Wednesday, June 18, 2025

किसी को भी सजा नहीं दिलाना चाहता

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

संत प्रवृत्ति के लोग किसी को दंड देने के हिमायती नहीं होते हैं। वह किसी का भी बुरा नहीं चाहते हैं। भले ही कुछ दुष्ट प्रवृत्ति के लोग उन्हें कष्ट देते रहते हों। संतों का यही स्वभाव उन्हें दूसरे लोगों से अलग करता है। किसी गांव में एक संत रहते थे। वह अपनी जरूरत भर का अन्न उपजाते थे। थोड़ा बहुत जो इधर-उधर से मिल जाता था, उसी से अपना काम चलाते थे। वह लोगों को नेकी की राह पर चलने की सलाह दिया करते थे। 

यदि किसी को कोई जरूरत पड़ जाती थी, तो वह अपनी क्षमता भर लोगों की मदद करने से भी नहीं चूकते थे। संत की इस प्रवृत्ति को देखते हुए लोग उन्हें तपस्वी कहकर बुलाते थे। हालांकि संत लोगों से कहा करते थे कि मैं कोई तपस्वी नहीं हूं। मैं भी आप लोगों की तरह एक साधारण इंसान ही हूं। इन्हीं लोगों में कुछ लोग ऐसे भी थे, जो संत से अकारण ही ईर्ष्या करते थे।


रात में यह लोग कंकड़ पत्थर और विभिन्न प्रकार के नुकीले कांटे वाले पौधे लाकर संत की कुटिया के आगे बिखेर देते थे। संत रोज सुबह उठते और उन कंकड़ पत्थरों और कांटों को बटोरकर दूर फेंक आया करते थे। यह क्रम लगभग रोज चलता था। लेकिन संत इस बात की किसी से शिकायत भी नहीं करते थे। एक दिन यह बात संत के एक दोस्त को पता चली तो वह इस मामले को पंचायत में ले गया। पंचायत ने संत से पूछा कि ऐसे लोगों को क्या दंड दिया जाए। 

संत ने कहा कि मैं किसी को दंड नहीं दिलाना चाहता हूं। पंचायत ने कहा कि आप कब तक यह सहते रहेंगे? संत ने कहा कि जब तक उन लोगों के पत्थर दिल पिघल नहीं जाते हैं। पंचायत में वे लोग भी बैठे हुए थे, जो दुष्टता करते थे। यह सुनकर उनके सिर शर्म से झुक गए। उस दिनों से उन्होंने ऐसा करना छोड़ दिया और संत के शिष्य बन गए।

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