Tuesday, July 8, 2025

शंकर को तीसरा नेत्र खोलने पर मजबूर मत कीजिए

 अशोक मिश्र

हिमाचल प्रदेश का सराज विधान सभा क्षेत्र 30 जून और एक जुलाई की रात बादल फटने से हुई तबाही से त्रस्त है। एक ही रात में 14 बार बादल फटने की घटना कोई सामान्य नहीं है। बादल फटने से 14 लोगों की मौत हो गई और 31 लोग लापता हैं। यह लापता लोग अब लौटकर अपने परिजनों के पास आएंगे, इसकी संभावना कतई नहीं है। शासन-प्रशासन भले ही इन्हें अभी लापता माने, लेकिन परिजनों और दूसरे लोग इन्हें मृतक मान चुके हैं। भले ही भावनात्मक रूप से इनका मन ऐसा न मानने को विवश कर रहा हो। सड़कें, पेड़, दुकान, मकान और घरों में रखा सामान सब बह गया। सरकार बादल फटने से होने वाले नुकसान का अनुमान लगा रही है, लेकिन एक मोटा-मोटा अनुमान है कि पांच सौ करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हुआ होगा।

दो साल पहले यानी वर्ष 2023 में भी हिमाचल प्रदेश में मानसूनी बारिश ने कहर बरपाया था। कुल्लू,  मनाली और शिमला जैसे शहरों में मानसूनी बारिश ने पांच सौ लोगों की जान ले ली थी। बाद में सरकार ने बताया था कि दस हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हुआ था। वैसे पिछली बार की तरह लोगों को बचाने और उन्हें हर संभव सहायता मुहैया कराने की कोशिश हो रही है। एनडीआरएफ, एसडीआरएफ लोगों की जान बचाने की हर संभव प्रयास कर रहे हैं, पहले भी करते रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है? प्रकृति ने इतना रौद्र रूप क्यों धारण कर लिया है?

अपनी प्राकृतिक सुंदरता और शांत वातावरण के लिए दुनिया भर में मशहूर हिमालयी क्षेत्र पिछले कुछ दशकों से बार-बार चेतावनी क्यों दे रहे हैं? हम हैं कि प्रकृति की चेतावनी को सुनने या उस पर ध्यान देने की जगह अपनी ही धुन में मस्त हैं। हिमाचल, जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड, असम, त्रिपुरा जैसे पर्वतीय राज्यों में मानसून के दौरान होने वाले भूस्खलन, नदियों में आने वाली बाढ़ और ग्लेशियरों के आसपास बनी झीलों का एकाएक फटना, बताता है कि पर्वतीय क्षेत्रों को हमारा आधुनिक विकास का मॉडल पसंद नहीं आ रहा है। आज से सौ-पचास साल पहले पहाड़ों पर इस तरह की आपदाएं दशक-दो दशक में ही होती थीं। तब पर्वतीय राज्यों की आबादी कम हुआ करती थी, दूसरे राज्यों से भी लोगों का आवागमन आज के मुकाबले में बहुत ही कम हुआ करता था। पर्यावरणीय संतुलन बना रहता था।

लेकिन आज जिसे देखिए, वह पर्यटन और तीर्थाटन के नाम पर मुंह उठाए पर्वतीय राज्यों में दौड़ा चला जा रहा है। सरकार ने भी धार्मिक आस्था और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए पहाड़ों का सीना छलनी करके चौड़ी-चौड़ी सड़कें बना दी है। पेड़-पौधों को काट-छांटकर कहीं फोर लेन, तो कहीं सिक्स लेन सड़कों का निर्माण करा दिया गया है। इन सड़कों के निर्माण में भी पर्यावरणविदों और स्थानीय लोगों के सुझावों को दरकिनार करके सड़कों का निर्माण किया गया। डायनामाइनट लगाकर पहाड़ों को तोड़ा गया। रास्ते में आने वाले पेड़-पौधों को नेस्तनाबूत कर दिया गया। नतीजा यह हुआ कि जो पेड़-पौधे पहाड़ों को जकड़कर उन्हें मजबूती से थामे रहते थे, पर्यावरण को पहाड़ों के अनुकूल बनाए रखते थे। वह नहीं रहे। डायनामाइट ने पहाड़ों में दरार ही दरार पैदा कर दिए। नतीजा अब यह होता है कि जरा सी बारिश होने पर बड़ी-बड़ी  पहाड़ी चट्टानें भरभराकर गिर पड़ती हैं और कुछ लोगों को अपनी चपेट में ले लेती हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के असर से अब पहाड़ भी अछूते नहीं रहे। सरकारी और गैर सरकारी प्रोजेक्ट पहाड़ के वातावरण को मटियामेट कर रहे हैं। और यह सब कुछ हो रहा है पहाड़ों पर विकास के नाम पर। 16 और 17 जून 2013 को केदारनाथ में आई आपदा याद है न। उस समय लोक निर्माण विभाग उत्तराखंड द्वारा लगवाया गया एक बोर्ड काफी चर्चा में रहा था। उस पर लिखा था, ‘रौद्र रुद्र ब्रह्मांड प्रलयति, प्रलयति प्रलेयनाथ केदारनाथम।’ जो रुद्र अपने रौद्र रूप से यानी अपना तीसरा नेत्र खोलकर पूरे ब्रह्मांड को भस्म कर देने की सामर्थ्य रखते हैं, वही भगवान रुद्र यहां केदारनाथ नाम से निवास करते हैं। तो शंकर को तीसरा नेत्र खोलने पर मजबूर मत कीजिए।

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