Thursday, July 31, 2025

महात्मा बुद्ध और महात्मा गांधी की अहिंसा में बहुत अंतर था

बस यों ही बैठे ठाले-6

रचना काल 7 मई 2020

आज बुद्ध पूर्णिमा है। कहा जाता है कि आज के ही दिन ईसा पूर्व 563 में इक्ष्वाकु वंशीय शाक्य कुल नरेश शुद्धोधन के घर में महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था। उनका जन्म राजधानी कपिलवस्तु से कुछ दूर लुंबिनी में हुआ था जो नेपाल में है। राजकुमार सिद्धार्थ महात्मा बुद्ध कैसे बने, यह लगभग सभी जानते हैं। एक कथा तो यह है कि एक बार उन्होंने बीमार को देखा, फिर एक दिन बूढ़े को देखा और फिर एक आदमी की शवयात्रा देखी, तो वह व्यथित हो गए और संपूर्ण मानव समाज के दुखों का कारण तलाशने को राजपाट छोड़कर संन्यासी हो गए।
वहीं, एक कथा यह भी कही जाती है कि राजकुमार सिद्धार्थ लच्छिवी गणराज्य के प्रमुख नरेश शुद्धोधन का अपने पड़ोसी राज्य के बीच काफी लंबे समय से नदी जल विवाद चला आ रहा था। इस विवाद को हल करने के लिए जब गणराज्यों की बैठक हुई, तो दूसरे पक्ष ने शर्त रखी कि यदि राजकुमार सिद्धार्थ राजपाट छोड़कर संन्यासी हो जाएं, तो युद्ध टाला जा सकता है। कहते हैं कि राजकुमार सिद्धार्थ युद्ध नहीं चाहते थे और एक दिन रात में वे पत्नी, पुत्र, पिता और राजपाट को त्याग कर अपने आप को देश निकाला दे दिया।

अब इनमें से कौन सी कथा सही है, नहीं मालूम। पर पहली कथा को ही समाज में मान्यता प्राप्त है इन दोनों कथाओं पर यदि विचार करें, तो एक बात साफ उभर कर सामने आती थी कि राजकुमार सिद्धार्थ एक संवेदनशील और जिज्ञासु प्रवृत्ति के रहे होंगे। दया, करुणा और मानव प्रेम उनके अंत:करण में काफी गहरे पैठी रही होगी। आज के हालात में यह सोचकर देखिए कि आज से ढाई हजार साल पहले तत्कालीन समाज में रहने वालों के दुखों का कारण जानने को उस समय की सबसे सुंदर राजकुमारी यशोधरा, पुत्र राहुल और लिच्छिवी गण को एक झटके में छोड़कर एक चीवर धारण कर निकल पड़ता है, तो वह कितना दृढ़ निश्चयी, साहसी, मानवीय और करुणामय रहा होगा।
राजकुमार सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध बनने के बीच का सफर भी कोई आसान नहीं रहा होगा। लेकिन उन्होंने यह सफर पूरा किया। इस दौरान वे आत्म विवेचन, परीक्षण और अनुसंधान के कई चरणों से गुजरे होंगे। कई बार वे विचारों, सिद्धांतों को लेकर गलत साबित हुए, उन्होंने उसमें सुधार किया। महात्मा बुद्ध जिस युग में पैदा हुए थे, उस युग में कर्मकांडों और यज्ञों का बोलबाला था। तत्कालीन समाज में पुरोहितों ने दीन हीन, निराश्रित और असहाय जनता को यज्ञ और कर्मकांड के नाम पर लूट मचा रखी थी। महात्मा बुद्ध आम जनता को इन कर्मकांडों और यज्ञों से मुक्ति दिलाने के लिए आगे आए।
उन्होंने उद्घोष किया, अप्प दीपो भव। अपना प्रकाश खुद बनो। तुम दूसरों में अपना आदर्श खोजने की जगह खुद आदर्श बनो। तुम जिस ईश्वर की प्रतीक्षा में हो, वह ईश्वर तुम्हें कष्टों से मुक्ति नहीं दिलाएगा। तुम्हें खुद प्रयास करना होगा। यह शायद महात्मा बुद्ध का अवतारवाद के खिलाफ पहला विद्रोह था। उन्होंने निर्वाण के लिए कर्मकांड और यज्ञों की महत्ता से इनकार कर दिया। उन्होंने आत्मिक शुद्धता को ही महत्व दिया। नतीजा यह हुआ कि तत्कालीन शोषित, पीड़ित आम जनता को बुद्ध के रूप में एक मुक्तिदाता मिला जिसने सदियों से पैरों में पड़ी कर्मकांडों की बेड़ी को एक झटके में तोड़ दिया।
आज से ढाई हजार साल पहले महात्मा बुद्ध इस बात को समझ गए थे कि सभी मानवीय समस्याओं की जड़ निजी संपत्ति है। इसीलिए उन्होंने व्यवस्था दी कि संघ में भिक्षा पात्र और तीन चीवर (1- अन्तरवासक : अधोवस्त्र, जिसे लुंगी के समान लपेटा जाता है । 2- उत्तरासंग : यह इकहरी चादर के समान होता है, जिससे शरीर को लपेटा जाता है । यह चार हाथ लम्बा और चार हाथ चौड़ा होता है । 3- संघाटी : दुहरी सिली होने के कारण इसे दुहरी चादर कहा जा सकता है । यह कंधे पर तह लगाकर रखी जाती है । ठंड लगने अथवा अन्य कोई कार्य आ पड़ने पर इसका उपयोग किया जाता है । ) के अलावा किसी भिक्षु की कोई निजी संपत्ति नहीं होगी। भिक्षु की मौत के बाद काषाय (चीवर) और भिक्षा पात्र दूसरे भिक्षु को प्रदान कर दिए जाएंगे यदि वे उपयोग के लायक रहे तो।
बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर मैं महात्मा बुद्ध और महात्मा गांधी की अहिंसा संबंधी विचारों के बारे में स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहता हूं। इसमें कितना सफल होता हूं, यह तो आप ही बताएंगे। जहां तक मैं समझ पाया हूं कि महात्मा बुद्ध की अहिंसा के मूल में यह अवधारणा थी कि जैसा राजा होता है, वैसी प्रजा होती है। यदि राजा अहिंसक हो, तो जनता हिंसा नहीं करती है। इसलिए अहिंसा के विचारों को अपनाने की जरूरत राजाओं को है, प्रजा तो वैसे भी स्वभावत: अहिंसक ही होती है। यही वजह है कि महात्मा बुद्ध और उनके परिवर्ती शिष्यों ने राजाओं को अहिंसक बनाने का प्रयास किया। लेकिन महात्मा गांधी?
जहां तक मैं समझता हूं कि मोहन दास करमचंद गांधी यानि महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु भले ही रामकृष्ण गोखले रहे हों, लेकिन अहिंसा संबंधी विचार उन्होंने रूसी साहित्यकार और दार्शनिक लियो टालस्टाय की अमर रचना ‘वार एंड पीस’ से ली थी। लियो टालस्टाय से प्रभावित होने की वजह से ही महात्मा गांधी ने कभी भारत या दूसरे देशों में उनके दौर में चल रही क्रांतिकारी गतिविधियों का समर्थन नहीं किया। उनका मानना था कि हम अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसा नहीं करेंगे। यदि अंग्रेज हुकूमत हिंसा करती है, तो करती रहे। यही वजह है कि स्वाधीनता संग्राम के दौरान कांग्रेसी कार्यकर्ता अंग्रेजों के लाठी-डंडे खाकर भी हाथ नहीं उठाते थे। गांधीवादी दर्शन और सिद्धांत को शहीदे-आजम भगत सिंह ने दिवा स्वप्न और कोरी कल्पना शायद इसी वजह से कहा होगा।

3 comments:

  1. अब ना बुद्ध अब ना गांधी
    किताबें बदलने की है आजादी

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में शनिवार 02 अगस्त 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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  3. बहुत बहुत आभार यशोदा जी

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