Tuesday, July 15, 2025

आर्कटिक क्षेत्र के रेयर अर्थ मैटेरियल पर जमी गिद्ध दृष्टि

अशोक मिश्र

आर्कटिक क्षेत्र खतरे में है। कुछ तो ग्लोबल वार्मिंग के कारण और कुछ रूस, अमेरिका, चीन और अन्य देशों की आर्कटिक क्षेत्र पर कब्जा करने की नीयत की वजह से। ग्लोबल वार्मिंग ने आर्कटिक क्षेत्र की बर्फको बड़ी तेजी से पिघलाना शुरू कर दिया है। आर्कटिक ही वह क्षेत्र है जिसकी वजह से पृथ्वी पर पर्यावरणीय संतुलन कायम रहता था, लेकिन अब पृथ्वी का यह पर्यावरणीय संतुलन खतरे में है क्योंकि खुद आर्कटिक क्षेत्र खतरे में है। जैसे-जैसे यहां पर बर्फपिघल रही है, रूस, अमेरिका और चीन जैसे देशों की इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व जमाने की महत्त्वाकांक्षा बढ़ती जा रही है।

पिछले साल जब से अमेरिका के दूसरी बार राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बने हैं, तब से वह ग्रीनलैंड को लेकर काफी मुखर हैं। वह बार-बार इस बात को दोहराते रहे हैं कि ग्रीनलैंड उन्हें चाहिए। उनकी नजर ग्रीनलैंड पर दो कारणों से है। पहली तो यह है कि ग्रीनलैंड में प्राकृतिक संपदा बहुत है जिस पर कारोबारी राष्ट्रपति की बहुत पहले से ही निगाह है। दूसरा कारण आर्कटिक क्षेत्र में ग्रीनलैंड से सुदूर बना अमेरिकी सैन्य ठिकाना है। अमेरिका ने शीत युद्ध के दिनों में रूस से निपटने के लिए एक भारी भरकम सैन्य ठिकाना बनाया था जिसे कभी थुले कहा जाता था। अब इसका नाम बदलकर पिटुफिक बेस स्पेस कर दिया गया है। शीत युद्ध भले ही खत्म हो गया हो, लेकिन इस स्थान का सामरिक महत्व तो आज भी बना हुआ है। 

सामरिक महत्व के इस स्थान का अमेरिका अच्छी तरह उपयोग तभी कर सकता है, जब उसका ग्रीनलैंड पर प्रभाव हो या ग्रीनलैंड पर कब्जा हो। अबाधित आवागमन और हथियारों की आसान पहुंच के लिए जरूरी है कि अमेरिका के कब्जे में ग्रीनलैंड हो। अमेरिका की मंशा को ग्रीनलैंड सिरे से खारिज कर चुका है। कुल साठ हजार की आबादी वाले डेनमार्कके हिस्से ग्रीनलैंड पर ट्रंप की रुचि का कारण यह है कि यदि तीस-चालीस साल बाद आर्कटिक क्षेत्र क्षेत्र की बर्फपिघल गई, तो यहां से व्यापार का एक नया रूट खुल सकता है। इस क्षेत्र से अस्त्र-शस्त्र को किसी भी इलाके तक पहुंचाना आसान होगा।

पिछले कुछ वर्षों से भारत और चीन सहित दुनिया के कई देशों की दिलचस्पी आर्कटिक क्षेत्र में बढ़ी है। वैसे तो आर्कटिक क्षेत्र में आठ देशों कनाडा, ग्रीनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड, रूस और अमेरिका की हिस्सेदारी है। लेकिन सबसे बड़ा हिस्सेदार रूस है। बीस प्रतिशत आर्कटिक क्षेत्र उसके हिस्से में आता है। यदि निकट भविष्य में कई देश आर्कटिक क्षेत्र में अपने सैन्य अड्डे स्थापित करने की कोशिश करते हैं, तो सबसे ज्यादा प्रभाव रूस पर ही पड़ने वाला है।

भारत और चीन की सीमाएं आर्कटिक क्षेत्र से कहीं नहीं मिलती हैं। आर्कटिक क्षेत्र इन दोनों देशों से काफी दूर हैं, लेकिन इन दोनों देशों की दिलचस्पी का कारण यह है कि अनुमान लगाया जा रहा है कि आर्कटिक क्षेत्र में प्राकृतिक गैस और तेल का अकूत भंडार है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से यदि वहां की बर्फ पिघलती है, तो प्राकृतिक तेल और गैस में उसकी भी हिस्सेदारी होनी चाहिए। आर्कटिक क्षेत्र में भारत की सहायता कई मामलों में रूस भी कर रहा है।

प्राकृतिक तेल और गैस की बात यह छोड़ दें, तो भी आर्कटिक क्षेत्र में भारत, चीन, अमेरिका, रूस, ब्रिटेन जैसे देशों की बढ़ती रुचि का कारण रेयर अर्थ मैटेरियल है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण यदि इसी दर से आर्कटिक क्षेत्र की बर्फ पिघलती रही, तो वह दिन दूर नहीं जब रेयर अर्थ मैटेरियल के लिए दुनिया भर के धनी और दबंग देश अपना-अपना कब्जा जमाने के लिए टूट पड़ेंगे। वैसे तो दुनिया भर में जितना भी रेयर अर्थ मैटेरियल है, उसका अस्सी फीसदी चीन ही सप्लाई करता है। चीन पर निर्भरता कम करने के लिए अमेरिका, भारत और रूस जैसे देश कुछ भी कर सकते हैं। इसके चलते आर्कटिक क्षेत्र में हथियारों के होड़ की आशंका व्यक्त की जा रही है।

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