शुरू की कि पूरी दुनिया में समाजवादी क्रांतियां शुरू करवाई जाएं और इसके लिए उन्होंने गुलाम भारत में भी संपर्क किया।
भारत से क्रांतिकारी अवनि मुखर्जी रूस में जाकर लेनिन से मिले। कार्ययोजना बनी और तय हुआ कि भारत में जाकर क्रांतिकारियों और क्रांतिकारी तत्वों को संगठित कर क्रांतिकारी संगठन तैयार किया जाए। बाद में जब वह अपनी कार्ययोजना लेकर दोबारा रूस पहुंचे, तब तक लेनिन की गोली लगने के बाद कई महीने बीमार रहने से मौत हो चुकी थी। और घोर अवसरवादी स्टालिन रूस की सत्ता पर काबिज हो चुका था। उसके बाद भारत में कम्युनिष्ट पार्टियों का गठन हुआ, कम्युनिष्टों ने भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के साथ किस तरह विश्वासघात किया…यह फिर कभी लिखूंगा। हां, चलते-चलते एक बात और बता दूं…कम्युनिष्टों के क्रांतिकारी आंदोलन से विश्वासघात करने वालों में क्रांतिकारी अवनि मुखर्जी की कोई भूमिका नहीं थी। वे आजीवन महान क्रांतिकारी रहे।

प्रभु! आप तो जा रहे हैं, मेरा क्या होगा?

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

कहते हैं कि जो व्यक्ति जीवन और मृत्यु में भेद न करे, वह बुद्धत्व को प्राप्त कर लेता है। ज्ञान प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध का जीवन एक स्थिर नदी के समान हो गया था। शोक और हर्ष में सदैव एक समान रहा है। वह मृत्यु को यात्रा के दौरान आने वाले एक पड़ाव की तरह मानते थे। उनका मानना था कि यात्रा तो अनंत है, उसमें कई पड़ाव आएंगे, जाएंगे, इन पड़ावों से भयभीत होकर भागना क्या? 

बात उस समय की है, जब महात्मा बुद्ध के जीवन का आखिरी दिन था। उस दिन भी तथागत एकदम शांत और स्थिर थे। मानो उनके शरीर में कोई पीड़ा न हो। हमेशा की तरह चेहरे पर छाई रहने वाली स्निग्ध मुस्कान उस समय भी विराजमान थी। कुटी के बाहर बुद्ध का प्रिय शिष्य आनंद अपने गुरु की मौत की आशंका में बैठा जार-जार रो रहा था, लेकिन उसके मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी ताकि महात्मा बुद्ध न जान जाएं। 

अचानक तथागत के नेत्र खुले, उन्होंने शांत चित्त से आनंद को आवाज दी। आनंद अंदर आया और आर्द्र स्वर में बोला, प्रभु! आप तो जा रहे हैं। मेरा क्या होगा? यह सुनकर बुद्ध मुस्कुराए और बोले, आनंद! ऐसा मत कहो। मैं कोई अकेला बुद्ध तो हूं नहीं। अनेक बुद्ध आए और अपना कर्तव्य निभाकर चले गए। भविष्य में भी कई बुद्ध आएंगे। वह भी अपना कर्तव्य निभाकर चले जाएंगे। यह तो यात्रा है जो अनंतकाल तक चलती रहेगी। हो सकता है कि मेरे बाद तुम ही बुद्धत्व प्राप्त कर लो। 

इतना कहकर तथागत हमेशा के लिए मौन हो गए। बुद्ध की मौत के बाद आनंद की चेतना जाग्रत हुई। उसने बुद्ध के उपदेशों को न केवल याद रखा, बल्कि जीवन में भी उतारना शुरू कर दिया। वह तप, साधना, आत्मपरीक्षण में पूरी तरह लीन हो गया। और एक दिन वह भी आया जब उसने परमज्ञान प्राप्त कर लिया। बुद्ध के जीवित रहते वह बहुत ज्यादा ज्ञान अर्जित नहीं कर सका था।

धूम्रपान नहीं करने वालों को भी अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा कैंसर

अशोक मिश्र

पिछले कुछ दशक से लोगों की प्रतिरोधक क्षमता घट रही है। लोग थोड़े से मौसम में बदलाव आने से ही बीमार पड़ रहे हैं। प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग ने इंसान को संकट में डाल दिया है। हालत तो इतनी बदतर हो गई है कि पूरी जिंदगी में कभी एक भी सिगरेट न पीने वाले लोग भी फेफड़ों के कैंसर का शिकार हो रहे हैं। गला, त्वचा, फेफड़ा सब कैंसर का शिकार बन रहे हैं। इसका सीधा सा कारण है, वायु, जल और मृदा प्रदूषण। औद्योगिक विकास के नाम पर हमने अपने पूरे वायुमंडल को ही प्रदूषित कर दिया है। हवा, मिट्टी, पानी से लेकर खाद्यान्न तक प्रदूषित हो गए हैं।  नदियों, झरनों और भूगर्भजल में इतना रसायन घुल चुका है कि यह जल हमें जीवन की जगह हमारा जीवन ही छीनने के लिए तैयार दिखाई देता है। 

प्रदूषित जल का उपयोग करने से लोग असमय ही मौत के मुंह में समा रहे हैं। इस पानी से फसलों और सब्जियों की सिंचाई की जाती है जिसकी वजह से पानी में घुले विषैले तत्व अनाजों में भी पाए जाने लगे। इन अनाजों और सब्जियों का लंबे समय तक सेवन करने से शरीर का कोई न कोई हिस्सा कैंसरग्रस्त होने लगता है। कुछ इलाकों में नदियों और भूगर्भ जल में इतना ज्यादा फ्लोराइड जैसे तमाम रसायन इतनी ज्यादा मात्रा में घुली रहती है कि इस पानी का सेवन करने से लोगों की हड्डियां असमय गल रही हैं, दांत कमजोर होकर बीस-बाइस साल में ही गिर जा रहे हैं। हड्डियां खोखली हो रही हैं जिसकी वजह से थोड़ा सा भी दबाव पड़ने पर हड्डियां टूट जा रही हैं। 

दूषित अनाज-सब्जी और पानी का सेवन करने से छोटे-छोटे बच्चे तक फेफड़ा, त्वचा, आमाशय आदि के कैंसर से पीड़ित पाए जाने लगे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, जहां धूम्रपान करने वाले लोग कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों से पीड़ित पाए जा रहे हैं, वहीं बीते पांच साल में ऐसे लोगों की भी संख्या चालीस से पचास फीसदी बढ़ रही है जिन्होंने कभी धूम्रपान नहीं किया है। इसमें भी युवाओं की संख्या अच्छी खासी है। डॉक्टरों की मानें तो शहरी क्षेत्र में वायु प्रदूषण बड़े पैमाने पर फेफड़े के कैंसर का कारण बनता जा रहा है। 

जो लोग खुद तो सिगरेट, बीड़ी या हुक्का नहीं पीते हैं, लेकिन इनका सेवन करने वालों के साथ उठते बैठते हैं, ऐसी स्थिति में भी उनके फेफड़े में कुछ न कुछ धुआं जरूर जाता है। ऐसे लोगों में भी फेफड़े का कैंसर होने की आशंका बनी रहती है। यह समस्या केवल पुरुषों में ही नहीं, बल्कि महिलाओं में भी देखने को मिल रही है। फेफड़े के रोग से जुड़े दस लोगों में से औसतन तीन लोग कैंसर के रोगी पाए जा रहे हैं। डॉक्टरों का कहना है कि खांसी या गले में घरघराहट ज्यादा दिन रहे, तो तुरंत चिकित्सक को दिखाएं।

Friday, August 1, 2025

मार्क्सवाद-लेनिनवाद का रामनामी दुपट्टा

 बस, बैठे ठाले यों ही----------7 रचनाकाल----चार जुलाई 2020

नथईपुरवा गांव में मेरे एक पट्टीदार थे। पुराने जमाने में किसी तरह अर्थशास्त्र से एमए पास हो गए थे। प्राचीन नगरी श्रावस्ती (स्थानीय बोलचाल में सहेट-महेट) के पास स्थित एक इंटर कालेज में पढ़ाते थे। वैसे तो पट्टीदारी के नाते बाबा लगते थे। लेकिन उनसे एक रिश्ता और था। उनको मेरी बड़ी चाची की बहन ब्याही थीं। तो हम सभी उनको बाबा बोलते थे और उनकी पत्नी को मौसी। भइया ने तीस-बत्तीस साल पहले उनके बारे में एक बड़ा मजेदार बात बताई थी। भइया बोले तो आनंद प्रकाश मिश्र (महामंत्री,आरएसपीआई (एमएल), क्रांतियुग साप्ताहिक के प्रधान संपादक)। भइया ने बताया कि एक बार वे लखनऊ से गांव गए, तो रास्ते में बाबा मिल गए। उनके साथ जय शंकर प्रसाद मिश्र उर्फ करुणेश भैया (एकता मांटेसरी स्कूल, पुरैनिया तालाब के प्रिंसिपल और शायद संस्थापक कभी) भी थे।
पैलगी-वैलगी होने के बाद बातचीत होने लगी। बातचीत पता नहीं कैसे मार्क्सवाद की ओर घूम गई। बाबा ने कहा कि बड़कू (गांव जंवार के पुरनिया आज भी भइया को इसी नाम से पुकारते हैं)…मार्क्सवाद मैंने भी पढ़ा है। यह जो मार्क्सवाद है यही पूंजीवाद है। भइया हंस पड़े। अब आप कहेंगे कि भला…आज इतने साल बाद इस किस्से की क्या जरूरत आ पड़ी है। तो बात यह है कि जब से चीन और भारत के बीच गलवान और अन्य क्षेत्रों में सीमा विवाद को लेकर तनाव बढ़ा है, एक बार फिर भारत की कम्युनिष्ट पार्टियां की भूमिका चर्चा में है।
दक्षिणपंथी पार्टियां कम्युनिष्टों को कोस रही हैं और वे चुप हैं। दरअसल, दक्षिणपंथियों की नजर में सब धान बाइस पसेरी है। मार्क्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद, स्टालिनवाद, ट्रास्टस्कीवाद, लोहिया का समाजवाद, ख्रुश्चेववाद, नक्सलवाद में दक्षिणपंथियों की नजर में कोई फर्क नहीं है। दरअसल, इसमें इनका दोष बस इतना है कि कम्युनिष्टों के प्रति घृणा इनमें चरम सीमा तक है। इसलिए कम्युनिष्ट साहित्य पढ़ना तो दूर देखना भी इनके लिए पाप है।
वहीं भारत की तमाम कम्युनिष्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद के नाम पर इतनी गंद मचाई है कि लोग इनसे दूर होते गए। अधकचरा ज्ञान इन्हें ले डूबा। मार्क्सवाद-लेनिनवाद का रामनामी दुपट्टा ओढ़कर इन कम्युनिष्ट पार्टियों के नेता आजीवन स्टालिनवाद, ट्रास्टस्कीवाद, लोहिया का समाजवाद, ख्रुश्चेववाद, नक्सलवाद और माओवाद को पालते पोसते रहे। इन्हें खुद नहीं मालूम कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओवाद, स्टालिनवाद, ट्रास्टस्कीवाद, लोहिया का समाजवाद, ख्रुश्चेववाद, नक्सलवाद में क्या फर्क है। मार्क्सवाद-लेनिनवाद ही नहीं, इन तमाम वादों का अधकचरा ज्ञान इन्हें ले डूबा। जबकि सच तो यह है कि जिन कम्युनिष्ट पार्टियों ने अपने नाम के साथ मार्क्सवाद या लेनिनवाद जोड़ रखा है, वह दुनिया को बेवकूफ बनाने के लिए भर है।
मार्क्सवाद या लेनिनवाद से उतना ही नाता है जितना दक्षिण पंथियों का मार्क्सवाद और लेनिनवाद से। दरअसल, अगर दुनिया के सभी दार्शनिक विचारकों को ठीक से पढ़े, तो मार्क्सवादी दर्शन दुनिया का सबसे मानववादी दर्शन है। दुनिया के सभी विचारकों ने अपने दर्शन में दुख क्या है इसकी व्याख्या की। मार्क्स पहले विचारक थे जिन्होंने दुख क्यों है? इसकी व्याख्या की। दुनिया भर के दार्शनिक जो सिर के बल दुनिया को देख रहे थे, उन्हें कार्ल मार्क्स ने पैरों के बल खड़ा कर दिया। लेनिन ने सिर्फ इतना किया कि मार्क्सवाद को आत्मसात कर उसके उपयोग की कला विकसित की। मार्क्सवाद दर्शन को वैज्ञानिक तरीके से समाज पर लागू करने की कला लेनिनवाद है। लेनिनवाद के बिना मार्क्सवाद अधूरा है, तो मार्क्सवाद के बिना लेनिनवाद का कोई मतलब नहीं है।

फर्श से अर्स तक पहुंचे हेनरी फोर्ड

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

अमेरिका के प्रसिद्ध उद्योगपति और कार व्यवसायी हेनरी फोर्ड का जन्म मिशिगन के स्प्रिंगवेल्स टाउनशिप में 30 जुलाई 1863 को हुआ था। उनके पिता उन्हें किसान बनाना चाहते थे, लेकिन उनका मन खेती-किसानी में नहीं लगता था। उनका मन मशीनों में लगता था। यही वजह है कि वह ज्यादा पढ़-लिख भी नहीं सके। उन्होंने स्प्रिंगवेल्स मिडिल स्कूल से केवल आठवीं कक्षा पास की। 

एक दिन उनके पिता ने उन्हें एक घड़ी दी, तो उन्होंने उसको खोल दिया। थोड़ी देर बाद जब उनके पिता लौटे तो घड़ी को खुला देखकर नाराज हुए। उन्होंने तुरंत उस घड़ी को पहले जैसा कर दिया। इसके बाद तो उन्होंने अपने दोस्तों और पड़ोसियों की घड़ियों को ठीक करना शुरू कर दिया। सोलह साल की उम्र में ही वह भागकर शहर आ गए। क्योंकि उनका गांव में मन नहीं लगता था। शहर में काफी भटकने के बाद रेल के डिब्बे बनाने वाले कारखाने में हेनरी फोर्ड को काम मिला। 

वहां एक मशीन खराब हो गई थी जिसे फोर्ड ने आधे घंटे में ही ठीक कर दिया। लेकिन उम्र कम होने की वजह से कुछ ही दिनों बाद फोर्ड को काम से निकाल दिया गया। काम की तलाश में वह भटक ही रहे थे कि एक दिन वह एक लड़के से टकरा गए जिसके थैले में काफी घड़ियां रखी हुई थीं। उनमें से कुछ टूट गई थीं। फोर्ड ने उस लड़के को घड़ियों को ठीक करने का आश्वासन दिया और उसके पिता की दुकान पर जाकर सभी घड़ियां ठीक कर दीं। 

जीवन संघर्ष के दौरान उन्होंने पेट्रोल से चलने वाली गाड़ी बनाई जो उस साल अमेरिका में होने वाली कार रेस में जीत गई। इसके बाद तो हेनरी फोर्ड ने पीछे घूमकर नहीं देखा। बाद में उन्होंने एक आटोमोबाइल कंपनी की स्थापना की और फिर उनकी कारों ने पूरी दुनिया में धूम मचा दी। उन्होंने अपनी कंपनी में काम करने वाले कर्मचारियों का हमेशा ख्याल रखा।

एक महीने में पशुविहीन हो जाएंगी हरियाणा की सड़कें?

अशोक मिश्र

हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी के निर्देश पर कल से पूरे प्रदेश की सड़कों को बेसहारा पशु मुक्त करने की योजना की शुरुआत होने जा रही है। इस बात की घोषणा मुख्यमंत्री के अतिरिक्त सचिव ने की है। योजना के मुताबिक, एक अगस्त से 31 अगस्त तक प्रदेश की सड़कों पर घूमने वाले बेसहारा पशुओं को पकड़कर उन्हें गौशालाओं को सौंपा जाएगा। सड़कों पर बेसहारा घूमने वाले पशुओं के कारण आए दिन दुर्घटनाएं होती रहती हैं। सड़कों पर वाहनों या पैदल आने जाने वाले लोगों पर कई बार बेसहारा पशु हमला कर देते हैं। कई बार तो यह आपस में लड़ने लगते हैं जिसकी वजह से लोग घायल हो जाते हैं। 

कई बार इनकी आपसी लड़ाई में घायल या कुचले गए लोगों को अपनी जान तक गंवानी पड़ती है। सड़कों पर बेपरवाह घूमते पशुओं को देखकर लोग भयभीत हो जाते हैं और उसके आसपास से गुजरते समय वह इसी आशंका में रहते हैं कि पता नहीं कब पशु हमला कर दे या आपस में लड़ पड़ें। रात में हालत तो और भी खराब हो जाती है। लोग अपने पालतू पशु को भी खुला छोड़ देते हैं और सुबह होने पर वह अपने यहां फिर बांध लेते हैं। वैसे सड़कों को बेसहारा पशुओं से मुक्त करने का अभियान कोई पहली बार नहीं चलाया जा रहा है। 

पिछले साल भी पांच अगस्त को सीएम सैनी ने बेसहारा पशुओं को गौशालाओं में भेजने की घोषणा की थी। तब उन्होंने कहा था कि सभी गौशालाओं को चारे के लिए अनुदान राशि पांच गुना करके प्रति गाय 20 रुपये प्रतिदिन दिए जाएंगे। नंदी के लिए 25 रुपए प्रतिदिन और बछड़ा/बछड़ी के लिए 10 रुपये प्रतिदिन चारा अनुदान मिलेगा। उन्होंने बेसहारा गाय/बछड़ा/बछड़ी पकड़कर अपनी गौशाला में लाने के लिए 600 रुपये प्रति गाय और 800 रुपये प्रति नन्दी की दर से तुरंत नगद भुगतान करने की भी घोषणा की थी। यही नहीं, सीएम सैनी ने कहा था कि राज्य सरकार द्वारा 70 मोबाइल पशु चिकित्सालयों की व्यवस्था की गई है। 

मोबाइल पशु चिकित्सालय सप्ताह में एक दिन केवल गौशालाओं के गौवंश के उपचार, टैगिंग, टीकाकरण, गिनती आदि के लिए उपलब्ध होंगी। इन घोषणाओं पर कितना अमल हुआ, यह सरकार अच्छी तरह बता सकती है। हर सरकार साल में एक बार सड़कों को बेसहारा पशु मुक्त करने के लिए अभियान चलाती है। यह सच है कि प्रदेश में गाय छोटे और सीमांत किसानों की आजीविका का एक मुख्य साधन रही है।  इसके गोबर से खाद बनाकर प्राकृतिक खेती भी की जा सकती है। वहीं दूध को बेचकर अपनी अर्थव्यवस्था को किसान सुधार सकता है। वैसे भी गाय के दूध को अमृत के समान माना गया है।

Thursday, July 31, 2025

महात्मा बुद्ध और महात्मा गांधी की अहिंसा में बहुत अंतर था

बस यों ही बैठे ठाले-6

रचना काल 7 मई 2020

आज बुद्ध पूर्णिमा है। कहा जाता है कि आज के ही दिन ईसा पूर्व 563 में इक्ष्वाकु वंशीय शाक्य कुल नरेश शुद्धोधन के घर में महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था। उनका जन्म राजधानी कपिलवस्तु से कुछ दूर लुंबिनी में हुआ था जो नेपाल में है। राजकुमार सिद्धार्थ महात्मा बुद्ध कैसे बने, यह लगभग सभी जानते हैं। एक कथा तो यह है कि एक बार उन्होंने बीमार को देखा, फिर एक दिन बूढ़े को देखा और फिर एक आदमी की शवयात्रा देखी, तो वह व्यथित हो गए और संपूर्ण मानव समाज के दुखों का कारण तलाशने को राजपाट छोड़कर संन्यासी हो गए।
वहीं, एक कथा यह भी कही जाती है कि राजकुमार सिद्धार्थ लच्छिवी गणराज्य के प्रमुख नरेश शुद्धोधन का अपने पड़ोसी राज्य के बीच काफी लंबे समय से नदी जल विवाद चला आ रहा था। इस विवाद को हल करने के लिए जब गणराज्यों की बैठक हुई, तो दूसरे पक्ष ने शर्त रखी कि यदि राजकुमार सिद्धार्थ राजपाट छोड़कर संन्यासी हो जाएं, तो युद्ध टाला जा सकता है। कहते हैं कि राजकुमार सिद्धार्थ युद्ध नहीं चाहते थे और एक दिन रात में वे पत्नी, पुत्र, पिता और राजपाट को त्याग कर अपने आप को देश निकाला दे दिया।

अब इनमें से कौन सी कथा सही है, नहीं मालूम। पर पहली कथा को ही समाज में मान्यता प्राप्त है इन दोनों कथाओं पर यदि विचार करें, तो एक बात साफ उभर कर सामने आती थी कि राजकुमार सिद्धार्थ एक संवेदनशील और जिज्ञासु प्रवृत्ति के रहे होंगे। दया, करुणा और मानव प्रेम उनके अंत:करण में काफी गहरे पैठी रही होगी। आज के हालात में यह सोचकर देखिए कि आज से ढाई हजार साल पहले तत्कालीन समाज में रहने वालों के दुखों का कारण जानने को उस समय की सबसे सुंदर राजकुमारी यशोधरा, पुत्र राहुल और लिच्छिवी गण को एक झटके में छोड़कर एक चीवर धारण कर निकल पड़ता है, तो वह कितना दृढ़ निश्चयी, साहसी, मानवीय और करुणामय रहा होगा।
राजकुमार सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध बनने के बीच का सफर भी कोई आसान नहीं रहा होगा। लेकिन उन्होंने यह सफर पूरा किया। इस दौरान वे आत्म विवेचन, परीक्षण और अनुसंधान के कई चरणों से गुजरे होंगे। कई बार वे विचारों, सिद्धांतों को लेकर गलत साबित हुए, उन्होंने उसमें सुधार किया। महात्मा बुद्ध जिस युग में पैदा हुए थे, उस युग में कर्मकांडों और यज्ञों का बोलबाला था। तत्कालीन समाज में पुरोहितों ने दीन हीन, निराश्रित और असहाय जनता को यज्ञ और कर्मकांड के नाम पर लूट मचा रखी थी। महात्मा बुद्ध आम जनता को इन कर्मकांडों और यज्ञों से मुक्ति दिलाने के लिए आगे आए।
उन्होंने उद्घोष किया, अप्प दीपो भव। अपना प्रकाश खुद बनो। तुम दूसरों में अपना आदर्श खोजने की जगह खुद आदर्श बनो। तुम जिस ईश्वर की प्रतीक्षा में हो, वह ईश्वर तुम्हें कष्टों से मुक्ति नहीं दिलाएगा। तुम्हें खुद प्रयास करना होगा। यह शायद महात्मा बुद्ध का अवतारवाद के खिलाफ पहला विद्रोह था। उन्होंने निर्वाण के लिए कर्मकांड और यज्ञों की महत्ता से इनकार कर दिया। उन्होंने आत्मिक शुद्धता को ही महत्व दिया। नतीजा यह हुआ कि तत्कालीन शोषित, पीड़ित आम जनता को बुद्ध के रूप में एक मुक्तिदाता मिला जिसने सदियों से पैरों में पड़ी कर्मकांडों की बेड़ी को एक झटके में तोड़ दिया।
आज से ढाई हजार साल पहले महात्मा बुद्ध इस बात को समझ गए थे कि सभी मानवीय समस्याओं की जड़ निजी संपत्ति है। इसीलिए उन्होंने व्यवस्था दी कि संघ में भिक्षा पात्र और तीन चीवर (1- अन्तरवासक : अधोवस्त्र, जिसे लुंगी के समान लपेटा जाता है । 2- उत्तरासंग : यह इकहरी चादर के समान होता है, जिससे शरीर को लपेटा जाता है । यह चार हाथ लम्बा और चार हाथ चौड़ा होता है । 3- संघाटी : दुहरी सिली होने के कारण इसे दुहरी चादर कहा जा सकता है । यह कंधे पर तह लगाकर रखी जाती है । ठंड लगने अथवा अन्य कोई कार्य आ पड़ने पर इसका उपयोग किया जाता है । ) के अलावा किसी भिक्षु की कोई निजी संपत्ति नहीं होगी। भिक्षु की मौत के बाद काषाय (चीवर) और भिक्षा पात्र दूसरे भिक्षु को प्रदान कर दिए जाएंगे यदि वे उपयोग के लायक रहे तो।
बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर मैं महात्मा बुद्ध और महात्मा गांधी की अहिंसा संबंधी विचारों के बारे में स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहता हूं। इसमें कितना सफल होता हूं, यह तो आप ही बताएंगे। जहां तक मैं समझ पाया हूं कि महात्मा बुद्ध की अहिंसा के मूल में यह अवधारणा थी कि जैसा राजा होता है, वैसी प्रजा होती है। यदि राजा अहिंसक हो, तो जनता हिंसा नहीं करती है। इसलिए अहिंसा के विचारों को अपनाने की जरूरत राजाओं को है, प्रजा तो वैसे भी स्वभावत: अहिंसक ही होती है। यही वजह है कि महात्मा बुद्ध और उनके परिवर्ती शिष्यों ने राजाओं को अहिंसक बनाने का प्रयास किया। लेकिन महात्मा गांधी?
जहां तक मैं समझता हूं कि मोहन दास करमचंद गांधी यानि महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु भले ही रामकृष्ण गोखले रहे हों, लेकिन अहिंसा संबंधी विचार उन्होंने रूसी साहित्यकार और दार्शनिक लियो टालस्टाय की अमर रचना ‘वार एंड पीस’ से ली थी। लियो टालस्टाय से प्रभावित होने की वजह से ही महात्मा गांधी ने कभी भारत या दूसरे देशों में उनके दौर में चल रही क्रांतिकारी गतिविधियों का समर्थन नहीं किया। उनका मानना था कि हम अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसा नहीं करेंगे। यदि अंग्रेज हुकूमत हिंसा करती है, तो करती रहे। यही वजह है कि स्वाधीनता संग्राम के दौरान कांग्रेसी कार्यकर्ता अंग्रेजों के लाठी-डंडे खाकर भी हाथ नहीं उठाते थे। गांधीवादी दर्शन और सिद्धांत को शहीदे-आजम भगत सिंह ने दिवा स्वप्न और कोरी कल्पना शायद इसी वजह से कहा होगा।

गुनाह की भरपाई तो मुझे करनी होगी

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

अशरफ अली शाह एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उनका जन्म 1920 में ओरछा रियासत में हुआ था। उन्होंने झंडा आंदोलन और बेगारी के खिलाफ चलने वाले आंदोलन में भाग लिया था। वह एक संत जैसा जीवन बिताते थे। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने की वजह से अंग्रेजी हुकूमत ने उन पर काफी जुल्म ढाए थे। सन 1940 के आसपास चलने वाले क्रांतिकारी आंदोलनों में उन्होंने भाग लिया था। 

इसकी वजह से कई बार गिरफ्तार भी किए गए। ज्यादातर समय उन्होंने भूमिगत रहकर क्रांतिकारी आंदोलन को आगे बढ़ाया। अशरफ अली शाह को जेल में इतनी अधिक यातनाएँ दी गई कि इनके गले की हड्डी टूट गयी थी एवं आँखों से कम दिखाई देने लगा था। फिर भी ये न तो डरे ना ही कभी झुके। ओरछा रियासत ने भी 1943 में उन्हें निष्कासित कर दिया था। वह हर किसी की मदद करते रहते थे। एक बार की बात है। वह सहारनपुर से लखनऊ जा रहे थे। उनके साथ कुछ सामान था और कई शिष्य भी उनके साथ थे। 

संयोग से उस रेलगाड़ी का गार्ड उनको पहचानता था। उसने कहा कि आपको सामान तुलवाकर उसका भाड़ा जमा करने की जरूरत नहीं है। मैं बरेली तक जाऊंगा। इसके बाद जो दूसरा गार्ड आएगा, मैं उससे कह दूंगा तो वह आपके सामान को सुरक्षित लखनऊ तक पहुंचा देगा। जबकि शाह ने अपने शिष्यों से कह रखा था कि वह सामान तुलवाकर उसका भाड़ा जमाकर दें। 

गार्ड की बात सुनकर शाह बोले कि मेरी यात्रा बहुत लंबी है। फिलहाल तो यह यात्रा लखनऊ तक है, लेकिन जीवन की यात्रा समाप्त होने के बाद मेरे इन गुनाहों को स्वीकार करने के लिए तुम तो साथ नहीं होगा। इस गुनाह की भरपाई तो मुझे ही करनी होगी। यह सुनकर गार्ड लज्जित हो गया। शाह ने सामान का भाड़ा जमा किया और लखनऊ तक यात्रा की।

राजस्व रिकार्ड डिजिटल होने से भ्रष्टाचार की गुंजाइश हुई खत्म

अशोक मिश्र

अब हरियाणा में किसी की जमीन पर दूसरा कोई कब्जा नहीं कर पाएगा। उसे धोखाधड़ी करके बेचना भी अब संभव नहीं होगा। जमीन से जुड़े मामले में किसी भी प्रकार का भ्रष्टाचार कम से कम अब हरियाणा में संभव नहीं होगा। इसका कारण यह है कि हरियाणा में राजस्व रिकार्ड अब आॅनलाइन हो गए हैं। 163 साल पुराने जमीन के दस्तावेजों का डिजिटलीकरण किया जा चुका है। बस, केवल दस प्रतिशत दस्तावेजों का काम बाकी है जिसके एक पखवाड़े में पूरा हो जाने की उम्मीद है। वैसे जमीनी दस्तावेजों को डिजिटल करने का विचार पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल के मन में वर्ष 2017 में आया था।  

उन्होंने राजस्व विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को यह कठिन काम सौंपा था। 163 साल पुराने जमीनी दस्तावेजों का अनुवाद करना, उन्हें क्रमबद्ध करना और फिर उसको स्कैन करके कोडिंग करना आसान काम नहीं था। सौ साल से भी अधिक पुराने ज्यादातर दस्तावेज उर्दू में थे जिनका अनुवाद भी आसान नहीं था। लेकिन सरकार का दृढ़ संकल्प और अधिकारियों-कर्मचारियों की कार्यकुशलता से यह कठिन काम आठ साल में ही पूरा हो गया। जमीनी दस्तावेजों का डिजिटलीकरण करने का मकसद एक तो उन्हें सुरक्षित रखना था, वहीं भ्रष्टाचार को रोकना भी अहम उद्देश्य था। 

बरसों से फटे-पुराने रिकार्ड को सहेजने में भी काफी परेशानी होती थी। यदि इनमें से कोई रिकार्ड खराब हो जाता, तो उसे दोबारा बनाने में काफी दिक्कत होती। राजस्व रिकार्ड किसी भी संपत्ति के लिए बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता है। जमीन की फर्द, इंतकाल, जमाबंदी, रजिस्ट्री जैसे तमाम काम राजस्व रिकार्ड का ही हिस्सा है। हरियाणा में 2691 पटवार सर्किल हैं। इसके बाद कानूनगो सर्किल आता है। प्रदेश में कुल 256 कानूनगो सर्किल हैं। एक पूरी तहसील के अंतर्गत आने वाले गांवों-कस्बों का यहां पर रिकार्ड रखा जाता है। हरियाणा में 49 सब तहसील और 93 तहसीलें हैं। हरियाणा देश का पहला राज्य है जिसने अपने राजस्व रिकॉर्ड का नब्बे प्रतिशत हिस्सा डिजिटल कर लिया है। 

डिजिटलीकरण का फायदा छोटे किसान, गरीब परिवारों से लेकर बड़े उद्योगपतियों को मिलेगा। जमीन का हर टुकड़ा सरकारी रिकार्ड में दर्ज रहेगा जिससे कोई दूसरा उससे छेड़छाड़ भी नहीं कर पाएगा। हरियाणा सरकार का यह फैसला लोकहित में है। गांव के किसान अब किसी भी तरह के जमीनी विवाद पैदा होने पर आॅनलाइन दस्तावेज निकाल सकेंगे, उसका उपयोग कर सकेंगे। इससे पहले सदियों और दशकों पुराने ऐतिहासिक दस्तावेज और अभिलेखों को प्राप्त करने के लिए संपत्ति मालिकों को काफी परेशानी उठानी पड़ती थी।

Wednesday, July 30, 2025

किसान पुत्रों ने लड़ना छोड़ दिया

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

एकता में बल होता है, यह हमारे धर्मग्रंथों और पंचतंत्र की कहानियों में बहुत बार दोहराया जा चुका है। यह सही है कि एकता में बहुत बल होता है, लेकिन इंसान अपनी कमजोरियों और स्वार्थ की वजह से एक नहीं रह पाता है। जब दो समाज, दो देश या दो भाइयों-बहनों के हित टकराते हैं, तो एकता टूट जाती है। व्यक्ति वैसे तो कभी नहीं चाहता है कि वह अपने परिजनों से अलग रहे,लेकिन परिस्थितियां उसे मजबूर कर देती हैं कि वह अपने ही सगे-संबंधियों के खिलाफ हो जाए। 

चलिए, वह कहानी भी कह देते हैं जिसमें कहा गया है कि एकता में बल है। बात बहुत पुरानी है। एक गांव में किसान रहता था। उसके पांच पुत्र थे। सभी पुत्र मेहनती और पिता के प्रति आज्ञाकारी थे, लेकिन वह आपस में लड़ते रहते थे। उनका पिता कई बार उन्हें समझा बुझा चुका था कि आपस में लड़ने से कोई फायदा नहीं है। यदि तुम सब एक साथ मिलजुलकर रहोगे, तो फायदे में रहोगे। 

लेकिन किसान के पांच पुत्र पिता की बात एक कान से सुनते और दूसरे कान से निकाल देते थे। हारकर एक दिन किसान ने अपने पांचों पुत्रों को बुलाया और कहा कि सामने रखा, लकड़ी का गट्ठर तोड़ दो। पांचों पुत्र बलशाली थे, लेकिन वह लकड़ी के गट्ठर को तोड़ नहीं पाए। तब किसान ने अपने पुत्रों से एक-एक लकड़ी को तोड़ने के लिए कहा। सभी पुत्रों ने उन लकड़ियों को बड़ी आसानी से तोड़ दिया।

तब किसान ने अपने पुत्रों को समझाया कि यदि तुम लोग आपस में मिलजुलकर नहीं रहे, तो दूसरे लोग तुम्हारी कमजोरियों का फायदा उठाकर तुम्हें हानि पहुंचा सकते हैं, लेकिन यदि मिलजुलकर रहे, तो कोई भी तुम्हारा बाल बांका नहीं कर पाएगा। यह बात लड़कों की समझ में आ गई और उस दिन से लड़ना छोड़ दिया।

हरियाणा में महिलाओं के विकास और उत्थान के लिए खुलते नए द्वार

अशोक मिश्र

हरियाली तीज के अवसर पर मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने प्रदेश की महिलाओं को कोथली दी। हरियाणा में भाई द्वारा बहनों को कोथली देने की एक बहुत पुरानी परंपरा है। सैनी सरकार ने महिलाओं के उत्थान और विकास के लिए अंबाला में कई घोषणाएं की। उनकी घोषणा में जहां महिलाओं की आर्थिक दशा सुधारने, गर्भवती महिलाओं का सुरक्षित प्रसव और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के बच्चों की फिक्र साफ तौर पर झलकी। वहीं, उन्होंने कन्याभ्रूण हत्या को लेकर भी एक तरह से अपनी चिंता जाहिर की। 

वह हर हालत में हरियाणा में बिगड़ते लिंगानुपात को सुधारकर बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ की मुहिम को आगे बढ़ाना चाहता है। हरियाली तीज के अवसर पर उन्होंने लाडो सखी योजना की घोषणा करके अपने इरादे जाहिर कर दिए हैं। लाडो सखी योजना के तहत प्रदेश की गर्भवती महिलाओं के सुरक्षित प्रसव की जिम्मेदारी उन्होंने आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, आशा वर्कर और एएनएम को सौंप दी है। यह एक तरह से गर्भवती महिलाओं की सखी की भूमिका निभाएंगी। 

इस योजना के तहत बेटी पैदा होने पर हर लाडो सखी को एक हजार रुपये की प्रोत्साहन राशि प्रदान की जाएगी। इस योजना के सहारे सीएम सैनी ने कन्याभ्रूण हत्या को भी प्रकारांतर से रोकने का प्रयास किया है। प्रोत्साहन राशि आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, आशा वर्कर्स और एएनएम को प्रोत्साहित करेगा कि वह कन्या भ्रूण हत्या को हर हालत में रोकने का प्रयास करें। यह लोग वैसे तो पहले भी कन्या भ्रूण हत्या को रोकने में अहम भूमिका निभा रहे थे, लेकिन लाडो सखी योजना की शुरुआत के बाद वह इस पर विशेष ध्यान देंगी। 

अब जब सैनी सरकार ने आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, आशावर्कर और एएनएम को गर्भवती महिलाओं के सुरक्षित प्रसव की जिम्मेदारी दे दी है, तो ऐसी स्थिति में इन लोगों के बच्चों की देखभाल का जिम्मा सरकार ने खुद ले लिया है। इसके लिए उन्होंने आंगनबाड़ियों में बढ़ते कदम डिजिटल बाल कार्यक्रम शुरू करने की घोषणा कर दी है। अब सरकार आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के बच्चों की देखभाल और शिक्षा में मदद करेगी। एक तरह से हरियाली तीज के अवसर पर सीएम सैनी ने गर्भवती महिलाओं और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के लिए सराहनीय फैसले लेकर यह जाहिर कर दिया है कि वह महिलाओं के विकास और उत्थान के लिए हर संभव प्रयास करने को आतुर हैं।

 हरियाणा में स्टार्टअप में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी उनकी सफल नीतियों का ही परिणाम है। महिलाओं के नेतृत्व वाले स्टार्टअप को विशेष छूट देने की घोषणा करके महिलाओं को एक नया आयाम सैनी सरकार ने प्रदान किया है।