अशोक मिश्र
संत बयाजीद बस्तामी का जन्म 804 ईस्वी में ईरान के बस्तम में हुआ था। वह फारस के एक नामी सूफी संत थे। उनका मानना था कि भक्त का परम लक्ष्य ईश्वर में विलीन होना है, और इस प्रक्रिया में, भक्त अपनी व्यक्तिगत पहचान खो देता है, लेकिन ईश्वर के साथ एकता प्राप्त करता है। संत बयाजीद बस्तामी को सूफी संतों में ऊंचा दर्जा हासिल है।
बयाजीद के दादा सेरूशान एक पारसी थे जिन्होंने अपना धर्म बदलकर इस्लाम कुबूल कर लिया था। वैसे तो बस्तामी के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है, लेकिन जो जानकारी मिलती है, उसके मुताबिक यह घुमक्कड़ स्वभाव के थे। बस्तामी की कब्र बांग्लादेश के चटगांव में बताई जाती है, लेकिन इनके बारे में जो कुछ भी ज्ञात है, उसके मुताबिक यह बंगाल कभी नहीं आए थे।
बस्तामी के बारे में एक बड़ी रोचक कथा कही जाती है। जब बस्तामी ने गुरु से शिक्षा लेनी चाही, तो यह गुरु के आश्रम में पहुंचे। गुरु ने इनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। लेकिन बस्तामी ने आश्रम नहीं छोड़ा। एक साल बात गुरु ने पूछा, कैसे आए हो? उन्होंने जवाब दिया कि आप जानते हैं गुरु जी। इसके बाद गुरुजी ने फिर मौन साध लिया। एक साल बाद पूछा कि कुछ करना चाहते हो? बस्तामी ने जवाब दिया-आपके आदेश का इंतजार कर रहा हूं। जो आप कहें। गुरु ने कुछ कहने की जगह मौन साध लिया।
तीसरे साल में गुरु ने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा कि जाओ बायजीद, तुम्हें जो हासिल करना था, वह तुमने हासिल कर लिया। तुम्हें तुम्हारी मंजिल मिल गई है। गुरु की बात सुनकर लोग चकित रह गए। लोगों को समझाते हुए गुरु ने कहा कि बायजीद ने साधना नहीं की, बल्कि वह खुद साधना बन गया। इसने अपने अहंकार मिटा दिया, तो इसके परमात्मा मिल गए। यह सुनकर लोग काफी आश्चर्यचकित रह गए।
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