अशोक मिश्र
किसी स्थान पर एक गुरुकुल था। उस गुरुकुल में बहुत सारे छात्र अध्ययन करते थे। गुरु जी अपने शिष्यों को बहुत प्यार भी करते थे। उसी शिष्यों में से एक शिष्य ने अपने गुरु जी से एक सप्ताह का अवकाश मांगा, ताकि वह अपने माता-पिता से मिल सके। उसे अपने माता-पिता से मिले काफी समय बीत चुका था। अपने माता-पिता के स्वास्थ्य को लेकर भी वह चिंतित रहता था।
गुरुजी ने जब उसकी मंशा जानी तो उसे एक सप्ताह के लिए घर जाने की इजाजत दे दी। शिष्य अपने घर के रास्ते पर चल पड़ा। काफी दूर जाने पर उसे प्यास लगी। उसने रास्ते में एक कुआं मिला। उसने वहां रखी बाल्टी से कुएं से पानी निकाला। कुएं का पानी बहुत ठंडा और स्वादिष्ट था। पानी पीकर वह तृप्त हो गया। तभी उसे ख्याल आया कि यह स्वादिष्ट पानी गुरु जी को भी पिलाया जाए।
उसने कुएं से फिर एक बाल्टी पानी खींचा और मशक में भर लिया। मशक में पानी भरकर वह वापस आश्रम की ओर लौट पड़ा। उसने मशक लाकर गुरुजी के सामने रख दिया और कहा कि मशक में बहुत स्वादिष्ट और ठंडा पानी है। गुरुजी ने मशक से पानी लेकर पिया और प्रसन्न होकर बोले कि वाकई पानी बहुत ठंडा और स्वादिष्ट है। यह सुनकर शिष्य प्रसन्न हुआ और वापस अपने घर चला गया।
वहीं पर एक दूसरा शिष्य खड़ा था। उसने गुरुजी से पानी पीने को मांगा, तो गुरुजी ने मशक उसकी ओर बढ़ा दी। पानी पीने के बाद दूसरे शिष्य ने कहा कि पानी तो कड़वा है, गुरुजी। फिर भी उसकी आपने प्रशंसा की। गुरुजी ने कहा कि हां, पानी कड़वा है। जब उसने पानी पिया होगा, तो स्वादिष्ट भी रहा होगा। लेकिन लाते समय पानी खराब हो गया होगा या मशक गंदी रही होगी। मिठास पानी में नहीं थी, उसकी भावना में थी। इसलिए उसकी प्रशंसा की।
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